हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के सवालों पर आए दिन बहस होती रहती है। आधुनिकता की शुरूआत 'अन्य' या विकल्प के उत्पादन से हुई है। आज 'अन्य' को मारने,हत्या करने,,वंचित करने या उसका शोषण करने या सामना करने की जरूरत नहीं है। उससे घृणा,प्रतिस्पर्धा,प्रेम करने की भी जरूरत नहीं है। आज की चुनौती है कि 'अदर' या 'अन्य' को पैदा किया जाय। अब 'अन्य' पेशन की वस्तु नहीं रह गया है।बल्कि उत्पादन की वस्तु बन गया है। पूंजीवाद के बिना आधुनिकता का उदय नहीं होता,व्यक्तिगत मूल्यों और व्यक्तिवाद का उदय नहीं होता ,अतः आधुनिकता पर कोई भी बहस पूंजीवाद को दरकिनार करके संभव नहीं है। आधुनिकता मूलतः पूंजीवादी प्रकल्प का हिस्सा है। आधुनिकता के उदय के साथ अन्य या हाशिए के लोगों के सवाल,स्त्री,मुसलमान,आदिवासी आदि के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। आधुनिकता इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि वह अन्य को या हाशिए के लोगों के सवालों को केन्द्र में ले आ जाती है। हाशिए के लोगों पर प्रतीकात्मक हमले तेज हो जाते हैं। 'अन्य' के भविष्य को लेकर हमारा कोई अनुभव नहीं था,अत: 'अन्य' की हमने 'भिन्न' या 'डिफरेंस' के रूप में खोज की। साहित्य से लेकर मासकल्चर तक अन्य के प्रति हमारे सरोकार शरीर,सेक्स और सामाजिक संबंधों की तलाश में व्यक्त हुए।इसके बहाने हम उसके भवितव्य से पलायन कर गए।हमने उसके शरीर,उसके सेक्स,उसके 'अन्यत्व' को ही भवितव्य बना डाला।शरीर को सेक्स की वस्तु बना दिया।इसी के क्रम में लिंगभेद सामने आया।प्रत्येक लिंग का अपना शारीरिक वैशिष्टय होता है।विशिष्ट मानसिक गठन होता है।उसकी अपनी इच्छाएं होती हैं।इसके कारण अघटित घटनाएं सामने आती हैं।जिनमें इच्छा और सेक्स की विचारधारा भी शामिल है।सेक्सुअल डिफरेंस का यूटोपिया, प्रकृति और कानून के आधार पर खड़ा किया गया।किंतु इन दोनों का कोई अर्थ ही नहीं था।क्योंकि ये दोनों इच्छाओं को फुसलाते थे।इच्छाओं के बारे में सवाल पैदा नहीं करते थे।बल्कि उनसे खेलते थे।ऐसे में दो लिंगों के बीच समानता का सवाल भी कहां उठता है।इनमें परस्पर विनिमय था।प्रत्येक की भिन्नता और अलगाव में विनिमय था।किंतु वैकल्पिकता और 'अन्यत्व' में फुसलाने का तत्व उन्माद की हद तक पहुँच गया।क्योंकि कभी किसी भी लिंग ने अपनी कामुकता को अन्य तक नहीं पहुँचाया है।अत: दूरी तय कर दी गई।'अन्य' या 'भिन्नता' को स्पर्श ही नहीं किया गया।यह भ्रम की महान अवस्था है जब हम इच्छाओं से खेल रहे थे।इस प्रक्रिया में हमने क्या पैदा किया ?हमने मर्दानगी के उन्माद को जन्म दिया।कामुकता के पैराडाइम को बदल दिया।बदले हुए पैराडाइम ने नए सिरे से सामान्य और सार्वभौम संदर्भों में 'अन्यत्व'के पैराडाइम को बदला।
उन्माद के दौर में पुरूष के अंदर छिपी नारी की छवि को स्त्री के मन में उतारा।स्त्री के आदर्श शरीर के रूप में इसको प्रतिष्ठित किया।अब रोमांटिक प्यार स्त्री के दिल को जीतना नहीं था।उसे फुसलाना नहीं था।बल्कि उसके अंदर एक यूटोपिया को निर्मित किया गया। आदर्श नारी की छवि पैदा की गई। देवी,दुर्गा,सरस्वती,काली आदि रूपकों के माध्यम से अति-प्राकृतिक छवि निर्मित की गई।हमारे नव-जागरण काल में ऐसे लेखन की भरमार है। इसे ही सद्भाव के आदर्श रूप में पेश किया गया।अब ऐसे रूप सामने आए जो प्यार के तत्व से दूर थे।हम यह भी कह सकते हैं कि वे आदर्श से भी दूर थे।इसी के गर्भ से फुसलाने का दोमुँहापन सामने आया।इसे कारण कामुकता के पूरे तंत्र में बदलाव आया।उसका अर्थ और दिशाएं बदल गईं।क्योंकि कामुक आकर्षण 'अन्यत्व' से आ रहा था।अन्य के पागलपन ने एक जैसे या तुलानात्मक रूप में समान के रूप में अभिव्यक्ति पाई।अब हम अन्य की नजर से अपने को देखने लगे।स्वयं को अन्य की नजर से देखने का दुष्परिणाम यह हुआ कि हमने 'अन्य' से अपने को अलगा लिया।अब'अन्य' और 'मैं' में अंतर नहीं रह गया।यही वजह है कि रोमांटिक प्यार और उसके सारे बाई प्रोडक्ट अंतत: मौत की शरण लेते हैं।क्योंकि कामुकता अगम्यागमन और भवितव्य को पा लेती है।इसी आधुनिकता के दौर में 'फेमिनिटी' या स्त्रीत्व का जन्म होता है,जो स्त्री को 'सुपरफ्लुअस' बना देती है।'डिफरेंस' का उदय स्वयं में उस दोमुँहेपन से ध्यान हटाने वाली चीज है। बौद्रिलार्द ने लिखा है कि फेमिनिज्म वस्तुत: मर्दानगी का उन्मादभरा कथन है।स्त्रियां जिस उन्मादभरे ढ़ंग से मर्दानगी को देख रही हैं।मर्द भी उन्मादित ढ़ंग से स्त्रियों को देख रहे हैं। फलतः हमें स्त्री के 'अन्यत्व' को भिन्न तरीके से देखना होगा।स्त्रियों के बारे में विकल्पबोध पैदा करना होगा।स्त्री के असली रूप को सामने लाना होगा।वह पुरूष के मन की इच्छित छवि नहीं है।बल्कि उसकी अलग दुनिया है।हमें स्त्रियों के अंदर भी विकल्प खोजने होंगे।स्त्री की एक जमाना था।'अन्य' के रूप में जरूरत थी।सामाजिक उत्पादक के रूप में जरूरत थी।हम यह मानते थे कि स्त्री नहीं होगी तो संसार नहीं बसेगा।किंतु आज स्थितियां दल गई हैं।जिस तरह 'क्लोन' की खोज हुई है।उसमें पैदा करने के लिए स्त्री की जरूरत ही नहीं होगी।स्त्री की सेक्सुअल भूमिका एकदम अप्रासंगिक हो गई है। आज पुनरूत्पादन के लिए सेक्सुएलिटी एकदम अप्रासंगिक हो गई।इस परिघटना ने हमारे समूचे चिन्तन में भारी परिवर्तन करने शुरू कर दिए हैं।हमने जिस स्त्री की खोज की थी।अपने अनुकूल ढाला था।वह अब अप्रासंगिक हो गई है।हम यह भी कह सकते हैं कि असली औरत गुम हो गई है।अभी तक हमारे बीच में 'भिन्नता' या 'अन्यत्व' के जितने भी तर्क थे वे सब बेमानी हो गए हैं।ये सारे तर्क हमने पुरूष संदर्भ और पुरूष के प्रति आक्रोश के क्रम में निर्मित किए थे। बदली हुई स्थितियों में हमें विचारधारा और स्त्रीवाद के सभी वैचारिक सवालों पर नए सिरे से विचार करना होगा।आज स्त्री अपनी वास्तव इमेज को प्रस्तुत नहीं कर पा रही है।हम स्त्री की अनुमानित इमेजों के आधार पर भूमिका तय कर रहे हैं।इसी क्रम में लिंग और मर्दानगी के वैशिष्टय पर भी हमें नए ढ़ंग से सोचना होगा।विज्ञान की नई खोजों ने स्त्री के वैशिष्टय और भिन्नता को पूरी तरह खत्म कर दिया है।अब लिंगभेद समस्या नहीं रह गई है।बड़े पैमाने पर कामुक रूपान्तरण हो रहा है।मर्दानगी की इच्छाओं के सामने समस्याएं आ खड़ी हुई हैं।यह युग ट्रांससेक्सुअलिज्म का है।जबकि हमारे सारे संघर्ष लिंगभेद पर टिके रहे हैं।असली कामुकता और असली 'अदरनेस' का अब लोप होने वाला है। पुरूष के उन्माद और स्त्री के उन्माद के बीच सफलतापूर्वक सम्मिलन हो चुका है।यहां तक कि शरीरों का भी सम्मिलन हो चुका है।आज 'निज' का 'अन्य' में समावेश हो चुका है।'मैं' और 'अन्य' का भेद खत्म हो चुका है।आज 'अन्यत्व' का कोई भवितव्य हम नहीं जानते।हम इस भवितव्य के बारे में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। शरीर,सेक्स,बीमारी,मृत्यु,अस्मिता आदि में निरंतर बदलाव आ रहा है।इस परिवर्तन को लेकर आप कुछ भी नहीं कर सकते।यही भवितव्य है।आज व्यक्ति की इच्छा,लुक,हाव- भाव, इमेज आदि सभी में प्लास्टिक सर्जरी का इस्तेमाल हो रहा है।यदि हम अपना शरीर पराया लग रहा है।हम इसकी प्लास्टिक सर्जरी करा सकते हैं।संतोष प्राप्त कर सकते हैं।परिवर्तन करा सकते हैं।इसे आइडियल ऑब्जेक्ट बना सकते है।चुस्त-दुरूस्त बना सकते हैं।शरीर के प्रति आकर्षण,शरीर की चाह अंतत: अन्य का अस्तित्व ही खत्म कर देती है।आज प्रामाणिक संस्कृति की जगह छद्म प्रामाणिकता ने ले ली है।स्वाभाविक संबंधों की जगह 'अन्य' के प्रति कृत्रिम संबंध आ गए हैं।आज सभी अलगाव की बात कर रहे हैं।खासकर 'अन्य' के साथ अलगाव की बातें ज्यादा हो रही हैं।सच यह है कि हमने 'अन्य' पर अलगाव थोपा है।इसके कारण हम 'अन्य' की मौजूदगी के बिना 'अन्य' को पैदा कर लेते हैं।यह सब हम अपनी इमेज और पहचान के आधार पर कर रहे हैं।आज हमारी जो आलोचना हो रही है वह अलगाव के कारण नहीं हो रही।आज हम अपनी इमेज की निन्दा कर रहे हैं।सच यह है कि 'अन्य' गुम हो गया है।अलगाव खत्म हो गया है। आभासी जगत में भी अन्य गायब हो गया है।यह सबसे बड़ी दुर्घटना है।आज प्रत्येक क्षेत्र में प्लास्टिक सर्जरी का साम्राज्य है।आज इसके जरिए सब कुछ बदल सकते हैं।शरीर और चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी तो अदरनेस और भवितव्य का एक छोटा पक्ष है।सवाल उठता है कि क्या करें ? देखिए किसी भी किस्म का कामुकता का आंदोलन इसका समाधान नहीं है। कामुकता के प्रति आकर्षण भी इसका समाधान नहीं है। अन्य का अस्वीकार और उसके भवितव्य का अस्वीकार भी इसका समाधान नहीं है।अन्य को फुसलाने से इसकी मुक्ति संभव नहीं है।फुसलाने को मुक्ति समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।हमें अपने शरीर,प्रकृति, स्त्रीत्व, अन्यत्व,स्व के प्रति असंतोष को बनाए रखना चाहिए।इस असंतोष में ही आकर्षण है।यहीं से हमारी मुक्ति और परिवर्तन की जंग शुरू होती है।प्लास्टिक सर्जरी अन्य की मुक्ति का मार्ग नहीं है।बल्कि भ्रम है। असल में सूचना हाइवे या सूचना समाज एक रूपक है।इसमें तीव्रगामी स्पीड,मोशन और डायरेक्शन संभव है।एक मर्तबा रोलां बार्थ ने लिखा था कि,जब हम ड्राइवर / दर्शक की नजर से इमेजों को देखते हैं तब हमारे सहज मोशन दृश्य अनुभव में बदलते हैं। ऐसे में में इमेजों का रूपान्तरण करते है। वास्तव जगत का नहीं।साइबर स्पेस जो मिथ्याभास पैदा करता है वह स्क्रीन के परे होता है। यहां वास्तव जगत का कोई संदर्भ नहीं होता। सब कुछ अवास्तविक,काल्पनिक,इमेजरी होता है।यह गहराई रहित सतह है।बौद्रिलार्द्र के शब्दों में यह यथार्थ का सैटेलाइजेशन है।जिसे हाईपर रियलिटी की तेज गति से पलायन करके उपलब्ब्ध किया जाता है।यह ऐसी दुनिया है जहां रूपक और इमेज के बीच किसी खेल की अनुमति नहीं है।यहां मेटाफर का परिवर्तन के लिए इस्तेमाल नहीं हो रहा।अपितु मिथ्याभास की दुनिया में भ्रमण के लिए तरह-तरह के रूपकों का इस्तेमाल हो रहा है।हाईपर रियलिटी के रूपकों की इमेजों में हम विचरण करते हैं।पॉल विरलियो के शब्दों में कम्प्यूटर अथवा टेलीकम्युनिकेशन आखिरी वाहन है,जो हमारे सभी तरह के टोपोलॉजिकल या संस्थिति विज्ञान संबंधी सरोकारों से मुक्त कर देता है।मोशन,स्पीड,एवं पर्यटन अपना असली अर्थ खो देते हैं। यह अपनी शक्ति मिथ्याभास से अर्जित करता है।आभासी जगत की जगह गतिमान जगत आ जाता है।यह भी कह सकते हैं कि वास्तव की जगह गतिमान(काईनेटिक) ऊर्जा जन्म ले लेती है।साइबर ट्रेवल के नामपर हम जिस दुनिया में भ्रमण करते हैं वह रूपकों की दुनिया है,यह कम्प्यूटर स्क्रीन के परे है।आज 'ग्लोब' का अर्थ 'विश्व' नहीं रह गया है।क्योंकि वह अब 'वर्ल्ड' मात्र रह गया है।यदि इस परिप्रेक्ष्य में मीडिया इमेजों और इंटरनेट के बारे में विचार किया जाए तो पाएंगे कि साइबरमेटिक वर्ल्ड के 'स्पेस' के जितने भी तर्क हैं वे जगत से जुड़े नहीं हैं।वे ऐसे जगत से वचित कर देता है जिसे देखा जा सकता था,महसूस किया जा सकता था,जो पारदर्शी था,तत्क्षण उपलब्घ था।टैक्नोलॉजी का यह कार्य था कि वह दूरियां कम करे।किंतु इसने तो दूरी की अवधारणा को ही खत्म कर दिया।इसने स्पेस और टाइम को खत्म कर दिया।आज वह निरंतर किसी न किसी विषय का खास समय और स्थान के संदर्भ से अपहरण कर रही है। कम्प्यूटर स्क्रीन तो आभासी है।इसे भरा नहीं जा सकता।इसका अतिक्रमण भी नहीं कर सकते।आप इसमें मीडिया के जरिए सर्कुलेट कर सकते हैं।वास्तव दूरी का विस्फोट की तरह गायब हो जाना असल में इसे पानेकी हमारी चुनौतियों को बढ़ा देता है।स्थान और दूरी के अंतराल को शरीर से नहीं भरा जा सकता।अपितु स्वयं की आभासी यात्राओं से ही भर सकते हैं। आभासी संसार वास्तव नहीं होता।इस संसार की शुरूआत सभी किस्म के संदर्भों के खात्मे से होती है। यहां संकेतों की कृत्रिम दुनिया का बोलवाला है।संकेतों की दुनिया में अर्थ सबसे ज्यादा अस्थिर होता है।वहां अर्थ से ज्यादा वस्तु का महत्व होता है।यहां व्यवस्थाएं बराबर हैं।यहां सभी विरोधाभासी चीजें,धारणाएं भी बराबर हैं।
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Mahatwapurna aalekh. Dhanywad.
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