पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चे को मिली चुनावी हार के बाद लगभग वही माहौल है जैसा 1991 में सोवियत यूनियन के विघटन के बाद था. वाम-विरोधियों के उत्साह का ठिकाना नहीं है. उनकी राय में अब वामपंथी राजनीति को ऐसी पटखनी मिल गयी है कि उसका फिर से उठना मुश्किल है. उधर वामपंथी, विशेषकर मार्क्सवादी, यह दिखाने में लगे हैं मानों कुछ हुआ ही न हो. हम हार गए तो क्या, हमें 41 प्रतिशत वोट नहीं मिले क्या? क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारा जनाधार बरकरार है? हमारी हार तो सबको दीख रही है, पर जनाधार नहीं दीख रहा. ठीक है, कुछ गलतियां हुई हैं, लेकिन हमारी पार्टी में इतनी शक्ति है, हमारे यहाँ इतना आतंरिक लोकतंत्र है कि हम इन्हें दूर कर लेंगे.
लेकिन क्या चुनाव परिणामों की समीक्षा करने भर से यह सब हो जाएगा? क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को कुछ अधिक बुनियादी सवालों पर विचार करने की ज़रुरत नहीं है? क्या उन्हें इस सवाल पर नहीं सोचना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर लेनिनवादी पार्टी संगठन की संगति बैठती है या नहीं? दूसरे, क्या वह अब उपयोगी भी रह गया है या नहीं? चुनाव परिणाम आने के दो दिन बाद ही एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलितब्यूरो की सदस्य बृंदा कारत ने माओ की उक्ति को याद करते हुए कहा कि पार्टी सदस्यों को जनता के बीच इस तरह रहना चाहिए जैसे नदी के जल में मछली रहती है. आशा है कि उनकी पार्टी केवल चुनाव परिणामों की ही नहीं, अपने पिछले तीन दशकों के कामकाज की भी समीक्षा करेगी और देखेगी कि उसके कार्यकर्ता जनता के बीच जल में मछली की तरह रह रहे थे या मगरमच्छ की तरह.
दरअसल कम्युनिस्ट विचारपद्धति की सबसे बड़ी खामी यह है कि कम्युनिस्टों को अभिव्यक्ति और राजनीतिक कर्म की स्वतंत्रता सिर्फ अपने लिए चाहिए. यानी जब वे सत्ता के विरोध में हों. लेकिन स्वयं सत्ता में आने के बाद वे ये स्वतंत्रताएं दूसरों को नहीं देना चाहते. जैसा कि लेनिन ने पार्टी संगठन के अपने सिद्धांतों में स्पष्ट कर दिया था, स्वतंत्रता भी पार्टी हित के अधीन है. चूंकि पार्टी हित और क्रान्ति के हित में कोई फर्क नहीं है, इसलिए क्रान्ति के हित को ध्यान में रखते हुए सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं को पार्टी हित के दायरे में ही देखा जाना चाहिए. सीपीआई हो या सीपीएम, क्रांति के लिए काम करने का दावा किसी ने भी नहीं छोड़ा है. यह एक अजीब विसंगति है कि पिछले छह दशकों से संसदीय व्यवस्था के भीतर काम करने और संविधान के दायरे में राज्य सरकारें चलाने के बावजूद दोनों पार्टियों का दावा है कि वे भारत में क्रान्ति लाने के लिए संघर्षरत हैं.
हर चीज़ को पार्टी हित के अधीन करने की लेनिनवादी धारणा का ही नतीजा था कि चौंतीस वर्षों के वामपंथी शासन के दौरान पश्चिम बंगाल में नौकरशाही और सीपीएम के पार्टी संगठन के बीच का फर्क लगभग समाप्त हो गया. पार्टी की स्थानीय कमिटियाँ जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगीं. हर स्तर पर छोटे-छोटे तानाशाह पनपने लगे. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनाव मज़ाक बन कर रह गए क्योंकि उनमें अक्सर पदाधिकारी और कार्यकारिणी के सदस्य निर्विरोध चुने जाने लगे. विरोध करने वालों को सबक सिखाया जाने लगा. अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और आतंक के ज़रिये बात मनवाने की प्रवृत्ति जड़ पकड़ने लगी. जो लोग समझते हैं कि पश्चिम बंगाल में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और यदि सिंगूर तथा नंदीग्राम की घटनाएं न हुई होतीं तो राज्य में सत्ता-परिवर्तन नहीं होता, वे खासी ग़लतफ़हमी में हैं. लोगों के भीतर आक्रोश की आग बहुत समय से धधक रही थी. सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं से वह बाहर आ गयी.
वाम मोर्चे की सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि थी भूमि सुधार. लेकिन ये भूमि सुधार उसके कार्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में ही हो गए थे. इनके कारण जीवन में क्या परिवर्तन आया था, इसका अहसास पुरानी पीढ़ी के किसानों को तो था, लेकिन जो किसान आज तीस वर्ष का है उसे नहीं, क्योंकि उसने तो आँख खोलते ही दुनिया को वैसा ही पाया था जैसी वह आज है. इसलिए उसके मन में वाम मोर्चा सरकार के लिए किसी प्रकार की कृतज्ञता नहीं है. वह तो यह देख रहा है कि उसके जीवन को बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा. टीवी और इंटरनेट के इस युग में केवल शहर में रहने वालों की ही आशाएं-आकांक्षाएं नहीं बढ़ी हैं, गाँव वालों के भी सपनों में भी बदलाव आया है. ऐसे में वे यथास्थिति से संतुष्ट रहने वाले नहीं.
वाम मोर्चा सरकार ने बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर भी ध्यान नहीं दिया जो अपने आप में विस्मयकारी बात है. पश्चिम बंगाल में उसकी एक अन्य बहुत बड़ी उपलब्धि यह भी रही कि राज्य को उसने साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्त रखा. लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जिसके लिए राज्य के मुसलमान अल्पसंख्यक उसका शुक्रिया अदा करें. तसलीमा नसरीन को राज्य से खदेड़ कर सरकार ने सोचा कि वह मुसलमानों को रिझा सकेगी, लेकिन इससे केवल उनके बीच पनपने वाले इसलामवादी तत्वों को ही बल मिला. उधर रिजवानुल हक वाले मामले में स्पष्ट हो गया कि राज्य सरकार और प्रशासन एक धनी हिन्दू का पक्ष ले रहे हैं. अल्पसंख्यक वोट इसके बाद भी वाम मोर्चे के पक्ष में कैसे पड़ता?उधर केरल में सीपीएम के अनुशासन की धज्जियां उड़ गयीं. वहां की राज्य इकाई में वी एस अच्युतानंदन और पिनाराई विजयन के दो गुट हैं जो एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देख सकते. केंद्रीय नेतृत्व ने विजयन गुट की तरफदारी करते हुए पांच साल से मुख्यमंत्री के रूप में काम कर रहे अच्युतानंदन के खिलाफ चुनाव से ऐन पहले अविश्वास व्यक्त कर दिया और उनका टिकट काट दिया. जब पार्टी में ज़बरदस्त विरोध हुआ तो ठेठ अवसरवादिता का परिचय देते हुए उन्हें टिकट दे दिया. वहां हालत यह है कि विजयन की छवि एक उदारवादी लेकिन भ्रष्ट नेता की है तो अच्युतानंदन की छवि स्तालिनवादी किन्तु ईमानदार नेता की।
चुनाव परिणामों के विश्लेषण से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा अपनी वर्तमान स्थिति का आकलन और विश्लेषण. सीपीएम ने 1978 में सल्किया प्लेनम आयोजित करके वहां हुए विचार-विमर्श के बाद तय किया था कि अब उसकी प्राथमिकता हिंदी प्रदेशों में पार्टी के विस्तार की होगी. यह प्लेनम पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के नेतृत्व वाली सरकार के गठन के एक साल बाद हुआ था. इसके बाद ही पार्टी का मुख्यालय कोलकाता से दिल्ली लाया गया. शुरू के एक-दो साल ज्योति बसु ने भी दिल्ली और हिंदी राज्यों के कुछ शहरों में जाकर जनसभाएं संबोधित कीं लेकिन फिर उनका उत्साह ठंडा पड़ गया और वह अपने राज्य में ही उलझ कर रह गए. उस समय सीपीएम पंजाब में काफ़ी मजबूत थी. उत्तर प्रदेश के भी कुछ हिस्सों में उसका अच्छा-खासा असर था. अन्य हिंदी प्रदेशों में भी उसकी थोड़ी-बहुत उपस्थिति थी. लेकिन आज क्या स्थिति है? आज वह हिंदी प्रदेशों से लगभग गायब हो चली है. सीपीआई की हालत भी ऐसी ही है. इसके बावजूद वर्ष 2008 में, जब सीपीएम की अगुवाई में वाम दलों ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस लिया था, वाम दलों का राष्ट्रीय राजनीति में अच्छा-खासा प्रभाव था. इस स्थिति में लौटने में अब उन्हें बहुत समय लगेगा.
सीपीएम के केरल और पश्चिम बंगाल के नेता अपने राज्यों में ही सीमित रहे. केंद्रीय नेतृत्व उन्होंने उन लोगों को सौंप दिया जिनका ज़मीनी आधार नहीं है. व्यक्ति के रूप में ये नेता बहुत प्रतिभाशाली, कर्मठ और सक्षम हो सकते हैं, लेकिन जनता की नब्ज़ पर इनकी उंगली कभी नहीं रही. अब इन राज्यों के नेताओं के सामने दो विकल्प हैं. या तो वे अपने-आपको अपने राज्य में पार्टी को मजबूत बनाने के प्रयास में पूरी तरह से झोंक दें, या फिर केंद्रीय नेतृत्व की ओर भी ध्यान दें. सीपीएम महासचिव प्रकाश कारत ने पिछले दिनों एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में बहुत भोलेपन के साथ कहा है कि पार्टी महासचिव पोलितब्यूरो सदस्यों में से एक होता है और वह सिर्फ पार्टी का प्रवक्ता है. वरना उसमें और दूसरों में कोई फर्क नहीं. लेकिन कम्युनिष पार्टियों के कामकाज से परिचित लोग जानते हैं कि वास्तविकता इससे बिलकुल भिन्न है. पार्टी महासचिव के पद का इस्तेमाल करके ही स्टालिन ने सोवियत संघ में अपना वर्चस्व कायम किया था. महासचिव के हाथ में संगठन के सारे सूत्र होंते हैं. वह पार्टी का ही नहीं, उसके द्वारा लागू की जा रही राजनीतिक लाइन का भी प्रतिनिधित्व करता है. किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी में यह नहीं हुआ कि पार्टी की लाइन बदल जाए पर महासचिव वही रहे. सीपीएम के इतिहास में ही इसके उदाहरण मिल जायेंगे. क्या पी. सुन्दरैया को लोग भूल गए हैं?एक बात वाम-विरोधियों को भी याद रखनी चाहिए. जब तक समाज में शोषण, भूख, गरीबी और बेरोज़गारी है, वाम राजनीति की प्रासंगिकता बनी रहेगी. उस वाम राजनीति की बागडोर सीपीआई या सीपीएम या माओवादियों के हाथ में ही हो, ऐसा भी ज़रूरी नहीं है. वक़्त की ज़रुरत के मुताबिक़ जनता अपने संघर्ष के हथियार तैयार कर लेती है. लेकिन शोषण और उत्पीडन के खिलाफ संघर्ष कभी भी बंद नहीं होता. उसकी धार कभी तेज़ और कभी कुंद अवश्य हो सकती है. इन दिनों मनमोहन सिंह की सरकार जिस तरह की नव-उदारवादी नीतियाँ अपना रही है, वे केवल अमीरों के प्रति उदार हैं. आम आदमी से उन्हें कोई सरोकार नहीं. ऐसे में वाम राजनीति के लिए स्वयं के पुनराविष्कार का सुनहरी मौक़ा है. देश में उसका प्रभाव तभी फ़ैल सकता है जब आम आदमी अपने जीवन में उसकी उपस्थिति की ज़रुरत महसूस करे और उसके माध्यम से अपने सपनों के साकार होने की संभावना देखे. वाम दल अपनी चुनावी पराजय से सबक सीख कर आगे बढ़ेंगे, तभी राष्ट्रीय राजनीति में सार्थक हस्तक्षेप कर सकेंगे.
( 22 मई के जनसत्ता में प्रकाशित ,जनसत्ता से साभार)
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