गुरुवार, 26 मई 2011

मनमोहिनी ममता और मीडिया


     मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य की कमान संभाल ली है। वह कोशिश में है कि सभी वर्गों और समूहों की इच्छाओं का ख्याल रखा जाए और इसी दबाब में मंत्रीमंडल की पहली बैठक में 30 मिनट में 18 फैसले कर डाले। यह मनमोहिनी प्रशासनिक कार्यप्रणाली का नमूना है। इसी क्रम में वे अपनी गतिविधियों को खबरों के प्रवाह के रूप में  बनाए रखना चाहती हैं। फलतःप्रशासन और मीडिया के बीच में एक नया संबंध जन्म ले रहा है। अब तक पश्चिम बंगाल में राज्य प्रशासन और मीडिया आमने-सामने थे। पहलीबार मीडिया और राज्य सरकार एक ही धुन में बज रहे हैं। यह मीडिया के लिए खतरे की घंटी है। मीडिया को सरकार और जनता के बीच क्रिटिकल सेतु होना चाहिए। उल्लेखनीय है ममता बनर्जी की जीत के कवरेज में मीडिया ने आम जनता के आनंद को ज्यादा उभारा है। ममता बनर्जी की जीत के राजनीतिक पक्ष पर कम जोर दिया है । जबकि ममता बनर्जी की विजय में राजनीति की बड़ी भूमिका है,इच्छाओं की कम। लेकिन बाजार में मीडिया की प्रतिस्पर्धा राजनीति के साथ कम और इच्छाओं के साथ ज्यादा खेल रही है। भारत में उदार लोकतंत्र है और इसकी विशेषता है सहमति। यहां कहने को सहमति के आधार फैसले होते हैं लेकिन लोकतंत्र में सहमति से भी बड़ी चीज है असहमति। मीडिया पिछले 35 सालों से वाम मोर्चे के शासन के साथ असहमति बनाकर अपने स्पेस का विस्तार करता रहा है। असहमति के कारण ही उसकी एक साख  है। लेकिन ममता बनर्जी की जीत ने सारी स्थितियां उलट दी हैं। कल तक मीडिया और ममता विपक्ष में थे,लेकिन आज ममता सत्ता में है। क्या मीडिया भी सत्ता के साथ रहना पसंद करेगा ? ममता के प्रशासन की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए उदार लोकतंत्र का व्यापक विकास किया जाए। वाम मोर्चा के शासन में राज्य में उदार लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ा है। लोकतांत्रिकीकरण के नाम पर सामाजिक नियंत्रण और पार्टी नियंत्रण बढ़ा था। ममता प्रशासन को इसे तोड़ना होगा। इसके जेनुइन विकल्प के रूप में 'तथ्य' और 'ज्ञान' को आम जनता का अस्त्र बनाना होगा। उदार लोकतंत्र के विकास के लिए ये दोनों बेहद जरूरी तत्व हैं। ये दोनों तत्व वामशासन में सबसे ज्यादा क्षतिग्रस्त हुए हैं। शिक्षा से लेकर राजनीति तक इन दोनों तत्वों का क्षय हुआ है। 'तथ्य' और 'ज्ञान' को सामाजिक-राजनीतिक जीवन में बड़े औजार के रूप में विकसित करने का काम किया जाना चाहिए। इस काम में राज्य और मीडिया बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। आम जनता की ममता बनर्जी के प्रशासन से बड़ी आकांक्षाएं हैं इन आकांक्षाओं में किस तरह और किस हद राज्य प्रशासन भूमिका अदा कर सकता है उस पर आलोचनात्मक ढ़ंग से निरंतर चौकसी की जरूरत है। वाम शासन में राज्य में 'डिफेंसिव आधुनिकीकरण' का मॉडल लागू किया गया। इसके कारण आधुनिकीकरण के मामले में राज्य सरकार का डिफेंसिव रवैय्या था। राज्य को 'डिफेंसिव आधुनिकीकरण' के पैराडाइम से बाहर लाने की जरूरत है। इस मॉडल के कारण राज्य आर्थिक रूप से कमजोर हुआ है आम जीवन में मुद्रा की कमी आई। जीवनशैली में ठहराव आया । सुरक्षा के नाम पर क्लब-पार्टी आदि पर निर्भरता बढ़ी। 'डिफेंसिव आधुनिकीकरण' के कारण ही सड़क-परिवहन आदि का सटीक आधुनिकीकरण नहीं हो पाया। 'डिफेंसिव आधुनिकीकरण' के दायरे के बाहर जाकर संचार और सड़कों का गांवों तक विस्तार करने की जरूरत है। विमानपत्तन और शिपयार्ड के इलाकों की सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। गांवों में कृषि का जबर्दस्त उत्पादन है लेकिन उसके वितरण का देशव्यापी नेटवर्क गायब है। ग्रामीणों को उपज के सही दाम मिलें, ठंडे गोदामघर बनाए जाएं,वितरण की आधुनिक प्रणाली बनायी जाए। मजदूरों-कारीगरों को आधुनिक सामाजिक संबंधों में बांधा जाए और पार्टी-यूनियन के बंधनों से मुक्ति दिलायी जाए। इससे नए किस्म के पेशेवर संबंध जन्म लेंगे। आर्थिक-श्रम-सामाजिक इन तीनों ही स्तरों पर रेशनलाइजेशन किया जाना चाहिए। ममता बनर्जी के प्रौपेगैण्डा ने आम लोगों में यह बात बिठादी कि वाम सरकार झूठ बोलती रही है साथ ही उसने लोगों की वामदलों के द्वारा दी गई व्यक्तिगत यातनाओं की यादों को जगा दिया। इससे वाम के खिलाफ व्यापक जनता ने वोट दिया। वाम मोर्चा लोकतंत्र में वोट से जीतता रहा है लेकिन इस प्रक्रिया में सामाजिक और वैचारिक नियंत्रण की भूमिका की अमूमन अनदेखी होती रही है। ममता बनर्जी के प्रचार अभियान का लक्ष्य यही दो चीजें थीं और इस काम में उनकी चुनाव आयोग ने प्रभावशाली ढ़ंग से मदद की।  वाम मोर्चा ने भूमि वितरण में सफलता पाने के बाद सामाजिक नियंत्रण को गांवों तक फैला दिया । पंचायती व्यवस्था और पार्टीतंत्र का जमकर दुरूपयोग किया गया। कालांतर में इसी के गर्भ से माफियातंत्र के साथ साझा संबंध बने और राज्यभर में विभिन्न रूपों में उगाही तंत्र ने जन्म लिया। नागरिक सुविधाओं और अधिकारों को गौण बना दिया गया। "जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत" के आधार पर समूचे राज्य को एक सूत्र में बांधे रखने की कोशिश की गई। मानवाधिकारों का हनन हुआ। याद रहे वाम मोर्चा हारा है लेकिन वामदल अभी मौजूद हैं।उनके पास 41 फीसदी जनता का समर्थन है,ममता प्रशासन को वाम के पीछे गोलबंद जनता का दिल जीतना होगा। यह काम लोकतांत्रिक माहौल और मानवाधिकारों का विकास करते हुए किया जाना चाहिए। ममता प्रशासन को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शिक्षा व्यवस्था को शामिल करना चाहिए। शिक्षा के समूचे तंत्र को पार्टीतंत्र से मुक्त करके पेशेवर बनाने की जरूरत है। यह काम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों  के आधार पर करना चाहिए। साथ ही कलकत्ता विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलाने का काम करना चाहिए। इससे राज्य के अकादमिक वातावरण में व्याप्त पिछड़ेपन को दूर करने में मदद मिलेगी। साथ ही संसाधनों और सुविधाओं के अभाव के कारण पैदा हुई परेशानियों से मुक्ति मिलेगी। पश्चिम बंगाल में एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय नहीं है। जबकि यहां संस्कृत में बहुत महत्वपूर्ण काम हुआ है । अतः राज्य में एक संस्कृत विश्वविद्यालय खोला जाना चाहिए,इस काम में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की मदद ली जानी चाहिए।  
                      













2 टिप्‍पणियां:

  1. abhi media ki bhumika bahut khatrnak hoti ja rahi hai. media jis tarike se kirtan ga raha hai wah chintajanak hai

    sabse pahli baat yeh honi chaieye li media ko mamta banerjee ka picha karna chodna chaeye. aapne bilkul sahi kaha hai ki media ko sarkar aur janta ke bich critical setu hona chaeye na ki bhand ki tarah chatukar ki bhumika mein kaid kar lena chaeye.

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  2. mamta ji to jangan ka man mohne mein lagi hain aur media unka man mohne mein laga hai

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