बुधवार, 4 मई 2011

आदेश की राजनीति का अंत


बेबकूफों की जाति नहीं होती। उनका कोई दल नहीं होता। चुनाव के मौसम में राजनीतिक बेबकूफियां खूब होती हैं। आम लोग उनमें मजा लेते हैं। चुनावों में असभ्य और अशालीन भाषा का प्रयोग आम बात है। इन दिनों पश्चिम बंगाल के नेताओ में असभ्य और अशालीन भाषा बोलने की होड़ लगी है। जो जितनी ज्यादा अशालीन भाषा बोल रहा है वह उतनी ही ज्यादा तालियां पा रहा है। टीवी चैनलों से इस अशालीनता का खूब प्रचार हो रहा है। खासकर टॉक शो और लाइव प्रसारणों में अशालीनता को साफ देखा जा सकता है। गालियां राजनीतिक भाषा का अनिवार्य अंश हैं। गालियों के बिना राजनीति प्रभावशाली नहीं बनती। राजनीति में अशालीन भाषा मूलतः बेबकूफी है। यह राजनीति की पेज थ्री कल्चर है। यदि कोई व्यक्ति पश्चिम बंगाल के नेताओं के विगत तीन सालों में दिए गए बयानों को सूचीबद्ध करे तो अशालीन भाषिक प्रयोगों का अच्छा-खासा दस्तावेज तैयार हो सकता है। अशालीन भाषा का लक्ष्य है सत्य को छिपाना, लीपापोती करना और असत्य का प्रचार करना। पश्चिम बंगाल का सत्य क्या है ? यह चीज कभी आलोचनात्मक नजरिए से नेतागण देखने की कोशिश नहीं करते। फलतः बहस,तर्क और भाषा को उन्होने अप्रासंगिक बना दिया है। पूरे प्रान्त में 'दमित स्वतंत्रता' का वर्चस्व है। जो खुलकर बोलता है उसे तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। एक जमाना था पश्चिम बंगाल में विचारधारा और वितर्क का सुंदर वातावरण था आज वह पूरी तरह नष्ट हो चुका है। राजनीतिक पदावली अर्थहीन हो गयी है। राजनीतिक पदावली के साथ राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ताओं के व्यवहार और विचार का कोई मेल नहीं है। जो भाषा बोली जा रही है वह राजनीतिक अर्थहीनता पैदा कर रही है। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक पदावली में कोई नेता जब भाषण देता है अथवा लेख लिखता है तो सबसे ज्यादा अप्रासंगिक दिखता है। आखिर यह माहौल क्यों बना ? दलीय मुखपत्रों में अल्लमगल्लम कुछ भी छपता रहता है। जो चीजें छपती हैं वे खोखले विचार की तरह प्रतीत होती हैं अथवा ऐसी शैली में लिखा जाता है जिसमें कहीं से भी किसी नयी चीज का प्रवेश निषेध है। 

पार्टी लेखन और वक्तृता में बंद शैली और मृतभाषिक प्रयोगों ने राजनीति में स्वच्छ प्राणवायु बंद कर दी है। एक जमाना था जब बंगाली विचारकों,नेताओं,बुद्धिजीवियों आदि के बयानों और लेखों से समाज उत्प्रेरित होता था किंतु अब ऐसा नहीं होता। मसलन् कॉमरेडों को माकपा के पार्टी अखबार से ज्यादा कम्युनिस्ट विरोधी अखबारों पर विश्वास है। पार्टी प्रकाशन उन्हें बासी,व्यर्थ और कूड़ा लगते हैं। बुर्जुआ प्रकाशनों में उन्हें ताजा हवा के झोंके महसूस होते हैं। इस प्रक्रिया में मार्क्सवादी विचार,भाषा,अवधारणाएं और विचारधारा प्रभावहीन हुए हैं।माकपा के द्वारा भाषा और विचारधारा को अनाकर्षक बनाने का परिणाम यह निकला है कि आज अखबारों में माकपा के बारे में छोटी सी भी खबर बड़े चाव के साथ पढ़ी जाती है। खबर में शब्द विशेष की खास भूमिका होती है। माकपा के प्रकाशनों और बयानों में प्रयुक्त भाषिक पदावली ने लाभ न देकर मार्क्सवाद के अर्थ को ही नष्ट कर दिया है। माकपा के लोग एक ही बात को तोते की तरह बोलते हैं। 

'हम पर विश्वास करो' इस वाक्य की अहर्निश पुनरावृत्ति ने आम जनता के विश्वास को खत्म किया है यहां तक कि माकपा के सदस्य और उससे जुड़े जनसंगठनों के सदस्यों का भी अपने दल के नेताओं पर विश्वास नहीं है इसका यह परिणाम है कि माकपा अपने सदस्यों और हमदर्दों के मतों को भी पूरी तरह हासिल करने में असमर्थ है। 

माकपा का सारा ढ़ांचा इस तरह का है कि पार्टी और प्रशासन की राय में अंतर नहीं होता। अत: पार्टी पर से विश्वास खत्म होने का अर्थ है राज्य प्रशासन पर से भी विश्वास का उठ जाना। जब भी कोई छोटी सी घटना होती है तो उस घटना के प्रसंग में राज्य प्रशासन और पार्टी का नजरिया सही हो किंतु आम जनता विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होती। आम जनता का पार्टी और प्रशासन पर से विश्वास का उठ जाना उस बृहत्तर विचारधारात्मक प्रक्रिया का परिणाम है जिसे भाषा,विचार,विचारधारा और पार्टी के नाम पर पार्टी प्रकाशनों और पार्टी मंचों के साथ आम जीवन में स्टीरियोटाईप ढ़ंग से सख्ती के साथ चलाया गया है इसके परिणामस्वरूप माकपा का आम जनता से अलगाव बढ़ा है। सवाल उठता है माकपा का कोई भी पंगा,विवाद,हिंसाचार आदि का समाचार बड़ी दिलचस्पी और सम्मान के साथ क्यों पढ़ा जाता है ? जबकि इस तरह के समाचारों में अमूमन माकपा का पक्ष नदारत रहता है। इस तरह के समाचार माकपा के खिलाफ प्रदूषण फैलाने का काम करते हैं और इस प्रदूषण से माकपा के सदस्य भी प्रभावित होते हैं। माकपा के खिलाफ जब भी समाचार आते हैं अथवा कोई चैनल आक्रामक कवरेज देता है तो माकपा का उसके प्रति शत्रुतापूर्ण रूख होता है, जो व्यक्ति माकपा के खिलाफ लिखता है उसके प्रति शत्रुतापूर्ण नजरिया सार्वजनिक तौर पर माकपा के नेता और कार्यकर्त्ता व्यक्त करते हैं। इसके विपरीत भाजपा या कांग्रेस के खिलाफ लिखने वाले या बोलने वाले के खिलाफ कभी भी इन दलों का शत्रुतापूर्ण रूख नहीं होता। बल्कि वे ज्यादा विनम्रता और मित्रता से पेश आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया के प्रति शालीन और सभ्य व्यवहार के अभाव ने माकपा को व्यापक नुकसान पहुँचाया है। लोकतंत्र में मीडिया अपने तरीके,नीति और पद्धति के आधार पर राजनीतिक दलों के साथ व्यवहार तय करता है ।दल विशेष का उसके प्रति गुस्सा अथवा शत्रुतापूर्ण व्यवहार लोकतंत्र के बुनियादी उसूल के अनुकूल नहीं है। लोकतंत्र का बुनियादी उसूल है अन्य की राय का सम्मान करना और अन्य को प्यार करना। माकपा की मुश्किल यह है कि वह अन्य की राय का सम्मान नहीं करती। अन्य को उसका स्पेस न देना और सारी चीजों को दलीय नजरिए से तय करने के कारण वाम मोर्चे के प्रति बेरुखी बढ़ी है। दलीय मनमानापन बढ़ा है। हमदर्दों की संख्या में कमी आई है। माकपा नेताओं ने पर्शुएसन की भाषा बोलने की बजाय आदेश की भाषा के इस्तेमाल पर जोर दिया है । आदेश की भाषा घृणा पैदा करती है। यही राजनीतिक पतन का स्रोत है। 

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