मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की दरियादिली सामंती पापुलिज्म का हिस्सा है। यह सामंती जश्न और दरबारी संस्कृति से जुड़ी है। यह एक अ-राजनीतिक फिनोमिना है। इसका लोकतांत्रिक उदारतावाद से कम सामंती उत्सवधर्मी मानसिकता से ज्यादा संबंध है। इस मानसिकता का आदर्श नमूना है कोलकाता नाइट राइडर का अभिनंदन समारोह और नजरूल अकादमी का फैसला।
कोलकाता नाइट राइडर के सिर पर आईपीएल चैम्पियनशिप की जीत का सेहरा बंध जाने से देश में खुशी कम ममता बनर्जी और उनके प्रशासन में खुशी ज्यादा दिखाई दी। कोलकाता नाइट राइडर में कोलकाता नाम के अलावा कोलकाता का कुछ भी नहीं है।यहां तक कि इस टीम में कोई बंगाली खिलाड़ी तक नहीं है। इसके बावजूद ममता बनर्जी ने इस निजीटीम का शानदार जन-अभिनंदन किया और लाखों रूपये खर्च करके अपने उल्लास और दरियादिली का प्रदर्शन किया।राजनीतिक हलकों ने इसे अपव्यय माना।
ममता बनर्जी की सामंती दरियादिली का दूसरा उदाहरण है नजरूल अकादमी का फैसला । इसके तहत उन्होंने इंदिराभवन की बजाय राजारहाट में नजरूल अकादमी का शिलान्यास किया। उल्लेखनीय है ममता बनर्जी ने सत्ता में आते ही मनमाने ढ़ंग से यह फैसला लिया कि सॉल्टलेक स्थित इंदिरा भवन का नाम बदलकर कवि नजरूल इस्लाम के नाम पर रखा जाएगा और वहां पर नजरूल अकादमी की स्थापना की जाएगी। उनके इस फैसले के खिलाफ कांग्रेस ने जमकर प्रतिवाद किया था।फिर अचानक उन्होंने अपने फैसले को बदलकर राजारहाट में शिलान्यास किया। यह ममता बनर्जी के सामंती दरियादिल और जिद्दीपन की अभिव्यक्त है।कायदे से ममता बनर्जी को लोकतांत्रिक उदारभाव अपनाना चाहिए। इससे राज्य में उदार माहौल बनेगा।राजनीतिक फैसले लेने में सुविधा होगी और सामंती व्याधियों से राज्य प्रशासन को मुक्ति मिलेगी।
ममता प्रशासन की सामंती व्याधियां राजनीतिक फैसले लेने में बाधाएं खड़ी कर रही हैं। ये किस तरह की बाधाएं खड़ी कर रही हैं इसका आदर्श उदाहरण है राज्य के विभिन्न जेलों में बंद राजनीतिकबंदियों की रिहाई का मामला। सत्ता में आने के पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस ने सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का वायदा किया था। लेकिन उनको शासन में आए एक साल हो गया और अभी तक राजनीतिक बंदी रिहा नहीं हुए हैं। जबकि तृणमूल कांग्रेस के सभी सदस्यों पर चल रहे मुकदमे राज्य सरकार ने वापस ले लिए हैं।सामंती फादारी और भेदभाव का यह आदर्श नमूना है।कायदे सभी राजनीतिक मुदमें वापस लिए जाने चाहिए। लेकिन ममता बनर्जी के दल के लोगों के खिलाफ चल रहे मुकदमे वापस ले लिए गए हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह ध्यान में रखना होगा कि चुनाव घोषणापत्र में किए गए राजनीतिक वायदों को पूरा करना एक बड़ी लोकतांत्रिक उपलब्धि होती है । मुश्किल यह है कि राज्य सरकार में कुछ ऐसे लोग हैं जो राजनीतिक बंदियों की रिहाई के मामले में तरह तरह के अडंगे डाल रहे हैं। इस प्रसंग में कुछ तथ्यों पर गौर करना जरूरी है।
ममता सरकार ने 20 मई 2011 को राजनीतिकबंदियों की रिहाई के लिए एक 13 सदस्यीय रिव्यू कमेटी बनायी। इसकी अध्यक्षता कोलकाता उच्चन्यायालय के पूर्व जस्टिस प्रलयसेन गुप्ता को सौंपी गयी।इस कमेटी में 4 आईपीएस और 2 आईएएस ऑफिसर रखे गए। इसके अलावा 6 मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता सदस्य के रूप में रखे गए। ये हैं-देवव्रत बंद्योपाध्याय,सुजातो भद्र,देवाशीष भट्टाचार्य,राजपीप मजूमदार,सुब्रत हाती और अंसार मण्डल। इसके अलावा सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से जुड़े 3 वकीलों को भी इस कमेटी में रखा गया। असल में राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए किसी रिव्यू कमेटी के गठन की जरूरत नहीं थी। अदालतों ने जिनको राजनीतिक बंदी का दर्जा दिया है उनको सरकार एक आदेश के जरिए रिहा कर सकती थी। लेकिन रिव्यू कमेटी बनाकर सरकार ने अशनि-संकेत दिए हैं और इससे मानवाधिकारकर्मी परेशानी महसूस कर रहे हैं।
प्रकारान्तर से रिव्यू कमेटी के गठन के साथ ही ममता सरकार ने राजनीतिक बंदियों को बिना शर्त्त रिहा करने की मानवाधिकारकर्मियों की मांग को अस्वीकार कर दिया। ममता बनर्जी ने चुनाव जीतने के पहले कहा था कि यदि वे चुनाव जीतती हैं तो राजनीतिकबंदियों को बिना शर्त्त रिहा किया जाएगा। लेकिन अपने वायदे को पूरा करने की बजाय उन्होंने रिव्यू कमेटी का गठन किया और इस कमेटी को तीन महिने के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करने का आदेश दिया। ममता सरकार ने सत्ता संभालते ही राजनीतिक बंदियों को रिहा करने के बजाय कमेटी के सामने ऐसी शर्तें रखीं जो किसी भी राजनीतिकबंदी के लिए अपमानजनक हैं और उसके मूलभूत संवैधानिक मानवाधिकारों का उल्लंघन भी है। ये शर्तें ममता बनर्जी के सामंती सोच को अभिव्यक्त करती हैं। सामंती मानसिकता में निजी वफादारी बुनियादी चीज है, इसके आधार पर ममता सरकार राज्य ने तृणमूलकर्मियों पर चल रहे सभी मुकदमे बिना किसी रिव्यू कमेटी की सिफारिश के वापस ले लिए हैं।जबकि अन्य राजनीतिक बंदियों के मामलों को रिव्यू कमेटी के पचड़े में फंसा दिया।
सामंती मानसिकता के चलते ममता सरकार ने बंगाल कोरेक्शनल सर्विस एक्ट 1992 के कुछ जनविरोधी प्रावधानों को राजनीतिकबंदियों की रिहाई का आधार बनाया है। इसके अनुसार कमेटी को यह देखना होगा कि जिस राजनीतिक बंदी को रिहा किया जाएगा क्या वह रिहा होने के बाद राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा लेगा ? रिहा किए गए बंदी को यह लिखित आश्वासन देना होगा कि वह रिहा होने के बाद किसी भी किस्म की राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेगा।
इस कानून के एक अनुच्छेद के अनुसार कमेटी को यह भी विचार करना था कि रिहा व्यक्ति बाहर जाकर क्या अन्य लोगों को राजनीति में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित कर सकता है ? उल्लेखनीय है राजनीति करना और राजनीतिक दल में शामिल होना व्यक्ति का संविधान प्रदत्त बुनियादी अधिकार है।कोई भी कानून इस अधिकार को छीन नहीं सकता। इस कमेटी का यह भी काम था कि वह राजनीतिकबंदी के जेल में किए गए व्यवहार की भी जांच करे। सच यह है कि राजनीतिकबंदी आमतौर पर जेलों में अमानवीय दुर्व्यवहार और दुर्दशापूर्ण अवस्था के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं ऐसे में जेल अधिकारियों से राजनीतिक बंदियों के बारे में अच्छे आचरण का प्रमाणपत्र मिलना असंभव है।
रिव्यू कमेटी को आरंभ में 3 महिने का समय दिया गया ,बाद में उसके कार्यकाल को 6 महिने और बढ़ाया गया और 3मार्च 2012 को इस कमेटी का कार्यकाल खत्म हो गया। इससमय तक कमेटी अपनी रिपोर्ट तैयार नहीं कर पायी थी और सरकार ने भी एक्सटेंशन नहीं दिया।
उल्लेखनीय है कि अभी तक कोई नहीं जानता कि पश्चिम बंगाल की जेलों में कितने राजनीतिकबंदी हैं ? और उनके ऊपर किस तरह के आरोप हैं? ममता बनर्जी का चुनाव जीतने के पहले माओवादी संगठनों,एसयूसीआई,लालगढ़ आंदोलन में शामिल संगठनों के साथ गहरा याराना था। ये संगठन ममता के सभी आंदोलनों में शामिल थे। इन संगठनों का एक भी सदस्य अभी तक रिहा नहीं हुआ है और दक्षिण बंगाल का एक भी राजनीतिक बंदी राज्य सरकार ने रिहा नहीं किया है। अभी तक जिन राजनीतिक बंदियों को रिहा किया गया है उनमें से 30 राजनीतिक बंदी उत्तरबंगाल के हैं। इनको जमानत पर रिहा किया गया है। इनमें 7 कामतापुरी आंदोलन और 27 बृहद कूचबिहार आंदोलन से जुड़े हैं।
उल्लेखनीय है रिव्यू कमेटी ने अपनी पहली सूची में 78 बंदियों के नाम दिए थे उनमें कई माओवादियों के भी नाम हैं।राज्य सरकार ने रिव्यू कमेटी के द्वारा रिहाई के लिए सिफारिश किए गए सभी नामों को स्वीकार करने से मना कर दिया।खासकर माओवादियों की रिहाई की सिफारिशों को नहीं माना। राज्य सरकार ने कामतापुरी आंदोलन के गिरफ्तार 50 राजनीतिकबंदियों में से 30 को जमानत पर रिहा किया है।कई महीना पहले ममता बनर्जी ने स्वयं घोषणा की थी कि कामतापुरी आंदोलन में गिरफ्तार किए गए बाकी 20 आंदोलनकारियों को जल्द रिहा कर दिया जाएगा लेकिन आज तक उनलोगों की रिहाई नहीं हुई है।
इसी तरह रिव्यू कमेटी ने अपनी दूसरी सूची में 100 और तीसरी सूची में 300 राजनीतिकबंदियों की रिहाई की सिफारिश की है। मजेदार बात यह है कि इन सूचियों में शामिल राजनीतिक बंदियों की जमानत की अर्जी का सरकार की ओर से अदालतों में विरोध किया जा रहा है। जिनको रिहा किया है वे जमानत पर छूटे हैं, जो रिहाई की परिभाषा में नहीं रखे जा सकते, क्योंकि उनको लगातार मुकदमों के चक्कर में अदालतों के चक्कर लगाने पड़ेंगे। राजनीतिक बंदियों में नंदीग्राम आंदोलन में गिरफ्तार किए गए लोग भी शामिल हैं इनलोगों को वामशासन ने गिरफ्तार किया था और ममता बनर्जी के आंदोलन का ये लोग हिस्सा थे ,लेकिन ये लोग ममता सरकार आने के एक साल बाद भी रिहा नहीं हुए हैं। बुद्धदेव सरकार ने नंदीग्राम आंदोलन में गिरफ्तार लोगों को माओवादी के नाम से बंद किया था,जबकि निचली अदालत ने उनको राजनीतिक बंदी के रूप में वर्गीकृत किया। आश्चर्य की बात यह है कि इन लोगों की जमानत का कोलकाता उच्चन्यायालय में ममता सरकार ने विरोध किया। नंदीग्राम आंदोलन में 7लोग बंदी बनाए गए थे। दूसरी ओर ममता सरकार ने विगत एक साल में माओवादी, माओवादी लिंकमैन,माओ कनेक्शन टैग के तहत 300से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है।ममता सरकार आने के बाद प्रतिदिन माओवादी होने के नाम पर अंधाधुंध गिरफ्तारियां हो रही है। हाल ही में लालगढ़ आंदोलन के चर्चित नेता छत्रधर महतो ने मुर्शिदाबाद जेल से जारी एक बयान में कहा है ममता सरकार आने के बाद 500से ज्यादा राजनीतिक कार्यकर्ता जंगलमहल से गिरफ्तार किए गए हैं। कायदे से ममता सरकार सभी राजनीतिक बंदियों को बिना शर्त रिहा करे और राजनीतिक कारणों से लोगों की गिरफ्तारियां बंद की जाएं।इससे राज्य में शांति का माहौल बनाने में मदद मिलेगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें