आलोचक अशोक वाजपेयी को यह इलहाम हुआ है कि हिन्दी की गोष्ठियों में घिसापिटापन होता है। सवाल यह है कि उस घिसेपिटेपन से बचने के लिए हिन्दी के प्रायोजकों और गुटबाज लेखकों ने क्या किया ?पहले अशोक वाजपेयी की महान खोज पर ध्यान दें। उन्होंने लिखा है-
"हम सभी इसके दोषी हैं। हिंदी जगत में हर महीने गोष्ठियां, परिसंवाद आदि होते हैं। हम ही उन्हें आयोजित करते हैं, हम ही उनमें कष्ट उठाकर यात्रा की दिक्कतें झेलते हुए भाग लेते हैं। हम ही उनसे खीझते-ऊबते हैं। हम ही उनकी निरर्थकता या अप्रासंगिकता को हर बार खासे तीखेपन से महसूस करते हैं। इस सबके बावजूद हम ही उनकी प्रतीक्षा करते हैं; उनके लिए सलाह देते हैं; फिर उनमें हिस्सेदारी करते हैं। बहुत सारे शहरों या संस्थाओं में ऐसे सेमिनार वहां होने वाली एकमात्र सार्वजनिक गतिविधियां, साहित्य को लेकर, होती हैं। वे भी न हों तो वहां साहित्यिक माहौल में सन्नाटा छाया रहे। इसलिए उनका कुछ औचित्य, कुछ आधार बनता है।"
साहब ,आप महान हैं ,पहले घिसेपिटे कार्यक्रम में जाते हैं, उनसे ऊबते हैं।उनकी प्रतीक्षा करते हैं और फिर उसका श्राद्ध करते हैं और अंत में औचित्य भी समझा रहे हैं ! घिसेपिटेपन का साहित्य और जीवन में कोई औचित्य नहीं है और न प्रासंगिकता ही है। घिसेपिटेपन की प्रासंगिकता उनके लिए है जो साहित्य में अप्रासंगिक हो चुके हैं। वे ही इन कार्यक्रमों की शोभा भी बढ़ते हैं। वैसे जंगल में जिस तरह घास बिना किसी प्रयास के पैदा होती है। साहित्य में घिसापिटापन भी वैसे ही पैदा होता है।
अशोकजी विद्वानलेखक हैं तो जानते भी हैं कि साहित्य में चुक जाने की अवस्था में घिसापिटापन पैदा होता है। अशोकजी ने लिखा है " दरअसल, हिंदी में बहस की इतनी कम जगह है और इतनी कमी है कि ऐसे आयोजन वाद-विवाद-संवाद के मंच बनते हैं।" जी नहीं जनाब, आप जैसे सुधीजन मंचों से लेकर पत्रिकाओं तक इस कदर छाए हैं कि गंभीर बहस संभव ही नहीं है। आपकी पूरी भक्तमंडली है और वह साहित्य में "साहित्य की जय जय हो "का कीर्तन करती रहती है।
अशोकजी आप जानते हैं कि "साहित्य की जय जय हो " से साहित्य में नए का जन्म नहीं होता बल्कि जिस घिसेपिटेपन से आप क्षुब्ध-मुग्ध हैं वह तो इसकी ही देन है। साहित्य में नए विषयों की बहसों को किसने बाधित किया है?हिन्दी में अशोक वाजपेयी-नामवर सिंह ने नए विषयों पर अघोषित ढ़ंग से आत्म-सेंसरशिप लगायी हुई है।कौन है जो आप लोगों को रोक रहा है नए विषयों को उठाने से ? साहित्य की सत्ता को घिसापिटा बनाने में किसकी भूमिका है यह आप भी जानते हैं और आपके भक्त भी जानते हैं।
सत्ता के पदों से लेकर किताब की खरीद के फैसलों तक, गोष्ठियों से लेकर साहित्य की कॉकटेल पार्टियों तक कौन लोग हैं जो गुलछर्रे उड़ा रहे हैं ? अशोकजी का मानना है कि "ऐसे परिसंवादों में उपजने वाली ऊब का एक बड़ा कारण उसमें व्याप्त वाग्विस्तार और वाग्स्फीति हैं।" यह प्रधान नहीं गौण कारण है। प्रधान कारण है मंचस्थ हिन्दी के महान वक्ताओं में नए विषय की नई समझ,अंतर्वस्तु का अभाव और पेशेवर कौशल का अभाव।जब घटिया कारीगर से कोई वस्तु बनवाएंगे तो उसकी श्रेष्ठ कारीगर द्वारा निर्मित वस्तु से तुलना नहीं हो सकती। हमने हिंदी में पेशेवर लेखक-आलोचक कम पैदा किए हैं उसका ही दुष्परिणाम है कि आज गोष्ठियों के घिसेपिटेपन का जादू सिर पर चढ़कर बोल रहा है।
"हम सभी इसके दोषी हैं। हिंदी जगत में हर महीने गोष्ठियां, परिसंवाद आदि होते हैं। हम ही उन्हें आयोजित करते हैं, हम ही उनमें कष्ट उठाकर यात्रा की दिक्कतें झेलते हुए भाग लेते हैं। हम ही उनसे खीझते-ऊबते हैं। हम ही उनकी निरर्थकता या अप्रासंगिकता को हर बार खासे तीखेपन से महसूस करते हैं। इस सबके बावजूद हम ही उनकी प्रतीक्षा करते हैं; उनके लिए सलाह देते हैं; फिर उनमें हिस्सेदारी करते हैं। बहुत सारे शहरों या संस्थाओं में ऐसे सेमिनार वहां होने वाली एकमात्र सार्वजनिक गतिविधियां, साहित्य को लेकर, होती हैं। वे भी न हों तो वहां साहित्यिक माहौल में सन्नाटा छाया रहे। इसलिए उनका कुछ औचित्य, कुछ आधार बनता है।"
साहब ,आप महान हैं ,पहले घिसेपिटे कार्यक्रम में जाते हैं, उनसे ऊबते हैं।उनकी प्रतीक्षा करते हैं और फिर उसका श्राद्ध करते हैं और अंत में औचित्य भी समझा रहे हैं ! घिसेपिटेपन का साहित्य और जीवन में कोई औचित्य नहीं है और न प्रासंगिकता ही है। घिसेपिटेपन की प्रासंगिकता उनके लिए है जो साहित्य में अप्रासंगिक हो चुके हैं। वे ही इन कार्यक्रमों की शोभा भी बढ़ते हैं। वैसे जंगल में जिस तरह घास बिना किसी प्रयास के पैदा होती है। साहित्य में घिसापिटापन भी वैसे ही पैदा होता है।
अशोकजी विद्वानलेखक हैं तो जानते भी हैं कि साहित्य में चुक जाने की अवस्था में घिसापिटापन पैदा होता है। अशोकजी ने लिखा है " दरअसल, हिंदी में बहस की इतनी कम जगह है और इतनी कमी है कि ऐसे आयोजन वाद-विवाद-संवाद के मंच बनते हैं।" जी नहीं जनाब, आप जैसे सुधीजन मंचों से लेकर पत्रिकाओं तक इस कदर छाए हैं कि गंभीर बहस संभव ही नहीं है। आपकी पूरी भक्तमंडली है और वह साहित्य में "साहित्य की जय जय हो "का कीर्तन करती रहती है।
अशोकजी आप जानते हैं कि "साहित्य की जय जय हो " से साहित्य में नए का जन्म नहीं होता बल्कि जिस घिसेपिटेपन से आप क्षुब्ध-मुग्ध हैं वह तो इसकी ही देन है। साहित्य में नए विषयों की बहसों को किसने बाधित किया है?हिन्दी में अशोक वाजपेयी-नामवर सिंह ने नए विषयों पर अघोषित ढ़ंग से आत्म-सेंसरशिप लगायी हुई है।कौन है जो आप लोगों को रोक रहा है नए विषयों को उठाने से ? साहित्य की सत्ता को घिसापिटा बनाने में किसकी भूमिका है यह आप भी जानते हैं और आपके भक्त भी जानते हैं।
सत्ता के पदों से लेकर किताब की खरीद के फैसलों तक, गोष्ठियों से लेकर साहित्य की कॉकटेल पार्टियों तक कौन लोग हैं जो गुलछर्रे उड़ा रहे हैं ? अशोकजी का मानना है कि "ऐसे परिसंवादों में उपजने वाली ऊब का एक बड़ा कारण उसमें व्याप्त वाग्विस्तार और वाग्स्फीति हैं।" यह प्रधान नहीं गौण कारण है। प्रधान कारण है मंचस्थ हिन्दी के महान वक्ताओं में नए विषय की नई समझ,अंतर्वस्तु का अभाव और पेशेवर कौशल का अभाव।जब घटिया कारीगर से कोई वस्तु बनवाएंगे तो उसकी श्रेष्ठ कारीगर द्वारा निर्मित वस्तु से तुलना नहीं हो सकती। हमने हिंदी में पेशेवर लेखक-आलोचक कम पैदा किए हैं उसका ही दुष्परिणाम है कि आज गोष्ठियों के घिसेपिटेपन का जादू सिर पर चढ़कर बोल रहा है।
अभी भी उत्कृष्ट लेखन और लेखक जीवित हैं, जो कि किसी गोष्ठी में नहीं जाते...गोष्ठी में जाने वाले सस्ते लोकप्रियता के भूखे लोगों से किसी स्तरीयता की आशा बेमानी है।
जवाब देंहटाएं