कलाकार प्रशिक्षित होता है ।लेकिन फेसबुक यूजर न तो कलाकार है और न प्रशिक्षित है ,वह तो यूजर है।
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कलाओं में कुछ भी रचसकते हैं और उससे मुक्त भी हो सकते हैं। फेसबुक में यह संभव नहीं है। फेसबुक कला नहीं है।
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कलाकार और फेसबुक यूजर में यह साम्य है ,ये दोनों यथार्थ से जुड़े हैं और यथार्थ को व्यक्त करते हैं।कलाकार और फेसबुक यूजर दोनों आज सामाजिक शक्ति नहीं हैं।
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जिस तरह हर व्यक्ति कलाकार होता है, उसी तरह हर व्यक्ति नेट यूजर हो सकता है।
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जिस तरह कलाकार-लेखक और इनकी रचना के बीच में यह समझौता है कि वे एक-दूसरे से यह नहीं पूछते कि कहां जा रहे हो, इसी तरह फेसबुक यूजर और फेसबुक के बीच में यह समझौता है कि वे एक दूसरे से नहीं पूछते कि कहां जा रहे हो या क्या लिख रहे हो।
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जिस तरह लेखक-कलाकार का स्थान सामाजिक वर्ग से भिन्न होता है। उसे वर्ग से परे देखते हैं। वैसे ही फेसबुक यूजर को वर्गीय कोटि के परे रखकर देखना चाहिए।
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कला की एक ही भूमिका है कि वह मनुष्य को वैधता प्रदान करती है, उसका महिमामंडन करती है,ठीक फेसबुक या नेटलेखन की भी यह विशेषता है कि वह मनुष्य का महिमामंडन है।
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जिस तरह कलाकार के पास कई मुखौटे होते हैं वैसे ही फेसबुक या नेट यूजर के पास भी कई मुखौटे होते हैं।
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मैं जब भी फेसबुक लिखा देखता हूँ तो उसमें जीवन की खोज करता हूँ। फेसबुक ही जीवन है।
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अन्तोन चेखव के शब्दों को उधार लेकर कहें कि नेटलेखक या फेसबुक टिप्पणीकार की न तो कोई आकांक्षा है,न कोई उम्मीदें है।और वह किसी से डरता भी नहीं है।
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फेसबुक या नेट की गाडी में कोई सवारी नहीं है ,सब ड्राइवर हैं।
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फेसबुक या मीडिया के पतन की अवस्था में शिक्षा ही कवच है।
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कला हमें पुरानी संस्कृति की ओर अभिमुख रहती है।फेसबुक ताजा राय की ओर ।
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फेसबुक पर प्रयोगमूलक लेखन का एक तय अर्थ होता है।उसकी सीमा है। लेकिन फेसबुक पर घटिया या डर्टीलेखन प्लेग की तरह फैलता है। इसलिए फेसबुक पर डर्टीलेखन से बचना चाहिए।
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नयामीडिया हमसे या यथार्थ जगत से नहीं जोड़ता। वह नए जगत की इमेजों के साथ पुराने संसार को भी नई शक्ल प्रदान करता है।यही काम नए मीडिया केरूप में फेसबुक कर रहा है।
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मनुष्य पहले अपने टूल्स बनाता है फिर टूल्स मनुष्य को बनाते हैं।उसी तरह पहले आप फेसबुक खाता बनाएं ,लिखें, कम्युनिकेट करें , फिर फेसबुक आपको निर्मित करेगा।
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फेसबुक में यदि आप किसी एक विचार को मान लेते हैं या स्वीकार कर लेते हैं तो अन्य विचारों को अनलाइक नहीं करते, बल्कि जिन विचारों को नहीं मानते उनको भी लाइक करते हैं। कला-साहित्य में ऐसा नहीं होता।
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फेसबुक पर विचार और राजनीति के शिखरों के बीच में नॉनसेंस नृत्य करता रहता है।
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जिस तरह कोई व्यक्ति कागज शॉसेज के चिह्न को देखकर पिकासो के विभ्रम में रहता है। ठीक वही अवस्था फेसबुक लेखक की है।
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फेसबुक टिप्पणीकार पोस्टकार्ड लेखक की तरह है।इसका पर्सेप्शन भी पोस्टकार्डलेखक जैसा होता है।
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नेटलेखन या फेसबुक लेखन देखने में एक खासकिस्म का दुरंगापन है। यहां तर्क के पक्ष और विपक्ष दोनों ही रूप दिखते हैं। कुछलोग हैं जिन्हें फेसबुक नॉनसेंस लगता है। बेबकूफी और समय की बर्बादी लगता है। लेकिन कुछ हैं जिन्हें इसका उपयोग ज्ञान-विचार-राजनीति आदि के क्षेत्र में मददगार नजर आता है।फेसबुक असल में वाचिक चिन्तन को बढ़ावा देता है।
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फेसबुक पर आने वालों में नैतिकतावादियों और मस्ताने टिप्पणीकारों की बड़ी तादाद है। यहां भाषाज्ञानी या बुद्धिजीवी बहुत कम संख्या में हैं।इसके बावजूद फेसबुक लेखक को वाइचांस ही कोई बुद्धिजीवी के रूप में सम्मानित करे। फेसबुकलेखक क्या बुद्धिजीवी होता है ?
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जो लोग सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करते हैं उनके लिए इंटरनेट,फेसबुक ब्लॉगिंग आदि आमलोगों में संचार का महान उपकरण या मीडियम है.इसकी उपेक्षा संभव नहीं है।
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फेसबुक से लेकर कलाओं तक नई बात,नया मुहावरा,नईभाषा, नई अभिव्यक्ति शैली और नया कंटेंट को हमेशा खतरे के रूप में देखा गया है। नए में खतरे कम और लाभ ज्यादा होते हैं।नए को अपनाओ और आगे जाओ।
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फेसबुक में सटीकबात से एक कदम आगे कही गयी बात मूर्खतापूर्ण लगती है। लेकिन बेबकूफी से एक कदम आगे बढ़ी हुई बात सटीक लगती है।
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फेसबुक की भूमिका है कि यह पर्सेप्शन को संकुचित नहीं होने देता है। नजरिए को उदार बनाता है। इस तरह के लक्षण कला और साहित्य में भी पाए जाते हैं।
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फेसबुक में व्यक्त टिपप्णियां और संवेदनाओं से पढ़नेवाले की संवेदनाएं और नजरिया समृद्ध होता है।
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