रविवार, 17 जून 2012

ब्रात्य बसु की कल्पनाशीलता के शिक्षा में नए रंग


रंगकर्मी-अध्यापक ब्रात्य बसु को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक साल पहले उच्चशिक्षामंत्री बनाकर शिक्षा में परिवर्तन का जो सपना देखा था उसके अभीप्सित फल पाने आरंभ हो गए हैं। ब्रात्य बसु की रंगकर्मी के नाते सर्जनात्मक मेधा धीरे धीरे रंग दिखाने लगी है। उच्चशिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन करने में ब्रात्य बसु को सफलता मिली है इससे पश्चिम बंगाल के अकादमिक जगत में शांति और स्वायत्तता का माहौल लौटा है। अकादमिक परिवर्तनों के प्रति आम शिक्षक का विश्वास भी लौटा है।

पश्चिम बंगाल का सारे देश में बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था के लिए सुनाम रहा है। वाममोर्चा के 34 साल के शासन में इस सुनाम में कुछ कमी आई ,लेकिन शिक्षा का माहौल मोटेतौर पर सारे देश की तुलना में बेहतर रहा है। अकादमिक नियुक्तियों में अनेकबार शिकायतें आईं ,लेकिन वाममोर्चा सरकारों ने उन शिकायतों की बार -बार अनदेखी की। यदि अनदेखी न करके समय रहते हस्तक्षेप किया जाता तो बेहतर परिणाम आने की संभावनाएं थीं। इसके बाबजूद सन् 1977 में वामशासन आने के बाद अकादमिक जगत में व्याप्त अराजकता,मनमानी और राजनीतिक हस्तक्षेप पर पाबंदी लगी। कक्षाएं और परीक्षाएं जो अराजक ढ़ंग से होती थीं. उनको नियमित किया गया। शिक्षासंस्थाओं का लोकतांत्रिकीकरण किया गया। विभिन्न स्तरों पर नियमों के अनुसार काम करने,नियमों के अनुसार नियुक्तियां करने और उच्चशिक्षा के विकास के साथ प्राइमरी शिक्षा के विकास को प्रधान एजेण्डा बनाया गया।

पश्चिम बंगाल में सन् 1990 के बाद पठन-पाठन में शिथिलता आई थी जिसे बाकायदा नियमित करके दुरूस्त किया गया लेकिन विभिन्न स्तरों पर माकपा के हस्तक्षेप को नियंत्रित करने और विभिन्न कमेटियों को सुचारू रूप से चलाने में जो दिक्कतें आ रही थीं उनके सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया।

एक साल पहले राज्य में ममता सरकार विशाल बहुमत से जीतकर सत्ता में आयी तो उसने वायदा किया कि राजनीतिक हस्तक्षेप से शिक्षाक्षेत्र की नीतियों और नियुक्तियों को मुक्त रखा जायगा। विगत एक साल में इन दो मोर्चों पर ममता सरकार और खासकर राज्य शिक्षामंत्रालय की भूमिका प्रसंशनीय रही है। ममता सरकार आने के बाद पहला बड़ा काम यह हुआ है कि शिक्षासंस्थाओं में राजनीतिक दबाब और आतंक का माहौल टूटा है। आम शिक्षक-छात्र आज पहले की तुलना में ज्यादा मुक्त वातावरण का अनुभव कर रहे हैं। जिन लोगों को पुराने माहौल का अनुभव है ,जो पुराने माहौल के अंधभक्त हैं ,उनके लिए यह परिवर्तन गले नहीं उतर रहा है।

यह सच है कि शिक्षासंस्थाओं में विभिन्न राजनीतिकदलों के लोग काम करते हैं।प्रशासनिक ईकाइयों में भी वे हैं। यह स्थिति पहले भी थी। लेकिन एक बड़ा अंतर आया है। नीतियों को लागू करते समय झंड़े के रंग पर नजर न होकर नीतियों के अनुपालन पर जोर दिया जा रहा है। नीतियों का पालन करते हुए निजीतौर पर कोई भी व्यक्ति मतभिन्नता रख सकता है। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। शिक्षानीति या विश्वविद्यालय प्रशासन या उच्चशिक्षा परिषद के फैसलों को पार्टी फैसले के रूप में यांत्रिक तौर पर लागू करने पर जोर दिया गया और पार्टीतंत्र का हर स्तर पर दुरूपयोग किया गया।जबकि इस स्थिति से बचा जा सकता था।

वाममोर्चे के विगत शासन की सबसे बड़ी असफलता यह थी कि वहां पर पार्टीतंत्र और शिक्षा की स्वायत्त व्यवस्था का भेद ही खत्म हो गया था। ममता सरकार ने पार्टीतंत्र से स्वतंत्र होकर शिक्षानीति के अनुपालन को सुनिश्चित करने के बारे में जो नीतिगत फैसले लिए हैं वे स्वागतयोग्य हैं। इससे शिक्षा को स्वायत्त और आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिलेगी।

पश्चिम बंगाल में जिस तरह का राजनीतिक ध्रुवीकरण है उसमें राजनीतिकदलों से शिक्षातंत्र में काम करने वालों की प्रतिबद्धता में कमी नहीं आएगी । लेकिन शिक्षा संबंधी फैसलों को पेशेवराना ढ़ंग से लागू करने से पार्टी और शिक्षा के बीच में जो घालमेल हुआ था वह कम होगा।

इसके अलावा पूरे राज्य में कॉलेज और विश्वविद्यालयों के स्तर पर शिक्षक –कर्मचारी और छात्रसंघों के चुनाव इक्का-दुक्का त्रासद घटनाओं को छोड़कर शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढ़ंग से हुए हैं।राज्य सरकार की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

नई सरकार को आए एक साल हो गया है और शिक्षा के क्षेत्र में नई सरकार के नए कदमों की आहट महसूस की जा सकती है। राज्य सरकार ने शिक्षा नीति के मामले में कई सटीक नए कदम उठाए हैं जिनके सुफल कुछ अर्सा बाद दिखेंगे। आम शिक्षकों और विद्यार्थियों में यह धारणा है कि शिक्षा क्षेत्र में ममता सरकार कुछ खास नहीं कर पाएगी। लेकिन शिक्षामंत्री ब्रात्य बसु और उच्चशिक्षा परिषद की कल्पनाशील बुद्धि के कारण इस मिथ को तोड़ने में सफलता मिली है। यह सच है वामशासन में शिक्षा संस्थाओं में बना लोकतांत्रिक ढ़ांचा मुश्किलें पैदा कर रहा था।उस ढ़ांचे की जगह नए ढ़ांचे की परिकल्पना को साकार करके नई संरचनाएं बनायी गयी हैं जिनके बारे में शिक्षकों के एकवर्ग में संशय है। लेकिन शिक्षामंत्रालय और उच्चशिक्षा परिषद ने जिस कौशल और पेशेवराना ढ़ंग से राज्य की समूची शिक्षा व्यवस्था को संभालना आरंभ किया है उससे भविष्य में शिक्षा में सुधार की संभावनाएं पैदा हुई हैं।

मसलन् विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति पदों पर पेशेवर योग्यता को महत्व देकर नियुक्तियां की गयी हैं और इस मामले में राज्य सरकार ने राजनीतिक-निरपेक्षता का अपना वायदा निभाया है। कुलपतियों की नियुक्तियों में अकादमिक-प्रशासनिक क्षमताओं का ख्याल करके नियुक्तियां करके शिक्षा संस्थानों के मुखिया के पद को पेशेवर बनाकर नई दिशा दी है। इसी तरह समग्रता में देखें तो नीतिगत मसलों पर ममता सरकार ने पुरानी वाममोर्चा सरकार के द्वारा बनायी कई बुनियादी नीतियों को जारी रखा है ,जहां असहमति थी वहां नए सुधार किए गए हैं। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण है राज्य में उच्चशिक्षा के क्षेत्र में चली आ रही दाखिला नीति में मूलभूत परिवर्तन। इस परिवर्तन के तहत 2012-13 के सत्र से ही स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में राज्य के बाहर के विद्यार्थियों के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित करने का उच्चशिक्षा परिषद का सुझाव है। उल्लेखनीय है अभी तक मात्र 5 फीसदी सीटें बाहर के छात्रों के लिए आरक्षित थीं। इस सुझाव को उच्चशिक्षा परिषद ने समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतिपतियों को भेजा है और अनुरोध किया है कि वे अपने यहां इसी साल से यह सुझाव लागू करने की कोशिश करें।इससे शिक्षा के क्षेत्र में चला आ रहा अंधक्षेत्रीयतावादी सोच बदलेगा।

इसके अलावा अगले साल से स्नातक-स्नातकोत्तर कक्षाओं में राज्यस्तरीय प्रवेश परीक्षा के आधार पर दाखिले लिए जाने की संभावनाओं पर विचार चल रहा है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता और शैक्षणिक क्षमता का विकास करने में मदद मिलेगी। मेधावी विद्यार्थियों को दाखिला पाने में सुविधा होगी। विभिन्न विश्वविद्यालयों में सीसीटीवी कैमरे भी लगाए जा रहे हैं,इससे विश्वविद्यालय प्रशासन ,परीक्षा और कक्षाओं के सुचारू संचालन में मदद मिलेगी।

कायदे से शिक्षामंत्री को विश्वविद्यालयों के नियमित अकस्मात दौरे करने चाहिए और कुलपतियों और विभिन्न अधिकारियों को भी कक्षाओं के दौरे करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इससे अकादमिक वातावरण में तेजी से सुधार आएगा। राज्य सरकार ने अकादमिक गुणवत्ता में सुधार के लिए इसी सत्र से विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्रों के द्वारा शिक्षकों के शिक्षणकार्य का मूल्यांकन कराने का फैसला लिया है। इससे शिक्षकों की जबावदेही बढ़ेगी और पठन-पाठन के माहौल को और भी प्रभावशाली बनाने में मदद मिलेगी। पिछली वाममोर्चा सरकार के कदमों का अनुसरण करते हुए स्नातक-स्नातकोत्तर स्तर पर 10 फीसद सीटों में इजाफा किया गया है। इससे शिक्षा और भी ज्यादा लोगों तक पहुँचेगी। लेकिन मुश्किल यह है कि अनेक विभागों में बैठने की सुविधा ही नहीं है।ऐसी स्थिति में सर्जनात्मक ढ़ंग से इस फैसले को लागू किया जाय। यांत्रिक ढ़ंग से लागू करने से अनेक दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं। इसके अलावा उच्चशिक्षा मंत्रालय को राज्य के शिक्षक-कर्मचारियों को छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार उनकी बकाया राशि का जल्द भुगतान करना चाहिए इससे शिक्षक-कर्मचारियों का राज्य सरकार के कामों के प्रति विश्वास और भी पुख्ता बनेगा।

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