मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कल तक उनको किसी भी बंगाली पर हमला होने,उसकी अवैध गिरफ्तारी पर गुस्सा आता था लेकिन इनदिनों वे बदली हुई सी लग रही हैं। ममता का बंगाली जाति के प्रति प्रेम निर्विवाद है। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी बंगाली जाति के प्रति बेरुखी बढ़ी है। उनकी बेरुखी की जड़ें हमारी राजनीतिक संस्कृति में हैं। भारत में इनदिनों जिस तरह की वोटबैंक संस्कृति पैदा हुई है उसमें आम जनता के प्रति बेगानापन और जातीय घृणा का बढ़ना स्वाभाविक बात है।
वोटबैंक संस्कृति दलीय मोह पैदा करती है।भाषायी,धार्मिक और जातिवादी घृणा के जरिए अपना विस्तार करती है। यह राजनीति में नकारात्मक फिनोमिना है। इसके कारण सामाजिक विभाजन तेज होता है। मन में दरारें पैदा होती हैं। प्रशासनिक संरचनाएं इसकी गिरफ्त में जल्दी आती हैं। साथ ही वंचितों और हाशिए के लोगों से प्रशासन की दूरी बढ़ती है। अनुयायियों के प्रति प्रेम में इजाफा होता है। इसके अलावा अविश्वास और संशय में तेजी से वृद्धि होती है। उत्तर- पूर्व के राज्यों में यह बीमारी पहले आई बाद में इसने अन्य राज्यों में पैर पसारने आरंभ कर दिए । हाल ही में महाराष्ट्र में यह फिनोमिना जोरों पर है। वहां पर गैर-मराठियों के प्रति विद्वेष की राजनीति को जिस तरह स्थानीय दलों ने हवा दी है उससे महाराष्ट्र का पुलिस प्रशासन पूरी तरह प्रभावित है । भारत में बोले जानेवाली भाषाओं और बोलियों के बाशिंदों के प्रति संदेह और घृणा का भाव अंततः भारत की एकता और अखण्डता को नष्ट करता है साथ ही इससे भारत के संविधान का अपमान होता है।
भारत का संविधान सभी भारतवासियों को चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों,देश में कहीं पर भी आने-जाने, व्यवसाय करने और काम करने की आजादी देता है। हमारे संविधान में भाषा,धर्म और जाति के आधार पर किए गए भेदभाव को दण्डनीय अपराध माना गया है। इसके बावजूद भारत में आए दिन भेदभाव और उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। ये खबरें किसी भी देशभक्त को परेशान कर सकती हैं लेकिन पश्चिम बंगाल के मौजूदा शासकों को ये चीजें कम परेशान कर रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ममता सरकार का बंगालियों के प्रति जो बेगानापन बढ़ रहा है वह समझ में आएगा। ममता सरकार का राज्य की आम जनता और उसकी समस्याओं के प्रति सजग भावबोध तेजी से क्षीण हुआ है। राज्य की आम जनता पर पुलिस के हमले बढ़े हैं,साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हुआ है।
सत्तारूढ़ होने के पहले तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल और बंगाली जाति से जुड़े हर सवाल पर सक्रिय थीं लेकिन इन दिनों वे और उनके अनुयायी एकसिरे से बंगालियों पर बढ़ रहे हमलों पर चुप रहते हैं।
हाल ही में माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने एक महत्वपूर्ण मसले की ओर ध्यान खींचा है। महाराष्ट्र में 35बंगालियों को बंगला बोलने के कारण पुलिस ने बंगलादेशी का आरोप लगाकर गिरफ्तार करके कैद किया हुआ है। जबकि ये सभी मजदूर हैं और पुरूलिया के रहने वाले हैं। आश्चर्य की बात है कि माकपा सांसद के द्वारा इन बंगालियों की अवैध गिरफ्तारी का सवाल पहले उठाया गया और राज्य सरकार ने अभी तक इस मसले पर एक शब्द तक नहीं कहा। ये लोग दो महिने से जेल में बंद हैं। ये सभी पुरूलिया जिले के बाशिंदे हैं। ये लोग काम की तलाश में महाराष्ट्र आए थे । 22 सितम्बर को इन सभी को मुंबई पुलिस के बांकुला थाना इलाके में बंगलादेशी कहकर गिरफ्तार कर लिया और तब से ये सभी जेलों में बंद हैं। माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने इस मसले पर 9 अक्टूबर को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान को पत्र लिखकर जानकारी दी और उनसे फोन पर विस्तार से बातें करके हस्तक्षेप करने की अपील की । माकपा सांसद ने इस बीच महाराष्ट्र के गृहमंत्री से भी बात की है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से हस्तक्षेप की अपील करते हुए उनको 31 अक्टूबर को एक पत्र लिखा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्तक्षेप का आश्वासन देते हुए वासुदेव आचार्य को 6 नवम्बर को पत्र लिखा है। लेकिन प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप का कोई अभीप्सित परिणाम नहीं निकला है।
सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मसले में दिलचस्पी क्यों नहीं ली ? असल में ममता की विचारधारात्मक संरचना में पापुलिज्म पहले आता है। इस पापुलिज्म का दलतंत्र की मनोदशा से गहरा संबंध है। इसके अलावा ममता उनसभी विषयों को संदेह की नजर से देखती हैं जो समाधान की मांग करते हैं। ममता की दिलचस्पी उन विषयों में होती है जो समाधान की मांग नहीं करते। मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए 35 बंगाली मजदूर अपनी रिहाई की मांग कर रहे हैं और उनकी रिहाई को दलीय स्वार्थ त्यागकर सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में बंगाली मजदूरों की अवैध गिरफ्तारी के मसले को उठाने का फैसला किया है और हम उम्मीद करते हैं कि उनके प्रयासों से ये मजदूर तत्काल रिहा होंगे।
वोटबैंक संस्कृति दलीय मोह पैदा करती है।भाषायी,धार्मिक और जातिवादी घृणा के जरिए अपना विस्तार करती है। यह राजनीति में नकारात्मक फिनोमिना है। इसके कारण सामाजिक विभाजन तेज होता है। मन में दरारें पैदा होती हैं। प्रशासनिक संरचनाएं इसकी गिरफ्त में जल्दी आती हैं। साथ ही वंचितों और हाशिए के लोगों से प्रशासन की दूरी बढ़ती है। अनुयायियों के प्रति प्रेम में इजाफा होता है। इसके अलावा अविश्वास और संशय में तेजी से वृद्धि होती है। उत्तर- पूर्व के राज्यों में यह बीमारी पहले आई बाद में इसने अन्य राज्यों में पैर पसारने आरंभ कर दिए । हाल ही में महाराष्ट्र में यह फिनोमिना जोरों पर है। वहां पर गैर-मराठियों के प्रति विद्वेष की राजनीति को जिस तरह स्थानीय दलों ने हवा दी है उससे महाराष्ट्र का पुलिस प्रशासन पूरी तरह प्रभावित है । भारत में बोले जानेवाली भाषाओं और बोलियों के बाशिंदों के प्रति संदेह और घृणा का भाव अंततः भारत की एकता और अखण्डता को नष्ट करता है साथ ही इससे भारत के संविधान का अपमान होता है।
भारत का संविधान सभी भारतवासियों को चाहे वे कोई भी भाषा बोलते हों,देश में कहीं पर भी आने-जाने, व्यवसाय करने और काम करने की आजादी देता है। हमारे संविधान में भाषा,धर्म और जाति के आधार पर किए गए भेदभाव को दण्डनीय अपराध माना गया है। इसके बावजूद भारत में आए दिन भेदभाव और उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। ये खबरें किसी भी देशभक्त को परेशान कर सकती हैं लेकिन पश्चिम बंगाल के मौजूदा शासकों को ये चीजें कम परेशान कर रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ममता सरकार का बंगालियों के प्रति जो बेगानापन बढ़ रहा है वह समझ में आएगा। ममता सरकार का राज्य की आम जनता और उसकी समस्याओं के प्रति सजग भावबोध तेजी से क्षीण हुआ है। राज्य की आम जनता पर पुलिस के हमले बढ़े हैं,साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हुआ है।
सत्तारूढ़ होने के पहले तक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल और बंगाली जाति से जुड़े हर सवाल पर सक्रिय थीं लेकिन इन दिनों वे और उनके अनुयायी एकसिरे से बंगालियों पर बढ़ रहे हमलों पर चुप रहते हैं।
हाल ही में माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने एक महत्वपूर्ण मसले की ओर ध्यान खींचा है। महाराष्ट्र में 35बंगालियों को बंगला बोलने के कारण पुलिस ने बंगलादेशी का आरोप लगाकर गिरफ्तार करके कैद किया हुआ है। जबकि ये सभी मजदूर हैं और पुरूलिया के रहने वाले हैं। आश्चर्य की बात है कि माकपा सांसद के द्वारा इन बंगालियों की अवैध गिरफ्तारी का सवाल पहले उठाया गया और राज्य सरकार ने अभी तक इस मसले पर एक शब्द तक नहीं कहा। ये लोग दो महिने से जेल में बंद हैं। ये सभी पुरूलिया जिले के बाशिंदे हैं। ये लोग काम की तलाश में महाराष्ट्र आए थे । 22 सितम्बर को इन सभी को मुंबई पुलिस के बांकुला थाना इलाके में बंगलादेशी कहकर गिरफ्तार कर लिया और तब से ये सभी जेलों में बंद हैं। माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने इस मसले पर 9 अक्टूबर को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान को पत्र लिखकर जानकारी दी और उनसे फोन पर विस्तार से बातें करके हस्तक्षेप करने की अपील की । माकपा सांसद ने इस बीच महाराष्ट्र के गृहमंत्री से भी बात की है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से हस्तक्षेप की अपील करते हुए उनको 31 अक्टूबर को एक पत्र लिखा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्तक्षेप का आश्वासन देते हुए वासुदेव आचार्य को 6 नवम्बर को पत्र लिखा है। लेकिन प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप का कोई अभीप्सित परिणाम नहीं निकला है।
सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मसले में दिलचस्पी क्यों नहीं ली ? असल में ममता की विचारधारात्मक संरचना में पापुलिज्म पहले आता है। इस पापुलिज्म का दलतंत्र की मनोदशा से गहरा संबंध है। इसके अलावा ममता उनसभी विषयों को संदेह की नजर से देखती हैं जो समाधान की मांग करते हैं। ममता की दिलचस्पी उन विषयों में होती है जो समाधान की मांग नहीं करते। मुंबई पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए 35 बंगाली मजदूर अपनी रिहाई की मांग कर रहे हैं और उनकी रिहाई को दलीय स्वार्थ त्यागकर सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
माकपा सांसद वासुदेव आचार्य ने संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में बंगाली मजदूरों की अवैध गिरफ्तारी के मसले को उठाने का फैसला किया है और हम उम्मीद करते हैं कि उनके प्रयासों से ये मजदूर तत्काल रिहा होंगे।
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