रविवार, 25 नवंबर 2012

मुस्लिम वोटबैंक की घेराबंदी में जुटी माकपा और ममता


    
      पश्चिम बंगाल की राजनीति में मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए माकपा और ममता दोनों ने अपने प्रयास तेज कर दिए हैं। धार्मिकनेताओं को बहला-फुसलाकर मतदाताओं को राजनीतिक समर्थन में तब्दील करने की कोशिशें तेज हो गयी हैं। 

सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल के मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करेंगे। यहां 30 फीसदी मुस्लिम जनसंख्या है। दूसरी ओर ममता ने राज्य सरकार की ओर से मौलवियों को सरकारी भत्ते की घोषणा करके मुस्लिम मतदाताओं को महत्वपूर्ण बना दिया है और साथ ही यह भी संदेश दिया है आगामी चुनावों में मौलवियों की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। माकपा इस सबसे बेहद परेशान है। असल में ममता ने चंद वर्षों में ही मुस्लिम मतदाताओं में अपनी पुख्ता पकड़ बनाकर माकपा के लिए सिरदर्द पैदा कर दिया है।

उल्लेखनीय है ममता को सत्ता में लाने में मुस्लिम मतदाताओं की निर्णायक भूमिका रही है। जंगीपुर लोकसभा उपचुनाव में वामदलों को मुस्लिमों को अपनी ओर खींचने में सफलता नहीं मिली।जबकि वहां पर तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव नहीं लड़ा था। पिछले दिनों माकपा महासचिव प्रकाश कारात ने यह चिन्ता व्यक्त की कि पश्चिम बंगाल में धार्मिक फंडामेंटलिज्म सिर उठा रहा है और राज्य की भावी राजनीति के लिए यह अशुभ संकेत है।

तृणमूल कांग्रेस की समूची रणनीति की धुरी ये मुस्लिम वोट हैं। इन वोटों को बचाए रखने के लिए तृणमूल काग्रेस ने अनेक ऐसे कदम उठाए हैं जो हमारे धर्मनिरपेक्ष शासन की राजनीति के साँचे में फिट नहीं बैठते। मसलन् मस्जिद के मौलवियों को सरकारी भत्ते की स्कीन को लागू करके तृणमूल कांग्रेस मुसलमानों के दिल जीतना चाहती है और इस काम में उसे एक हद तक सफलता भी मिली है।

दूसरी ओर माकपा ने अपने कद्दावरनेता अब्दुल रज्जाक मुल्ला को इस काम में लगाया है। अब्दुल रज्जाक मुल्ला को कुछ दिन पहले यह इल्हाम हुआ कि वे मुसलमान हैं और उनको हज जाना चाहिए। वे हज गए और लौट भी आए हैं और उनकी हज यात्रा के बाद सामान्यतौर पर धार्मिक हलकों में उनका सम्मान-सत्कार भी हो रहा है। एक नागरिक के नाते वे हज जा सकते हैं। लेकिन वे इसका प्रचार क्यों कर रहे हैं ? वे नमाज पढ़ सकते हैं लेकिन वे इसका मीडिया में प्रचार क्यों कर रहे हैं ? एक राजनेता का धार्मिक प्रचार राजनीति में अनुदार ताकतों की मदद करता है।

कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म को मानने और न मानने के लिए स्वतंत्र है। धर्म एक निजी मसला है। लेकिन जब व्यक्ति अपनी धार्मिक आस्थाओं को सार्वजनिक करता है और उनका प्रचार करता है तो वह धर्म के नाम पर राजनीति करता है। धर्म के नाम पर राजनीति करने से धर्म में अनुदार तत्वों की ताकत बढ़ती है। राजनीति में धार्मिक अनुदारवाद को बल मिलता है। अब्दुल रज्जाक मुल्ला के द्वारा अभी तक अपनी हज यात्रा और उसके बाद के धार्मिक कदमों को मीडिया में प्रचारित करने से वाम राजनीति को कम धार्मिक अनुदार राजनीति को ज्यादा बल मिला है।

सवाल यह है कि अब्दुल रज्जाक मुल्ला तपे-तपाए कम्युनिस्टनेता हैं और उन्हें अपनी जिंदगी के इस दौर में अचानक धार्मिक पहचान का इल्हाम क्यों हुआ ? वे बार बार अपने को मुस्लिम के रूप में क्यों पेश कर रहे हैं ? एक कम्युनिस्ट के लिए धर्म निजी कार्य-व्यापार है। लेकिन मुल्ला ने अपनी धार्मिक पहचान और धार्मिक कार्यकलापों का मीडिया में प्रचार करके धर्म को राजनीति से जोड़ा है जो गलत है और वाम राजनीति के उसूलों के खिलाफ है। इसके बावजूद माकपा ने उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया है।

धार्मिक अनुदार राजनीति कैंसर है। यह अस्मिता की राजनीति का हिस्सा है। अस्मिता की राजनीति यदि अस्मिता में बांधे रखे और अस्मिता से आगे लेजाकर सामाजिक मुक्ति में रूपान्तरित न करे तो पलटकर सामाजिक विभाजन का काम करती है। यह सभी रंगत के धर्मनिरपेक्ष और उदार विचारों का निषेध है। यह धार्मिक फंडामेंटलिज्म है।

पश्चिम बंगाल में धार्मिक अनुदार राजनीति को अभी तक पर्दे के पीछे काम करते देखा गया था। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इस दिशा में तेजी से बदलाव आया है और इस तरह की राजनीति को चुनाव के मैदान में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए देखा गया है। जंगीपुर लोकसभा उपचुनाव में धार्मिक अनुदार राजनीति को तकरीबन 10 फीसदी वोट मिले हैं और इसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही रंगत के संगठन शामिल हैं। इतने वोट धार्मिक फंडामेंटलिस्ट संगठनों को हाल-फिलहाल के वर्षों में कभी नहीं मिले।

असल में राज्य में बढ़ रहे धार्मिक फंडामेंटलिज्म को नष्ट करने की जिम्मेदारी सभीदलों की है। इस मसले पर सभी राजनीतिक दलों को साझामंच बनाकर काम करना चाहिए। खासकर राज्य सरकार और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जिम्मेदारी ज्यादा है कि वे धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पर नजर रखें और इस तरह के नीतिगत कदम उठाएं जिनसे धार्मिक फंडामेंटलिज्म कमजोर हो।

धार्मिक अल्पसंख्यकों का दिल जीतने के लिए धर्म और धार्मिकतंत्र की मदद नहीं ली जाय। इसके विपरीत विकासमूलक योजनाओं के बहाने अल्पसंख्यकों को मैनस्ट्रीम राजनीति के अंदर सक्रिय किया जाय।


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