बुधवार, 28 नवंबर 2012

मैत्रेयी पुष्पा के बहाने स्त्री आत्मकथा के पद्धतिशास्त्र की तलाश


आत्मकथा में सब कुछ सत्य नहीं होता बल्कि इसमें कल्पना की भी भूमिका होती है। आत्मकथा या साहित्य में लेखक का 'मैं' बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह 'बहुआयामी होता है। उसी तरह लेखिका की आत्मकथा में 'मैं' का एक ही रूप नहीं होता। बल्कि बहुआयामी 'मैं' होता है। 

मैत्रेयी पुष्पा के पास एक लेखिका का 'मैं' है। साथ ही एकयुवा छात्रा,बिंदास युवती, परंपरागत पत्नी और माँ का भी 'मैं' है। आमतौर पर हिन्दी में लेखक के 'मै' पर जब भी बातें हुई हैं तो उसके एकल रूप की चर्चा हुई हैं। खासकर छायावादी लेखकों के संदर्भ में जो बहस चली है वह लेखक के एकल 'मैं' पर केन्द्रित है। रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक सबके नजरिए में छायावाद के लेखक का एकल 'मैं' है।यह 'मैं' के प्रति असंपूर्ण नजरिया है। इसके कारण एकल 'मैं' की स्टीरियोटाइप समझ बनी है। 'मैं' महज भावों की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उसकी अस्मिता की भी अभिव्यक्ति है। इसमें व्यक्ति और समाज, समुदाय और व्यक्ति, लिंग और साहित्य घुले-मिले होते हैं। इसी तरह एक ही पाठ में लेखिका की जेण्डर पहचान के अंदर अनेक अस्मिताएं होती हैं जिनसे अस्मिता का उप-पाठ बनता है।

'मैं' के बहुआयामी रूपों को खोलने से उसके विभिन्न स्थितियों में विभिन्न भाव नजर आएंगे। मसलन् मैत्रेयी पुष्पा के छात्रा के रूप में जो 'मैं ' है उसमें मातहत भाव नहीं है। लेकिन पत्नी रूप में मातहत भाव है। छात्रा के अंतर्विरोध और पत्नी के सामाजिक अंतर्विरोध अलग किस्म के हैं। यानी आत्मकथा या साहित्य पढ़ते समय हमें व्यक्ति के अंदर व्यक्ति की खोज करनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति में एक नहीं अनेक व्यक्ति होते हैं।

मैत्रेयी पुष्पा ने पत्नी भाव के बारे में लिखा है " मगर पत्नी की भूमिका। एक पतिव्रता!पति को क्या चाहिए,यह भी जानती थी। मन से ज्यादा तन का समर्पण और उसकी मौन आवृत्ति,कम नहीं,ज्यादा से ज्यादा करनी होती है। इसमें छल छद्म के लिए जगह नहीं। जैसे विवाहित जीवन की यही कसौटी हो । मैं संयत सन्तुलित सी स्त्री, जिसके लिए यह समय सन्तोष और आनन्दभरा था, क्योंकि देह-उत्तेजना अभी आदत में शुमार नहीं हुई थी। डॉक्टर साहब के लिए प्रेम का ,आकर्षण का, दाम्पत्य का और स्त्री –पुरूष के मानसिक और शारीरिक सम्बन्ध का अर्थ एक ही है। नहीं तो उनके गुस्से का उबाल ऐसा क्यों होता कि देह का द्वव विष हो जाए।'[1] यह एक मातहत 'मैं' है।जिसकी कल्पना स्वयं लेखिका कर रही है।पत्नी की अवस्था से भिन्न अवस्था में एक स्त्री के नाते जब सोचती हैं तो उसका 'मैं' कुछ और सोचता है। लिखा है, " बस ये लोग नहीं समझना चाहते कि बन्धन मुझे रास नहीं आते। बन्धनों में मैं छटपटाने लगती हूँ।"

आरंभ में लेखिका जी रही है पत्नी के रूप में और जीना चाहती है एक स्त्री के रूप में, और यहीं पर उसके अंदर छिपे कई 'मैं' सामने आते हैं। कहने का आशय यह है कि लेखिका की आत्मकथा पढ़ते हुए उसके अंदर छिपे विभिन्न किस्म के 'मैं' की तलाश की जानी चाहिए। प्रत्येक 'मैं' का संबंध भिन्न किस्म के विचारधारात्मक विमर्श के साथ है। प्रत्येक 'मैं' का समाज और नैतिकता के साथ भिन्न किस्म का संबंध है।

लेखिका का पार्टी में नाचना या डाक्टर सिद्धार्थ के साथ हंसकर बातें करना,पति के साथ बातें करना ये दो भिन्न किस्म की नैतिकता को सामने लाते हैं। व्यक्ति एक है, लेकिन उसके 'मैं' का समाज और नैतिकता से अलग किस्म का रिश्ता है।यहां नैतिकता के आधार पर भिन्न किस्म की अस्मिता भी बन रही है।खास किस्म की व्यक्तिगत अस्मिता भी बन रही है। इस क्रम में विभिन्न किस्म की अस्मिता, उनके साथ जुड़ी नैतिक मान्यताओं और सामाजिक संस्थानों की भूमिका की ओर भी लेखिका ने ध्यान खींचा है। यानी मैं,अस्मिता और नैतिकता का एक मूल्य त्रिकोण बनता है जो लगातार यह संदेश देता है कि अस्मिता के निर्माण में नैतिकता एक तरह से एजेण्ट की भूमिका अदा करती है। लेकिन इस नैतिक एजेण्ट को उसके ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ के बिना समझना संभव नहीं है।

नैतिक एजेण्ट के ऊपर मैत्रेयी के यहां उनकी निजी इच्छाएं प्रबल हैं। वह नैतिकता के सवालों से इच्छा के आधार पर खड़े होकर चुनौती देती है। इस प्रसंग में वे अंश बेहद सुंदर हैं जहां पर लेखिका मन ही मन अपनी बात कहती है। लेखिका का इस प्रसंग में आत्मालाप बहुत ही महत्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाता है। इस तरह के चित्रण के बहाने लेखिका ने पुंसवादी मूल्यों और नैतिक मान्यताओं को सीधे चुनौती दी है। स्त्री की चुनौतियों को दो स्तरों पर देखा जा सकता है। पहला ,उसके आत्मकथन और आत्मालाप, दूसरा , इच्छा व्यक्त करने या उसके आधार पर एक्शन में। स्त्री के एक्शन उसके प्रतिवादी रूप को व्यक्त करते हैं। मसलन् मैत्रेयी का अचानक डा. सिद्धार्थ के साथ नाचना स्वयं में पुंसवाद के खिलाफ प्रतिवाद है। इस प्रतिवाद या नाचने के दौरान लेखिका के मन में क्या घटा वह पढ़ें ,लिखा है ,

' डॉक्टर सिद्धार्थ!

मेरा हाथ पकड़कर उठाते हुए।पता नहीं कितना अपनत्व था,कितनी चुनौती थी ?

या परीक्षाकाल दोनों का ?

हाथ पकड़कर खींचनेवाला मीत... मैंने अनुमति के लिए पति की ओर देखा नहीं। अपना निर्णय अपने हाथ में ले लिया, खतरों के बारे में सोचा नहीं।

मैं नाच रही थी किसी के साथ-साथ, अनगढ़ और आदिम सा नाच...जैसे मेरे जीवन मूल्यों का हिस्सा यह भी हो। जब-जब मेरा पाँव डा.सिद्धार्थ के पाँव पर पड़ जाता, वे मुस्कराकर मुझे सँभाल लेते। यह परिचय का अगला चरण,उस जानकारी का मुझे कोई इल्म न था।"

मैत्रेयी पुष्पा ने जब डा.सिद्धार्थ के साथ नाचने के लिए कदम उठा दिए तो वे अपनी ज्ञानात्मक संवेदना,जिसमें पति रहता है,का अतिक्रमण करती हुई समाजशास्त्र में प्रवेश कर रही थीं और एक नए किस्म के सामाजिक विवाद को जन्म दे रही थीं, साथ ही अपने को भी नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश कर रही थीं। यहां पर उनकी निजी अस्मिता दांव पर लगी थी। इस क्रम में वह जहां अपनी पत्नी की अस्मिता के बने-बनाए साँचे को तोड़ रही थीं और अपने पति के मन में संशय पैदा कर रही थीं. टकरावों को जन्म दे रही थीं दूसरी ओर वे नैतिकता के प्रचलित मानकों को भी तोड़ रही थीं। ये दोनों क्रियाएं लेखिका के जीवन में नैतिकता की प्रगतिशील निरंतरता को बनाने में मदद कर रही थीं। इस क्रम में लेखिका के लिए मूल्यवान था उनका मन संतोष और इच्छा की संतुष्टि। उन्हें यह चिन्ता ही नहीं थी कि 'अन्य' क्या सोच रहे हैं ? उनके पति क्या सोच रहे हैं?

लेखिका के मन में नाचने के बाद किस तरह मानसिक तूफान उठा था इसका सुंदर चित्रण किया है। लिखा है ' जो लोग इलजाम लगा रहे हैं , उन्हें जाकर बता दो कि शादी के बाद मुझे मेरे हिसाब से कारावास मिला है,जिसके लौह-कपाट मैं तभी से तोड़ने में लगी हूं और देखना चाहती हूँ कि इस दुनिया के अलावा भी कोई दुनिया है ? पति के अलावा कितने लोग हैं बाहर ? वैसे पति से बैर भाव नहीं पाला ,मगर उनके किसी खूँटे से बँधना ? ... मैं भी अपने अन्दर भावनाएँ रखती हूँ,जैसे कोई गुप्त प्यार को बचा ले। नाचने की स्मृति मेरे साथ रहेगी।'

यहां पर मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी वैयक्तिकता को केन्द्र में रखकर नैतिकता को चुनौती दी है साथ ही आत्म-नजरिए से वे चीजों को नई व्याख्या दे रही हैं। वे जब नैतिकता को चुनौती दे रही हैं तो वे यह भी रेखांकित कर रही हैं कि नैतिकता के जो रूप प्रचलन में हैं खासकर स्त्री के संदर्भ में, वे स्त्री के मन या इच्छा को नहीं देखते। नैतिकता की सारी कसौटियां स्त्री के मन या इच्छा को बाहर रखकर तय की गयी हैं। यह असल में स्त्री का गतिशील 'मैं' है। इस गतिशील 'मैं' के आधार पर जब कोई व्यक्ति सोचता है तो वह जहां एक ओर आत्म और उससे जुड़ी नैतिकता को पुनर्परिभाषित करता है वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को एक नैतिक मनुष्य के रूप में देखने की स्थितियों को भी चुनौती देता है और स्त्री के लिए वैकल्पिक नैतिकता की तलाश आरंभ कर देता है।

मैत्रेयी पुष्पा यह भी रेखांकित करती है कि मेरी पहचान को उन चीजों के आधार पर परिभाषित किया जाए जो मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं। यानी स्त्री की अस्मिता को स्त्री के लिए जो मूल्यवान है उसके आधार पर परिभाषित किया जाए। इस क्रम में स्त्री की भाषा रचती है और उसके जरिए स्त्री की पहचान को निर्मित करती हैं। मैत्रेयी जब अपने आत्म को परिभाषित करती हैं तो वे अपने आसपास के वातावरण और संबंधियों-मित्रों आदि के संदर्भ में परिभाषित करने की कोशिश करती हैं।

आत्म को उसके आसपास के वातावरण के संदर्भ में ही परिभाषित किया जा सकता है। इस क्रम में वे बताती हैं कि वे क्या हैं ? किस धरातल पर खड़ी होकर बोल रही हैं ? परिवार में कौन-कौन हैं ?किस तरह के सामाजिक वातावरण में जी रही हैं ? वह सामाजिक भूगोल कैसा है जिसमें जी रही हैं।

जब भी कोई स्त्री अपनी आत्मकथा लिखती है तो वह निजी कथा के साथ स्त्री की सामाजिक कथा भी लिख रही होती है।फलतःआत्मकथा स्त्रियों की सामुदायिक व्यथा-कथा का रूप ग्रहण कर लेती है।

आत्मकथा में आए नैतिकता के एजेण्टों की सही ढ़ंग से पड़ताल करने की जरूरत है। स्त्रीचेतना के स्तर को जानने और उस पर नैतिकता के दबाबों को जानने में यह तथ्य खोजना चाहिए कि आखिरकार नैतिकता पर किससे संवाद हो रहा है अथवा किससे विचारधारात्मक संघर्ष चल रहा है। क्योंकि नैतिकता को उसके संवादियों को जाने बिना खोला नहीं जा सकता है। अनेक मर्तबा नैतिकता का स्वरूप आत्मालाप और आतामानुभूति में व्यक्त होता है। लेकिन अनेकबार नैतिकता की स्थितियां अन्य से संवाद करते हुए सामने आती हैं। खासकर ऐसे लोगों से बातें करते हुए सामने आती हैं जिनके सामाजिक-ऐतिहासिक विवरण और ब्यौरों को पाठक जानता है।

नैतिकता के प्रसंग में हमेशा यह तथ्य ध्यान रहे कि अंतर्मन में बैठे नैतिक मूल्य कभी तटस्थ नहीं होते। न वे तटस्थ भाव से मन में प्रवेश करते हैं और न तटस्थ रहने देते हैं। नैतिकता के दायरे और सरोकारों को सिर्फ सवालों के दायरे तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए।बल्कि यह देखें कि नैतिकता के सामान्य लक्षण किस तरह व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इस प्रसंग में व्यक्ति को समग्रता में देखना चाहिए और उसके संदर्भ में ही उसके आत्म की परीक्षा की जानी चाहिए। यानी लेखिका को 'मैं' को समग्र के अंश के रूप में देखना चाहिए। समग्र से काटकर लेखिका के 'मैं' को देखने से चीजें साफ ढ़ंग से समझ में नहीं आतीं।यह समग्र जेण्डर और समुदाय दोनों से बना है।इसका अर्थ यह है कि साहित्य का इतिहास पढ़ाते समय जब दलित या स्त्री आत्मकथा पर बात की जाय तो समुदाय,लिंग और जाति के आधार पर बातें की जाएं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मौजूदा दौर समुदाय और साहित्य के अन्तस्संबंध के आधार पर पढ़ने या विश्लेषित करने की मांग करता है। हमारे आलोचकों ने अभी तक साहित्य और समुदाय के अंतस्संबंध पर सोचा ही नहीं है। वे तो साहित्य और वर्ग, साहित्य और समाज के आधार की ही चर्चा करते रहे हैं। यानी साहित्य और समुदाय का अन्तस्संबंध एक नए पैराडाइम को जन्म दे रहा है। इस पैराडाइम के लक्षणों की विस्तार में जाकर पड़ताल करने की जरूरत है।

स्त्री- आत्मकथाओं में नैतिकता के सवाल महत्वपूर्ण हैं। इनके बारे में हमें पद्धति और शास्त्र दोनों ही स्तरों पर स्पष्ट समझ से काम लेना होगा। नैतिकता के मानकों को दिखाकर आमतौर पर स्त्री को अधिकारहीन बनाने की कोशिश की जाती है और उसे सार्वजनिक जीवन में अपनी स्वायत्त जगह बनाने से रोका जाता है।

इस परिप्रेक्ष्य में मैत्रेयी पुष्पा की सामाजिक स्थितियों और उनके इर्दगिर्द बुने हुए नैतिक मानकों को देखा जाना चाहिए। नैतिकता के तानेबाने को समग्रता में देखते हुए मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है , ' बन्धन मुझे रास नहीं आते।बन्धनों में मैं छटपटाने लगती हूँ।' यह कमोवेश प्रत्येक भारतीय स्त्री की स्थिति है।

हिन्दीभाषी औरत कैसे जीती है और उसके चारों ओर किस तरह की घेराबंदी है , उसके अनेक चित्रों का विस्तृत विवरण मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आत्मकथा में दिया है। फलतः आत्मकथा में जेण्डर यानी लिंग और समुदाय की अवधारणा केन्द्र में चली आई है। अब आत्मकथा पढ़ते हुए आप एक लेखक की आत्मकथा नहीं पढ़ रहे बल्कि एक स्त्री और एक समुदाय का आख्यान पढ़ रहे हैं। आत्मकथा में एक स्त्री या एक दलित का प्रतिवाद या छटपटाहट या बेचैनी निजी होने के साथ साथ सामुदायिक भी है।

यानी रचना में एकाधिक प्रतिवादी इमेजों को हम पढ़ते हैं। ये दोनों चरित्र ( निजी चरित्र और सामुदायिक चरित्र) एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते नजर आते हैं। इसके कारण आत्मकथा में एक साथ अनेक आख्यान चलते रहते हैं। अतः इस तरह के प्रतिवादी चरित्रों को एक महाख्यान में बांधना संभव नहीं है। कहने के लिए यह एक औरत की कहानी है लेकिन इसमें अनेक चरित्र हैं जो इस कहानी के साथ समानांतर कहानियों को जन्म दे रहे हैं। इसके अलावा संस्कृति के भी एकाधिक रूप सामने आते हैं। एक संस्कृति वह है जिसे लेखिका स्वयं जीना चाहती है और दूसरी संस्कृति वह है जिसे समाज जीना चाहता है या जी रहा है। समाज जिस संस्कृति को जी रहा है वह लेखिका के लिए समस्याएं खड़ी कर रही है। स्त्री के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है। यही वजह है कि मैत्रेयी पुष्पा ने जगह-जगह बेहद चुटीली मुहावरेभरी भाषा का इस्तेमाल किया है। जैसे- 'स्त्रियों की छाती में थालियाँ छनछनाती हैं।' ,' कहते हैं कि पत्नी से बड़ा ' शॉक एब्जॉर्बर ' कोई नहीं होता।' ,' जो खुलकर हँसता है,उसे खुदा की जरूरत नहीं।', 'सूरत के साथ योग्यता न हो तो सुन्दरता अधूरी रहती है' आदि।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में चुटीले वाक्य आमतौर पर वहां पर आए हैं जहां पर लेखिका पुनर्व्याख्या की मांग करती है। नए सिरे से कोई बात कहना चाहती है या नई बात की ओर ध्यान खींचना चाहती है ,यह उसकी ध्यान खींचने की कला हैं। इस तरह वह यह भी बताने की कोशिश करती है कि हमारे पास एकाधिक 'स्व' या 'मैं' हैं। या यों भी कह सकते हैं कि एक से अधिक आत्माएं हैं। एकाधिक 'मैं' के अभाव में असल में आख्यान नहीं बनता। नाटकीय इमेजों की सृष्टि नहीं होती। या छद्म की सृष्टि नहीं होती। साहित्य की कलात्मक रणनीति का यह अन्तर्ग्रथित हिस्सा है।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा की विशेषता यह है कि इसमें हिन्दी संस्कृति के तानेबाने को अतिवादी ढ़ंग से लेखिका खारिज नहीं करती बल्कि धीरे धीरे उसकी परत- दर-परत खोलती है। इससे संस्कृति की समझ बनती है और वे क्षेत्र उजागर होते हैं जहां कायदे से परिवर्तन की जंग को लड़ा जाना है। इसमें बड़ा क्षेत्र है पुंसवादी नजरिए का, और दूसरा है पुंसवादी व्यवस्था,संस्कार और आदतों का। इन दोनों क्षेत्रों की बारीकियों को बड़े ही सुंदर ढ़ंग से लेखिका ने पेश किया है।

सवाल यह है कि आत्मकथा के विश्लेषण की पद्धति क्या हो ? क्या एक पद्धति से आत्मकथा समझ में आएगी ? आत्मकथा को एक पद्धति या शास्त्र या सिद्धांत से समझना संभव नहीं है। इस प्रसंग में पहली बात यह कि स्त्री का लिंग तय है और हमारा समाज स्त्री को सामाजिक निर्मिति न मानकर ईश्वरप्रदत्त या प्राकृतिक देन मानकर चलता है। पहली आवश्यकता है कि स्त्री को ईश्वरप्रदत्त न मानें। स्त्री के बारे में बनाए सभी कानूनों, मान्यताओं और संस्कारों को अपरिवर्तनीय, स्वाभाविक ,अनिवार्य और अपरिहार्य न मानें। स्त्री की निर्मिति की सामाजिक प्रक्रियाओं पर नजर रखें, इन प्रक्रियाओं की जितनी गहरी समझ होगी। स्त्री के बारे में उतने ही बेहतर मूल्यांकन की संभावनाएं भी होगी। जिस तरह समाज बदलता रहता है उसी तरह स्त्री भी बदलती रहती है। स्त्री कैसे बदल रही है उस प्रक्रिया को सहृदयभाव से समझने और स्वीकार करने की जरूरत है। स्त्री को जड़ और अपरिवर्तनीय रूप में देखने के कारण ही हमारे आलोचक एक खास किस्म के स्टीरियोटाइप से आगे जाकर स्त्रियों की समस्याओं को समझने में असमर्थ रहे हैं।

स्त्री सामाजिक निर्मिति है और परिवर्तनशील अवस्था में रहती है। उसके रूपान्तरित रूप का एक छोर पाठ में होता है और दूसरा छोर पाठक के मन में या सामयिक समाज में होता है जो पाठक पढ़ते समय बनाता है। इस नजरिए से यदि स्त्री को देखें तो स्त्री का पाठ भी गतिशील और परिवर्तनीय होता है।

मसलन् स्त्री की नैतिक मान्यताओं के सवाल को ही लें। स्त्री की नैतिकता को सामयिक सरोकारों की रोशनी में बार- बार परिभाषित करने की आवश्यकता है।हमें यह भी देखना चाहिए कि सामाजिक सरोकारों या स्त्री के सरोकारों का सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र कितना व्यापक है या कितने बड़े क्षितिज को स्त्री घेरती है। स्त्री के नैतिक मूल्यों और मान्यताओं को परिभाषित करने वाले संस्थानों का चरित्र किस तरह का है ? इन संस्थानों का चरित्र ही अंततःस्त्री के निजी और सामाजिक चरित्र का गठन करता है। यदि संस्थानों का चरित्र पुंसवादी है तो तय है स्त्री की मान्यताओं-संस्कारों और सामाजिक अवस्था की स्थितियों का पुंसवादी विचारधारा और संस्थानों के साथ टकराव होगा। यही वजह है ज्योंही कोई स्त्री तयशुदा फ्रेमवर्क के बाहर आकर सोचने-समझने या व्यक्त करने की कोशिश करती है उस पर लांछन लगने शुरू हो जाते हैं। स्त्री के प्रति लांछनों की अभिव्यक्ति इस बात का संकेत है सामाजिक संस्थानों का चरित्र पुंसवादी है और असहिष्णु है। इस नजरिए से देखें तो स्त्री के सामने दोहरी चुनौती है, उसे पुंसवादी संस्थानों के दबाब से अपने लिंग की रक्षा करनी है वहीं दूसरी ओर अपने लिए छोटे छोटे कामों, इच्छाओं, धारणाओं और मान्यताओं की अभिव्यक्ति के लिए जगह भी निकालनी है।

इस क्रम में स्त्री का 'समग्र' और 'अंश' दोनों ही नए सिरे से निर्मित करने की जरूरत है। स्त्री अपनी आत्मकथाओं में पुंसवादी विचारधारा से निर्मित अपने चरित्र,स्वभाव,स्थितियों आदि का व्यापक चित्रण करते हुए उन पहलुओं को सामने लाती है जहां पर वह बदल रही है या प्रतिवाद करके वैकल्पिक परिस्थितियों की खोज कर रही है। विचार विमर्श के लिए यह बेहतर प्रस्थान बिंदु हो सकता है। यहीं से वह अपने चरित्र में बदलाव की प्रक्रियाओं को सामने लाती है।

मसलन् एक स्त्री अपनी आत्मकथा को कहते समय जब उन पहलुओं को सामने लाती है जो लकीर से हटकर हैं तो वह रूपान्तरण की ओर ध्यान खींचती है। स्त्री समीक्षा को कायदे से स्त्री के रूपान्तरण पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि इसी बिंदु से उसका भविष्य का संसार सामने आता है। यही वह बिंदु है जहां पर उसकी मौजूदा अस्मिता और संभावित अस्मिता में तनाव और अन्तर्विरोध के दर्शन होते हैं। साथ ही उस आख्यान को भी खोल सकते हैं जो उसके 'समग्र' और 'अंश' के बीच में विभिन्न स्तरों पर बिखरा पड़ा है।

स्त्री के संदर्भ में एक और तथ्य महत्वपूर्ण है,वह है 'समग्र' और 'अंश' के बीच के अन्तर्विरोध। स्त्री अपनी आत्मकथा में अपने 'समग्र' को पेश करते समय जिन अंशों को पेश करती है वे अंश उसके समग्र के अनुकूल कभी नहीं होते। इस नजरिए से देखें तो पाएंगे कि स्त्री अपने समग्र को रचते समय 'अंश' के जरिए समग्र पर सवालिया निशान लगाती है। 'अंश' के जरिए 'समग्र' को अपदस्थ करने की कोशिश करती है। स्त्री आत्मकथा में 'अंश' वस्तुतः 'समग्र' के विकल्प की तलाश में ही रचे जाते हैं और यही वजह है कि स्त्री आत्मकथा में 'समग्र' और उसके 'अंश' का अन्तर्विरोध हमेशा बना रहता है।

जबकि अब तक का रिवाज है कि 'समग्र' और 'अंश' में एकता की बात कही गयी है। 'समग्र' की संगति और परिप्रेक्ष्य में 'अंश' को पढ़ने की वकालत की गयी है। यह आलोचना का पुंसवादी नजरिया है जिसमें 'समग्र' और 'अंश' में एकता को अनिवार्य माना गया है।स्त्री के यहां 'समग्र' और 'अंश' में अन्तर्विरोध होते हैं। वह 'समग्र' का हमेशा प्रतिवाद करती है। अपनी बनी-बनायी इमेज को अस्वीकार करती है।अतः स्त्री के 'अंश' के परिप्रेक्ष्य में 'समग्र' पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। स्त्री की आत्मकथा में नरेटिव और स्त्री के जीवन की परिवर्तन प्रक्रिया का यह सच है कि उसके जीवन के छोटे-छोटे अंश पूरे चरित्र की इमेज को क्रमशः बदलते रहते हैं। यहां 'अंश' से 'समग्र' में आए परिवर्तनों को देखा जाना चाहिए। मसलन् मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का कोई एक 'अंश' देखें और समझने की कोशिश करें कि स्त्री की समग्र प्रचलित धारणा को नए अंश किस तरह बदलते हैं। अंश –दर- अंश बदलती औरत ही कालांतर में एकदम नई इमेज के साथ सामने आती है।

मैत्रेयी पुष्पा ने लिखा है, ' आज मैंने जापानी जॉरजट की सी-ग्रीन साड़ी निकाली,दिल्ली में यही फबेगी दो चोटियों के बदले एक चोटी गूँथी।पति को ऐसे मिली जैसे मैं पहले दिन से ही फैशन के रास्ते पर हूँ। मैं झाँसी की लड़की का झोला उतारकर ,जीवन के प्रबल प्रवाह को बाँधकर अपने व्यक्तित्व को सजावट के साधनों से आकर्षक बनाने पर तुलीगई,क्योंकि मान बैठी कि असली प्रेम विवाह के बाद होता है। प्रेमी,पति के सिवा कोई नहीं हो सकता। पत्नी यदि इसके अलावा किसी संवेग के दबाब में आती है तो पति को खोने में देर नहीं लगती। डॉ.शर्मा तो वैसे भी शर्महया वाली स्त्री को पसन्द करते हैं। वे सामाजिक प्रतिष्ठा, शिष्टाचार और सभ्यता के स्तंभ हैं। मैं आधुनिक होने के नशे में धुत, चाँदनी रात में उतर गई।हॉस्टल पर शुक्लपक्ष उतर रहा था और सफेदा के वृक्षों के लम्बे-लम्बे परदों के बीच जाड़े की रात पति की युवा बाँहों में मोहाविष्ट सी...' सचमुच सपनों का संसार मेरी राह देख रहा है'मैं सोच रही थी।पति को तन-मन से पाना है,जितना ही छोटा समय मिले। खुद को नादान दिखाते हुए या मूर्खता दिखाते हुए या कि उन्हें संभालते हुए, दुलराते और अपने भीतर उतारते हुए,किसी साहस दुस्साहस से गुजरकर भी। आज का दिन ,दिल्ली का दिन। हमारे प्रेम की आधुनिक शुरूआत का दिन न इसके पहले था न इसके बाद... मैं लहरों में उतरने के लिए तैयार,सम्मिलन की उत्ताल तरंगों की कल्पना कर रही हूँ। रात के दस बजे हैं। मैं पति की ओर बढ़ रही हूँ। मेरी खुशी का पारावार नहीं कि यहाँ छतों-छतों,छज्जे-छज्जों आने और खिड़कियोंसे झाँकनेवाला कोई नहीं। झाँककर बात उड़ानेवाला कोई नहीं,'प्रायवेसी' इसी का नाम है।

तभी दस्तक!'

इस पैराग्राफ में कई नई बातें हैं जिनके आधार पर स्त्री की पुरानी अस्मिता में से नई आधुनिक अस्मिता के अंश जन्म ले रहे हैं। परंपरागत औरत अपने पुराने कलेवर को छोड़ रही है और उसमें एक नए किस्म की, नई रूपसज्जा और नई मनोदशा की आधुनिक अनुभूतियों की तलाश करती औरत सामने आ रही है और यह प्रक्रिया आरंभ होती है औरत के सजने-संवरने से और वह तलाश कर रही है अपने लिए 'प्रायवेसी' ,यह एकदम नया बोध है। प्रायवेसी की धारणा के आने के साथ कहानी में यहां से एक नए पुरूष के प्रति आकर्षण का आरंभ भी दिखाई देता है और इस तरह एक औरत के मन में अन्य के प्रति अपील का जन्म भी होता है। दस्तक के बाद क्या होता है उसका बहुत सुंदर वर्णन किया है लेखिका ने। इस क्रम में लेखिका ने अपनी जिन अनुभूतियों को अभिव्यक्त किया उनके विपरीत विलक्षण लेकिन सत्याभास व्यक्त करने में लेखिका को सफलता मिली है। इस तरह के असंख्य चित्र मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में बिखरे पड़े हैं। कहने का अर्थ यह है आत्मकथा में 'अंश' नए को सामने लाते हैं और इनसे एक नया व्यक्तित्व और मूल्यबोध भी सामने आता है। औरत इसी अर्थ में समग्रता के पैमाने से चीजें देखने का निषेध करती है। वह 'अंश' के आधार पर बनती-संवरती और बदलती है,समग्रता तो उसके विकास की बाधा है।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में एक साथ दो अस्मिताएं प्रतिस्पर्धा करती नजर आती हैं। पहली अस्मिता है परंपरागत औरत की, दूसरी अस्मिता है आधुनिक औरत की। ये दोनों अपने ढ़ंग से एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं और संसार को बदलती हैं। इसे चाहें तो अस्मिताओं का संघर्ष भी कह सकते हैं। एक तरफ पुराने रूप ,स्वरूप,मूल्य और आदतें बनाए रखने का दबाव और दूसरी ओर पुराने से मुक्त होने की छटपटाहट। इस प्रतिस्पर्धा को समग्रता में देखेंगे तो लेखिका का पूरा व्यक्तित्व नजर आएगा। इस क्रम में मजेदार बात यह है कि प्रत्येक नई कहानी या नया उभरता रूप या जीवनक्षण स्वयं में संपूर्ण था। इस प्रक्रिया में लेखिका बार बार अपने हर कदम की व्याख्या भी करती जाती। इससे यह भी पता चलता है कि उसे अन्य की व्याख्या पर भरोसा नहीं है, वह अपने प्रत्येक कार्य-व्यापार को लेकर पारदर्शिता बनाए रखना चाहती है।इस व्याख्या के बहाने अपने अंदर छिपे एकाधिक अस्मिता के रूपों को वह वैधता प्रदान करती है और पाठकों से भी यह मांग करती है कि वे भी एकाधिक अस्मिताओं को वैधता प्रदान करें। रोचक बात यह है कि मैत्रेयी अपनी एक इमेज को वैध ठहराते हुए दूसरी इमेज को भी वैध ठहराती है और इससे एकाधिक मैं की उनकी रचना में अभिव्यक्ति होती है।

आमतौर पर मर्द लेखकों में एक 'मैं 'होता है। वे उसके इर्दगिर्द ही तानाबाना बुनते हैं। लेकिन मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में एकाधिक मैं हैं और सभी मैं प्रतिस्पर्धा है, यहां 'आत्म' के उदघाटन के काम को लेखिका बड़ी शिद्दत के साथ संपन्न करती है। यह ऐसा 'स्व' है जो सतह पर देखने में सिलसिलेबार विकसित होता है लेकिन वास्तव अर्थ में ऐसा नहीं है। यहां स्त्री का सुनिश्चित 'स्व' सामने नहीं आता बल्कि रूपान्तरित होता 'स्व' सामने आता है। यहां परंपरागत 'स्व' और उदीयमान 'स्व' के बीच में तनाव साफ देखा जा सकता है। इस क्रम में लेखिका अपने परंपरागत 'स्व' को बचाने की चेष्टा नहीं करती बल्कि छोटे छोटे एक्शन के जरिए उसे तोड़ती है। यहां वह गुलामी और 'स्व' के बीच का अन्तर्विरोध भी विकसित करती है।

परंपरगत स्त्री वस्तुतः गुलाम औरत की इमेज है जिसके साथ उदीयमान स्त्री के 'स्व' का अन्तर्विरोध है। परंपरा औरत के साथ इतिहास जुड़ा है जबकि उदीयमान स्त्री की अस्मिता के साथ नया सामाजिक यथार्थ जुड़ा है। फलतः आत्मकथा में परंपरा और सामयिक यथार्थ का अन्तर्विरोध जन्म लेता है। परंपरागत औरत और नयी औरत के बीच के अन्तर्विरोध को अभिव्यक्ति तब मिलती है जब किसी खास समय लेखिका कोई एक्शन करती है। इस तरह आत्मकथा में परंपरा और समय के बीच अन्तर्विरोध(टाइम) विकसित होता है। लेखिका समय के साथ रहना पसंद करती है और परंपराओं से मुक्त करती चली जाती है। ये अन्तर्विरोध गुलामी और 'स्व' के बीच का भी है। इस क्रम में 'स्व' का विकास होता है और गुलामी का तानाबाना कमजोर होता चला जाता है।

मैत्रेयी पुष्पा ने ज्योंही परंपरागत स्त्री और नई स्त्री की अस्मिताओं के बीच की जंग या अन्तर्विरोधों को चित्रित किया त्योंही वह एक नई सामाजिक अस्मिता के उदय की ओर भी संकेत छोड़ती हैं। जब वे परंपरागत औरत को चित्रित करती हैं और उसके बरक्स रखकर आधुनिक 'स्व' को सामने लाती हैं तो 'स्व' में विभाजन नजर आता है। ऐसी स्थिति में परंपरागत औरत और 'स्व' में किसी भी किस्म का सामंजस्य बिठाना संभव नहीं दिखता।बल्कि विखंडित 'स्व' नजर आता है। इससे 'स्व' के दोहरे चरित्र के दर्शन भी होते हैं। वे अपने जीवन का लेखाजोखा पेश करते हुए बताती हैं कि सामाजिक संबंध, पति-पत्नी के संबंध, मित्रों और रिश्तेदारों के साथ संबंध किस तरह के होते हैं और वे किस तरह अपनी भूमिका अदा करते हैं। इस क्रम में वे गुलाम औरत के व्यापक अनुभव संसार को सामने लाती हैं।इस नजरिए से देखें तो वे आधुनिक स्त्री की गुलामी के विभिन्न चित्रों को उकेरने में सफल रही हैं। साथ ही अन्य किस्म के शोषण और दमन के रूपों को उदघाटित करने में भी उन्हें सफलता मिली है।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में दोहरा जीवन,दोहरी अस्मिता, दुरंगे मूल्य,दुरंगे विचार,दोहरा सामाजिक जीवन आदि को बेपर्दा करती हैं। इस तरह वे दो मैं,दो अस्मिता,दो तरह का जीवन,दोहरी जिम्मेदारियां,दो तरह की चेतना, दो तरह के सामंजस्यहीन विचार और भावबोध को व्यक्त करने में सफल रही हैं। वे अपने जीवन में व्याप्त इस 'दो' को व्याख्या के जरिए बताती जाती हैं और उसके अनुभवों को ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ में पेश करती हैं।

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा पढ़ते समय हमें आत्मकथा मॉडल के प्रारूप पर भी विचार करना चाहिए। स्त्री आत्मकथा में लेखिका को एकल चरित्र को रूप में देखते समय स्त्री के निर्माण के ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों पर नजर जाती है। वहां पर उसके आख्यान के ऐतिहासिक कारणों को देख सकते हैं। जबकि स्व या आत्म या मैं को देखते समय उसके परंपरागरूप के साथ स्व के अंतर्विरोधों का उदघाटन होता है। परंपरागत स्त्री में एक सुनिश्चित औरत नजर आती है जो परंपरागत कामों में पंक्चुअल है।लेकिन जहां यह स्त्री पंक्चुअल नहीं है वहां पर वह नई दिशाओं में अभिव्यक्त करती नजर आती है। यहां पर यह औरत एक समुदाय की सदस्या के रूप में सामने आती है ,एक जेण्डर के रूप में सामने आती है। ऐसी औरत है जिसका कोई इतिहास नहीं है,वह पहचान के उन रूपों को एकसिरे से खारिज करती है जो नैतिकता के तानेबाने में जकड़े हुए हैं।यहीं पर स्त्री के एकाधिक 'मैं' या 'स्व' की अभिव्यंजना भी होती है। यह बहुरूपी स्व वस्तुतःमुक्ति की प्रक्रिया के प्रयासों, नए को अर्जित करने के संघर्ष में ही सामने आता है।इस प्रक्रिया का अन्य कोई विकल्प नहीं है।इस क्रम में यह तथ्य भी उजागर होता है कि स्व का एक ही किस्म का स्वभाव या ओरिएण्टेशन नहीं होता।

'स्व" का बहुरूपी चरित्र स्त्री आत्मकथा विधा की विशेषता है। इसका प्रधान कारण है स्त्री का परंपरगत रूप और जीवन एक सामान्य आख्यान देता है जिसमें स्त्री दासता के अनेक रूप अभिव्यक्त होते हैं। यह रूप सम्प्रति,नैतिक तौर पर अप्रासंगिक है। इस परंपरागत रूप के आधार पर स्त्री की परिवर्तित स्थितियों का अंदाजा लगाना संभव नहीं है। इस रूप की जटिलताओं और असफलताओं या अप्रासंगिकता को परंपरागत सिद्धान्तों के जरिए नहीं समझा जा सकता। स्त्री के गुलाम रूप और स्वतंत्र,स्वायत्त आधुनिक रूपों को समझने के लिए स्त्रीवादी सैद्धान्तिकी के एकाधिक सिद्धान्तों की मदद लेने पर ही आत्मकथा खुलती है।




















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