मंगलवार, 29 जनवरी 2013

असत्य- सत्य के भाषायी खेल में फंसी ममता

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी असत्य-सत्य के खेल में फंस गयी हैं। वे मंच पर भाषा में खेलती हैं और बाद में फंसती हैं। भाषाखेल खतरनाक होता है , अमूमन इसमें फंसने का खतरा होता है। ममता जब मंच से बोलती हैं तो यह भूल जाती हैं वे मुख्यमंत्री हैं। ममता यह भी भूल गयी हैं कि वाममोर्चे के अत्याचारों से तंग आकर लोगों ने बड़ी आशाओं के साथ उनको जिताया था और यह सोचा था कि उनके नेतृत्व में राज्य सरकार लोकतांत्रिक मान-मर्यादाओं का पालन करते हुए काम करेगी। राज्य में कानून-व्यवस्था का शासन स्थापित होगा। मस्तानों-दादाओं के राज की विदाई होगी। लेकिन ममता बनर्जी की अराजक कार्यशैली ने इन सपनों को नष्ट किया है। आमलोगों में तेजी से असंतोष पैदा हुआ है। एकवर्ग अभी भी ममता से आस लगाए बैठा है कि वे अपनी कार्यशैली को सुधारें। लेकिन ममता का निरंकुश मन नियंत्रण में काम करने को तैयार नहीं लगता। 

आज से दो साल पहले ममता राज्य के लोगों का सुंदर सपना थीं और इनदिनों वे दुःस्वप्न की तरह लग रही हैं।पहले उनके भाषण को लोग टीवी पर मन लगाकर सुनते थे ,इनदिनों उनका भाषण ज्योंही टीवी पर आता है दर्शक चैनल बदल लेते हैं।

ममता भूल गयी हैं कि मुख्यमंत्री के तंत्र का सारा हिसाब विभिन्न खातों में दर्ज होता है। वे पहले तृणमूल कांग्रेसनेत्री थीं, वे स्वतंत्र थीं मनमाने काम करने के लिए। वे स्वतंत्र थीं मनमाने ढ़ंग से खर्च करने को। लेकिन मुख्यमंत्री के पास यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। मुख्यमंत्री के पास अबाध अधिकार हैं लेकिन इन अधिकारों के उपयोग-दुरूपयोग का हिसाब रहता है। उनकी हर गतिविधि खाते में दर्ज होती है । उनके काम का अन्य संस्थाएं मूल्यांकन करती हैं। यही वह बिन्दु है जहां ममता फंस गयी हैं। वे राज्य सरकार के कामकाज को अपने दल के कामकाज की तरह चला रही हैं। वे भूल कर रही हैं कि दल में वे सर्वेसर्वा हैं लेकिन मुख्यमंत्री के नाते वे जनता की नजरों में,विपक्ष की नजरों में ऑडीटरों की नजरों में कैद हैं।इनलोगों की सख्त जांच-परख के सामने उनके सारे भाषाखेल की परतें जल्द ही खुल जाती हैं।

ममता और उनके दल को यह भी ध्यान रखना होगा कि असत्य के पैर नहीं होते। असत्य हमेशा निराधार होता है। असत्य को यदि मीडिया या आमसभाओं में बार बार दोहराया जाएगा इससे तालियां मिल सकती हैं,कवरेज मिल सकता है लेकिन सत्य की सृष्टि नहीं हो सकती।

असत्य को यदि राजनीति में विरोधी को परास्त करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसमें येन-केन प्रकारेण सफलता मिल जाती है तो एक अवधि के बाद आमलोग असत्य को समझ जाते हैं और फिर से सत्य की खोज करने लगते हैं। जिस तरह असत्य का आधार नहीं होता उसी तरह सत्य कभी निराधार नहीं होता। असत्य और सत्य का यह खेल अंततःसत्य को प्रतिष्ठित करता है।

ममता सरकार में कुछ मंत्री हैं जो लगातार असभ्यभाषा का बोल रहे हैं। इनमें मदनमित्र,बेचाराम मन्ना,ज्योतिप्रिय मल्लिक आदि प्रमुख हैं। यह अभी तक रहस्य बना हुआ है कि तृणमूल कांग्रेस के अधिकांश कार्यक्रमों में इन तीनों मंत्रियो को ही क्यों बुलाया जाता है ?

ममता के असत्य प्रचार के जबाब में माकपा ने हमले तेज कर दिए हैं। ममता को यह बात समझनी ही होगी कि जनता के मन को सत्य से जीतते हैं असत्य से नहीं। वाममोर्चे के विगतशासन में आमलोग बेहद कष्ट में थे जिसके कारण वाममोर्चा बुरी तरह चुनाव हारा । लेकिन इस जीत को ठोस सत्य का आवरण पहनाने में ममता असफल रही हैं। वे भूल गयीं कि मुख्यमंत्री झूठ नहीं बोल सकता। उसकी निगरानी होती है। उस पर कई अंकुश लगे हैं। ममता अपने अंदर झांककर देखें कि उनसे कहां गलती हो रही है।

ममता ने सत्ता संभालते ही राज्य की अर्थव्यवस्था के बारे में आम लोगों से सत्य नहीं बोला। राज्य की अर्थव्यवस्था के बारे में उनके बताए सारे आंकड़े और दावे सही नहीं हैं। अर्थव्यवस्था के बारे में असत्य कहने से उनकी राजनीतिक साख ही खतरे में पड़ गयी है। उनका मानना है राज्य में अर्थसंकट है और केन्द्र उनकी मदद नहीं कर रहा। विगत वामशासन ने राज्य की अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया और सरकार के पास एक भी पैसा नहीं है।

वामशासन में लंबे समय तक वित्तमंत्री रहे असीमदास गुप्ता ने इस संदर्भ में जो तथ्य पेश किए हैं उनकी रोशनी में ममता के दावों में दम नजर नहीं आता। असीमदास गुप्ता का मानना है राज्य की सकल आय 100366 करोड़ रूपये है और सकल खर्चा है 100375 करोड़ रूपये। यह आंकड़ा ममता सरकार के वित्तमंत्री ने 2012-13 के राज्य बजट में विधानसभा में पेश किया है। इस तथ्य से ममता के दावे का खण्डन होता है।

ममता सरकार की अराजक कार्यशैली के कारण विभिन्न विकास प्रकल्पों के लिए धन का अबाध फ्लो बाधित हुआ है। मसलन् विकास प्रकल्पों के लिए जो धन पहले दिया गया है उसके खर्चे का ब्यौरा जब तक संबंधित विभाग में जमा नहीं होता तब तक अगली किश्त जारी नहीं होती। ऐसी स्थिति में विकास प्रकल्प बंद पड़े हैं। ममता सरकार की अकर्मण्यता है कि विभिन्न विभागों में खर्चे का हिसाब जमा नहीं हो पा रहा । इसमें पुराने वामशासन की कोई भूमिका नहीं है। केन्द्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित धन की भी यही स्थिति है।

अधिकांश केन्द्रीय योजनाएं ठप्प पड़ी हैं क्योंकि आवंटित धन का राज्य सरकार इस्तेमाल ही नहीं कर पा रही है। मसलन् राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास के लिए केन्द्र सरकार ने 8,756 करोड़ रूपये सन् 2011 सत्र के लिए आवंटित किए थे।लेकिन राज्य सरकार इस पैसे का इस्तेमाल ही नहीं कर पायी। इस योजना के 2500 करोड़ रूपये की पहली किश्त सन् 2012 की जनवरी में आई थी लेकिन इनके खर्चे का हिसाब अभी तक केन्द्र सरकार को नहीं भेजा गया है।

असल में इस योजना के लिए आवंटित धन को राज्य सरकार समुचित ढ़ंग से खर्च करने में असफल रही है। पिछली आवंटित राशि के बिल जमा किए बगैर ममता सरकार ने अगली किश्त के तौर पर कुछ माह पहले मात्र 750 करोड़ रूपये की मांग की है। जाहिरातौर पर केन्द्र यह राशि नहीं दे सकता ,क्योंकि पहले जो धन दिया है उसका हिसाब अभी तक सरकार ने नहीं दिया है।




शनिवार, 26 जनवरी 2013

आशीषनंदी प्रकरण ,मीडिया और फेसबुक-

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भ्रष्टाचारियों का सामाजिक प्रोफाइल होता है। याद करें 2जी स्पेक्ट्रम में शामिल तमिलनाडु के नेताओं को,मायावतीशासन में हुए भ्रष्टाचार और उसमें शामिल आधे दर्जन निकाले गए भ्रष्टमंत्रियों,शशांक शेखर और अन्य बड़े आईएएस अधिकारियों के द्वारा किए भ्रष्टाचार को,उन पर चल रहे केसों को। झारखंण्ड के तमाम नाम-चीन भ्रष्टनेताओं के सामाजिक प्रोफाइल को भी गौर से देखें।

भाजपा के पूर्व नेता येदुरप्पा के सामाजिक प्रोफाइल पर भी नजर डाल लें और लालू-मुलायम पर चल रहे आय से ज्यादा संपत्ति के मामलों को भी देखें। आखिरकार इन नेताओं की जाति भी है। राजनीति में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है। उनकी जीत में जाति समीकरण की भूमिका रहती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के प्रसंग में यदि जाति को भ्रष्टाचारी की प्रोफाइल के साथ पेश किया जाता है तो इसमें असत्य क्या है ? भ्रष्टाचारी की दो जाति होती हैं एक सामाजिकजाति और दूसरी आर्थिकजाति। दोनों केटेगरी विश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हैं। जाति आज भी महत्वपूर्ण केटेगरी है और इसपर जनगणना हो रही है। विकास के पैमाने के निर्धारण के लिए जाति खोजो और भ्रष्टाचार में जाति मत खोजो यह दुरंगापन नहीं चलेगा। जाति विश्लेषण की आज भी बड़ी महत्वपूर्ण केटेगरी है।

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आशीषनंदी ने अपने बयान में कहा कि पश्चिम बंगाल में विगत 64सालों में सत्ता कभी भ्रष्ट नहीं रही। यह बात सच भी है कि वामशासन में किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ करप्शन के आरोप नहीं हैं। यदि रहे होते तो ममता उनको छोड़ती नहीं।

यही हाल वामशासन के पहले के मुख्यमंत्रियों का रहा है। यानी कुछ तो है बंगाल में विलक्षण जिसके कारण यहां पर किसी मंत्री को करप्शन में नहीं पकड़ा गया और सभी मुख्यमंत्री सादगी के प्रतीक रहे हैं।

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आशीषनंदी के बयान की मायावती,भाजपा और अनेक दलितलेखकों ने निंदा की है और आशीषनंदी ने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है।
यह सारा घटनाक्रम जिस गति से घटा है उससे यह भी पता चलता है इनदिनों किसी बयान या विचार की उम्र बहुत कम होती है। एक ही व्यक्ति अपने बयान पर दो रूख अपना सकता है।
हम पूरी तरह पोस्टमॉडर्न कंडीशन में जी रहे हैं। इसमें टुईंया महान है और महान टुईंया है। बयान है भी और नहीं भी है।यह कम्प्लीट वेदान्ती अवस्था है। सबकुछ माया है। रंगबिरंगा है।
आशीषनंदी के बयान पर जो लोग प्रतिवाद कर रहे हैं ,वे कह रहे हैं जो भ्रष्ट हैं उनकी कोई जाति नहीं होती।
काश ,सारा देश भ्रष्ट हो जाता तो देश से जातिव्यवस्था का अंत ही हो जाता !! कमाल का मायावी संसार है भ्रष्टाचार का !!

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आशीषनंदी की अक्ल पर मुझे तरस आ रहा है। वे बेमेल पैनल में भाषण के लिए गए क्यों ? जयपुर साहित्य महोत्सव के आयोजकों ने उनके जैसे बड़े विद्वान बेमेल पैनल में रखकर उनका वजन तय कर दिया था।फलतः इसका जो परिणाम होना था वही हुआ ,बेमेल पैनल में यह सारा मामला बेर और केले के बीच में संवाद जैसा था। ज्ञान में समानता के मानक को पैनल बनाते हुए आयोजक क्यों भूल गए यह बात बुद्धि में नहीं आ रही।

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प्रिंटमीडिया से लेकर फेसबुक तक नए युग के नए देवताओं का बैकुण्ठलोक फैला हुआ है। ये देवता आएदिन सवर्णों को गरियाते रहते हैं। इनमें वे भी हैं जो "तिलक ,तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार " का नारा देते रहे हैं। इन नए देवताओं को लोकतंत्र में परम अधिकार प्राप्त हैं। ये किसी को भी धमका सकते हैं, गरिया सकते हैं,बंद करा सकते हैं। पुलिस केस में फंसा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के एकमात्र मालिक ये ही नए देवता हैं। इनके यहां सवर्ण सड़े-गले-चोर-बेईमान-उचक्के -भ्रष्ट-शोषक आदि हैं। इनके अलावा समाज में जो वर्ग हैं वे सब पुण्यात्मा हैं, देवता हैं,दूध के धुले हैं। बैकुण्ठलोक के नए देवताओं की तलवारें चमक रही हैं ,आओ हम सब मिलकर इनकी आरती उतारें और जय-जयकार करें।

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आशीषनंदी के मामले में मीडिया के अज्ञान क्रांति नायकों ने जिस तरह सनसनी पैदा की है उसने यह खतरा पैदा कर दिया है टीवी कैमरे के सामने कोई भी लेखक खुलकर अपने मन की बातें नहीं कहेगा।

टीवीमीडिया और उसके संपादक एक तरह से मीडिया आतंक पैदा कर रहे हैं। यह टीवी टेरर का युग भी है। टीवी टेरर और कानूनी आतंकवाद मिलकर सीधे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले कर रहे हैं। अहर्निश असत्य का प्रचार करने वाले कारपोरेट मीडियासंपादक अपने उथले ज्ञान के आधार पर ज्ञान-विज्ञान-विचार के निर्माताओं को औकात बताने पर उतर आए हैं।

ये वे लोग हैं जिन्होंने कभी गंभीरता से भारत के समाज,संस्कृति आदि का कभी अध्ययन-मनन नहीं किया।लेकिन आशीशनंदी जैसे विलक्षणमेधावी मौलिक बुद्धिजीवी को कुछ इस तरह चुनौती दी जा रही है,गोया, आशीषनंदी का भारत की ज्ञानक्रांति में कोई योगदान ही न हो।

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राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। यह उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः 'आधुनिकीकरण की छलयोजना' है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं।ये मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।

उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।

भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।

इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होता है।

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रिपब्लिक में लेखक को विचारों की किस तरह की सीमाओं में काम करना होता है इसका आदर्श उदाहरण आशीष नंदी प्रकरण। रिपब्लिक की सीमा को अब दंडधारी नए राजनीतिक दादा और वोटबैंकों के मालिक तय कर रहे हैं। धिक्कार है हमें हम इस तरह के लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें 26जनवरी को एक लेखक के खिलाफ निर्दोष और विवादास्पद बयान देने के लिए वारंट जारी होता है। लोकतंत्र में विचारों पर कानूनी हमला और झुंड की राजनीति का हमला कलंक है। जो भ्रष्ट हैं वे सत्ता को आदेश दे रहे हैं।

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भारत में लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है कानूनी आतंकवाद। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल केन्द्र-राज्य सरकारें और फंडामेंटलिस्ट कर रहे हैं।

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आशीषनंदी के बयान पर जो वारंट जारी किया गया है उसे तत्काल वापस लिया जाय।

एक लेखक और विचारक के नाते उनके विचारों का सम्मान करके असहमति व्यक्त करने का हक है लेकिन जिस तरह की कट्टरपंथी राजनीतिक शक्तियां मैदान में आ जमीं हैं वे सीधे अभिव्यक्ति की आजादी को कानून आतंकवाद के बहाने कुचलने का मन बना लिया है।

साहित्य,कला, संस्कृति आदि के लिए कानूनी आतंकवाद आज सबसे बड़ा खतरा है।

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आशीषनंदी ने जयपुर साहित्य महोत्सव में जो बयान दिया उसका साहित्य खासकर दलितसाहित्य और भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखे साहित्य से कोई लेना देना नहीं है।

नंदी का बयान राजनीतिक है और यह किसी दल की सभा में दिया जाता तो अच्छा था। इससे यह भी पता चलता है कि इस मेले में तथाकथित लेखकगण साहित्य पर कम और राजनीति पर ज्यादा बोल रहे हैं । साहित्य में राजनीति को आटे में नमक की तरह होना चाहिए।





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सोमवार, 21 जनवरी 2013

मीडिया उन्माद ,कांग्रेस और फेसबुक


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राजनीति में भावुकता कैंची है,वह इधर -उधर दोनों ओर काटती है। यह लाभ कम नुकसान ज्यादा करती है। भावुकता के आधार पर जुटाया समर्थन किस तरह रसातल में ले जा सकता है। इसे राजीवगांधी की इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुई जीत के बाद कांग्रेस के पराभव के साथ देख सकते हैं। यही हाल बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ भाजपा के ह्रास के रूप में भी देख सकते हैं।

भाजपा और कांग्रेस दोनों भावुकता का दुरूपयोग करती रही हैं और इसबार राहुल गांधी ने भावुक भाषण देकर कांग्रेस में प्राणसंचार करने की असफल कोशिश की है।

भावुक भाषण कभी संगठन में प्राण नहीं फूंकते, उनसे टीवी में जान आती है।

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राहुल गांधी ने अपने भाषण में 'उम्मीद' पर जोर दिया 'पावर' यानी सत्ता को निशाना बनाया। उनके भाषण का यह फॉरमेट ओबामा के राष्ट्रपति चुनाव की पहली पारी में दिए गए भाषण की बुनियादी समझ से परिचालित है।

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राहुल गांधी को नेताओं की तलाश है,राजकुमार भूल गए कि यह दौर नेता के अंत का दौर है। परवर्ती पूंजीवाद में नेता नहीं बचता,दलाल रह जाते हैं या औसतदर्जे के नेता रह जाते हैं। आज नेताओं का अभाव सभी दलों में है। राहुल ने कहा-

'' हमें ऐसे चालीस-पचास नेता तैयार करने हैं, जो देश और प्रदेश को चला सकें। हर प्रदेश में 5 से 10 ऐसे नेता हों जो सीएम बन सकें। हर जिले में यह बात हो। जब भी कोई पूछे कि कांग्रेस क्या करती है तो जवाब मिलना चाहिए कि भविष्य के लिए सेकुलर नेता तैयार करती है। जमीन से जुड़े नेता तैयार करती है। ऐसे नेता तैयार करती है, जिन्हें देखकर हिंदुस्तान के लोग उनके पीछे खड़े होने के लिए तैयार हो जाएं। इसके लिए संगठन की जरूरत हैं। ऐसा सिस्टम बन सकता है, जिसे आप बनाएंगे और चलाएंगे।''

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राहुल गांधी के भाषण में आए सरलीकरण-

"मैं सबकुछ नहीं जानता। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो सबकुछ जानता हो। "

''हमें इस पावर का इस्तेमाल लोगों के सशक्तिकरण के लिए करना चाहिए।''

"अगर आप पावरफुल होते हैं, तो आपको बहुत संभलकर रहने की जरूरत है। "

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राहुल गांधी किस तरह की भूमिका में ले जाना चाहते हैं और किस तरह की तुलनाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं,इससे उनकी और कांग्रेस पार्टी की भूमिका का भावी कार्यक्रम समझ में आ जाएगा। वे जज बनना चाहते हैं। वे जनता नहीं बनना चाहते,जनसेवक नहीं बनना चाहते।



"कचहरी में दो लोग होते हैं जज और वकील। मैं जज का काम करूंगा। वकील का काम नहीं करूंगा।"

न्यायप्रियता और जज में अंतर होता है। यह सत्ता का अहंकार है।

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सत्ता हर कोई हासिल करना चाहता है, वह 'जहर' की तरह है।(राहुल गांधी) के इस बयान के बाद टीवी पर भारी प्रौपेगैण्डा चल रहा है। यह मीडिया केन्द्रित नकली या प्रायोजित प्रशंसा है। प्रायोजित प्रशंसा लोकतंत्र में मीडिया जहर है।

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कांग्रेस चिन्तन शिविर में राजनीतिक-सांगठनिक कमजोरी को "स्ट्रक्चरल वीकनेस "कहा गया। यह भाषा का बदला हुआ रूप है जिसके जरिए कांग्रेस राजनीतिक दुर्बलता को कम करके पेश कर रही है। जिन इलाकों में कांग्रेस कमजोर है उसको सांगठनिक तौर पर कैसे दूर करेगी,इसके बारे में कोई दिशा निर्देश सामने नहीं आए हैं।

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कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आज जयपुर के चिन्तन शिविर में भावुक और अन्तर्विरोधपूर्ण भाषण दिया। पहला अंतर्विरोध-

"मैं जब बच्चा था तो मुझे बैडमिंटन बहुत पसंद था। यह खेल इस जटिल दुनिया में मुझे बैलेंस देता था। मैं अपनी दादी के घर में दो पुलिस वालों के साथ बैडमिंटन खेलता था। वे मेरी दादी की सुरक्षा का जिम्मा संभालते थे। वे मेरे दोस्त हो गए थे। एक दिन उन्होंने मेरी दादी को मार दिया और मेरे जीवन का बैलेंस छीन लिया।"

यह पैराग्राफ क्या संदेश देता है ? दोस्त कभी भी दुश्मन हो सकता है ।

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मीडियावाले कह रहे हैं कि राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने 2014 के अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का संकेत दे दिया है। उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे तब सोनिया अध्यक्ष थीं लेकिन प्रधानमंत्री नहीं बन पायीं,राहुल को यदि अध्यक्ष भी बना दिए जाए तो भी प्रधानमंत्री के पद पर कांग्रेसी उनको ही बिठाएंगे यह कहना मुश्किल है।

कांग्रेस अंततः संघ परिवार और अमेरिका के फैसले को मानता है,सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बन पाने और मनमोहन के बन जाने में इन दोनों की बड़ी भूमिका थी।

प्रधानमंत्री का पद उसको ही मिलेगा जिस पर अमेरिकी मोहर लगी होगी .।

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कांग्रेस नेताओं की सोशलमीडिया पर सोनिया गांधी के भाषण पर आई प्रतिक्रियाएं देखकर भावी रणनीति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है ।आनेवाले समय में कांग्रेस सोशलमीडिया के नियमंन की दिशा में जा सकती है ?--11-

टीवी चैनलों की आरामतलबी का आलम यह है कि कांग्रेस के चिन्तनशिविर से कोई खबर लीक नहीं हो रही है। कांग्रेस को अपने चिन्तनशिविर को पारदर्शी बनाना चाहिए और उसकी लाइव प्रसारण व्यवस्था करनी चाहिए जिससे पता चले कि कांग्रेस के अंदर क्या चिन्तन हो रहा।

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राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया।वे संगठन में दूसरे नम्बर पर आ गए हैं।

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मीडिया चैनल और कांग्रेसी नेताओं की बेबकूफीभरी युगलबंदी देखें- दोनों कह रहे हैं कि राहुल को बड़ी भूमिका दी जाय,यह खबर विगत दो साल से समय समय पर टीवी में चलायी जा रही है। मीडिया राहुल के बारे में इस तरह की गप्प को बार बार क्यों उछालता है ?

राहुल बड़ी भूमिका में आएं तब ही खबर दें। अघटित घटना की खबर को खबर नहीं कहते।

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कांग्रेसी नीतियों की असफलता का ताजा प्रमाण देखें- आधारभूत ढांचा क्षेत्र की प्रमुख कंपनी जीएमआर और जीवीके पूंजी जुटाने की असमर्थता की वजह से बड़ी सड़क परियोजनाओं से बाहर निकल रही हैं। यह बात यह बात भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) ने आज कही।

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कांग्रेस आनेवाले चुनाव में खाद्य विधेयक को अपना सबसे बड़ा राजनीतिक अस्त्र बनाने जा रही है। लेकिन इस अस्त्र से कांग्रेस को कोई खास लाभ नहीं होगा। इस विधेयक को लाने के पीछे प्रधान कारण सब्सीडी को घटाना, लेकिन यह काम नहीं हो पाएगा। उलटे सबसे पहले खाद्य सब्सिडी का खर्च बढ़ेगा और मौजूदा सरकारी आकलन के मुताबिक पहले साल में यह 1.2 लाख करोड़ रुपये होगा, जो तीसरे साल 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच सकता है अगर एमएसपी में बढ़ोतरी होती रहे और इसे जारी करने की कीमत स्थिर रहे। अगर हम इस विधेयक में कुपोषण समाप्त करने, भंडारण व अनाज की ढुलाई के लिए बुनियादी ढांचे पर होने वाले खर्च को जोड़ें तो यह आसानी से सालाना 2 लाख करोड़ रुपये को पार कर जाएगा।

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सरकार ने खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क गणना के लिए निर्धारित शुल्क मूल्य व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। अब खाद्य तेलों के आयात पर उनके शुल्क मूल्य की गणना अंतरराष्ट्रीय कीमत के आधार पर होगी। इससे खाने के तेलों के दामों में उछाल आएगा। यानी सूखी रोटी खाओ कांग्रेस के गुन गाओ।

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कांग्रेस गरीबी का समारोह कैसे करती है इसे देखें-कांग्रेस के 'चिंतन शिविर' से एक दिन पहले संसदीय स्थायी समिति ने आज खाद्य सुरक्षा विधेयक पर बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट पेश की। इस विधेयक में देश की 75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी आबादी को बिना किसी विभेद के एकसमान 5 किलोग्राम अनाज मुहैया कराने का कानूनी अधिकार देने का प्राïवधान किया गया है। यह अनाज फ्लैट रेट (अपरिवर्तित दर) पर वितरित किया जाएगा। इसमें चावल की दर 3 रुपये, गेहूं की 2 रुपये और मोटे अनाजों की 1 रुपये प्रति किलोग्राम होगी।

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कांग्रेस का तीन दिनों तक चलने वाला चिंतन शिविर आज यानी शुक्रवार से जयपुर में शुरू हो रहा है। यह चिंतन शिविर ऐसे समय हो रहा है जब कांग्रेस की नीतियों का खोखलापन तेजी से सामने आ रहा है। हर मोर्चे पर सरकार और उसकी नीतियां विफल रही हैं। नव्य आर्थिक उदारीकरण का पूरा प्रपंच चरमराने लगा है। क्या आत्मसमीक्षा भी होगी इस शिविर में ?

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टीवी चैनलों ने सरकारी भांड़ का दायित्व अपने ऊपर ले लिया है वे पेट्रोल आदि के दामों में बढोत्तरी के संबंध में पहले से ही खबर लगाते हैं और लगातार इस तरह के लोगों के विचार पेश करते रहते हैं जो किसी न किसी रूप में दाम बढ़ाए जाने को वैधता प्रदान करते हैं। भांडों का काम है सरकार के भोंपू की तरह काम करना। इस तरह की टीवी पत्रकारिता वस्तुगत होने का दावा नहीं कर सकती।

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एनडीटीवी इंटिया पर आज रवीशकुमार के टॉकशो पर सभी वक्ता कह रहे हैं कि 2014 में लोकसभा चुनाव के समय 20 करोड़ लोग वोटर इंटरनेट से जुड़े होंगे। ये 20करोड़ जागरूक वोटर होंगे।

हमारी राय में सोशलमीडिया की राजनीतिक भूमिका को यह अतिरंजित रूप में देखना होगा। वोटर अपनी राय जमीनी हकीकत और अपने पुराने विश्वासों के आधार पर बनाता और व्यक्त करता है।

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रवीशकुमार कह रहे हैं कि सोशलमीडिया की भाषा भिड़ने की भाषा है। रवीशकुमार को यह बात समझनी होगी कि सोशलमीडिया की भाषा पर्सुशसन की भाषा है।

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एनडीटीवीइंडिया में अभी एक टॉकशो चल रहा है सोशलमीडिया की भूमिका पर। भाजपा के अरविंद गुप्ता ने कहा है कि सोसलमीडिया पर राइटविंग के मंच के रूप में उनके मीडियम को जाना जाता है।

असल में सोशलमीडिया पर मात्र कम्युनिकेशन होता है वहां कोई विचारधारात्मक कम्युनिकेशन नहीं होता।

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टीवी चैनलों में पाकविरोधी उन्माद इनदिनों चरमोत्कर्ष पर है । भाजपा और उसके सहजिया सम्प्रदाय के नेता और संगठन भारत के दो सैनिकों की पाक द्वारा हत्या किए जाने के बाद से आर-पार की जंग जारी रखो,पाक से कडाई से पेश आओ,का नारा लगाकर मीडिया में उन्मादी प्रचार कर रहे हैं।

इन उन्मादी नेताओं और मीडिया के दबाव में मनमोहन सरकार भी आ गयी है।

सवाल यह है कि यूरोप से हमने दोस्ती करना क्यों नहीं सीखा, जिनदेशों ने सारी दुनिया पर 2-2 विश्वयुद्ध थोपे,करोड़ों लोगों की हत्या की उन देशों के साथ सभी देशों के मित्रतापूर्ण संबंध हैं।

करोडों लोगों की हत्या करने वाले हिटलर के देश के साथ कभी किसी ने यह नहीं कहा कि हम जर्मनी की टीम के साथ नहीं खेलेंगे।जर्मनी के गायकों को नहीं सुनेंगे।

भारत में हाल की घटनाओं पर जिस तरह की घटिया उन्मादी प्रतिक्रिया टीवी चैनलों ने दी है वह निंदनीय है और मानवाधिकार के विश्व परिप्रेक्ष्य के खिलाफ है।

हमें सोवियत संघ से सीखना चाहिए जिसके द्वितीय विश्वयुद्ध में करोडों लोग मारे गए लेकिन कभी किसी नेता ने यह मांग नहीं की सोवियत संघ का जर्मनों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध नहीं होगा।

हमें वियतनाम से सीखना चाहिए जिसको अमेरिका ने पूरी तरह कई दशक तक बमों से रौंदा लेकिन वियतनाम जब अमेरिकी प्रभुत्व से मुक्त हो गया तो अमेरिका के साथ गहरी मित्रता करके उसने नई मिसाल कायम की है और वियतनाम में आज सबसे ज्यादा अमेरिकी कंपनियां काम कर रही हैं। हमें पड़ोसी देशों के प्रति उन्माद पैदा करने की राजनीति को बंद करना चाहिए।

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भारतीय चैनलों के द्वारा पाक-भारत संबंधों को बिगाड़ने के लिए सचेत कोशिशें हो रही हैं।

इस तरह के टॉकशो आयोजित किए जा रहे हैं जिनसे पाक के प्रति घृणा पैदा की जा सके। भारतीय सीमा पर पाक का बार बार उल्लंघन और हमारे दो सैनिकों का पाकसैनिकों द्वारा कत्ल निंदनीय कृत्य है। इसकी निंदा की जानी चाहिए। लेकिन इस घटना की आड़ में भारत-पाक संबंधों को बिगाडकर हमारे चैनल जनविरोधी हरकत कर रहे हैं। खासकर पाकविरोधी भावनाओं को व्यापक कवरेज दे रहे हैं। पाकविरोधी उन्मादी प्रचार टीवी चैनलों की मासकल्चर संस्कृति का वैचारिक खाद्य है। इससे सावधान रहने की जरूरत है।

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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विपक्ष की नेत्री सुषमा स्वराज से पाक के साथ बढे हुए तनाव पर अभी बातें की हैं। लेकिन इससे क्या भाजपा के पाकविरोधी घृणा अभियान को वे शांत कर पाएंगे ?

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हाल ही में कलकत्ता में विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब बोल रहे थे तो वे वैज्ञानिकों को सम्बोधित कम और कांग्रेसियों को सम्बोधित करते ज्यादा दिख रहे थे। वे कांग्रेस के प्रचारक के रूप में बोल रहे थे। प्रधानमंत्री का विज्ञान कांग्रेस में दिया गया भाषण राजनीतिक प्रचार से ज्यादा महत्व नहीं रखता। वे जो कहते हैं वह कपूर की तरह कुछ क्षण दिखता है फिर गायब हो जाता है। संभवतः वे अकेले प्रधानमंत्री हैं जिनके किसी भी भाषण की कोई भी बात आम आदमी से लेकर बुद्धिजीवियों तक किसी को भी याद नहीं है। प्रधानमंत्री का प्रचारक होना सामान्य बात है लेकिन मनमोहन सिंह इस मामले में विरल हैं क्योंकि वे नव्य उदारनीतियों के नीति निर्माता-प्रचारक के रूप में काम करते रहे हैं। वे मूलतः वर्चुअल हैं। आप उनको पकड सकते हैं लेकिन घेर नहीं सकते। गलती पकड सकते हैं लेकिन दोषी नहीं ठहरा सकते।



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विपक्ष जब भी घेरने की कोशिश करता है वे हाथ से निकल जाते हैं। हाल ही में दामिनी दिल्ली बलात्कार कांड के प्रसंग में मीडिया उन्माद के जरिए मनमोहन सरकार को घेरने की असफल कोशिश की गई लेकिन वे साफ बच निकले। सवाल यह है कि मनमोहन सरकार को घेरने में विपक्ष आज तक सफल क्यों नहीं हुआ ?



मनमोहन सरकार और कांग्रेस पार्टी ने एक नयी रणनीति बनाई है जिसके तहत वे पापुलिज्म और लोकप्रिय जनदबाब का प्रत्युत्तर प्रशासनिक एक्शन के जरिए दे रहे हैं। मसलन् जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो उन्होंने सीधे एक्शन लिया। कॉमनवेल्थ कांड से लेकर दामिनी कांड तक जो भी समस्या आई उसके प्रशासनिक समाधान तलाशने की सक्रिय कोशिश की और इससे भी ज्यादा अपनी कोशिश का मीडिया में जमकर प्रचार किया।



मनमोहन सरकार का मानना है पापुलर को मानो,आलोचनात्मक राय दो । राजनीतिक दबाब को प्रशासनिक –न्यायिक समाधान दो। इस अर्थ में वे लगातार संरचनात्मक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। संरचनात्मक सुधार वस्तुतःनव्य आर्थिक उदारीकरण का हिस्सा हैं। नव्य उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार नयी समस्याएं पुराने कानूनी फ्रेमवर्क में हल नहीं हो सकतीं, मनमोहन सरकार ने इसे सभी मंत्रालयों की कार्यप्रणाली का अंग बना दिया है। इस पद्धति का अनुकरण करने के कारण उनकी जब आलोचना आरंभ होती है तब वे सामने होते हैं लेकिन प्रशानिक एक्शन जब आने लगते हैं तो मनमोहन सरकार के खिलाफ गुस्सा गायब हो जाता है और फिर आमलोगों से लेकर मीडिया तक समस्या और समाधान पर ही बहस आकर टिक जाती है। इसके कारण राजनीति में पैदा हुए उन्माद और भावुकता को हाशिए पर डालने में उनको सफलता मिली है।



मनमोहन सिंह जब से प्रधानमंत्री बने हैं। वे मीडिया और विशेषज्ञों की आलोचना के केन्द्र में नहीं आते। उन्हें प्रधानमंत्री बने 8 साल से ज्यादा समय हो गया है। मीडिया में ममता बनर्जी,शरद पवार ,प्रफुल्ल पटेल ,डी.राजा ,कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ,कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों आदि की आलोचना दिखेगी लेकिन मनमोहन सिंह की आलोचना नहीं मिलेगी। आकाश छूती मंहगाई है लेकिन प्रधानमंत्री पर न तो मीडिया हमला कर रहा है और न विपक्ष। असल में मनमोहन सिंह डिजिटल हो गए हैं। उनका डिजिटल इमेज में रूपान्तरण कर दिया गया है। डिजिटल इमेज और राजनीतिक व्यक्तित्व की इमेज में यही अंतर होता है। राजनीतिक इमेज को पकड़ सकते हैं लेकिन डिजिटल इमेज को पकड़ नहीं सकते।



मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व अनेक गुणों से परिपूर्ण है। वे बेहद विनम्र हैं, सुसंस्कृत है, शिक्षित हैं। नव्य -उदार नीतियों के विशेषज्ञ हैं। मीडिया में उनके बारे में न्यूनतम बातें छपती हैं। संभवतः मीडिया में उन्हें सबसे कम कवरेज वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा।



नई डिजिटल इमेज एक ही साथ मिथकीय और ऐतिहासिक होती है। अतीतपंथी और भविष्योन्मुखी होती है। तकनीकीपरक और धार्मिक होती है। मनमोहन सिंह ने अपने प्रचार में बार-बार समृद्ध भारत और समर्थ भारत की बात करते हैं। बार-बार विकासदर को उछाला है। भारत को समृद्धि के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। खासकर पूंजीपति,ह्वाइट कॉलर और मध्यवर्ग के साथ जोड़ा है। इस क्रम में उन्होंने मजदूरों-किसानों की राजनीति को हाशिए पर ड़ालने में सफलता अर्जित की है।



मनमोहन कोड की विशेषता है कि उसने गरीबी के यथार्थ विमर्श को वायवीय बनाया है। गरीबी और अभाव को गैर-बुनियादी विमर्शों के जरिए अपदस्थ किया है। मनमोहन कोड ने गरीबी और अभाव को अप्रत्यक्ष दानव में रूपान्तरित किया है। जिसके बारे में आप सिर्फ कभी-कभार सुन सकते हैं। मनमोहनकोड के लिए गरीबी और अभाव कभी महान समस्या नहीं रहे। मनमोहन कोड ने देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे खतरनाक शत्रु के रूप में माओवाद को प्रतिष्ठित किया है। जबकि माओवाद भारत विभाजन या सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं है।



मनमोहन कोड की काल्पनिक सृष्टि है माओवाद और आतंकी हिन्दू। यह जादुई-मिथकीय शत्रु है। मनमोहन कोड के अनुयायी और प्रचारक माओवाद के बारे में तरह-तरह की दंतकथाएं, किंवदन्तियां आदि प्रचारित कर रहे हैं। मीडिया में माओवाद एक मिथकीय महामानव है। इसी तर्ज पर आरएसएस के नाम पर बहुत सारे आतंकी हिन्दू महामानव पैदा कर दिए गए हैं। ये सारे मनमोहन कोड से सृजित वर्चुअल सामाजिक शत्रु हैं। ये आधे मानव और आधे दानव हैं।



माओवाद और हिन्दू आतंकवाद की रोचक डिजिटल कहानियां आए दिन सम्प्रेषित की जा रही हैं। इन्हें सामाजिक विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आप जरा गौर से माओवादी नेता किशनजी की कपड़ा मुँह पर ढ़ंके इमेज और हिन्दू आतंकी के रूप में पकड़े गए संतों को ध्यान से देखें तो इनमें आप आधे मनुष्य और आधे प्राचीन मनुष्य की इमेज के दर्शन पाएंगे।



कारपोरेट मीडिया माओवादी और हिन्दू आतंकी की ऐसी इमेज पेश कर रहा है गोया कोई फोरेंसिक रिपोर्ट पेश कर रहा हो। वे इनके शरीर की ऐसी इमेज पेश कर रहे हैं जिससे ये आधे मनुष्य और आधे शैतान लगें। इससे वे खतरे और भय का विचारधारात्मक प्रभाव पैदा कर रहे हैं।



मनमोहन सिंह मीडिया में उतने नजर नहीं आते जितना इन दिनों डिजिटल दानवों (माओवाद और हिन्दू आतंकी) को पेश किया जा रहा है। हमें इस कोड को खोलना चाहिए। यह तकरीबन वैसे ही है जैसे अमेरिका ने तालिबान और विन लादेन की इमेजों के प्रचार-प्रसार के जरिए सारी दुनिया को तथाकथित आतंकवाद विरोधी मुहिम में झोंक दिया और तबाही पैदा की । सामाजिक अस्थिरता पैदा की । घृणा का वातावरण पैदा किया । ठीक यही काम मनमोहन कोड अपने डिजिटल शत्रुओं के प्रचार-प्रसार के नाम पर कर रहा है। हमें जागरूक रहने की जरूरत है।


रविवार, 20 जनवरी 2013

नए दोस्त और नए रास्ते की तलाश में माकपा और कांग्रेस



   जयपुर में कांग्रेस का तीन दिवसीय चिन्तन शिविर खत्म हो चुका है और  उसी समय कोलकाता में माकपा की केन्द्रीय कमेटी की मीटिंग भी खत्म हुई है। इन दोनों दलों की बैठक में एक समानता है दोनों ही पार्टियां अपने लिए नए रास्ते और नए मित्रों की तलाश में हैं। दोनों के निशाने पर युवावर्ग है। माकपा के सामने चुनौती है कि आगामी विधानसभा चुनाव में त्रिपुरा में वाममोर्चे की जीत और सत्ता को कैसे बरकरार रखा जाय और कांग्रेस के सामने चुनौती है कि सन् 2014 लोकसभा में कांग्रेस की जीत को कैसे बरकरार रखा जाय। दोनों को अन्य दलों के सहयोग की जरूरत है। दोनों दलों का साझा लक्ष्य है युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करना।
   त्रिपुरा के अलावा जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे वे हैं मणिपुर और नागालैण्ड। इनमें त्रिपुरा में कांग्रेस पूरी शक्ति लगाकर वाममोर्चे को हराने की कोशिश करेगी और राज्य के पिछड़ेपन को मुद्दा बना सकती है वहीं पर वाममोर्चे के पास शांतिपूर्ण विकास का अपना दावा रहेगा।मणिपुर और नागालैण्ड में कांग्रेस मजबूत है लेकिन त्रिपुरा में वाम को हराने में अभी तक उसे सफलता नहीं मिली है।
    माकपा अपनी राष्ट्रीय छवि सुधारने के क्रम में आगामी 19मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रीय रैली करने जा रही है इसमें कोलकाता ,कन्याकुमारी और अमृतसर से तीन बड़े जत्थे कई हजार किलोमीटर का रास्ता तय करके शामिल होंगे। माकपा अपनी प्रतिष्ठा को पाने के लिए कांग्रेस पार्टी और खासकर यूपीए-2 सरकार की जनविरोधी नीतियों को अपने प्रचार अभियान में मुख्य हथियार बनाएगी। केन्द्र सरकार की आर्थिकमंदी से निबटने में असफलता, मूल्यवृद्धि ,भ्रष्टाचार और बेकारी को मुख्य मुद्दे के रूप में आम जनता के सामने रखने का माकपा की केन्द्रीय कमेटी ने फैसला किया है। माकपा की पश्चिम बंगाल में अपने संगठन को बचाने और आगामी पंचायत चुनावों में वामदलों की एकजुटता बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है।
  माकपा केन्द्रीय कमेटी ने पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी को आदेश दिया है कि सभी सदस्यों को सक्रिय करो ,दलीय निष्क्रियता को खत्म करो। केन्द्रीय कमेटी ने पश्चिम बंगाल में माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं पर बढ़ते हमलों पर गहरी चिन्ता व्यक्ति की है। साथ ही  ममतासरकार ,तृणमूल कांग्रेस और अपराधी गिरोहों के हमलों का एकजुट प्रतिवाद करने का आह्वान किया है।
     कांग्रेस के तीन दिवसीय जयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने अपने उद्घाटन भाषण में आत्मालोचना करते हुए कहा कि हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि किस तरह कांग्रेस के परंपरागत जनाधार में सेंधमारी करने में विपक्ष सफल हो गया।
    इसके अलावा सन् 2014 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस को अपने नए दोस्तों की भी तलाश करनी होगी। अधिकांश कांग्रेस नेताओं का मानना है कि आगामी लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जरूरी है कि विभिन्न राज्यों में कांग्रेस को मजबूत मित्रदलों की तलाश की करनी चाहिए और मित्रदलों के साथ विनम्रता के साथ संबंध विकसित किया जाना चाहिए। इस क्रम में अनेक नेताओं ने वामदलों खासकर माकपा और भाकपा के प्रति नरम रूख अपनाने पर जोर दिया। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मतानुसार विगत चुनावों में कांग्रेस ने जो रणनीति अपनायी वह बुनियादी तौर पर पिट चुकी है। बिहार,यूपी और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अभी तक अपने पैंरों पर खड़ी नहीं हो पायी है। उलटे यह खतरा है कि यदि स्थानीयस्तर पर पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा,बिहार में लालू यादव और यूपी में मुलायम सिंह यादव के साथ यदि नरम रवैय्या नहीं अपनाया जाता है तो भविष्य में यूपीए के सत्ता में लौटने की संभावनाएं कम हैं। इसलिए नई रणनीतियों और राजनीतिक कार्यक्रमों के साथ उन मसलों को ज्यादा उभारे जाने की संभावना है जिन पर कांग्रेस अपने साथ ज्यादा से ज्यादा मित्रदलों को जुटा सके। इसके लिए कांग्रेस ने महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव को फिलहाल ठंड़े बस्ते में रखने का ही फैसला किया है लेकिन महिला सशक्तिकरण के अन्य साझा उपायों पर आगामी दिनों में काम किया जाएगा। यह भी संभावना है कि आगामी दिनों में कांग्रेस अपने प्रमुख प्रचार के मुद्दे के रूप में साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के मसले को प्रमुखता के साथ उठाए और महिलाओं की दुर्दशा के सवालों पर भाजपाशासित राज्यों में जो स्थिति है उस पर आमलोगों का ध्यान खींचे। खासकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में औरतों की बदहाली के सवाल को प्रमुखता के साथ उठाए जाने की संभावना है।   
कांग्रेस की मुख्य चिंता है कि मध्यवर्ग को किस तरह आकर्षित किया जाय। मध्यवर्ग के 20करोड़ लोग सन् 2014 तक इंटरनेट से जुड़ चुके होंगे और ये नेट से जुड़े नागरिक अन्य समूहों की तुलना में ज्यादा सजग हैं। इनके बीच में कांग्रेस अपना जनाधार बढ़ाने की पूरी कोशिश करेगी।
    उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 11करोड़ वोट मिले थे और वह अन्यदलों के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफल रही थी। लेकिन सन् 2014 में अकेले नेट से जुड़े 20 करोड़ लोग होंगे। इन लोगों में किस तरह पैठ बनायी जाय इसकी ओर कांग्रेस चिन्तनशिविर में खासतौर पर ध्यान दिया गया । सोशलमीडिया और इंटरनेट की भूमिका ओर सोनिया गांधी ने सभी का ध्यान भी आकर्षित किया है। इसका अर्थ यह भी है कि नए दौर के लायक नेट संरचनाओं के जरिए कांग्रेस पूरी तैयारी के साथ मैदान में कूदने जा रही है।  कांग्रेस की मूल चिन्ता यह है की  सरकार की जड़ता को तोड़ा जाय और निर्भीक ढ़ंग से नीतिगत फैसले लिए जाएं और उनके जल्दी से परिणाम भी हासिल किए जाएं जिससे केन्द्र सरकार की निष्क्रिय इमेज को खत्म किया जा सके। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पार्टी ने पहलकदमी करके फैसले लेने के सभी अधिकार सौंप दिए हैं। कांग्रेसियों में संपत्ति के प्रदर्शन की जो प्रवृत्ति बढ़ रही है उस पर भी लगाम लगाने की सोनिया गांधी ने अपील की है। 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

इलाहाबादकुंभ धर्मनिरपेक्षता और फेसबुक


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कुंभ में सबकुछ है। रेडियो है।टीवी है।कैमरे हैं।मोबाइलहै। अखाड़े हैं।संत हैं।जनता है।दुकानें हैं।पुलिस है।प्रशासन है। लेकिन इन सबकी पहचान कुंभ में समाहित हो गयी है।मुझे तो न धर्म नजर आ रहा है और न ढोंग नजर आ रहा है। मैं तो कुंभ में आनंद रस देख रहा हूँ। संभवतः शास्त्रों में आनंद को ही अमृत कहते हैं।

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इलाहाबाद कुंभमेले को संतों-महंतों के परे जाकर जनोत्सव के रूप में देखें। बिना किसी विज्ञापन और मीडिया कवरेज के लाखों-करोडों लोगों का कुंभपर्व में शामिल होना सुखद बात है। इससे यह भी पता चलता है कि भारत में अभी भी मासकम्युनिकेशन से ज्यादा प्रभावशाली परंपरागत कम्युनिकेशन है।

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इलाहाबाद कुंभमेले की खूबी है कि यह मेला टीवी कैमरे का पीछा नहीं कर रहा बल्कि टीवी कैमरे इसका पीछा कर रहे हैं। संतों को कवरेज नहीं चाहिए ,टीवी को संत बाइटस चाहिए।

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इलाहाबाद में आयोजित होने वाले कुंभ मेले की ड्यूटी में लगे राज्य व निकाय कर्मियों को विशेष भत्ता मिलेगा।



नगर विकास विभाग के इस संबंध में जारी आदेश के मुताबिक मेले में कार्यरत सरकार के विभिन्न विभागों, मेला अधिष्ठान व मेला क्षेत्र में स्थित नागर निकायों के ऐसे अराजपत्रित अधिकारी-कर्मचारी जिनका अधिकतम वेतनमान रुपये 9300-34800 व ग्रेड पे 4800 रुपये है उन्हें पहली जनवरी से 28 फरवरी तक की अवधि के लिए विशेष भत्ता मिलेगा। विशेष भत्ता कर्मियों के मूलवेतन एवं ग्रेड पे के 20 फीसदी के बराबर होगा यद्यपि उसकीअधिकतम सीमा 2400 रुपये होगी।



विशेष भत्ता उन्ही अधिकारियों-कर्मचारियों को दिया जाएगा जो मेला क्षेत्र में सीधे तैनात किए गए हैं और जिनकी तैनाती के बारे में कुंभ मेलाधिकारी ने प्रमाण पत्र दिया है। जिन अधिकारियों-कर्मचारियों को नियमानुसार विशेष वेतन, यात्रा भत्ता या फिर दैनिक भत्ता अनुमन्य है वे इस विशेष भत्ते को पाने के पात्र नहीं होंगे। संबंधित विभागों को अपने कोष से विशेष भत्ते का भुगतान करना होगा। शासन द्वारा इसके लिए कोई धनराशि नहीं मुहैया करायी जाएगी। नगरीय निकायों के केवल उन्हीं को विशेष भत्ता मिलेगा जो निकायों की नियमित सेवा के हैं और मेला कार्य से सीधे संबद्ध हैं। ऐसे कर्मियों को कुंभ मेलाधिकारी के प्रमाण पत्र के आधार पर निकाय निधि से भत्ते का भुगतान किया जाएगा।



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उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा की थी कि कुंभ मेले में ड्यूटी करने वाले कर्मचारियों को विशेष भत्ता दिया जाएगा।

दरअसल, सरकारी सेवकों को संगम की सेवा के लिए प्रोत्साहित करने की यह परंपरा 152 साल पुरानी है। 1860 के माघ मेले की बेहतर व्यवस्था को देखते हुए अंग्रेजी हूकूमत ने मेला प्रभारी को 300 रुपये की खिलअत (सम्मान राशि) दी थी। बाद में यह परंपरा बन गई जो आज तक चली आ रही है। इस बार कुंभ मेले में ड्यूटी कर रहे कर्मचारियों को वेतन का बीस फीसदी तक विशेष भत्ता दिया जाएगा। क्षेत्रीय अभिलेखागार इलाहाबाद में संरक्षित एक दस्तावेज से पता चला है कि 1860 के माघ मेले की व्यवस्था बेहतर करने के लिए तत्कालीन मेला प्रभारी रतन सिंह को प्रोत्साहन राशि दिए जाने की घोषणा की गई थी। इलाहाबाद के मजिस्ट्रेट ने रतन सिंह को मेले के राजस्व में से कुछ हिस्सा दिए जाने के लिए उच्च अधिकारियों को पत्र लिखा था। पत्र में कहा गया था कि रतन सिंह द्वारा 1858 के कुंभ और 1859 के माघ मेले में वसूला गया टैक्स भी संतोषजनक रहा है। मजिस्ट्रेट के इस पत्र के जवाब में अधिकारियों ने कहा कि देश की शासन व्यवस्था ईस्ट इंडिया कंपनी के बजाए ब्रिटिश सरकार द्वारा चलाई जा रही है इस तरह सभी कर्मचारी ब्रिटिश हुकूमत के कर्मचारी हैं। ब्रिटिश सरकार में कर्मचारियों को कमीशन देने का प्रावधान नहीं है इस कारण कर्मचारियों का प्रोत्साहित करने के लिए कमीशन नहीं दिया जा सकता। बजाए इसके रतन सिंह को 300 रुपये की खिलअत (सम्मान) दी जा रही है। इसी तरह 1870 के कुंभ आयोजन के बाद तहसीलदार शीतला बख्श सिंह को 150 रुपये की प्रोत्साहन राशि दी गई थी।

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केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वर्ष 2012-13 के कुम्भ मेला के लिए केंद्रीय पूल से उत्तरप्रदेश सरकार को 16,200 टन गेहूं और 9,600 टन चावल के आवंटन को मंजूरी दी है। यह आवंटन बीपीएल दरों (गरीबी रेखा के नीचे परिवारों को दी जाने वाली दर) पर किया जाएगा।



आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में यह फैसला किया गया। बैठक के बाद जारी एक विज्ञप्ति के मुताबिक सब्सिडी प्राप्त दरों पर खाद्यान्नों के इस आवंटन से पर्यटकों, श्रद्धालुओं, कल्पवासियों, साधुओं, धार्मिक एवं वहां सेवाएं देने वाले गैर-सरकारी संगठनों के लोगों, मेले में तैनात सुरक्षा बलों के जवान एवं अधिकारियों को सस्ती दर पर राशन सुलभ होगा।



बीपीएल दरों पर खाद्यान्न की उक्त मात्रा के आवंटन पर 40.60 करोड़ रुपए की सब्सिडी राशि बैठती है।



उत्तरप्रदेश सरकार ने पत्र के जरिए भारत सरकार से कुंभ मेला 2012-13 के लिए बीपीएल दरों पर 16,200 टन गेहूं और 9,600 टन चावल के आवंटन का अनुरोध किया था।



कुम्भ मेला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध प्राचीन धार्मिक उत्सव है जो इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम पर हर 12 वर्ष के अंतराल पर मनाया जाता है। इस मेले में करीब सात लाख कल्पवासी एवं साधुजन के भाग लेने की उम्मीद है। इस मेले में भारी संख्या में अंतरराष्ट्रीय पर्यटक भी भाग लेते हैं। (भाषा)

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इलाहाबाद कुंभमेला क्षेत्र से लेकर शहर भर में 100 विशेष सीसी कैमरे लगाए गए हैं। इसके अलावा दर्जनों निगरानी टॉवर बनाए गए हैं। मेले में 42 टॉवर तो सिर्फ कैमरे लगाने के लिए बनाए गए हैं। इसके अलावा 59 वॉच टॉवर पर तैनात पुलिसकर्मी सड़क से गुजरते लोगों की निगरानी करेंगे।

संगम पर बन रहे 32 ऊंचे टॉवर से लगभग पूरे मेला क्षेत्र पर दूरबीन और विशेष कैमरों की मदद से नजर रखी जा रही है। सड़क पर गुजर रहा हर शख्स कैमरे की जद में है।

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इलाहाबाद कुंभमेले में इसबार महिला संतों ने महिलासशक्तिकरण से प्रेरित होकर जूना अखाड़े के तहत स्वतंत्र रूप से व्यवस्था करने का मुद्दा उठाया। इसे जूना अखाड़े ने मान लिया। जूना अखाड़े में दस हजार से अधिक महिला साधु-संन्यासी हैं। इसे दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा नाम दिया गया है। लखनऊ के श्री मनकामनेश्वर मंदिर की प्रमुख महंत दिव्या गिरी को संन्यासिनी अखाड़े का अध्यक्ष बनाया गया है।

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इलाहाबाद के कुंभ मेले में श्रद्धालु इस बार गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी में बने पक्के घाटों पर डुबकी लगाएंगे साथ ही वहीं पर सरकर ने पूजा-पाठ का इंतजाज करवाया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने चार पक्के घाट 100 कच्चे घाटों का इंतजाम किया है। कुंभ मेले में कुल 14 सेक्टर बनाए गए हैं।

इलाहाबाद में संगम और उसके नजदीक जो चार पक्के घाट बनाए गए हैं वह सभी यमुना नदी पर हैं। कुंभ मेले के सेक्टर-13 और 14 में बने अरैल में बने पक्के घाट से सीधे संगम में डुबकी लगाई जा सकेगी। जबकि बाकी तीन घाटों पर यमुना में स्नान हो सकेगा।

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इलाहाबाद कुंभमेले की तैयारियों को देखकर यह महसूस होता है कि गंगा में साफ पानी की आवश्यकता बनी हुई है। बीते अर्धकुंभ में तीन करोड़ लोगों ने गंगा में स्नान किया था और इस बार इनकी तादाद तीन गुना से ज्यादा बढ़ जाएगी. ऐसे में गंगा को कम-से-कम 5,000 क्यूसेक अतिरिक्त पानी की जरूरत पड़ेगी।

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इलाहाबाद कुंभ मेले के मद्देनजर केंद्र की ओर से उत्तरप्रदेश का योजना खर्च 21 प्रतिशत बढ़ा दिया गया है। योजना आयोग ने यूपी के लिए 57 हजार करोड़ रुपए मंजूर किए।

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कुंभ का मेला हो या कोई भी मेला हो, उससे हमेशा बाजार की शक्तियों को लाभ मिलता है। धार्मिकमेले तो और भी ज्यादा आर्थिक लाभ देते हैं। इस नजरिए से देखें तो कुंभमेला एक धार्मिक आयेोजन के साथ विशाल आर्थिकयज्ञ भी है। इससे बड़ी मात्रा में आर्थिकलाभ होने की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं। जागरण अखबार के अनुसार मात्र 1150 करोड़ की लागत से आयोजित होने जा रहा कुंभ मेला 2013 केंद्र व राज्य सरकार को मालामाल करने जा रहा है। टूर आपरेटर, एयरलाइंस, होटल आदि भी इसमें हिस्सेदार होंगे। दि एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज ऑफ इंडिया (एसोचैम) ने शनिवार को यह आकलन जारी किया है।

एसोचैम के अनुसार कुंभ मेला 2013 बारह से 15 हजार करोड़ की कमाई कराएगा। एसोचैम ने महाकुंभ मेला 2013- उप्र के लिए राजस्व अर्जन का संभावित स्रोत नामक एक दस्तावेज तैयार किया है। इस दस्तावेज को अपनी वेबसाइट पर भी जारी किया है। इसके अनुसार कुंभ मेला उप्र व देश में मेडिकल व इको टूरिज्म में जोरदार इजाफा करेगा। इस मेले के मद्देनजर देश में दस लाख से अधिक विदेशी सैलानी आने जा रहे हैं। देशी-विदेशी मीडिया इंडस्ट्री के सदस्य भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं। यह सभी सैलानी 20 से 30 दिन भारत में रहेंगे। इनकी वजह से सारे होटल सौ प्रतिशत भरे रहने का अनुमान है। साथ ही इनकी आय में 25 प्रतिशत की दर से इजाफा होने की संभावना है। इनकी वजह से एयरलाइंस इंडस्ट्री को भी खासा फायदा होगा। कुंभ मेला इलाहाबाद के साथ-साथ आगरा व उप्र के अन्य हिस्सों, राजस्थान, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश आदि को भी खासा फायदा पहुंचाने जा रहा है क्योंकि देश में आने वाले अधिकांश टूरिस्ट एक से अधिक स्थानों को देखना पसंद करेंगे। टूर आपरेटर्स को इसमें अच्छा फायदा मिलेगा। उप्र के निजी अस्पताल, व्यापारी, रेलवे आदि इस दौरान 1500 करोड़ रुपये अर्जित करेंगे। इसके साथ ही कुंभ आने वाली भारी भीड़ से सीधे या प्रत्यक्ष रूप से जुड़े सभी भारी भरकम कमाई करेंगे। कुल मिलाकर मेला दो माह के दौरान 12 से 15 हजार करोड़ रुपये की कमाई कराएगा। इससे शासन की आय में भारी इजाफा होगा। अपनी गणित को पुख्ता करते हुए एसोचैम की ओर से जारी आकलन में कहा गया है कि दस लाख विदेशी सैलानियों में से कम से कम पांच लाख जरूर एक से ज्यादा स्थल देखेंगे। इसमें एक पर कम से कम 25 हजार का खर्च आएगा। इस तरह से अकेले टूर आपरेटर्स 1250 करोड़ रुपये अर्जित करेंगे। आकलन के मुताबिक मात्र दो माह तक चलने वाला कुंभ मेला छह लाख से अधिक रोजगार सृजित करेगा। इसमें एयरलाइंस व एयरपोर्ट सेक्टर में डेढ़ लाख, होटल इंडस्ट्री में ढाई लाख, टूर आपरेटर्स में 45 हजार, इको टूरिज्म में 50 हजार व निर्माण कार्यो में 85 हजार रोजगार शामिल है।

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देवता और राक्षसों में जब अमृत पाने के लिए संघर्ष हो रहा था तो उस दौरान अमृत की कुछ बूँदे जिन शहरों पर गिरीं उन शहरों में कुंभमेला लगाया जाता है। इलाहाबाद,नासिक,हरिद्वार और उज्जैन वे शहर हैं जहां अमृत की बूंदें गिरी थीं। इन चारों शहरों में 12 वर्ष के अंतराल के बाद कुंभमेला लगता है। सवाल यह है कुंभस्नान का कुंभमेले में रूपान्तरण कब हुआ ?

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हमारे समाज में साधु-संयासी निरीह और अधिकारहीन नागरिक हैं। ये वे लोग हैं जो निजीतौर पर समाज से बाहर हैं। जो समाज से बाहर है उसे समाज से बाहर जाने से कैसे रोका जाय ,इस पहलू पर हमारे नीति निर्धारक कभी नहीं सोचते। वे समाज से ज्यादा से लोगों को बाहर रखनेवाली नीतियां बनाते रहे हैं। उनकी नीतियों ने आदिवासियों,दलितों,औरतों,अल्पसंख्यकों ,अपाहिजों को समाज से बहिष्कृत करके रखा।इसी कोटि में संयासी भी आते हैं। राज्य की संयासीभक्ति ढोंग है।

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कुंभमेले में संयासियों की बेशुमार भीड़ देखकर बड़ा कष्ट होता है। मन में सवाल उठता है कि मेरे देश में हजारों-लाखों लोग संयासी क्यों हो जाते हैं ? हम आज तक ऐसी सामाजिक व्यवस्था क्यों नहीं बना पाए जिसमें लोग संयासी न बनें । हमने कभी गंभीरता के साथ संयासियों की सामाजिक प्रोफाइल नहीं बनायी और न उन कारणों को दूर करने का प्रयास किया जिसके कारण लोग संयासी हो जाते हैं। संयासी होने के अनेक कारण हैं लेकिन प्रधान कारण है दुख।

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इलाहाबाद कुंभ,आस्था,टीवी चैनल और फेसबुक

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कुंभमेले को टीवी चैनलों ने आस्था का मेला कहा। इसे आस्था का मेला कहना गलत है। आस्था से फासिज्म की बू आती है। कुंभ आस्था का मेला नहीं है। आस्था के रूप में इस मेले को चित्रित करने का अर्थ है मेले के समस्त उदार चरित्र को अस्वीकार करना। आस्था में उदारता के लिए कोई जगह नहीं होती। आस्था का टीवी एजेण्डा और प्रचार अभियान अंततः फासिस्ट ताकतों की सेवा में ले जाता है।

आस्था को प्रचारित करेंगे तो उससे घृणा निकलेगी। चैनलवाले भूल गए आस्था से आस्था पैदा नहीं होती। घृणा पैदा होती है।

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अनेक धार्मिकलोग हमें पवित्रता का संदेश देते हैं लेकिन पवित्रता अब अतीत की वस्तु बन चुकी है। कोई वस्तु,विचार,मानवीय व्यवहार शुचिता या पवित्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

पवित्रता के लिए लड़ी गयी जंग वस्तुतः अतीत के लिए लड़ी जा रही जंग है। पवित्रता की जंग अतीत में ठेलती है। जब अतीत में जाते हैं वहां पर भी पाते हैं हम पवित्र नहीं थे। क्योकि अतीत कभी भी पवित्र नहीं रहा। पवित्रता के झगड़े पीछे ले जाते हैं।

यही वजह है कि आधुनिककाल में धर्मगुरूओं ने पवित्रता के सवाल को बस्तों में बंद कर दिया है और उसकी जगह स्वच्छता और सफाई के सवाल आ गए हैं.

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प्रत्येक धर्म हमको सत्य की शिक्षा देता है ,लेकिन सत्य क्या है इसके प्रमाण नहीं देता। आमलोग भगवान पदबंध का धर्मनिरपेक्षभाव से इस्तेमाल करते हैं। ईश्वर या भगवान के पदबंध का जो लोग इस्तेमाल करते हैं वे उसके बारे में कोई आलोचना सुनना पसंद नहीं करते।

इसका अर्थ यह है कि ईश्वर या भगवान उनके लिए सहिष्णुता का प्रतीक है। और वे भगवान के बहाने सहिष्णुता मैसेज देना चाहते हैं। यह भगवान की मॉडर्न भूमिका है।

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कुंभ में नहाना या जाना आस्था का सवाल नहीं है। कुंभ में या नदी में लोग नहाने जाते हैं अपनी आदत और इच्छा के अनुसार। कुंभस्नान आस्था नहीं मानवीय आदत है,स्वभाव है। यह किसी पुण्य-पाप से प्रेरित नहीं है। यह शुद्ध आनंद है। कुंभयात्री किसी कट्टरपंथी विचार से प्रेरित होकर संगम में गोते नहीं लगाते। ये लोग संतों-महंतों को कठमुल्लेपन से प्रेरित होकर नहीं देखते बल्कि इनके प्रति उदारभावबोध से पेश आते हैं। इस अर्थ में ही कुंभमेला आस्था का मेला नहीं है। यह धर्मनिरपेक्ष उदारभावों का मेला है।

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इलाहाबाद कुंभ धार्मिक पर्व नहीं है। बल्कि धर्मनिरपेक्षपर्व है। कुंभ में धर्मचेतना नहीं धर्मनिरपेक्षचेतना के रूपों के दर्शन ज्यादा मिलेंगे। यहां धार्मिक ज्ञानवार्ता की बजाय संगमस्नान,देवताओं के दर्शन आदि का महत्व ज्यादा है। धार्मिकग्रंथों का गौण हो जाना और धार्मिक प्रतीकों में जनता का मगन हो जाना वस्तुतः धर्म के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का अंग है।

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कुंभ में डुबकी लगाने वाले या मंदिर जानेवाले ज्यादातर आधुनिक लोग धर्म की सतही बातें जानते और मानते हैं। धार्मिकज्ञानात्मकचेतना की बजाय उनमें धार्मिकरूपात्मकचेतना ज्यादा होती है।

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भारत में गैर कट्टरपंथी धार्मिक संतों-महंतों ने विगत दो सौ साल में पैदा हुए मानवीय विचारों और मान्यताओं को अपने चिन्तन-मनन का हिस्सा बनाया है और नई तकनीक और समारोहधर्मिता को भी अपना लिया है। इसे धर्म पर लोकतांत्रिक प्रभाव भी कह सकते हैं। इन संतों ने धर्म का आधुनिकीकरण भी किया है। आजकल संत नेट और मोबाइल कनेक्टेड हैं। नियमित टीवी शो भी करते हैं।

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कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हमें बुनियादी धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं की पुष्टि करने का प्रामाणिक मार्ग नहीं बताता। हर बार नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं और रूढ़ियों की आलोचना करती है।

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

विकास के नए सपने की तलाश में ममता


           
पन्द्रह जनवरी2013 को ममता सरकार हल्दिया में अपने माथे पर निरूद्योगीकरण के कलंक के टीके को मिटाना चाहती है और नई उद्योगनीति की घोषणा करने वाली है। इस नीति को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इनदिनों बेहद परेशान हैं। उनकी मुश्किल यह है कि उनको एक साथ अपने सांस्कृतिक और माओपंथी मित्रों को खुश करना है तो दूसरी ओर पूंजीपतियों काभी दिल जीतना है।
    हल्दिया में आने वाली नई उद्योगनीति के बारे में ममता के करीबी सूत्रों का कहना है सन् 1994 की वामशासन में बनी नीति की बुनियादी धारणाओं में कोई बदलाव ममता सरकार नहीं करने जा रही है। हो सकता है कपड़ा ,चाय और जूट उद्योग के लिए कुछ नए नीतिगत प्रस्ताव घोषित कर दिए जाएं।
ममता बनर्जी की सबसे बड़ी बाधा यह है सत्तारूढ़ होने के बाद उनकी मीडिया में रेटिंग तेजी से गिरी है। इन दिनों मीडिया में उनकी साख सबसे नीचे है। मीडिया में साख उठे इसके लिए जरूरी है कि पूंजीपतियों का दिल जीता जाय और राज्य में पूंजी निवेश का माहौल बनाया जाय। बेकार नौजवानों में तेजी से असंतोष बढ़ रहा है। इस असंतोष के कारण राज्य में अपराधों में तेजी आई है। ममता के दल की गुटबाजी और आपसी झगड़े हर जिले में समस्या बन गए हैं और पुलिस सक्रिय हस्तक्षेप नहीं कर पा रही है। इसके कारण राज्य में पूंजीपतियों में पूंजी निवेश का माहौल नहीं बन पा रहा है।  
   पिछले दो सप्ताह में राइटर्स बिल्डिंग में मुख्यमंत्री और उद्योगमंत्री के साथ राज्य के व्यापारियों की कई बैठकें हुई हैं. लेकिन किसी भी बैठक में खुलकर यह बात सामने नहीं आई कि राज्य सरकार नया क्या करने जा रही है। नए को रहस्य बनाकर रखने की नीति पर राज्य के व्यापारी खुश नहीं हैं। व्यापारियों के साथ जिस तरह की ठंड़ी मीटिगें हुई हैं उनके अनुभव के आधार पर फिक्की के एक पदाधिकारी ने कहा कि ममता सरकार में उद्योग जगत को आकर्षित करने की इच्छाशक्ति का अभाव है।
     आगामी 15-17 जनवरी के बीच हल्दिया में व्यापारियों को रिझाने के लिए ‘बंगाल लीडस सम्मिट’ हो रही है। उल्लेखनीय है कि ममता सरकार को आए दो साल गुजर चुके हैं लेकिन राज्य में औद्योगिक हलचल कहीं पर भी नजर नहीं आ रही। ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के साथ जिस गति से काम करने का वायदा किया था उसकी दूर-दूर तक झलक नजर नहीं आ रही। हल्दिया सम्मेलन में 15 जनवरी को उम्मीद की जा रही है कि सरकार नई उद्योग नीति लेकर आएगी।
     ममता के करीबी सूत्रों के अनुसार राज्य के उद्योगमंत्री ने व्यापारियों के संगठनों के सामने उद्योग नीति का जो मसौदा पेश किया था। उसमें व्यापारियों के हितों की एकसिरे से उपेक्षा की गयी थी। इस मसौदे में नई नीति जैसी कोई बात नहीं रखी गयी। राज्य सरकार की बैठकों में चेम्बर ऑफ कॉमर्स और फिक्की के द्वारा दिए गए सुझावों में से अधिकांश सुझावों पर ममता सरकार का ठंडा रूख था।  नई नीति में संभावना है कि राज्य सरकार भूमिबैंक के जरिए उद्योगों के लिए जमीन लेने पर जोर दे। इसके अलावा जमीन की खरीददारी में व्यापारियों की मदद न करने की भी घोषणा आ सकती है। व्यापारियों का मानना है कि राज्य सरकार यदि दर्शक रहेगी तो राज्य में पूंजी निवेश नहीं होगा। राज्य सरकार को सक्रिय एजेंट के रूप में हस्तक्षेप का मन बनाना चाहिए।
  फिक्की के एक पदाधिकारी ने कहा कि इनदिनों जो उद्योगनीति चल रही है उसे वाममोर्चा सरकार ने 1994 में बनाया था और यह नीति राज्य के विकास में कोई खास योगदान नहीं कर पायी।
     पश्चिम बंगाल के व्यापारियों  का मानना है कि राज्य सररकार के मन में रहीं न कहीं पूंजीपति विरोधी भावनाएं गहरे जड़ें जमाए बैठी हैं। इसके कारण राज्य की ओर व्यापारीवर्ग आना नहीं चाहता। ममता की इच्छा है कि राज्य में पूंजीपति वैसे ही निवेश करें जिस तरह वे गुजरात में निवेश करते हैं। वे विकास के मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को अपना आदर्श मानती हैं। लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि पूंजीपति उन पर भरोसा नहीं करते। इसके विपरीत मोदी पर भारत के पूंजीपति भरोसा करते हैं। मोदी ने कभी भी उद्योगपति विरोधी रूख अख्तियार नहीं किया। चेम्बर ऑफ कॉमर्स के एक प्रतिनिधि का कहना है कि ममता बनर्जी यदि अपने पुराने राजनीतिक मनोभावों को बदल लेती हैं और खुलकर भूमि की खरीद में व्यापारियों की मदद करें और निचले स्तर पर दादाओं पर नियंत्रण स्थापित करती हैं तो राज्य में औद्योगिक माहौल फिर से चंगा हो सकता है। ममता बनर्जी के शासन में आने के बाद से कानून-व्यवस्था की स्थिति में गिरावट आई है। कम से कम इसे तो वे तत्काल रोकें।
   एक अन्य व्यापारी ने कहा कि ममता को एक नए यूटोपिया को खड़ा करने की जरूरत है। राज्य के औद्योगिक विकास के यूटोपिया का होना जरूरी है। पश्चिम बंगाल में किसी भी किस्म की आशाओं के संचार की संभावनाएं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही हैं। ऐसी स्थिति में हमें नीति से भी ज्यादा जरूरी है आशाओं के नए संकेतों की और ये संकेत राज्य सरकार के मंत्रियों के व्यवहार में झलकने चाहिए। 
     

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

मीडिया की पेज थ्री संस्कृति में कैद माकपा


   मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजनीतिक तौर पर सबको लाभ हुआ है। भाजपा से लेकर नीतीश कुमार तक सभी जाने-अनजाने लाभान्वित हुए हैं। लेकिन माकपा को मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मानो ग्रहण ही लग गया है। खासकर यूपीए-2 के शासन में आने के बाद से वामदलों की राजनीतिक पहलकदमी में तेजी से गिरावट आई है। आज संसदीय क्षितिज से लेकर सड़कों तक माकपा की आवाज कहीं पर भी सुनाई नहीं देती। माकपा और वामदलों की इस तरह राजनीतिक अनुपस्थिति भय पैदा कर रही है। यह विचार करने लायक बात है कि एक जमाने में वामदलों का सभी राष्ट्रीय सवालों पर विपक्ष में महत्वपूर्ण योगदान था और सारा देश देखता था कि आखिरकार फलां मसले पर वामदल क्या कहते हैं ? लेकिन इनदिनों वामदलों को जैसे लगवा मार गया है। 

यूपीए-2 के शासन में आने के साथ वामदलों की निष्क्रियता क्यों बढ़ी है ? और वामदलों में इस निष्क्रियता को तोड़ने में कोई सरगर्मी नजर क्यों नहीं आती इसके बारे में कहीं पर कोई हलचल नजर नहीं आती। इसके कारणों की गंभीरता से तलाश की जानी चाहिए।

माकपा में आई राजनीतिक पस्ती का प्रधान कारण है माकपा का पेज 3 मार्का मार्क्सवादी नेतृत्व । पेज 3थ्री कल्चर से प्रभावित होकर जिस लीडरशिप को शीर्षपदों पर बिठाया गया है उस लीडरशिप को हिन्दुस्तान की धड़कनों का ज्ञान नहीं है। ये वे लोग हैं जो राष्ट्र को ठीक से नहीं जानते। ये अपने अपने इलाके क्षत्रप हैं। इनमें कुछ की लोकल जड़ें हैं। लेकिन देश इनके लिए आज भी बेगाना है। देश के प्रति बेगानापन और देश की जनता के यथार्थ अलगाव के कारण माकपा ने अपनी राजनीतिक पहलकदमी खो दी है।

टीवी पर आपको सभी दल राजनीतिक एक्शन करते नजर आएंगे लेकिन माकपा के नेता नजर नहीं आएंगे। विगत तीन सालों में माकपा नेताओं ने संसदीय गतिविधियों में भाजपा के साथ जिस तरह का फ्लोर मैनेजमेंट किया है उससे उनका राजनीतिक अवमूल्यन हुआ है। संसद में निजी पहल को छोड़कर भाजपा की राजनीतिक पहल का हिस्सा बनकर माकपा ने सत्ताधारी वर्गों की सेवा की है।

माकपा में राजनीतिक निष्क्रियता का एक बड़ा कारण है राज्यस्तर पर माकपा का बूढ़ा नेतृत्व। खासकर केरल और पश्चिम बंगाल में स्थितियां बेहद खराब हैं। पश्चिम बंगाल में जो नेतागण थक गए थे उनको पार्टी के कामों से मुक्ति नहीं दी गयी, जिन नेताओं को राज्य की आम जनता एकदम नापसंद करती है उनको जनसंगठनों से लेकर पार्टी पदों तक से मुक्त नहीं किया गया।

मसलन् ,पश्चिम बंगाल में राज्य विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद कम से कम बुद्धदेव भट्टाचार्य,विमान बसु को पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीय समिति से निकाल देना चाहिए था लेकिन माकपा का केन्द्रीय नेतृत्व ऐसा नहीं कर पाया। बुद्धदेव भट्टाचार्य के व्यक्तिगत तौर पर जितने भी गुण हों लेकिन उनकी राजनीतिक असफलताएं उससे बड़ी हैं। इसी तरह सांगठनिक स्तर पर विमान बसु की सांगठनिक असफलताएं भी जबावदेही की मांग करती हैं। विमान बसु के कार्यकाल में पार्टी में बड़े पैमाने पर अ-मार्क्सवादी संस्कृति का विकास हुआ है और फलतः पूरी कम्युनिस्ट पार्टी पेजथ्री कल्चर और गुटबाजी में फंसकर रह गयी है।

माकपा के नेता विपक्ष की जंग टीवी चैनलों और मीडिया प्रबंधन के जरिए लडना चाहते हैं। पार्टी नेताओं ने संघर्ष और कुर्बानी का रास्ता त्यागकर टीवी टॉकशो और प्रेस कॉफ्रेस का रास्ता अपना लिया है और वे यह मानकर चल रहे हैं कि अपने तर्कशास्त्र के जरिए ममता बनर्जी और उनके दल तृणमूल कांग्रेस को आम जनता से अलग-थलग कर देंगे।

टीवी चैनलों से प्रचार किया जा सकता है लेकिन संगठन नहीं बना सकते। टीवी चैनलों के जरिए विज्ञापन जुटाकर पार्टी कोष में बढ़ोत्तरी की जा सकती है लेकिन इससे आम जनता से संपर्क-संबंध बहाल नहीं किए जा सकते। माकपा की बुनियादी कमजोरी है कि वह मीडिया इमेज की शिकार है।

माकपा अब आंदोलन नहीं करती बल्कि टीवी बाइटस बनाने के लिए एक्शन करती है। किसी भी एक्शन का बाइटस तक सीमित रहना और फिर नई बाइट्स के लिए टॉकशो या टीवी कैमरामैन की तलाश ही इनदिनों माकपा नेताओं की बड़ी गतिविधि है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि बैंकों में 10 लाख कर्मचारी हड़ताल पर चले गए लेकिन उनके लिए कोई दीर्,कालिक संघर्ष का मार्ग वामदल नहीं सुझा पाए हैं। वामदलों की राजनीतिक असफलता देखें कि वे संसद में बैंकिंग संशोधन बिल के विरोध में अन्य राजनीतिक दलों को अपने साथ नहीं ला पाए ,यहां तक कि जिस भाजपा का वे विगत तीन सालों से संसद में हर मसले पर साथ दे रहे थे उसने भी बैंकिंग संशोधन बिल पर माकपा के साथ जाने की बजाय मनमोहन सरकार का समर्थन करना जरूरी समझा। बैंक कर्मचारियों की मांगों पर वामदलों के साथ अन्य दलों का न आना वामदलों की अब तक सबसे बड़ी असफलता है। पहले कभी इस तरह बैंक कर्मचारियों की मांगों पर वामदल अलग-थलग नहीं पड़े थे जिस तरह इसबार अलग-थलग पड़े हैं। इसके अलावा प्रमोशन में आरक्षण के सवाल पर वामदलों का रूख चिंता पैदा करने वाला है।

वामदलों और खासकर माकपा को यदि एक जंगजू कम्युनिस्ट पार्टी की इमेज पुनःअर्जित करनी है तो उसे पेजथ्री कल्चर के बाहर आना होगा वरना कम्युनिस्ट पार्टी का अन्यदलों से भेद ही खत्म हो जाएगा।











प्रौपेगैण्डा के धनी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह

     हाल ही में कलकत्ता में विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब बोल रहे थे तो वे वैज्ञानिकों को सम्बोधित कम और कांग्रेसियों को सम्बोधित करते ज्यादा दिख रहे थे। वे कांग्रेस के प्रचारक के रूप में बोल रहे थे। प्रधानमंत्री का विज्ञान कांग्रेस में दिया गया भाषण राजनीतिक प्रचार से ज्यादा महत्व नहीं रखता। वे जो कहते हैं वह कपूर की तरह कुछ क्षण दिखता है फिर गायब हो जाता है। संभवतः वे अकेले प्रधानमंत्री हैं जिनके किसी भी भाषण की कोई भी बात आम आदमी से लेकर बुद्धिजीवियों तक किसी को भी याद नहीं है। प्रधानमंत्री का प्रचारक होना सामान्य बात है लेकिन मनमोहन सिंह इस मामले में विरल हैं क्योंकि वे नव्य उदारनीतियों के नीति निर्माता-प्रचारक के रूप में काम करते रहे हैं। वे मूलतः वर्चुअल हैं। आप उनको पकड सकते हैं लेकिन घेर नहीं सकते। गलती पकड सकते हैं लेकिन दोषी नहीं ठहरा सकते। 

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विपक्ष जब भी घेरने की कोशिश करता है वे हाथ से निकल जाते हैं। हाल ही में दामिनी दिल्ली बलात्कार कांड के प्रसंग में मीडिया उन्माद के जरिए मनमोहन सरकार को घेरने की असफल कोशिश की गई लेकिन वे साफ बच निकले। सवाल यह है कि मनमोहन सरकार को घेरने में विपक्ष आज तक सफल क्यों नहीं हुआ ?

मनमोहन सरकार और कांग्रेस पार्टी ने एक नयी रणनीति बनाई है जिसके तहत वे पापुलिज्म और लोकप्रिय जनदबाब का प्रत्युत्तर प्रशासनिक एक्शन के जरिए दे रहे हैं। मसलन् जब 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो उन्होंने सीधे एक्शन लिया। कॉमनवेल्थ कांड से लेकर दामिनी कांड तक जो भी समस्या आई उसके प्रशासनिक समाधान तलाशने की सक्रिय कोशिश की और इससे भी ज्यादा अपनी कोशिश का मीडिया में जमकर प्रचार किया।

मनमोहन सरकार का मानना है पापुलर को मानो,आलोचनात्मक राय दो । राजनीतिक दबाब को प्रशासनिक –न्यायिक समाधान दो। इस अर्थ में वे लगातार संरचनात्मक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। संरचनात्मक सुधार वस्तुतःनव्य आर्थिक उदारीकरण का हिस्सा हैं। नव्य उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार नयी समस्याएं पुराने कानूनी फ्रेमवर्क में हल नहीं हो सकतीं, मनमोहन सरकार ने इसे सभी मंत्रालयों की कार्यप्रणाली का अंग बना दिया है। इस पद्धति का अनुकरण करने के कारण उनकी जब आलोचना आरंभ होती है तब वे सामने होते हैं लेकिन प्रशानिक एक्शन जब आने लगते हैं तो मनमोहन सरकार के खिलाफ गुस्सा गायब हो जाता है और फिर आमलोगों से लेकर मीडिया तक समस्या और समाधान पर ही बहस आकर टिक जाती है। इसके कारण राजनीति में पैदा हुए उन्माद और भावुकता को हाशिए पर डालने में उनको सफलता मिली है।

मनमोहन सिंह जब से प्रधानमंत्री बने हैं। वे मीडिया और विशेषज्ञों की आलोचना के केन्द्र में नहीं आते। उन्हें प्रधानमंत्री बने 8 साल से ज्यादा समय हो गया है। मीडिया में ममता बनर्जी,शरद पवार ,प्रफुल्ल पटेल ,डी.राजा ,कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ,कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों आदि की आलोचना दिखेगी लेकिन मनमोहन सिंह की आलोचना नहीं मिलेगी। आकाश छूती मंहगाई है लेकिन प्रधानमंत्री पर न तो मीडिया हमला कर रहा है और न विपक्ष। असल में मनमोहन सिंह डिजिटल हो गए हैं। उनका डिजिटल इमेज में रूपान्तरण कर दिया गया है। डिजिटल इमेज और राजनीतिक व्यक्तित्व की इमेज में यही अंतर होता है। राजनीतिक इमेज को पकड़ सकते हैं लेकिन डिजिटल इमेज को पकड़ नहीं सकते।

मनमोहन सिंह का व्यक्तित्व अनेक गुणों से परिपूर्ण है। वे बेहद विनम्र हैं, सुसंस्कृत है, शिक्षित हैं। नव्य -उदार नीतियों के विशेषज्ञ हैं। मीडिया में उनके बारे में न्यूनतम बातें छपती हैं। संभवतः मीडिया में उन्हें सबसे कम कवरेज वाले प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाएगा।

नई डिजिटल इमेज एक ही साथ मिथकीय और ऐतिहासिक होती है। अतीतपंथी और भविष्योन्मुखी होती है। तकनीकीपरक और धार्मिक होती है। मनमोहन सिंह ने अपने प्रचार में बार-बार समृद्ध भारत और समर्थ भारत की बात करते हैं। बार-बार विकासदर को उछाला है। भारत को समृद्धि के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। खासकर पूंजीपति,ह्वाइट कॉलर और मध्यवर्ग के साथ जोड़ा है। इस क्रम में उन्होंने मजदूरों-किसानों की राजनीति को हाशिए पर ड़ालने में सफलता अर्जित की है।

मनमोहन कोड की विशेषता है कि उसने गरीबी के यथार्थ विमर्श को वायवीय बनाया है। गरीबी और अभाव को गैर-बुनियादी विमर्शों के जरिए अपदस्थ किया है। मनमोहन कोड ने गरीबी और अभाव को अप्रत्यक्ष दानव में रूपान्तरित किया है। जिसके बारे में आप सिर्फ कभी-कभार सुन सकते हैं। मनमोहनकोड के लिए गरीबी और अभाव कभी महान समस्या नहीं रहे। मनमोहन कोड ने देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे खतरनाक शत्रु के रूप में माओवाद को प्रतिष्ठित किया है। जबकि माओवाद भारत विभाजन या सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं है।

मनमोहन कोड की काल्पनिक सृष्टि है माओवाद और आतंकी हिन्दू। यह जादुई-मिथकीय शत्रु है। मनमोहन कोड के अनुयायी और प्रचारक माओवाद के बारे में तरह-तरह की दंतकथाएं, किंवदन्तियां आदि प्रचारित कर रहे हैं। मीडिया में माओवाद एक मिथकीय महामानव है। इसी तर्ज पर आरएसएस के नाम पर बहुत सारे आतंकी हिन्दू महामानव पैदा कर दिए गए हैं। ये सारे मनमोहन कोड से सृजित वर्चुअल सामाजिक शत्रु हैं। ये आधे मानव और आधे दानव हैं।

माओवाद और हिन्दू आतंकवाद की रोचक डिजिटल कहानियां आए दिन सम्प्रेषित की जा रही हैं। इन्हें सामाजिक विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। आप जरा गौर से माओवादी नेता किशनजी की कपड़ा मुँह पर ढ़ंके इमेज और हिन्दू आतंकी के रूप में पकड़े गए संतों को ध्यान से देखें तो इनमें आप आधे मनुष्य और आधे प्राचीन मनुष्य की इमेज के दर्शन पाएंगे।

कारपोरेट मीडिया माओवादी और हिन्दू आतंकी की ऐसी इमेज पेश कर रहा है गोया कोई फोरेंसिक रिपोर्ट पेश कर रहा हो। वे इनके शरीर की ऐसी इमेज पेश कर रहे हैं जिससे ये आधे मनुष्य और आधे शैतान लगें। इससे वे खतरे और भय का विचारधारात्मक प्रभाव पैदा कर रहे हैं।

मनमोहन सिंह मीडिया में उतने नजर नहीं आते जितना इन दिनों डिजिटल दानवों (माओवाद और हिन्दू आतंकी) को पेश किया जा रहा है। हमें इस कोड को खोलना चाहिए। यह तकरीबन वैसे ही है जैसे अमेरिका ने तालिबान और विन लादेन की इमेजों के प्रचार-प्रसार के जरिए सारी दुनिया को तथाकथित आतंकवाद विरोधी मुहिम में झोंक दिया और तबाही पैदा की । सामाजिक अस्थिरता पैदा की । घृणा का वातावरण पैदा किया । ठीक यही काम मनमोहन कोड अपने डिजिटल शत्रुओं के प्रचार-प्रसार के नाम पर कर रहा है। हमें जागरूक रहने की जरूरत है।


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