गुरुवार, 10 जनवरी 2013

मीडिया की पेज थ्री संस्कृति में कैद माकपा


   मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजनीतिक तौर पर सबको लाभ हुआ है। भाजपा से लेकर नीतीश कुमार तक सभी जाने-अनजाने लाभान्वित हुए हैं। लेकिन माकपा को मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मानो ग्रहण ही लग गया है। खासकर यूपीए-2 के शासन में आने के बाद से वामदलों की राजनीतिक पहलकदमी में तेजी से गिरावट आई है। आज संसदीय क्षितिज से लेकर सड़कों तक माकपा की आवाज कहीं पर भी सुनाई नहीं देती। माकपा और वामदलों की इस तरह राजनीतिक अनुपस्थिति भय पैदा कर रही है। यह विचार करने लायक बात है कि एक जमाने में वामदलों का सभी राष्ट्रीय सवालों पर विपक्ष में महत्वपूर्ण योगदान था और सारा देश देखता था कि आखिरकार फलां मसले पर वामदल क्या कहते हैं ? लेकिन इनदिनों वामदलों को जैसे लगवा मार गया है। 

यूपीए-2 के शासन में आने के साथ वामदलों की निष्क्रियता क्यों बढ़ी है ? और वामदलों में इस निष्क्रियता को तोड़ने में कोई सरगर्मी नजर क्यों नहीं आती इसके बारे में कहीं पर कोई हलचल नजर नहीं आती। इसके कारणों की गंभीरता से तलाश की जानी चाहिए।

माकपा में आई राजनीतिक पस्ती का प्रधान कारण है माकपा का पेज 3 मार्का मार्क्सवादी नेतृत्व । पेज 3थ्री कल्चर से प्रभावित होकर जिस लीडरशिप को शीर्षपदों पर बिठाया गया है उस लीडरशिप को हिन्दुस्तान की धड़कनों का ज्ञान नहीं है। ये वे लोग हैं जो राष्ट्र को ठीक से नहीं जानते। ये अपने अपने इलाके क्षत्रप हैं। इनमें कुछ की लोकल जड़ें हैं। लेकिन देश इनके लिए आज भी बेगाना है। देश के प्रति बेगानापन और देश की जनता के यथार्थ अलगाव के कारण माकपा ने अपनी राजनीतिक पहलकदमी खो दी है।

टीवी पर आपको सभी दल राजनीतिक एक्शन करते नजर आएंगे लेकिन माकपा के नेता नजर नहीं आएंगे। विगत तीन सालों में माकपा नेताओं ने संसदीय गतिविधियों में भाजपा के साथ जिस तरह का फ्लोर मैनेजमेंट किया है उससे उनका राजनीतिक अवमूल्यन हुआ है। संसद में निजी पहल को छोड़कर भाजपा की राजनीतिक पहल का हिस्सा बनकर माकपा ने सत्ताधारी वर्गों की सेवा की है।

माकपा में राजनीतिक निष्क्रियता का एक बड़ा कारण है राज्यस्तर पर माकपा का बूढ़ा नेतृत्व। खासकर केरल और पश्चिम बंगाल में स्थितियां बेहद खराब हैं। पश्चिम बंगाल में जो नेतागण थक गए थे उनको पार्टी के कामों से मुक्ति नहीं दी गयी, जिन नेताओं को राज्य की आम जनता एकदम नापसंद करती है उनको जनसंगठनों से लेकर पार्टी पदों तक से मुक्त नहीं किया गया।

मसलन् ,पश्चिम बंगाल में राज्य विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद कम से कम बुद्धदेव भट्टाचार्य,विमान बसु को पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीय समिति से निकाल देना चाहिए था लेकिन माकपा का केन्द्रीय नेतृत्व ऐसा नहीं कर पाया। बुद्धदेव भट्टाचार्य के व्यक्तिगत तौर पर जितने भी गुण हों लेकिन उनकी राजनीतिक असफलताएं उससे बड़ी हैं। इसी तरह सांगठनिक स्तर पर विमान बसु की सांगठनिक असफलताएं भी जबावदेही की मांग करती हैं। विमान बसु के कार्यकाल में पार्टी में बड़े पैमाने पर अ-मार्क्सवादी संस्कृति का विकास हुआ है और फलतः पूरी कम्युनिस्ट पार्टी पेजथ्री कल्चर और गुटबाजी में फंसकर रह गयी है।

माकपा के नेता विपक्ष की जंग टीवी चैनलों और मीडिया प्रबंधन के जरिए लडना चाहते हैं। पार्टी नेताओं ने संघर्ष और कुर्बानी का रास्ता त्यागकर टीवी टॉकशो और प्रेस कॉफ्रेस का रास्ता अपना लिया है और वे यह मानकर चल रहे हैं कि अपने तर्कशास्त्र के जरिए ममता बनर्जी और उनके दल तृणमूल कांग्रेस को आम जनता से अलग-थलग कर देंगे।

टीवी चैनलों से प्रचार किया जा सकता है लेकिन संगठन नहीं बना सकते। टीवी चैनलों के जरिए विज्ञापन जुटाकर पार्टी कोष में बढ़ोत्तरी की जा सकती है लेकिन इससे आम जनता से संपर्क-संबंध बहाल नहीं किए जा सकते। माकपा की बुनियादी कमजोरी है कि वह मीडिया इमेज की शिकार है।

माकपा अब आंदोलन नहीं करती बल्कि टीवी बाइटस बनाने के लिए एक्शन करती है। किसी भी एक्शन का बाइटस तक सीमित रहना और फिर नई बाइट्स के लिए टॉकशो या टीवी कैमरामैन की तलाश ही इनदिनों माकपा नेताओं की बड़ी गतिविधि है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि बैंकों में 10 लाख कर्मचारी हड़ताल पर चले गए लेकिन उनके लिए कोई दीर्,कालिक संघर्ष का मार्ग वामदल नहीं सुझा पाए हैं। वामदलों की राजनीतिक असफलता देखें कि वे संसद में बैंकिंग संशोधन बिल के विरोध में अन्य राजनीतिक दलों को अपने साथ नहीं ला पाए ,यहां तक कि जिस भाजपा का वे विगत तीन सालों से संसद में हर मसले पर साथ दे रहे थे उसने भी बैंकिंग संशोधन बिल पर माकपा के साथ जाने की बजाय मनमोहन सरकार का समर्थन करना जरूरी समझा। बैंक कर्मचारियों की मांगों पर वामदलों के साथ अन्य दलों का न आना वामदलों की अब तक सबसे बड़ी असफलता है। पहले कभी इस तरह बैंक कर्मचारियों की मांगों पर वामदल अलग-थलग नहीं पड़े थे जिस तरह इसबार अलग-थलग पड़े हैं। इसके अलावा प्रमोशन में आरक्षण के सवाल पर वामदलों का रूख चिंता पैदा करने वाला है।

वामदलों और खासकर माकपा को यदि एक जंगजू कम्युनिस्ट पार्टी की इमेज पुनःअर्जित करनी है तो उसे पेजथ्री कल्चर के बाहर आना होगा वरना कम्युनिस्ट पार्टी का अन्यदलों से भेद ही खत्म हो जाएगा।











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