-1-
कुंभमेले को टीवी चैनलों ने आस्था का मेला कहा। इसे आस्था का मेला कहना गलत है। आस्था से फासिज्म की बू आती है। कुंभ आस्था का मेला नहीं है। आस्था के रूप में इस मेले को चित्रित करने का अर्थ है मेले के समस्त उदार चरित्र को अस्वीकार करना। आस्था में उदारता के लिए कोई जगह नहीं होती। आस्था का टीवी एजेण्डा और प्रचार अभियान अंततः फासिस्ट ताकतों की सेवा में ले जाता है।
आस्था को प्रचारित करेंगे तो उससे घृणा निकलेगी। चैनलवाले भूल गए आस्था से आस्था पैदा नहीं होती। घृणा पैदा होती है।
-2-
अनेक धार्मिकलोग हमें पवित्रता का संदेश देते हैं लेकिन पवित्रता अब अतीत की वस्तु बन चुकी है। कोई वस्तु,विचार,मानवीय व्यवहार शुचिता या पवित्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
पवित्रता के लिए लड़ी गयी जंग वस्तुतः अतीत के लिए लड़ी जा रही जंग है। पवित्रता की जंग अतीत में ठेलती है। जब अतीत में जाते हैं वहां पर भी पाते हैं हम पवित्र नहीं थे। क्योकि अतीत कभी भी पवित्र नहीं रहा। पवित्रता के झगड़े पीछे ले जाते हैं।
यही वजह है कि आधुनिककाल में धर्मगुरूओं ने पवित्रता के सवाल को बस्तों में बंद कर दिया है और उसकी जगह स्वच्छता और सफाई के सवाल आ गए हैं.
-3-
प्रत्येक धर्म हमको सत्य की शिक्षा देता है ,लेकिन सत्य क्या है इसके प्रमाण नहीं देता। आमलोग भगवान पदबंध का धर्मनिरपेक्षभाव से इस्तेमाल करते हैं। ईश्वर या भगवान के पदबंध का जो लोग इस्तेमाल करते हैं वे उसके बारे में कोई आलोचना सुनना पसंद नहीं करते।
इसका अर्थ यह है कि ईश्वर या भगवान उनके लिए सहिष्णुता का प्रतीक है। और वे भगवान के बहाने सहिष्णुता मैसेज देना चाहते हैं। यह भगवान की मॉडर्न भूमिका है।
-4-
कुंभ में नहाना या जाना आस्था का सवाल नहीं है। कुंभ में या नदी में लोग नहाने जाते हैं अपनी आदत और इच्छा के अनुसार। कुंभस्नान आस्था नहीं मानवीय आदत है,स्वभाव है। यह किसी पुण्य-पाप से प्रेरित नहीं है। यह शुद्ध आनंद है। कुंभयात्री किसी कट्टरपंथी विचार से प्रेरित होकर संगम में गोते नहीं लगाते। ये लोग संतों-महंतों को कठमुल्लेपन से प्रेरित होकर नहीं देखते बल्कि इनके प्रति उदारभावबोध से पेश आते हैं। इस अर्थ में ही कुंभमेला आस्था का मेला नहीं है। यह धर्मनिरपेक्ष उदारभावों का मेला है।
-5-
इलाहाबाद कुंभ धार्मिक पर्व नहीं है। बल्कि धर्मनिरपेक्षपर्व है। कुंभ में धर्मचेतना नहीं धर्मनिरपेक्षचेतना के रूपों के दर्शन ज्यादा मिलेंगे। यहां धार्मिक ज्ञानवार्ता की बजाय संगमस्नान,देवताओं के दर्शन आदि का महत्व ज्यादा है। धार्मिकग्रंथों का गौण हो जाना और धार्मिक प्रतीकों में जनता का मगन हो जाना वस्तुतः धर्म के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का अंग है।
-6-
कुंभ में डुबकी लगाने वाले या मंदिर जानेवाले ज्यादातर आधुनिक लोग धर्म की सतही बातें जानते और मानते हैं। धार्मिकज्ञानात्मकचेतना की बजाय उनमें धार्मिकरूपात्मकचेतना ज्यादा होती है।
-7-
भारत में गैर कट्टरपंथी धार्मिक संतों-महंतों ने विगत दो सौ साल में पैदा हुए मानवीय विचारों और मान्यताओं को अपने चिन्तन-मनन का हिस्सा बनाया है और नई तकनीक और समारोहधर्मिता को भी अपना लिया है। इसे धर्म पर लोकतांत्रिक प्रभाव भी कह सकते हैं। इन संतों ने धर्म का आधुनिकीकरण भी किया है। आजकल संत नेट और मोबाइल कनेक्टेड हैं। नियमित टीवी शो भी करते हैं।
-8-
कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हमें बुनियादी धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं की पुष्टि करने का प्रामाणिक मार्ग नहीं बताता। हर बार नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं और रूढ़ियों की आलोचना करती है।
कुंभमेले को टीवी चैनलों ने आस्था का मेला कहा। इसे आस्था का मेला कहना गलत है। आस्था से फासिज्म की बू आती है। कुंभ आस्था का मेला नहीं है। आस्था के रूप में इस मेले को चित्रित करने का अर्थ है मेले के समस्त उदार चरित्र को अस्वीकार करना। आस्था में उदारता के लिए कोई जगह नहीं होती। आस्था का टीवी एजेण्डा और प्रचार अभियान अंततः फासिस्ट ताकतों की सेवा में ले जाता है।
आस्था को प्रचारित करेंगे तो उससे घृणा निकलेगी। चैनलवाले भूल गए आस्था से आस्था पैदा नहीं होती। घृणा पैदा होती है।
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अनेक धार्मिकलोग हमें पवित्रता का संदेश देते हैं लेकिन पवित्रता अब अतीत की वस्तु बन चुकी है। कोई वस्तु,विचार,मानवीय व्यवहार शुचिता या पवित्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
पवित्रता के लिए लड़ी गयी जंग वस्तुतः अतीत के लिए लड़ी जा रही जंग है। पवित्रता की जंग अतीत में ठेलती है। जब अतीत में जाते हैं वहां पर भी पाते हैं हम पवित्र नहीं थे। क्योकि अतीत कभी भी पवित्र नहीं रहा। पवित्रता के झगड़े पीछे ले जाते हैं।
यही वजह है कि आधुनिककाल में धर्मगुरूओं ने पवित्रता के सवाल को बस्तों में बंद कर दिया है और उसकी जगह स्वच्छता और सफाई के सवाल आ गए हैं.
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प्रत्येक धर्म हमको सत्य की शिक्षा देता है ,लेकिन सत्य क्या है इसके प्रमाण नहीं देता। आमलोग भगवान पदबंध का धर्मनिरपेक्षभाव से इस्तेमाल करते हैं। ईश्वर या भगवान के पदबंध का जो लोग इस्तेमाल करते हैं वे उसके बारे में कोई आलोचना सुनना पसंद नहीं करते।
इसका अर्थ यह है कि ईश्वर या भगवान उनके लिए सहिष्णुता का प्रतीक है। और वे भगवान के बहाने सहिष्णुता मैसेज देना चाहते हैं। यह भगवान की मॉडर्न भूमिका है।
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कुंभ में नहाना या जाना आस्था का सवाल नहीं है। कुंभ में या नदी में लोग नहाने जाते हैं अपनी आदत और इच्छा के अनुसार। कुंभस्नान आस्था नहीं मानवीय आदत है,स्वभाव है। यह किसी पुण्य-पाप से प्रेरित नहीं है। यह शुद्ध आनंद है। कुंभयात्री किसी कट्टरपंथी विचार से प्रेरित होकर संगम में गोते नहीं लगाते। ये लोग संतों-महंतों को कठमुल्लेपन से प्रेरित होकर नहीं देखते बल्कि इनके प्रति उदारभावबोध से पेश आते हैं। इस अर्थ में ही कुंभमेला आस्था का मेला नहीं है। यह धर्मनिरपेक्ष उदारभावों का मेला है।
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इलाहाबाद कुंभ धार्मिक पर्व नहीं है। बल्कि धर्मनिरपेक्षपर्व है। कुंभ में धर्मचेतना नहीं धर्मनिरपेक्षचेतना के रूपों के दर्शन ज्यादा मिलेंगे। यहां धार्मिक ज्ञानवार्ता की बजाय संगमस्नान,देवताओं के दर्शन आदि का महत्व ज्यादा है। धार्मिकग्रंथों का गौण हो जाना और धार्मिक प्रतीकों में जनता का मगन हो जाना वस्तुतः धर्म के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया का अंग है।
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कुंभ में डुबकी लगाने वाले या मंदिर जानेवाले ज्यादातर आधुनिक लोग धर्म की सतही बातें जानते और मानते हैं। धार्मिकज्ञानात्मकचेतना की बजाय उनमें धार्मिकरूपात्मकचेतना ज्यादा होती है।
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भारत में गैर कट्टरपंथी धार्मिक संतों-महंतों ने विगत दो सौ साल में पैदा हुए मानवीय विचारों और मान्यताओं को अपने चिन्तन-मनन का हिस्सा बनाया है और नई तकनीक और समारोहधर्मिता को भी अपना लिया है। इसे धर्म पर लोकतांत्रिक प्रभाव भी कह सकते हैं। इन संतों ने धर्म का आधुनिकीकरण भी किया है। आजकल संत नेट और मोबाइल कनेक्टेड हैं। नियमित टीवी शो भी करते हैं।
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कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हमें बुनियादी धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं की पुष्टि करने का प्रामाणिक मार्ग नहीं बताता। हर बार नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं और रूढ़ियों की आलोचना करती है।
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