शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

विज्ञान ,संस्कृत और संघ

        आरएसएस का विज्ञान और संस्कृत से तीन-तेरह का संबंध है।इस संगठन की न तो विज्ञान में रूचि है और न संस्कृतभाषा और साहित्य के पठन-पाठन में दिलचस्पी है।इसके विपरीत इस संगठन का समूचा आचरण विज्ञान और संस्कृत विरोधी है।

आरएसएस के लिए विज्ञान और संस्कृत अन्य पर,विरोधियों पर और ज्ञान संपदा पर हमला करने का बहाना है।वे ज्ञान को अर्जित करने के लिए विज्ञान और संस्कृत के पास नहीं जाते बल्कि ज्ञानसंपदा को नष्ट करने के लिए संस्कृत का बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।

भारत की पुरानी परंपरा में संस्कृत साहित्य और संस्कृत भाषा आनंद सृजन और आनंद प्राप्ति का स्रोत थी और आज भी है,लेकिन संघ ने संस्कृत भाषा को आनंद की बजाय टकराव और वर्चस्व की भाषा बना दिया है। बृहदारण्यक उपनिषद में वेदान्त के बारह महावाक्यों में एक ´विज्ञानमानन्दं ब्रह्म´भी है।इसमें विज्ञान को आनंद के समान माना है।यह विज्ञान और कुछ नहीं भाषा ही है।संस्कृत में इसी के आधार पर भाषा को विज्ञान मानने की परंपरा चली आ रही है।अन्यत्र तैतिरीय उपनिषद में ´विज्ञानं देवाःसर्वे ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते´ कहा गया है यानि विज्ञान को ही ज्येष्ठ ब्रह्म माना गया है। कहने का आशय यह है कि प्राचीन परंपरा में ज्ञान का अर्थ था स्थूल वस्तुओं का ज्ञान, जिसे अविद्या या अपरा विद्या कहा गया।जबकि विज्ञान का अर्थ है वस्तुओं का सूक्ष्मज्ञान।इसे विद्या और परा विद्या कहा गया। लेकिन बाल गंगाधर तिलक ने इस परंपरा से विपरीत धारणा प्रतिपादित की, उन्होंने कहा ज्ञान का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान और विज्ञान का अर्थ है इम्पीरिकल नॉलेज यानि भौतिक ज्ञान।सारी समस्याओं का गोमुख यहीं से आरंभ होता है।

जब हम भाषा के साथ विज्ञान को जोड़ते हैं तो इसका अर्थ यह है कि भाषा का विशेष ज्ञान। इसके अलावा एक और पदबन्ध है ´व्याकरण´ ,इसे लेकर भी गड़बड़झाला है। ´व्याकरण ´यानी विश्लेषण। सवाल यह है विश्लेषण से ये आरएसएस भागते क्यों हैं ॽ हर भाषा और ज्ञान की शाखा का अपना व्याकरण है।विश्लेषण पद्धति है।उसकी स्वायत्त संरचनाएं हैं उनमें गड्डमड्ड करने से बचना चाहिए। आईआईटी में पढाए जाने वाले विषयों की भाषा और व्याकरण वही नहीं है जो संस्कृत साहित्य के काव्यग्रंथों का है।इसी तरह वेद की भाषा और व्याकरण वही नहीं है जो इंजीनियरिंग की है।

भारत में संस्कृत के वैय्याकरणशास्त्रियों की सुदीर्घ परंपरा रही है।यह सच है पाणिनी इनमें सुसंगत हैं। लेकिन पाणिनी भाषा संबंधी सभी समस्याओं का समाधान नहीं करते।आरएसएस के लोग चूंकि ´भारतप्रेमी ´होने का दावा करते हैं और हिन्दूज्ञान में ही विश्वास करते हैं,अतःहम यहाँ भर्तृहरि को उद्धृत करना चाहेंगे।वाचिकरोग या भाषा के अपशब्दों के प्रयोग से बचने के लिए भाषाशास्त्र पढ़ने के लिए कहते हैं।यानि भाषा का ज्ञान आरंभिक कक्षाओं में कराया जाए।आईआईटी के छात्र आरंभिक कक्षा के छात्र नहीं हैं।वे यदि अंग्रेजी भाषा का शुद्ध प्रयोग करना नहीं जानते तो परीक्षा में पास नहीं हो सकते।

पुराने जमाने में वेदाध्ययन आरंभ करने के पहले संस्कृत व्याकरण पढ़ाने पर जोर दिया गया।इसी प्रसंग में कहना चाहते हैं कि भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली में अन्य विषयों के साथ संस्कृत भाषा और उसका व्याकरण पढ़ाया जाता है।संस्कृत पाठशालाओं में कक्षा 6 यानी प्रवेशिका से उत्तरमध्यमा यानि 12वीं तक व्याकरण पढ़ाया जाता है।इसके आगे व्याकरण यदि कोई पढ़ना चाहे तो वह व्याकरण विषय लेकर शास्त्री(बीए) और आचार्य(एमए) में पढ़ सकता है।अन्य विषयों के संस्कृत के छात्रों के लिए 12वीं के बाद व्याकरण नहीं पढ़ाया जाता,मैं स्वयं इसी परंपरा से पढ़ा हूँ।यानी संस्कृत में यदि कोई स्नातक स्तर पर न्याय,वेद,धर्मशास्त्र,साहित्य आदि विषय लेता है तो उसे संस्कृत व्याकरण नहीं पढाया जाता। संस्कृत में जब स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में संस्कृत व्याकरण नहीं पढाया जाता तो फिर आईआईटी में ही इसे जबर्दस्ती क्यों पढाने पर जोर दिया जा रहा है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि संस्कृत की परंपरा 12वीं तक संस्कृत भाषा और व्याकरण पढाने पर जोर देती है,उसी पैटर्न पर सारे देश में आधुनिक शिक्षा में संस्कृत को 12वीं तक सामान्य विषय के रूप में रखा गया है।इस फैसले को लागू करने के लिए सारे देश में गंभीर मंथन हो चुका है,मुश्किल यह है कि आरएसएस और उनकी मंत्री स्मृति ईरानी बिना कुछ जाने-समझे संस्कृत को आईआईटी के छात्रों पर थोप देना चाहती हैं।यह भारतीय परंपरा में संस्कृत के पठन-पाठन के रिवाज के एकदम खिलाफ है ,यह भाषा पढ़ाने की विश्वपरंपरा के भी खिलाफ है,अतः इसका मुखर विरोध किया जाना चाहिए।










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