मेरे कल के आलेख ´कन्हैया कुमारःविभ्रम और यथार्थ´ पर टिप्पणी करते हुए प्रियंकर पालीवाल ने कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं जिन पर सोचने की जरूरत है। पालीवाल का मानना है,´कन्हैया कुमार,राज ठाकरे, लालूप्रसाद और नरेंद्र मोदी इन सबके भाषण उनके समर्थकों में जबर्दस्त लोकप्रिय हैं . सेंस ऑफ ह्यूमर ? खांटीपन ? देसी मुहावरा ? लफ्फाज़ी ? अन्य के लिए घृणा-प्रचार ? आखिर क्या है इनकी लोकप्रियता का राज ? इसका विश्लेषण होना चाहिए . अगर जे.एन.यू. के पूर्व छात्र नेताओं से ही तुलना करनी हो तो डी.पी.त्रिपाठी या सीताराम येचुरी से कर ली जाए . जगदीश्वर चतुर्वेदी से ही कर ली जाए . पर एक बात तय है कि कन्हैया की लोकप्रियता अभिजात वाम की लोकप्रियता नहीं है. वह वाम के आभिजात्य को तोड़ने वाली ग्रामी-वामी यानी भदेस-वामी लोकप्रियता है .´
इस प्रसंग सबसे पहली बात यह कि कन्हैया कुमार के भाषण को राज ठाकरे,लालू प्रसाद यादव ,नरेन्द्र मोदी के साथ तुलना करके नहीं देखा जाना चाहिए।राज ठाकरे लंपट राजनीति का मीडियानायक है,लालू यादव बिहार का सबसे जनप्रियनेता है,नरेन्द्र मोदी हिन्दुत्व के नायक हैं, जबकि कन्हैया कुमार जेएनयू का छात्रनेता है।इन चारों में यह बुनियादी अंतर है।इन चारों का जनाधार अलग है और राजनीतिक नजरिया भी अलग है।चारों की भाषा और मुहावरे में भी अंतर है।कौन नेता कैसा है यह इस पर निर्भर करता है कि उसका जनाधार किस तरह के लोगों में है और वह राजनीति को किस नजरिए से देखता है।सेंस ऑफ ह्यूमर या देसी खांटीपन,कभी भी टिकाऊ नेता नहीं बनाते।उपरोक्त चारों नेताओ में राज ठाकरे घृणा की राजनीति करते रहे हैं,जबकि लालू यादव और कन्हैया कुमार ने घृणा की राजनीति नहीं की है।उनकी राजनीति का बुनियादी आधार लोकतांत्रिक परिवेश से जुड़े सवालों पर केन्द्रित रहा है।जबकि नरेन्द्र मोदी ने घृणा और विकास के रसायन के आधार पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति की है। ।
उल्लेखनीय है वाम विचारधारा कभी आभिजात्य में लोकप्रिय नहीं रही।जेएनयू में भी वह आभिजात्य की प्रिय विचारधारा नहीं है।जेएनयू में वाम राजनीति में शामिल होने वालों में अधिकांश गैर-आभिजात्य वर्ग से आए छात्र रहे हैं।यह मिथ है कि जेएनयू में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र आभिजात्य होते हैं।सच्चाई इसके विपरीत है।एक अन्य चीज है जिसे हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए, भाषण की जनप्रियता हमेशा संदर्भ,मीडिया और परिवेश की संगति-असंगति के संबंध पर निर्भर करती है।इसका कोई तयशुदा नियम नहीं है।
कन्हैया कुमार के 9फरवरी के पहले और बाद के भाषण जनप्रिय हुए हैं,वह आम लोगों को इंटरनेट पर अपनी ओर खींचने में सफल रहा है।लेकिन वह उतने लोगों को भविष्य में अपने भाषणों के करीब नहीं खींच पाएगा।इसका प्रधान कारण है कि टीवी प्रसारण में उसकी अनुपस्थिति। टीवी प्रसारण में कन्हैया के पहले वाले भाषण आए,प्रसारित हुए,उसने उसके इंटरनेट पर उपलब्ध भाषणों की दर्शक संख्या भी बढ़ा दी।आज भी हमारे समाज में कम्युनिकेशन में टीवी चैनलों की निर्णायक भूमिका है।मेरा अनुमान है जेएनयू कैंपस के बाहर कन्हैया कुमार तब तक ही जनप्रिय रहेगा जब तक वह टीवी पर रहेगा,टीवी से गायब होते ही उसके भाषण के प्रति आकर्षण कम हो जाएगा। इसका प्रधान कारण है टेलीविजन कम्युनिकेशन। इन दिनों जितने भी नेता जनप्रिय हैं वे अपने भाषणों के कारण जनप्रिय नहीं हैं वे जनप्रिय हैं टेलीविजन कम्युनिकेशन के कारण।
जिस व्यक्ति को टीवी ने उछाल दिया वह जनप्रिय हो गया,चाहे वह निर्मल बाबा हो या श्रीश्री रविशंकर हो या बाबा रामदेव हो,या मोदी हो या लालू हो।इन सबकी जनप्रियता इनके भाषण कला के कारण नहीं है,बल्कि टेलीविजन कम्युनिकेशन के कारण है। इस युग में जो टीवी में है वह जनप्रिय है जो टीवी में नहीं है वह जनप्रिय नहीं है।नरेन्द्र मोदी की महा-लोकप्रियता इसलिए नहीं है कि मोदी ने महान कार्य किए हैं,बल्कि इसलिए है कि उसने टेलीविजन नेटवर्क को सबसे अधिक घेरा हुआ है।इस युग के नेता तब तक जिंदा हैं जब तक वे टीवी पर्दे पर हैं।
इस प्रसंग सबसे पहली बात यह कि कन्हैया कुमार के भाषण को राज ठाकरे,लालू प्रसाद यादव ,नरेन्द्र मोदी के साथ तुलना करके नहीं देखा जाना चाहिए।राज ठाकरे लंपट राजनीति का मीडियानायक है,लालू यादव बिहार का सबसे जनप्रियनेता है,नरेन्द्र मोदी हिन्दुत्व के नायक हैं, जबकि कन्हैया कुमार जेएनयू का छात्रनेता है।इन चारों में यह बुनियादी अंतर है।इन चारों का जनाधार अलग है और राजनीतिक नजरिया भी अलग है।चारों की भाषा और मुहावरे में भी अंतर है।कौन नेता कैसा है यह इस पर निर्भर करता है कि उसका जनाधार किस तरह के लोगों में है और वह राजनीति को किस नजरिए से देखता है।सेंस ऑफ ह्यूमर या देसी खांटीपन,कभी भी टिकाऊ नेता नहीं बनाते।उपरोक्त चारों नेताओ में राज ठाकरे घृणा की राजनीति करते रहे हैं,जबकि लालू यादव और कन्हैया कुमार ने घृणा की राजनीति नहीं की है।उनकी राजनीति का बुनियादी आधार लोकतांत्रिक परिवेश से जुड़े सवालों पर केन्द्रित रहा है।जबकि नरेन्द्र मोदी ने घृणा और विकास के रसायन के आधार पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति की है। ।
उल्लेखनीय है वाम विचारधारा कभी आभिजात्य में लोकप्रिय नहीं रही।जेएनयू में भी वह आभिजात्य की प्रिय विचारधारा नहीं है।जेएनयू में वाम राजनीति में शामिल होने वालों में अधिकांश गैर-आभिजात्य वर्ग से आए छात्र रहे हैं।यह मिथ है कि जेएनयू में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र आभिजात्य होते हैं।सच्चाई इसके विपरीत है।एक अन्य चीज है जिसे हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए, भाषण की जनप्रियता हमेशा संदर्भ,मीडिया और परिवेश की संगति-असंगति के संबंध पर निर्भर करती है।इसका कोई तयशुदा नियम नहीं है।
कन्हैया कुमार के 9फरवरी के पहले और बाद के भाषण जनप्रिय हुए हैं,वह आम लोगों को इंटरनेट पर अपनी ओर खींचने में सफल रहा है।लेकिन वह उतने लोगों को भविष्य में अपने भाषणों के करीब नहीं खींच पाएगा।इसका प्रधान कारण है कि टीवी प्रसारण में उसकी अनुपस्थिति। टीवी प्रसारण में कन्हैया के पहले वाले भाषण आए,प्रसारित हुए,उसने उसके इंटरनेट पर उपलब्ध भाषणों की दर्शक संख्या भी बढ़ा दी।आज भी हमारे समाज में कम्युनिकेशन में टीवी चैनलों की निर्णायक भूमिका है।मेरा अनुमान है जेएनयू कैंपस के बाहर कन्हैया कुमार तब तक ही जनप्रिय रहेगा जब तक वह टीवी पर रहेगा,टीवी से गायब होते ही उसके भाषण के प्रति आकर्षण कम हो जाएगा। इसका प्रधान कारण है टेलीविजन कम्युनिकेशन। इन दिनों जितने भी नेता जनप्रिय हैं वे अपने भाषणों के कारण जनप्रिय नहीं हैं वे जनप्रिय हैं टेलीविजन कम्युनिकेशन के कारण।
जिस व्यक्ति को टीवी ने उछाल दिया वह जनप्रिय हो गया,चाहे वह निर्मल बाबा हो या श्रीश्री रविशंकर हो या बाबा रामदेव हो,या मोदी हो या लालू हो।इन सबकी जनप्रियता इनके भाषण कला के कारण नहीं है,बल्कि टेलीविजन कम्युनिकेशन के कारण है। इस युग में जो टीवी में है वह जनप्रिय है जो टीवी में नहीं है वह जनप्रिय नहीं है।नरेन्द्र मोदी की महा-लोकप्रियता इसलिए नहीं है कि मोदी ने महान कार्य किए हैं,बल्कि इसलिए है कि उसने टेलीविजन नेटवर्क को सबसे अधिक घेरा हुआ है।इस युग के नेता तब तक जिंदा हैं जब तक वे टीवी पर्दे पर हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें