सत्याग्रह की
सैद्धांतिकी-
गांधीजी के ‘सत्याग्रह’ की खूबी है कि वह
घटनाक्रम के रूप में सामने आता है,वह मात्र विचार के रूप में सामने नहीं आता.प्रसिद्ध
मार्क्सवादी दार्शनिक एलेन बोदिओ के नजरिए से इसे ‘ सत्य-घटनाक्रम’ कहना समीचीन होगा। सारी दुनिया में जिस तरह
सत्याग्रह के लिए महात्मा गांधी का नाम लिया जाता है वैसे ही ‘सत्य-घटनाक्रम’ की सैद्धान्तिकी
के लिए एलेन बोदिओ का नाम लिया जाता है। ‘सत्याग्रह’ में एक ओर व्यक्ति है और दूसरी ओर घटनाक्रम है,इन दोनों के बीच
अंतराल है,इस अंतराल को
अनुभवों के आधार पर भरने की कोशिश की जाती है। यहां व्यक्ति को व्यक्ति की तरह
देखने पर मुख्य जोर है। व्यक्ति से इतर उसकी जाति,धर्म,सम्प्रदाय,नस्ल,गोत्र आदिकी पहचान को गांधी नहीं मानते। गांधीजी जिस
व्यक्ति की परिकल्पना पेश करते हैं वह सकारात्मक सोच और बोध वाला व्यक्ति है, यह ऐसा व्यक्ति
है जो अधिक से अधिक त्रानार्जन करना चाहता
हैंहै। गांधी अपने अनुभवों को हमेशा वर्तमान के संदर्भ में पेश करते हैं।
वर्तमान उनके लिए प्राथमिक है,महत्वपूर्ण है। विभिन्न जनांदोलनों और स्वाधीनता आंदोलनों
के दौरान अपनी समस्त अभिव्यक्तियों के केन्द्र में जनता को रखते हैं, वे यह भी विश्वास
करते हैं कि वे जनता के सत्य को जानते हैं। वे अपनी राजनीतिक पहलकदमी और हस्तक्षेप
के जरिए आम आदमी को अपने सत्य के दायरे में आकर्षित करने में सफल होते हैं। वे
सत्य की कोई सुसंगत सैद्धांतिकी या प्रणाली प्रस्तुत नहीं करते,बल्कि वे सारे
विश्व को संबोधित करते हुए बोलते हैं। वे जब अफ्रीका या भारत में आंदोलन करते हैं
तो उनके सम्बोधन के केन्द्र में स्थानीय जनता नहीं होती बल्कि विश्व जनमत को
सम्बोधित करते हैं। यही वजह है कि वे सत्याग्रह और उससे जुड़े विभिन्न आंदोलनों के
प्रति सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने में सफल हो जाते हैं।गांधीजी अपनी
अभिव्यक्ति के क्रम में स्वयं से और विश्व से संवाद करते हैं और इस क्रम में स्वयं
में और सम्बोधित जगत में परिवर्तन के बीज बोने में सफल हो जाते हैं।
गांधीजी के ‘सत्याग्रह’ की केन्द्रीय
विशेषता है कि वे किसी घटना विशेष पर केन्द्रित सत्याग्रह आंदोलन के जरिए सिर्फ एक
अर्थ की सृष्टि नहीं करते बल्कि एकाधिक अर्थ की सृष्टि करते हैं। गांधी इन एकाधिक
अर्थों की एभी तक हमने मीमांसा नहीं की है। गांधीजी जब किसी घटना या विषय को
केन्द्र में रखकर आंदोलन शुरू करते हैं तो उसके अनुकूल ‘परिस्थितियों’ को बी निर्मित
करते हैं। दिलचस्प है कि उनको कहीं पर ‘ परिस्थितियां’ बनी बनायी नहीं मिलतीं,दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक उन्होंने सत्याग्रह के नाम
पर जितने भी आंदोलन आरंभ किए उनकी‘ परिस्थितियों को भी गांधीजी ने बनाया। मसलन् , वे जब किसी
आंदोलन के लिए‘ परिस्थिति’ बनाते हैं तो
उनको ‘ एक विचार विशेष’
में बांधकरपेश करते हैं।
मसलन्, दक्षिण अफ्रीका
में वे जब सत्याग्रह आरंभ करते हैं तो उसके लिए पहले परिस्थितियां बनाते हैं उसके
बाद उसे ‘ नस्लवादी भेदभाव’ के विचार के परिप्रेक्ष्य में रखकर पेश करते
हैं। इस क्रम में जनता के विभिन्न स्थानीय समूहों और वर्गों को प्रतीत्मक तौर पर
उभारते हैं। ये समूह ही व्यक्तियों के रूप में सामने आते हैं।इस क्रम में ‘ व्यक्ति’ और जनता के समूह
की दोहरी इमेज सृजित करते हैं। वे अपने आंदोलन के लिए स्थानीय परिस्थितियां पैदा
करने के साथ ही साथ उसे सत्याग्रह और राजनीतिक स्वतंत्रता की महा-राजनीति से
जोड़ते हैं। ऊपरसे यह सब एक ही प्रतीत होते हैं। उनके आदोलन के केन्द्र में ‘राजसत्ता’ रहती है या फिर ‘ राजसत्ता की
चीजें’ रहती हैं। जब वे ‘ राजसत्ता’ को आंदोलन का अंग
बनाते हैं तो फिर राजसत्ता के नजरिए से समाज को भी देखते हैं,उन तमाम चीजों,वस्तुओं और
घटनाओं को देखते हैं जिनका राजसत्ता से संबंध है । मसलन् वे जब दक्षिण अफ्रीका में
आंदोलन करते हैं तो वहां के समाज को दक्षिण अफ्रीकाके रंगभेदीय शासन के प्रतिबिम्ब
के रूप में देखते हैं, यही स्थिति उनके
नजरिए में भारत में अभिव्यक्त होती है। फलतः वे परिस्थितियों,समाज,आंदोलन और
राजसत्ता को एक ही धागे में पिरोने में सफल हो जाते हैं। वे राजसत्ता की
परिस्थितियों के आईने में सब चीजों को पेश करने में सफल हो जाते हैं। इस तरह वे
संरचना के साथ महा-संरचना की सृष्टि करने में सफल हो जाते हैं। गांधी के समाज में
फलतः दो तरह के समाज अंतर्गृथित भाव से चले आते हैं, एक समाज वह है जो राजसत्ता से प्रभावित है और
दूसरा समाज वह है जो राजसत्ता से प्रभावित है और उसके खिलाफ संघर्ष कर रहा है।
कहने के लिए राजसत्ता का चरित्र समाज में प्रतिबिम्बित नजर आता है लेकिन जब
गांधीजी आंदोलन के जरिए हस्तक्षेप करते हैं,सत्याग्रह करते हैं तो एक नए आंदोलनकारी समाज के दर्शन होते
हैं।
गांधीजी के
सत्याग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी उसने साधारण जनता में प्रतिवाद की चेतना
पैदा की, भारत जैसे पिछड़े
समाज में व्यापक स्तर पर साधारण जनता में प्रतिवादी चेतना पैदा करना, साधारणजनों को
आंदोलन की महत्ता और अर्थवत्ता समझाना साधारण बात नहीं है। उस दौर में भारतीय जनता
की मनोदशा प्रतिवाद की नहीं थी। प्रतिवाद के रूप थोड़े से मध्यवर्ग के शिक्षित
लोगों तक ही सीमित थे। आम जनता प्रतिवाद करे, हिंसा न करें।धैर्य के साथ आंदोलन करे,यह नई चेतना थी।
इसने जहां एक ओर आम जनता को संगठन बनाने और सामूहिकतौर पर मांगपत्र देने और अपनी
मांगों के लिए प्रचार करके दवाब पैदा करने की चेतना दी वहीं दूसरी ओर सामाजिक
परिवर्तन संभव है,यह विवेक भी पैदा
किया। समाज शाश्वत है, अपरिवर्तनीय,ईश्वर की अचल
सृष्टि है, आदि मिथों के
बाहर निकालने में मदद की। इस प्रक्रिया में आम जनता में सामाजिक-राजनीतिक
आंदोलनोंको लेकर जागरूकता आई,ज्ञान पाने कीललक पैदा हुई।
गांधी के
सत्याग्रह की केन्द्रीय विशेषता यह है कि वह हमेशा दमित सत्य को बाहर लाता है। वह
उन परिस्थितियों को सामने लाता है जिनका पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है। गांधीजी
जब भी कोई आंदोलन करते हैं तो शासकवर्ग हमेशा सत्य को छिपाता या दबाता नजर आता है।
इसके अलावा ’सत्य’ हमेशा स्थानीय
रूप में सामने आता है।इसलिए सत्य और स्थानीयता का नया अन्तस्संबंध विकसित होता है। सत्य हमेशा घटना के साथ विशिष्ट
परिस्थितियों के साथ दाखिल होता है। इसके विपरीत शासकवर्ग हमेशा असत्य का सहारा
लेते हैं,असत्य के जरिए
आंदोलन का दमन करने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत गांधीजी सत्याग्रह के बहाने
सत्य को अटल बनाए रखते हैं। गांधीजी के सत्याग्रह की मुश्किल यह थी कि यह पूरी तरह
गांधीजी के मूड़ और इच्छाशक्ति पर निर्भर था, वे जिस रूप में और जब तक चाहते आंदोलन करते थे।वे अपनी
सब्जेक्टिव अनुभूतियों से अनेकबार आंदोलन की दिशा और दशा भी तय करते हैं। लेकिन
सत्य की मुश्किल यह है कि वह किसी व्यक्ति या आंदोलन विशेष तक सीमित नहीं रहता, वह किसी व्यक्ति
के मूड पर आश्रित नहीं है बल्कि सत्य में तो रूपान्तरण की प्रवृत्ति होती है। वह
हमेशा परिवर्तन के रूप में काम करता है। सत्य-घटनाक्रम की सैद्धांतिकी की रोशनी
में यददि गांधीजीके सत्याग्रह आंदोलनों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि वे जबभी
किसी मुद्दे को उठाते हैं तो सतह पर स्थानीय लगता है ,छोटी सी परेशानी
का कारक लगता है लेकिन वास्तव रूप में वह राष्ट्रीय घटना बन जाता है। गांधीबोध को
राष्ट्रीयबोध में रूपान्तरित करता है। सत्याग्रह आंदोलनों के जरिए गांधीजी सतह पर
स्थानीय समस्या के लिए संघ्ष करते नजर आते हैं लेकिन असल में वे राष्ट्रीय
स्वाधीनता और राजनीतिक स्वाधीनता का महा-आख्यान रचते नजर आते हैं। फलतःउनके सत्य में
से एकाधिक सत्य व्यक्त होते हैं। यह भीकह सकते हैं कि गांधीजी सत्याग्रहको
राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्ति के संघर्ष के संसाधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
इस प्रसंग में यह रेखांकितकरना जरूरी है कि गांधीजी के लिए सत्य का प्रभाव
महत्वपूर्ण नहीं था ,उनके महत्वपूर्ण
था सत्य का संसाधन और राजनीतिक शक्ति के रूप में विकास।वे सत्याग्रह आंदोलनों के
जरिएसामाजिक परिस्थितियों,राजनीतिक माहौल
और आम जनता की चेतना को बदलने का काम करते हैं लेकिन यह सब संसाधन हैं उनके
राजनीतिक स्वाधीनता संग्राम के।
असल में
सत्याग्रह तो गांधी के समग्र राजनीतिक पाठ का मूलाधार है, उनके आंदोलन की
समग्रभाषा और अंतर्वस्तु इसकेजरिए पढ़ी जा सकती है। इसके जरिए स्वाधीनता संग्राम
के समग्र पाठ को पढ़ा जा सकता है। सत्याग्रह आंदोलनों की एक अन्य विशेषता यह है कि
वे राजसत्ता की संरचनाओं के भ्रष्ट और दमनकारी रूपों को सामने लाते हैं, सतह पर ये रूप
स्थानीय प्रतीत होते हैं लेकिन उनकी प्रकृति व्यापक होती है, राष्ट्रीय होती
है। वे बार बार अन्याय को रेखांकित करते हैं। वे सिस्टम के एब्नार्मल आचरण को
उद्घाटित करते हैं।
सत्याग्रह
के तीन महत्वपूर्ण तत्व हैं, ये हैं, 1.सत्य,2.अहिंसा और 3. साधन-शुद्धि। ‘‘ वह मानते थे कि साध्य और साधन एक-दूसरे के पर्यायरूप ही
हैं। साध्य साधन का अंतिम परिणाम मात्र है। साधन में नैतिकता का ध्यान न रखा जाये
तो उसे प्राप्त साध्य का बाह्य रूप कैसा भी क्यों नहो,वह वैसा साध्य
नहीं होगा जैसाकि प्राप्त करने की इच्छाकी गई थी और जिसके लिए प्रयत्न किया गया
। इसी तरह सत्याग्रह की पहली शर्त यह है
कि सत्य का पूरी तरह पालन किया जाए।
अहिंसा सत्य का ही स्वाभाविक परिणाम है। सत्याग्रही के लिए आवश्यक है कि वह
जो कुछ करे छिपाकर करने के बजाय खुले तौर पर और निर्भयता के साथ करे,साथ ही जिसे
अन्यायपूर्ण और अवैध सत्ता मानता हो उसका विरोध करे।
मानवाधिकारः नया
परिप्रेक्ष्य
भारत में
मानवाधिकार एकदम नया विषय है अधिकांश जनता,खासकर शिक्षित जनता में मानवाधिकारों की अमूर्त समझ है, मानवाधिकारों के कई
रूप हैं, पहला है मानवीय
इच्छाओं की स्वतंत्रता की भावना,दूसरा है मनोरंजन और आनंद के क्षेत्र में स्वतंत्रता,तीसरा है
राजनीतिक स्वतंत्रता। कहने के लिए हमारा संविधान इन तीनों ही क्षेत्रों में
स्वतंत्रता सुनिश्चित करताहै, इसके बावजूद आए दिन मानवाधिकारों का हनन राज्यसत्ता के
विभिन्न तंत्रों के जरिए होता रहता है। भारत में मानवाधिकार हनन को नॉर्मल माना
जाता है। मसलन् किसी अपराधी को पुलिस पकड़ ले गई है , थर्ड डिग्री मैथड
अपनाते हुए टॉर्चर करती है तो इसे नॉर्मल ,स्वाभाविक ,सही मानते हैं । सच यह है हम आजतक हम अपने सिस्टम को चलाने
वालों में मानवाधिकार चेतना पैदा नहीं कर पाए हैं। मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने
के लिए सबसे पहले सिस्टम में बैठी मानवाधिकार विरोधी जंग को मिटाना बेहद जरूरी है।
मसलन् शिक्षा
मानवाधिकार है तो हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि राजसत्ता सबको शिक्षा प्रदान करने
की व्यवस्था करे,लेकिन 70साल में हम यह
सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं। इसी तरह सूचना और खबर पाना यदि मानवाधिकार है तो आजतक
मीडिया को राजनीतिक और सरकारी दवाबों से मुक्त होकर काम करने लायक माहौल और चेतना
पैदा नहीं कर पाए हैं। खबरें दबाना, खबरें न छापना, विकृत खबर छापना वस्तुतः मानवाधिकार हनन है लेकिन यह बात न
तो राजनेता महसूस करते हैं और न अखबार के मालिक और पत्रकार ही महसूस करते हैं।
कहने का आशय यह कि मानवाधिकार चेतना पैदा करना और उसके प्रति वचनवद्धता पैदा करना
आज के दौर में सबसे गंभीर चुनौती है।
वस्तुगत तौर पर
देखें और आम लोगों से बातें करें तो मानवाधिकारों के प्रति उनमें कोई गंभीर चेतना
नहीं मिलेगी, वे मनमानेपन,सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक
उत्पीड़न को अपराध की कोटि में नहीं रखते हैं,वे उनके प्रति आमतौर संवेदनहीन होते हैं। मानवाधिकारों की
चेतना क्यों पैदा नहीं हो पा रही ॽ उसके बुनियादी कारण क्या हैं ॽ उन कारणों को
दूर करने की हमने कभी कोशिश ही नहीं की।
मानवाधिकार की
पहली सीढ़ी है समाज को मानवीय समाज के रूप में देखें,जाति और धार्मिक
समाज के रूप में न देखें। आमतौर पर हम यह कहते हैं कि भारत विभिन्न जातियों और
धर्मों के मानने वालों का देश है,जाने-अनजाने इस तरह के कथन के जरिए हम भारत को मानवीय समाज
के रूप में नहीं देखते,जाति समाज और
धार्मिक समाज के रूप में देखते हैं।
मानवाधिकार की
ईकाई जाति या धर्म नहीं है बल्कि उसकी ईकाई है मनुष्य ,जिसे हमें
व्यक्ति के रूप में देखना चाहिए। लेकिन अभी तक हम व्यक्ति के रूप में देखने का
नजरिया विकसित नहीं कर पाए हैं। हमारा समाज व्यक्ति की पहचान पर आधारित सामाजिक
चेतना से अभी कोसों दूर है,व्यक्ति की बजाय
बेटा,बेटी, पिता,माता आदि संबंधों
में बांधकर,जातिगत और धार्मिक
पहचान के रूपों के आधार पर ही मनुष्य को देखते हैं, हमने व्यक्ति और पेशे की पहचान को अभी तक
केन्द्रीय पहचान नहीं बनाया है। हमारी सारी मुसीबतें इसी पहचान के आधार की
स्वीकृति के गर्भ से पैदा हुई हैं।
मूल बात यह कि
मनुष्य को समाज कैसे देखता है ॽ मनुष्य स्वयं को कैसे देखता है ॽ अन्य कैसे देखते
हैं ॽ इन विषयों पर खुलकर बहस चलाने की जरूरत है। व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में
देखें, उसकी इस पहचान को
लेकर बहस चलाएं और उसके तमाम पहलुओं को उजागर करें, लेकिन हमारे समाज में व्यक्ति की व्यक्ति के
रूप में पहचान तय करने के लिए कोई बहस नहीं चलायी गयी,हमारे यहां पहचान
के जिन रूपों को आधार बनाया गया वे धर्म,जाति और लिंग से जुड़े रहे हैं,उनको ही हमने
पहचान के प्राथमिक रूप माना,व्यक्ति को गौण माना।जबकि इसके विपरीत होना चाहिए, व्यक्ति की पहचान
का आधार धर्म,जाति,लिंग को गौण माना
जाय और व्यक्ति को प्रमुख। कहने का आशय यह कि व्यक्ति या मनुष्य की पहचान को
केन्द्र में लाए बिना मानवाधिकारचेतना पैदा नहीं हो सकती।
मानवाधिकारों
का एक अन्य क्षेत्र है जो जीवन-मूल्यों की प्रकृति और संरचनाओं से जुड़ा है। हमारे
जीवन-मूल्यों का समूचा ढांचा मानवाधिकार विरोधी है लेकिन हम इस पर खुलकर बहस ही
नहीं करते। जीवन-मूल्यों को हमने परंपराओं,आदतों और संस्कारों के अतीत के बोझ से दबा दिया है। समाज का
बहुत छोटा अंश है जिसके जीवन-मूल्यों में बदलाव हुआ है। लेकिन वृहत्तर समाज का
समूचा सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचा मध्ययुगीनता में आकंठ डूबा हुआ है। शिक्षा, मीडिया और
लोकतंत्र के विकास के बावजूद उसमें कोई मूलगामी परिवर्तन नहीं हुआ है,हमने
जीवन-मूल्यों को आधुनिक समाज की संगति में लाने के लिए कोई सामाजिक आंदोलन नहीं
किया। वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में विगत दो हजार सालों में कोई सामाजिक
क्रांति नहीं हुई,हमने कभी सोचा ही
नहीं कि भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई ॽ मानवाधिकार चेतना पैदा
करने में सामाजिक क्रांतियों की केन्द्रीय भूमिका रही है।
उल्लेखनीय है
हमारे यहां नए वर्गों और उनकी संचनाओं का उदय हुआ लेकिन उनमें वर्गानुकूल
सामाजिक-राजनीतिक मूल्य पैदा नहीं कर पाए। ऐसा क्यों हुआ कि समाज में नए वर्ग आए
लेकिन नए मूल्यों को व्यापक रूप में स्वीकृति नहीं दिला पाए ॽ आज भी समाज में
मानवाधिकार चेतना के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा उन वर्गों से आ रही है
जिनको हम नया वर्ग कहते हैं,शिक्षित कहते हैं। मध्यवर्ग और बुर्जुआजी या मजदूरवर्ग कहते
हैं।
बुर्जुआजी,मध्यवर्ग और
मजदूरवर्ग के अंदर हम जब तक उसके वर्गीय संस्कार और जीवन-मूल्य पैदा नहीं करते तब
तक मानवाधिकार चेतना के प्रचार-प्रसार और परिवर्तन में आई बाधाओं से मुक्ति नहीं
पा सकते। इसके अलावा चार चीजों के बारे में समाज में व्यापक वैचारिक मुहिम चलाने
की जरूरत है, वह है, 1. पितृसत्ता और
पुंसवादी विचारधारा,2अंधविश्वास,3. पुनर्जन्म की
धारणा और 4.कर्मफल का
सिद्धांत। इन चारों धारणाओं के कारण हमारे समाज में आज तक कोई सामाजिक क्रांति
नहीं हुई, नए मूल्यों का
व्यापक ढ़ंग से प्रचार नहीं हो पाया। इनको हमने विभिन्न रूपों और तरीकों से
आधुनिककाल में पाला-पोसा है। ये चारों धारणाएं मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखने
नहीं देतीं।व्यक्ति की पहचान के रूप में देखने नहीं देती।
दिलचस्प बात
यह है हमने अंधविश्वासों के खिलाफ कभी व्यापक वैचारिक-सामाजिक मुहिम नहीं चलायी,यहां तक कि
केन्द्र और राज्य सरकारें अंधविश्वास के खिलाफ एक भी पैसे का विज्ञापन जारी नहीं
करतीं उलटे अंधविश्वास फैलाने वालों को केन्द्र और राज्य से विभिन्न रूपों में
संरक्षण मिलता है।पैसा मिलता है। हमने केन्द्र और राज्यों के जरिए विज्ञान के
प्रचार-प्रसार को कुछ इस तरह किया है कि अंधविश्वास भी जिंदा रहे,विज्ञान भी जिंदा
रहे, परंपराएं भी
जिंदा रहें और न्यायपालिका या समानता का सिद्धांत भी जिंदा रहे। हम यह भूल ही गए कि
पुरानी परंपराएं खत्म किए बगैर मनुष्य की पहचान को केन्द्र में लाना संभव नहीं
है।गांधी इस मामले में हमारी मदद कर सकते हैं,गांधीजी का अंधविश्वास की धारणा में एकदम विश्वास नहीं था, लेकिन मुश्किल यह
है कि पुनर्जन्म की धारणा को मानते थे,गीता को मानते थे, यही वह किताब है जिसमें कर्मफल के सिद्धांत को बुनियादी तौर
पर पैदा किया। ऐसी अवस्था में गांधीजी की मदद बहुत सीमित ही मिलेगी।
मानवाधिकारों
का दायरा सिर्फ राजनीतिक अधिकारों तक सीमित करके देखेंगे तो मनुष्य नहीं बदलेगा।
मनुष्य बदलने के लिए उसके जीवन-मूल्यों को बदलना जरूरी है। इच्छा, आनंद और राजनीतिक
हकों तक ही मानवाधिकारों को सीमित नहीं करना चाहिए बल्कि आधुनिक जीवन-मूल्यों के
परिवर्तन की लड़ाई का हिस्सा बनाने की जरूरत है, मानवाधिकारों का ’स्व’ एवं ‘अन्य’ दोनों के हकों की
रक्षा के साथ संबंध है, हमारे समाज में ‘स्व’ के हकों पर हमला
होता है तो बेचैनी होती है,
लड़ने की भावना
पैदा होती है, लेकिन जब ‘अन्य’ के हकों पर हमला
होता है तो हम सब उससे किनाराकसी कर लेते हैं।यह किनाराकसी का भाव कहांसे आता है ॽ
हम निहित-स्वार्थी की तरह मानवाधिकारों पर क्यों सोचते हैं ॽ इन सब सवालों पर
खुलकर बहस करने की जरूरत है।
मानवाधिकारों
का प्रसार करना है तो ‘स्व’ और ‘अन्य’ के बीच के
महा-अंतराल को खत्म करना होगा। हमारे समाज में ‘स्व’ के मानवाधिकारों की एक सीमा तक चेतना पैदा हुई है लेकिन ‘अन्य’ के
मानवाधिकार-हनन हमें आज भी परेशानी पैदा नहीं करते,यह बेगानापन ही जो अंततः ‘स्व’ के हकों कोभी
नष्ट कर देता है। ‘स्व’ और ’अन्य’ में जितना गहरा
संपर्क,संबंध और संवाद
होगा,आत्मीयता होगी,सामाजिक विकास की
संभावनाएं उतनी ही प्रबल होंगी।
मानवाधिकारों
की विश्व स्तर पर सबसे ज्यादा अपील है। हरेक सचेतन व्यक्ति चाहे वो किसी भी जाति,धर्म,समुदाय या देश का
हो उसको मानवाधिकार आकर्षित करते हैं, वह उनके प्रति वचनवद्धता निभाता है। तमाम बड़ी विपत्तियों
के समय उनकी याद आती है। उन पर बोलना ,उनको राजनीतिक तौर पर लागू करना अपील करता है। आमतौर
मानवाधिकारों पर बोलते समय हल्के से लेते हैं,उनका उठते-बैठते इस्तेमाल करते हैं,लेकिन उनके पीछे
छिपे सैद्धांतिक विमर्श से अनभिज्ञ होते हैं।
मानवाधिकारों
की चेतना के निर्माण में 1789 में संपन्न
फ्रांसीसी राज्य क्रांति की केन्द्रीय भूमिका रही है। उस क्रांति ने ‘ व्यक्ति के
अधिकार’ की पहली बार
घोषणा की। पहलीबार यह घोषित किया कि ’ मनुष्य जन्म के
साथ ही स्वतंत्र है और उसको समान अधिकार प्राप्त हैं।’ इसने
मानवाधिकारों को नेचुरल अधिकार के रूप में परिभाषित किया, जनप्रिय बनाया।
सच यह है कि नेचुरल राइट्स जैसी कोई चीज नहीं होती। मानवाधिकारों का संविधान में
उल्लेख है या फिर आपने मनुष्य के तौर जन्म लिया है फलतः स्वतंत्रता और समानता के
आप स्वतः अधिकारी नहीं बन जाते ,बल्कि मानवाधिकारों या स्वतंत्रता और समानता के अधिकार को
या किसी भी किस्म के अधिकार को संघर्ष करके हासिल करना होता है। अर्जित किए बिना
कोई अधिकार प्राप्त नहीं होते। जेरिमी बैंथम ने कहा कि ‘नेचुरल राइट्स
नॉनसेंस’ है। यह
सैद्धांतिक नॉनसेंस है।
अमर्त्य सेन ‘‘ THE IDEA OF
JUSTICE ‘‘ नामक ग्रंथ में
मानवाधिकारों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात कही है, उनका कहना है कि
सवाल मानवाधिकारों की व्याख्या का नहीं है बल्कि मुख्य सवाल यह है विश्व की नई
बदली परिस्थितियों में मानवाधिकारों को बदला कैसे जाय। यह धारणा मूलतः कार्ल
मार्क्स से ली गयी है। सबसे पहले कार्ल मार्क्स ने यह भेद रेखांकित किया था।
उन्होंने लिखा कि अब तक विश्व के दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की
है, सवाल व्याख्या का
नहीं है बल्कि मूल सवाल यह है कि इस दुनिया को बदला कैसे जाय। मानवाधिकारों की
समस्या विभिन्न अवधारणाओं को व्याख्यायित करने की भी नहीं है। सामाजिक स्तर पर
फैली अशांति,गरीबी, अकाल,भुखमरी और
दैनंदिन उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं हमें बार-बार मानवाधिकारों की याद दिलाती हैं, उनको व्याख्यायित
करने के लिए प्रेरित करती हैं,मानवाधिकारों के प्रति वफादार बनाती हैं।
सवाल यह है
मानवाधिकार किसे कहते हैं ॽ मानवाधिकारों का हरेक मनुष्य की नजर में अलग रूप और अर्थ
है। मनुष्य जब से है तब से मानवाधिकार हैं ॽ क्या मनुष्य के अस्तित्व मात्र से
उसके मानवाधिकारों की उपस्थिति का एहसास होता है ॽ या फिर मानवाधिकारों को कानूनी
तौर पर,संवैधानिक तौर पर
जब से लागू करते हैं तब से उनकी उपस्थिति मानी जाय ॽ क्या मानवाधिकार एक नैतिक
प्रश्न हैॽ मानसिक प्रश्न है ॽ यानी कोई वस्तु है तो उसके मानवाधिकार भी होंगे, इस अवधारणा के
आधार पर मानवाधिकारों के बारे में बहस चलायी जा सकती है। मानवाधिकारों का कैनवास
बहुत बड़ा है, इस समय इनके
दायरे में मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि शामिल की जा चुकी है।निजी से लेकर सार्वजनिक,पृथ्वी से लेकर
प्रकृति-आकाश, राजसत्ता से लेकर
पशु-पक्षियों तक के अधिकारों का इनमें समावेश हो चुका है। कहने का आशय यह कि
मानवाधिकारों का मनुष्य जाति से ही नहीं बल्कि मनुष्येतर समाज से भी गहरा संबंध
है।
मानवाधिकारों के
लिए स्वतंत्रता प्राथमिक शर्त है। स्वतंत्रता को सुनिश्चित, दीर्घजीवी और
सांस्थानिक रूप देने के लिए कानूनन उसे संरक्षित करना, स्वतंत्रता के
पक्ष में कानून बनाना जरूरी है। भारत में खास बात है कि मानवाधिकारों के पक्ष में
कानून हैं,संवैधानिक प्रावधान
हैं, लेकिन जनचेतना का
अभाव है। एक अन्य चीज, मानवाधिकारों की
चेतना बिना संघर्ष और अंतर्विरोध के पैदा नहीं होती।
मानवाधिकारों पर विचार करते समय यह दो सवालों पर हमेशा गौर करें, पहला उनकी
अंतर्वस्तु और दूसरा उसकी व्यवहारिकता।
मानवाधिकारों की अंतर्वस्तु पर तो हम बातें खूब करते हैं लेकिन उनके
व्यवहारिक आचरण के बारे में ख्याल नहीं करते। मानवाधिकार सिर्फ नैतिक या मानसिक
अधिकार नहीं हैं, बल्कि उनको आचरण
में लागू करने के बारे में सोचना चाहिए, आचरण में लागू करते समय आने वाली दिक्कतों पर गौर करना चाहिए।
अमूमन मानवाधिकारों पर बातें करते समय हम जिम्मेदारी के भाव से बातें करते हैं ,मसलन्,मानवाधिकार हैं
तो उनको लागू करने की मजबूरियां भी हैं। मानवाधिकारों पर नैतिक दवाबों की बजाय
वस्तुगत ढ़ंग से सोचना और आचरण करना चाहिए। मानवाधिकारों के सवाल नैतिक सवाल नहीं
हैं,बल्कि सामाजिक
परिवर्तन के सवाल हैं, सामाजिक परिवर्तन
की प्रक्रिया को वस्तुगत कारकों को जाने बगैर समझा नहीं जा सकता। साथ ही
मानवाधिकारों के आलोचनात्मक मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन की भी जरूरत है।
मानवाधिकार
घोषणापत्र में उसके नैतिक पहलू पर ज्यादा जोर दिया है। साथ ही कुछ खास किस्म की स्वतंत्रताओं पर मुख्य
जोर दिया है, जैसे उत्पीड़न से
स्वतंत्रता,या अकाल –भुखमरी से
स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के इन रूपों को संरक्षित और विकसित करने के लिए जरूरी है
कि कुछ एहतियात बरती जाएं। इस क्रम में अमर्त्य सेन ने ‘स्वतंत्रता’ और ‘दायित्व’ की धारणा की
व्यापक समीक्षा पर जोर दिया। जिन समाजों में स्वतंत्रता है वहां उसे लागू करने में
राजसत्ता और न्यायपालिका के साथ राजनीतिक दल किस तरह अपने दायित्वों का निर्वाह कर
रहे हैं और किस तरह समाज में विभिन्न सामुदायिक-सांस्कृतिक संगठन अपने दायित्व
निभा रहे हैं इनको भी देखा जाना चाहिए।
इसके अलावा
नैतिकता वाले पहलू की भी समीक्षा करने की जरूरत है। यह देखें कि व्यवहार में
मानवाधिकारों को नैतिक तौर पर किस तरह स्वीकृति प्राप्त है या फिर उनके प्रति समाज
के विभिन्न अंग किस तरह दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। यह भ्रम है कि ज्योंही
मानवाधिकारों की घोषणा की गयी त्यों ही वे आचरण में लागू भी हो जाते हैं। यथार्थ
में जाकर मूल्यांकन करने की जरूरत है।
मानवाधिकारों
के प्रसंग में तीन बड़े ऐतिहासिक पडाव माने जाते हैं। पहला है अमेरिकन क्रांति 1775-1783 , दूसरा है
फ्रांसीसी राज्य क्रांति 1789,
और तीसरा है
संयुक्त राष्ट्र संघ का मानवाधिकार घोषणापत्र 1948 । लेकिन भारत के
संदर्भ में स्वाधीनता संग्राम की चेतना प्रधान कारक है। इसमें
अस्पृश्यता , जातिप्रथा ,हिन्दू-मुसलिम
संबंध, लिंगभेद, साम्प्रदायिक
सद्भाव के सवालों पर संघर्ष चलाए गए और उनसे मानवाधिकारों की चेतना विकसित करने
में मदद मिली। इन सभी विषयों पर गांधीजी-नेहरू और आम्बेडकर के नजरिए से हम बहुत
कुछ सीख सकते हैं।
इसी तरह
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हुई सामाजिक-राजनीतिक क्रांतियों की भी मानवाधिकार
चेतना के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका है। रूस की सन् 1905 और 1917 की क्रांति,ईरान की 1906 और1911 की क्रांति,सन् 1919 की जर्मन
क्रांति, अमेरिका के 1861-1865 तक चले गृहयुद्ध,जिसमें गुलामों
की मुक्ति का इतिहास रचा गया।इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति युद्ध और
फासीवाद विरोधी संघर्षों की मानवाधिकार चेतना के विस्तार में केन्द्रीय भूमिका
है।इसके अलावा सोवियत वर्चस्व के खिलाफ
हंगेरियन और अफगान क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।वहीं लैटिन अमेरिका में
विभिन्न देशों में क्रांतिकारियों और ईसाईयत के सहयोग से चले क्रांतिकारी आंदोलनों
ने लैटिन अमेरिका में मानवाधिकारों का विकास किया।
मानवाधिकारों
की चेतना का विकास दुनिया में एक ही रंगत की विचारधारा के शाये में नहीं हुआ बल्कि
उसके संघर्ष का दायरा पुराने साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से लेकर अक्टूबर क्रांति, सोवियत
अधिनायकवाद विरोधी संघर्ष तक फैला है। वहीं पर तीसरी दुनिया के देशों में चले
मुक्ति संघर्षों,समाज सुधार
आंदोलनों और स्वाधीनता आंदोलनों की केन्द्रीय भूमिका रही है।
कहने का आशय यह कि मानवाधिकारों का विकास एक ही
रंगत के आंदोलन और विचारधारा के कारण नहीं हुआ , बल्कि इसमें विभिन्न विचारधाराओं, यहां तक कि
एक-दूसरे की विरोधी विचारधाराओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस अर्थ में
मानवाधिकारवादी एकाधिक विचारधाराओं में आस्था रखते और मानते हैं। यही वजह है कि
मानवाधिकारों का अध्ययन करने के लिए अंतर्विषयवर्ती पद्धति और परिप्रेक्ष्य की
जरूरत पड़ती है इसके बिना मानवाधिकारों को समझना मुश्किल है। मानवाधिकार सहजजात
नहीं हैं, वे स्वतः नहीं
मिलते, बल्कि उनको पाने
के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
मानवाधिकारों के संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस विचारधारा
ने उनके किसी एक पहलू या एकाधिक पहलुओं का
विकास किया ,ठीक उसी
विचारधारा ने उनके प्रति दमनात्मक रूख अख्तियार किया। कहने का आशय यह कि मानवाधिकार और विचारधारा के
अंतस्संबंध में एक ही दिशा में चीजें घटित नहीं होतीं बल्कि उसमें अंतर्विरोध भी
हैं। संभवतःकोई देश ने नहीं है जहां मानवाधिकारों का हनन न होता हो। यह भी देखा
गया है कि किसी देश में आर्थिक –सामाजिक मानवाधिकार तो हैं लेकिन राजनीतिक मानवाधिकार नहीं
हैं। इसी तरह राजनीतिक मानवाधिकार हैं लेकिन आर्थिक-सामाजिक मानवाधिकारों का
व्यवहार में अभाव है।
लोकतंत्र की
मानवाधिकारों के बिना कल्पना असंभव है। भारत में लोकतंत्र पर बातें होती हैं लेकिन
मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में बातें नहीं होतीं। हमारे यहां का अधिकांश लेखन संवैधानिक
नजरिए और उसके विकल्प के वाम-दक्षिण दृष्टियों के बौद्धिक विभाजन या दलीय वर्गीकरण
में बंटा है।इससे बचना चाहिए। इसके अलावा मानवाधिकारों पर शीतयुद्धीय राजनीति के
परिप्रेक्ष्य के परे जाकर देखने की भी आवश्यकता है।
भारत में
लोकतंत्र है लेकिन लोकतांत्रिक सामाजिक जीवन संबंधों का अभाव है।लोकतंत्र के लिए
वोट डालने वाली जनता है लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य का अभाव है। लोकतांत्रिक संबंध
नहीं बना पाए हैं। लोकतांत्रिक जीवन संबंधों के अभाव में मानवाधिकारचेतना का विकास
संभव नहीं है। सामाजिक जीवन में पूर्व-पूंजीवादी जीवन संबंधों का वर्चस्व आज भी
बना हुआ है। इसमें भी अनेक किस्म के सामाजिक स्तर और जीवनशैलियां हैं। उल्लेखनीय
है भारतीय समाज में आदिवासी, अल्पसंख्यक,जातिवादी, धार्मिक, लिंग आदि आधारों पर विभिन्न किस्म के जीवन संबंध हैं। इनमें
आपस में सह-अवस्था में जीने की भावना है ,लेकिन नए लोकतांत्रिक जीवन संबंधों और लोकतांत्रिक विचारों
की ओर जाने की गति धीमी है। इस धीमी गति ने सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में
भारतीय समाज को काफी पीछे धकेल दिया है। फलतः हम आधुनिक होते हुए भी आधुनिक नहीं
बन पाए हैं। समर्थ लोकतांत्रिक संरचनाओं के रहते हुए भी लोकतांत्रिक राजनीतिकदल, मनुष्य ,सामाजिक और निजी
वातावरण का निर्माण नहीं कर पाए हैं। स्थिति इतनी बदतर है कि न्यायालय से लेकर
संसद तक,विधानसभा से लेकर
ग्राम पंचायत तक सभी में अ-लोकतांत्रिक मनुष्यों का वर्चस्व है।
भारत में
विशिष्ट स्थिति है कि नए विचारों का जीवन में प्रवेश मुश्किल से होता है,नई जीवनशैली का
प्रवेश हो जाता है लेकिन उस जीवनशैली से जुड़े विचार को आत्मसात नहीं करते। सचेत
रूप से नए विचारों का जीवन से अलगाव बनाए रखकर नई जीवनशैली और पुराने नजरिए का खेल
चलता रहता है। इसका कैनवास न्यायालय से लेकर लोकसभा तक फैला है। नई जीवनशैली के
अनुरूप उपभोक्ता वस्तुओं के विनिमय तंत्र का गठन बहुत जल्दी होता है ,विचारतंत्र का
गठन बहुत धीमी गति से होता है। न्याय व्यवस्था में तो यह अंतराल और भी ज्यादा
दिखाई देता है। इस अंतराल का प्रधान कारण है पितृसत्ता का जीवन के प्रत्येक
क्षेत्र में वर्चस्व ।
मानवाधिकारों की गति,प्रकृति और संस्कृति को समग्र परिप्रेक्ष्य और गति के साथ
जोड़कर देखना चाहिए। मसलन्,
हमारे यहां कानून
में मानवाधिकारों का प्रावधान है लेकिन इनको अर्जित करने में किसी नागरिक के पसीने
छूट सकते हैं यदि राज्य या अन्य कोई बाधा डालने पर मादा हो जाए।
मानवाधिकारों के
बारे में दो तरह के नजरिए हैं,पहला नजरिया परंपरागत है जिसमें मानवाधिकारों की परंपरागत
ढ़ंग से हिमायत की जाती है। इसके तहत सब शुभ होगा ,जिसे हम दुआओं का संसार कहते हैं। आशीर्वाद का
संसार कहते हैं। दुआओं के नजरिए से परंपरागत ढ़ंग से दुनिया बदलने की कामना की
परंपरा रही है। यह तरीका इनदिनों प्रचलन से गायब हो गया है। नया आधुनिक तरीका
मानवाधिकार हनन के खिलाफ जनसंघर्ष की मांग करता है। मानवाधिकारहनन के खिलाफ जनता
को एकजुट करने और इस संघर्ष के प्रमुख उपकरण के तौर पर कम्युनिकेशन माध्यमों के
इस्तेमाल पर जोर देता है।इससे मानवाधिकार हनन के खिलाफ सामाजिक जागरूकता पैदा करने
में मदद मिलती है।
आज मानवाधिकारकर्मी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इंटरनेट,प्रेस, फिल्म, वीडियो ,रेडियो,सोशल नेटवर्क,ब्लॉग आदि का
जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। मानवाधिकार हनन के खिलाफ संघर्ष रहे हैं। मानवाधिकार की
हर जंग अभिव्यक्ति की आजादी की जंग भी है।मानवाधिकार स्वभावतःलोकल-ग्लोबल दोनों
हैं।
आमतौर पर
"ग्लोबल" और "सार्वभौम’’ को पर्यायवाची के रूप में देखते हैं। बौद्रिलार्द के अनुसार
ये दोनों पदबंध पर्यायवाची नहीं हैं। सार्वभौम का सामान्यतः मानवाधिकार, लिबर्टी,संस्कृति और
लोकतंत्र के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके विपरीत "ग्लोबल" पदबंध का
तकनीक,बाजार, पर्यटन और सूचना
के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। यह भी माना जाता है ग्लोबलाइजेशन अपरिहार्य है
उसे बदल नहीं सकते। जबकि सार्वभौमत्व तो एक मार्ग है। यह पश्चिमी समाज के संदर्भ
में विकसित मूल्य व्यवस्था है जिसका पश्चिमी आधुनिकता के साथ विकास हुआ है और इसकी
किसी भी संस्कृति से तुलना संभव नहीं है।
सार्वभौम के आने
का अर्थ है स्थानीय संस्कृति का अंत। ग्लोबलाईजेशन के कारण सार्वभौम मूल्यों का
लोप हुआ । विभिन्न देशों में सार्वभौम मूल्यों के लिए गंभीर संकट पैदा हुआ।
ग्लोबलाइजेशन चूंकि सार्वभौम मूल्यों के विकल्प के रूप में पेश किया गया तो इसके
कारण इकसार विचारों की आंधी चलाई गई,इससे मानवाधिकार,लोकतंत्र आदि सार्वभौम मूल्यों की व्यापक स्तर पर क्षति
हुई।
ग्लोबलाइजेशन
में पहला ग्लोबल तत्व है बाजार। बाजार में विभिन्न किस्म के मालों का अहर्निश
विनिमय,सांस्कृतिक तौर
पर प्रतीकों और मूल्यों की छद्म बाढ़ पैदा करता है। खासकर पोर्नोग्राफी का ग्लोबल
सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में प्रसार होता है। । श्लील-अश्लील में भेद खत्म हो
गया। नेटवर्क संस्कृति का सबसे बड़ा असर हुआ है कि शारीरिक अश्लीलता जैसी कोई चीज
नहीं होती। ग्लोबल का अर्थ है आपके पास
खाली एक इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए।इसके कारण ग्लोबल और यूनीवर्सल का भेद खत्म हो
गया। यूनीवर्सल हठात् ग्लोबल हो गया ।
मानवाधिकारों
को इन दिनों सारी दुनिया में अब ठीक वैसे ही वितरित किया जा रहा है जैसे किसी
ग्लोबल माल को विश्व बाजार में सर्कुलेट किया जाता है। यानी जैसे तेल या पूंजी आदि
ग्लोबल प्रोडक्ट हैं ,वैसे ही अब
मानवाधिकार भी ग्लोबल प्रोडक्ट है। यूनीवर्सल से ग्लोबल में रूपान्तरण के कारण
लगातार इकसार बनाने की प्रक्रिया चल रही है, साथ ही अंतहीन फ्रेगमेंटेशन और अपदस्थीकरण के जरिए
विकेन्द्रीकरण की बजाय केन्द्रीकरण बढ़ा है। अब भेदभाव और बहिष्कार सोची समझी
रणनीति के तहत हो रहा है। पहले भूल से होता था।
ग्लोबलाइजेशन
ने अपनी विवेकशील जनता को तो नष्ट किया ही साथ ही सार्वभौमत्व के कारण पैदा हुई
आलोचनात्मक जनचेतना को खत्म किया।आधुनिकता और सार्वभौमत्व के तमाम विमर्शों को
हाशिए पर डाल दिया । आज सार्वभौम आधुनिकता का आईना टूट चुका है। सार्वभौम मूल्य
अपना अधिकार और प्रभाव खो चुके हैं। फलतः चीजें और भी ज्यादा अनुदार दिशा में जा
रही हैं। जब सार्वभौम मूल्य सामने आए थे तो उसमें भेद और मतभेद के लिए स्थान था ,लेकिन
ग्लोबलाइजेशन में सभी किस्म के भेदों का अंत हो गया। ग्लोबलाइजेशन ने एकदम
इनडिफरेंट संस्कृति को जन्म दिया है। सारी दुनिया में आज ग्लोबलाइजेशन का कोई
विकल्प नहीं है। ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है जिसमें लिबर्टी,लोकतंत्र और
मानवाधिकार हमें अनाकर्षक और गंदे लग रहे हैं। यानी ग्लोबलाइजेशन ने
यूनीवर्सलाइजेशन को अतीत की चीज बना दिया।
सार्वभौमत्व
में रूपान्तरण,आत्मगतता,अवधारणा,यथार्थ और
प्रतिनिधित्व पर जोर है ,
अब इस सबकी जगह
वर्चुअल ग्लोबल कल्चर ने स्क्रीन, नेटवर्क,नम्बर, समय-स्थान की गतिशीलता आदि का विकास किया है। सार्वभौमत्व
में प्राकृतिक या नेचुरल चीजों के रूप में शब्द,शरीर और अतीत का अस्तित्व था। विश्वस्तर पर
हिंसा और नकारात्मक चीजों के प्रति आलोचनात्मक नजरिए का अंत हो गया है। जबकि पहले
नकारात्मक चीजों को आलोचनात्मक ढ़ंग से देखते थे।
वर्तमान
युग का पहला संदेश है कि सूचना ही शक्ति है। सूचना मानवाधिकार है। सूचना पाने का
अर्थ है मानवाधिकार का विस्तार। सामान्य सूचना और उसका प्रसार आमलोगों में तेजी से
असर पैदा करता है।संस्थानों का दुरूपयोग रोकने में सूचनाओं का सार्वजनिक उदघाटन
मानव जाति की बहुत बड़ी सफलता है। जिन लोगों ने अहर्निश सत्ता का दुरूपयोग किया है
और आम जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाए हैं उनके खिलाफ सूचना, कम्युनिकेशन की
अत्याधुनिक तकनीक और जनता के संघर्षों ने मिलकर नए लोकतांत्रिक समाज के निर्माण का
मार्ग प्रशस्त किया है।
आज सूचना ने
जितनी बड़ी शक्ति अर्जित की है वैसी शक्ति उसके पास पहले कभी नहीं थी। जिस समाज
में कम्युनिकेशन की तकनीक,शिक्षा और सचेतन
संगठन का त्रिकोण काम करने लगता है वहां पर वर्चस्वशाली व्यक्तियों,सत्ता और
संस्थानों के दुरूपयोग को एक्सपोज करना आसान रहा है। नई अत्याधुनिक कम्युनिकेशन की
तकनीक ने निरस्त्र जनता के हाथ में कम्युनिकेशन का प्रभावशाली अस्त्र दिया है। आम
लोगों में लोकतांत्रिक हकों के लिए लड़ने का जज्बा पैदा किया है।
सत्ताधारी
ताकतें संचार माध्यमों और मीडियातंत्र का जमकर दुरूपयोग करती हैं लेकिन नई इंटरनेट
कम्युनिकेशन तकनीक ने इस तंत्र के खिलाफ आम जनता के हाथ बहुत ही शक्तिशाली
कम्युनिकेशन तंत्र सौंप दिया है। वर्चुअल कम्युनिकेशन तकनीक की शक्ति इन दिनों
महानता के नए आयाम बना रही है। वर्चुअल कम्युनिकेशन और एक व्यक्ति की कुर्बानी
पूरे क्षेत्र में जन रोष पैदा कर सकती है ,इसका आदर्श उदाहरण है ट्यूनीशिया के कुछ साल पहले अंदर आरंभ
हुआ जनज्वार। मोहम्मद बोउजीजी नामक एक फलों का खोमचा लगाने वाले ने सीदीबौउजीद
नामक शहर में पुलिस के उत्पीड़न और गरीबी से तंग आकर आत्मदाह करके जान दे दी।
मोहम्मद बौउजीद की तरह ट्यूनीशिया की आम जनता बरसों से आर्थिक पामाली और अकल्पनीय
कष्टों में जीवन जी रही थी. लेकिन मोहम्मद की आत्मदाह की घटना ने अचानक आम जनता के
क्रोध को सड़कों पर उतार दिया। मोबाइल फोन और इंटरनेट के माध्यम से मोहम्मद की
आत्मदाह और तकलीफों की खबर पूरे देश में तेजी से कम्युनिकेट हुई और हजारों लोग
सड़कों पर उतर आए। खासकर युवाओं ने बड़ी तादाद में प्रतिवाद में जमकर हिस्सा लिया
और उत्पीड़क शासकों के खिलाफ आधुनिक कम्युनिकेशन तकनीक के रूपों का जमकर इस्तेमाल
किया। ट्यूनीशिया की सरकार ने आम जनता के प्रतिवाद को कुचलने के लिए मीडिया से
लेकर पुलिस तक सभी का जमकर दुरूपयोग किया लेकिन आम जनता का प्रतिवाद ट्यूनीशिया
में फैलता गया और फिर धीरे-धीरे उसने मध्यपूर्व के बदनाम शासकों के खिलाफ आम जनता
को सड़कों पर उतार दिया.ट्यूनीशिया में मोहम्मद की मौत के बाद उठे जनज्वार का यह
परिणाम निकला कि ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति ने मात्र एक माह में यानी जनवरी में
अपने पद से इस्तीफा दे दिया और देश छोड़कर भागने को मजबूर हुए।उन्होंने सउदी अरब
के शहर जद्दाह में जाकर शरण ली। इस तरह ट्यूनीशिया में 20 साल से चले आ
रहे उत्पीड़क शासनतंत्र का अंत हुआ। इसके बाद वहां पर आम जनता की शिरकत वाली शासन
व्यवस्था आई है जो आम जनता के अधिकारों को सम्मान दे रही है। ट्यूनीशिया के
सर्वसत्तावादी तंत्र के दमन-उत्पीडन से सारे लोग परेशान थे और शासकों की गणना इस
क्षेत्र के सबसे बदनाम शासकों में होती थी। लेकिन ट्यूनीशिया में ज्यों में बदलाव
आया उसका सीधे आसपास के देशों अल्जीरिया,बहरीन,मिस्र,जोर्डन,लीबिया .यमन आदि पर भी पड़ा और इन इलाकों की सर्वसत्तावादी
अ-लोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ हजारों-लाखों लोग सड़कों पर उतर आए।
इंटरनेट और
मोबाइल नए कम्युनिकेशन उपकरण है लेकिन जनता की समस्याएं पुरानी हैं। नए उपकरणों ने
प्रतिवादी स्वर और सम्मान के साथ जीने के भावबोध को पैदा करने में बड़ी भूमिका अदा
की है। मोबाइल और इंटरनेट को सत्ताधारियों और बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों के
मुनाफे और वर्चस्व का हिस्सा मात्र समझने से इन तकनीकी रूपों के प्रति संतुलित
नजरिया नहीं बनेगा। ये कम्युनिकेशन उपकरण आम जनता में सम्मान और स्वाभिमान के साथ
जीने, निजता और
लोकतंत्र की रक्षा करने का भावबोध पैदा करते हैं। इन दो यंत्रों के आने बाद से नए
सिरे से मानवाधिकारों की लहर सारी दुनिया में उठी है। अमेरिका के युद्धपंथी
रूझानों के खिलाफ पूंजीवादी देशों में लाखों लोगों का शांति जुलूसों में भाग लेना
और मध्यपूर्व का लोकतांत्रिक जनज्वार इस बात का प्रमाण है कि मोबाइल और इंटरनेट ने
मानवता को गौरव और शक्ति दी है।
मौजूदा दौर
डिजिटल संस्कृति का है, लेकिन
कम्युनिकेशन तकनीक कोई जादुई छड़ी नहीं है। कम्युनिकेशन तकनीक का नेटवर्क होने पर
जरूरी नहीं है कि आमलोगों में लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति अपील भी हो, यह भी देखा गया
है कि जो लोग इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं वे लोकतांत्रिक गतिविधियों में कम भाग
लेते हैं। कहने का अर्थ यह है कि तकनीक अपने आप में निर्धारक तत्व नहीं है।
लोकतांत्रिक
वातावरण और मानवाधिकारों की रक्षा में निर्धारक तत्व है आम जनता की सचेतनता, सांगठनिक क्षमता
और सक्रियता । आम जनता की सक्रियता को कम या ज्यादा करने में कम्युनिकेशन तकनीक
मदद कर सकती है लेकिन कम्युनिकेशन तकनीक स्वयं में समाज नहीं बदल सकती। इस संदर्भ
में देखें तो कम्युनिकेशन तकनीक सतह पर तटस्थ रहती है। लेकिन तकनीक के उपयोग, जनांदोलन के स्तर
और सामाजिक संतुलन के मद्देनजर देखें तो तकनीक तटस्थ नहीं होती बल्कि वर्गसंघर्ष
का हिस्सा होती है। जिन समाजों में मोबाइल और इंटरनेट को जनउभार पैदा करने लिए
इस्तेमाल किया गया वहां पर कालान्तर में इन्हीं कम्युनिकेशन रूपों का खबरों को
दबाने, आंदोलन का दमन
करने और आम जनता को परेशान करने के लिए इस्तेमाल किया गया।