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बुधवार, 12 मई 2010

जेएनयू में जातिवादी चेतना का जहर

      सुनने में अटपटा लगता है लेकिन वास्तविकता है कि जेएनयू के सांस्कृतिक वातावरण में जातिवाद का विष आ गया है। जेएनयू लंबे समय तक जातिवाद के जहर से मुक्त था। लेकिन आज ऐसा नहीं है। मैं लंबे समय वहां पढ़ा हूँ और एक भावनात्मक लगाव भी महसूस करता हूँ,जेएनयू के बारे में पुराने और नए दोस्तों से पूछता रहता हूँ। इस क्रम में मेरे कानों में एक छात्र की यह पीड़ा भी आई है कि जेएनयू में जातिवाद घुस आया है। विद्यार्थियों में एक अच्छा-खासा तबका तैयार हो गया है तो जातिवादी मनोदशा में जी रहा है।
      जेएनयू के शानदार सांस्कृतिक वातावरण में पैदा हुए जातिवाद के खिलाफ व्यापक सार्वजनिक बहस चलाई जानी चाहिए। जेएनयू के छात्र सक्षम हैं और देश-विदेश की समस्याओं पर चर्चाएं करते रहते हैं। उन्हें इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि भारत का सबसे शानदार विश्वविद्यालय अचानक जातिवाद की चपेट में कैसे आ गया है ?
     क्या जेएनयू में पैदा हो रही जातिवादी चेतना का वहां के पाठ्यक्रमों में आए बदलाव से कोई संबंध है ? क्या  
     जेएनयू में पैदा हो रही जातिचेतना का कैरियरपंथी रुझान से संबंध है ?
    क्या जेएनयू में दाखिला नीति के बदल जाने के साथ इसका संबंध है ?
    क्या जेएनयू में पठन-पाठन के गिरते स्तर के साथ इसका संबंध है ?
क्या जेएनयू का विचारधारात्मक रक्षाकवच कमजोर हो गया है ? यही विचारधारात्मक रक्षा कवच था जिससे टकराकर देश में व्याप्त जातिवाद टूट जाता था ।
     जेएनयू में बढ़ रही जातिवादी चेतना के पीछे क्या कैंपस में बढ़ रही अराजनीति की राजनीति का हाथ है ? क्या अतिवामपंथी राजनीति की आड़ में जातिवादी गोलबंदी तो नहीं चल रही ?
      संभवतः आम लोगों को यह बात सीधे समझ में न आए लेकिन यह एक वास्तविकता है परंपरागत वाम राजनीति को कैंपस में अपदस्थ करने के नाम पर गैर परंपरागत तथाकथित वाम राजनीति का जब से कैंपस में पदार्पण हुआ है। जातिवादी चेतना में इजाफा हुआ है।
     गैर परंपरागत वाम का बिहार से लेकर आंध्र तक जितना जुझारू तेवर है, क्रांतिकारीभाव है उसकी ओट में माओवाद प्रभावित इलाकों में जातिवादी वैमनस्य और घृणा व्यापक रुप में फैली हुई है।
      माओवादी संगठनों से लेकर आइसा जैसे संगठनों की विचारधारात्मक परिणतियों के बारे में खासकर जातिवादी फिनोमिना के साथ उसकी अन्तर्क्रियाओं के बारे में गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। आप भी बताएं क्या सोचते हैं ?

रविवार, 9 मई 2010

महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती पर विशेष- अकुंठ मानव का खुला आसमान-2- अरुण माहेश्वरी

      सवाल उठता है कि आखिर यह पीराली क्या बला है? अगर हम इसकी तह में जाए तो भारतीय समाज में जातियों के उद्भव और विकास के अपने एक बेहद रोचक और उतने ही यातनापूर्ण आख्यान के सूत्रों को भी पकड़ पायेंगे। किसका किससे मेल होने अथवा कौन सा पेशा अपना लेने पर जातिगत पैमाने पर कौन क्या होता रहा है, इसकी सचमुच अपने आप में एक अनोखी दास्तान है। लेकिन जातियों के विभाजन की यह निरंतर प्रक्रिया ही वर्ण व्यवस्था के अंदर की किंचित गतिशीलता का भी एक प्रमुख कारण रही है। पीरालीभी, कहते हैं, ऐसे ही एक खास प्रकार के मेलजोल और वहिष्कारनिष्काशन का परिणाम था। इसमें बहुत कुछ समाज के पंडे बने ब्राह्मणों की मनमर्जी का परिणाम भी रहा है। खास तौर पर यवनों के संपर्क में आने के कारण कुछ परिवारों को समाज के इन पंडों ने सम्मान का स्थान दिया, तो इसी कारण से कुछ को पूरी तरह से समाज से वहिष्कृत करके पतित करार दिया। पीरालीभी ऐसे ही पतित ब्राह्मणों में एक थे। पीराली ब्राह्मण की उत्प​त्‍ति‍ के बारे में कहा जाता है कि तुर्कों के शासन के दिनों में खान जहां अली नामका एक व्यक्ति दक्षिण बंगाल के सुंदरीवन (आज के बांग्लादेश के खुलना के सुंदरवन) में उपनिवेश कायम करने की सनद लेकर आया था और इसी सनद पर उसे चेंगुटिया परगना की जमींदारी मिली। इन खान जहां के पास ताहेर नामका एक व्यक्ति आया जो पहले ब्राण था, लेकिन एक मुसलमान महिला के प्रेम में पड़के इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया था। वह नवद्वीप के निकट के पिरलिया अथवा पिरल्या गांव का निवासी था। पिरल्या गांव का निवासी होने के नाते लोग उसे पिरल्या खां कह कर पुकारने लगे। ताहेर कार्यपटु और दक्ष व्यक्ति था, इसीलिये खान जहां ने उसे दीवान बना कर जसहोर बुला लिया था। इसी ताहेर के यहां उपरोक्त दक्षिणानाथ के दो बेटे कामदेव और जयदेव प्रमुख कर्मचारी के पद पर नियुक्त हुए।
कहते हैं कि एक दिन रोजा के समय ताहेर उर्फ‍ पीरअली एक नींबू की सुगंध ले रहा था। उसी समय कामदेव ने मजाक में कहा कि शास्त्रों के अनुसार गंध लेना आधे भोजन के समान है। इसीलिये आपका रोजा टूट गया है। ताहेर मुसलमान होने पर भी ब्राह्मण की संतान था। वह कामदेव के मजाक को फौरन समझ गया, लेकिन उसने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। इसके बाद एक दिन उसने एक मजलिस बुलाई जिसमें ब्राह्मणों सहित तमाम जाति के लोगों को आमंत्रित किया था। इस जलसे में चारों ओर से मुगलाई खाने की गंध फैली हुई थी, जिसे हिंदू सहन नहीं कर पारहे थे। कई लोग कपड़े से नाक को ढक कर बाहर निकल गये। लेकिन चालाक पीरअली ने कामदेव और जयदेव को पकड़ लिया और कहा कि सुगंध से यदि आधा भोजन हो जाता है तो निश्चित तौर पर गोमांस की गंध लेकर तुमने अपनी जाति गंवा दी है। इन दोनों भाइयों ने भागने की कोशिश की, लेकिन पीरअली के लोगों ने उन्हें दबोच कर उनके मूंह में उस प्रतिबंधित मांस को ठूस दिया और इसप्रकार, वे दोनों ही जातिच्युत होगये। इसके बाद से ही कामदेव को कमाल खान और जयदेव को जमाल खान के नाम से जाना जाने लगा। पीरअली ने दोनों को जागीर भी दिलवा दी। पीरअली की उस महफिल में और भी जो लोग उपस्थित थे, उनके दुश्मनों ने उन्हें पीरालीघोषित करके समाज से निकाल दिया। उनमें से भी जिनके पास रुपयों की ताकत थी, वे तो समाज के पंडों की कृपा से फिर से जाति में वापस आगये, और जो किसी भी वजह से इन पंडों को खुश नहीं कर पायें वे पीरालीबन कर समाज से वहिष्‍कृत रहे।
कामदेव, जयदेव के दो अन्य भाई रतिदेव और शुकदेव रायचौधुरी अपने दक्षिणडीही के घर में रहते थे। रतिदेव ने समाज के अत्याचारों से दुखी होकर गांव छोड़ दिया। शुकदेव को भी भारी कष्ट उठाने पड़े। नाना छलचतुराई से शुकदेव ने अपनी बेटी और भतीजी का ब्याह किया। बेटी का विवाह एक श्रेष्ठ श्रोत्रिय जाति के नौजवान, पीठाभोग के जमींदार जगन्नाथ कुशारी से किया और भतीजी का विवाह फुलिया के एक मुखुटी से कर दिया। एक पतित ब्राह्मण परिवार में विवाह करने के कारण जगन्नाथ को उसके कुटुंब और जाति से वहिष्‍कृत कर दिया गया और वह पीठाभोग के बजाय दक्षिणडीही में अपने ससुराल में रहने लगा। शुकदेव ने अपने जंवाई को पूरी इज्जत बख्शी और आज के बारोपाड़ा नरेन्द्रपुर गांव के उार में उारपाड़ा नामका एक गांव उसे दान में दे दिया। इसप्रकार शुकदेव की भतीजी और बेटी के विवाह से ब्राणों की पीरालीशाखा चल पड़ी।
कहा जा सकता है कि बंगाल के ठाकुर परिवार के आदिपुरुष ये जगन्नाथ कुशारी महाशय ही थे जो अपने ब्याह के चलते पीराली समाज में शामिल होगये थे। जगन्नाथ के दूसरे बेटे पुरुषोत्‍तम से ठाकुर वंश की परंपरा चली। पुरुषोत्‍तम के पोते रामानंद के दो बेटे महेश्वर और शुकदेव के समय से यह ठाकुर परिवार कोलिकाता निवासी होगया।
इस बारे में कहानी यह है कि जाति के कारण झेल रहे अपमान की वजह से ही महेश्वर और शुकदेव अपने गांव बारोपाड़ा से निकल कर कोलिकाता गांव के दक्षिण में गोविंदपुर में आकर बस गये। तब तक अंग्रेजों को गोविंदपुर, सुतानाटी और कोलिकाता नामक तीन गांवों की सनद मिल चुकी थी। अंग्रेजों के वाणिज्यिक जहाज इसी गोविंदपुर की गंगा में ही आकर लगा करते थे।  उन दिनों कोलिकाता और सूतानाटी में सेठ बसाक नामके एक प्रसिद्ध व्यापारी हुआ करते थे। अंग्रेज कप्तानों के इन जहाजों से मालअसबाब की ढुलाईलदाई और खानेपीने की व्यवस्था का काम पंचानन कुशारी किया करते थे। इन सभी मेहनत के कामों में स्थानीय हिंदू समाज की तथाकथित निम्न जातियों के लोग उनके लिये काम करते थे। ये लोग एक ब्राह्मण भले आदमी को उसके नाम से पुकारने में हिचकते थे, इसीलिये वे पंचानन को ठाकुर मोशायकह कर पुकारने लगे। इसीसे जहाज के कप्तान उसे पंचानन ठाकुर के नाम से जानने लगे। अपने कागजातों में उन्होंने उसके नाम के साथ Tagore, Tagoure लिखना शुरू कर दिया और इसप्रकार कुशारीपदवी का स्थान ठाकुरपदवी ने ले लिया।
पंचानन ठाकुर के दो बेटे हुए जयराम और रामसंतोष तथा शुकदेव के एक बेटा, कृष्णचंद्र। अंग्रेज व्यापारियों से तीनों ने थोड़ी अंग्रेजी सीखी। इसके अलावा उन दिनों फ्रेंच भाषा का भी अच्छाखासा चलन था। 1742 में कोलिकाता की पैमाईश का काम शुरू हुआ और जयराम तथा रामसंतोष अमीन के पद पर नियुक्त होगये। इसी कारण से खुलना में इनका पैतृक निवास अमीन का निवासके नाम से प्रसिद्ध है। उसी समय कंपनी ने फोर्ट विलियमके निर्माण का काम शुरू किया था। सरकार के जिस विभाग को निर्माण का यह काम सौंपा गया था, जयराम उस विभाग से जुड़े हुए थे। फोर्ट विलियमकी इस इमारत को बनाने में तब बेशुमार पैसा खर्च हुआ था और इसके पूरा होने में भी अनुमान से काफी ज्यादा समय लगा था। कहते है कि उन दिनों कंपनी के अधिकारियों से लेकर साधारण गुमाश्ते तक में ईमानदारी नामकी कोई चीज नहीं हुआ करती थी और फोर्ट विलियमकी इमारत को बनाने में चीफ इंजीनियर से लेकर सरदार मिस़्त्री तक सबने काफी धन कमाया था। जयराम ने इस काम में क्या कमाया इसके बारे में कोई पक्की जानकारी न होने पर भी यह सच है कि उन्होंने उसी काल में धनसाय (आज के धर्मतल्ला, शहीद मीनार) में मकान बनाया, जमीनें खरीदी और फोर्ट विलियम्स के पास ही गंगा के तट पर एक बगान बाड़ी बनायी। वे जब मरे तब धनसंप​िा के लिहाज से काफी अच्छे थे। जयराम ठाकुर के तीन बेटे थे नीलमणि, दर्पनारायण और गोविंदराम। उन्होंने अपने बड़े बेटे आनंदीराम को त्याग दिया था, जिसके दो बेटे थे।
कोलिकाता पर जब सिराजुद्दौल्ला ने हमला किया तब जयराम ने अपनी चल संप​िा, सोने के गहनों आदि को फोर्ट विलियम्स में जमा करा दिया था। उस हमले में धनसाय के घर को भी कोई नुकसान नहीं पंहुचा था। 1756 में जयराम की मृत्यु के थोड़े दिनों बाद ही नीलमणि आदि ने अपने पूर्वजों की धनसाय की संप​त्‍ति‍ को 5 हजार रुपयों में बेच दिया। 1757 में पलाशी की लड़ाई के बाद मीरजाफर अलि खां बंगाल सूबे के नवाब बने और सिराजुद्दौल्ला के हमले से हुई शहर की तबाही के मुआवजे के तौर पर उन्होंने ब्रिटिश कम्पनी को भारी रकम अदा की। उसी कोष में से ड्रेक साहब ने जयराम अमीन के बेटों को छ: हजार रुपये दिलवा दिये। जयराम के बेटों के पास इससे कुल 13 हजार रुपये की नगद संप​त्‍ति‍ होगयी। 1764 में इन्हीं बेटों ने कोलिकाता गांव के पाथुरियाघाटा क्षेत्र में जमीन खरीद कर अपना घर बनाया और 13 हजार रुपयों से कंपनी के कागजात खरीद कर अपने गृहदेवता श्रीश्री राधाकांत जीओ के नाम से एक धर्मादा खाता तैयार कर दिया। इन रुपयों पर मिलने वाले ब्याज से देवपूजा के खर्च की व्यवस्था होती थी। 
नीलमणि और दर्पनारायण अपने पाथुरियाघाट के आवास के दिनों में साहबों के दीवान बन गये। बड़े भाई दर्पनारायण तो घर पर रह कर पुरखों की संप​त्‍ति‍ को सम्हाले हुए थे। छोटा भाई नीलमणि कमाई के लिये कलकत्‍ते के बाहर निकल गया। उसने पहले एक जिला अदालत में अधीनस्थ अमले के रूप में काम किया और धीरेधीरे सेरिस्तदार के पद तक चला गया। उन दिनों कोई भी देशी आदमी सरकार में इससे बड़े पद की उम्मीद नहीं कर सकता था। इसके अलावा, तब धन होने मात्र से समाज में मान नहीं मिलता था। कोलिकाता में पैसेवालों को बाबूकहा जाता था। कुलीनों की जमात में जगह तभी मिलती थी जब किसीके पास जमींदारी हो। नीलमणि ने सेरिस्तदार के पद पर रहते हुए जो कमाई की उसीसे ठाकुर परिवार में वस्तुत: जमींदारी का श्रीगणेश किया। उनकी अगली पीढ़ी के राममणि ने भी उड़ीसा में थोड़ी जमींदारी खरीदी; फिर उनके भाई राम वल्लभ ने उसमें और संप​त्‍ति‍ जोड़ी। लेकिन जिसे वास्तव में जमींदार का ओहदा कहते है, वह सम्मान नीलमणि के पोते, द्वारकानाथ को ही मिला।
बहरहाल, पाथुरियाघाट का संयुक्त परिवार एकदिन टूट गया। इसके मूल में संप​त्‍ति‍ का मसला था। नीलमणि बाहर से हर महीने अपने बड़े भाई को अपनी बचत से रुपये भेजा करता था। लेकिन जब वह सरकारी सेवा से निवृत्‍त्त हुआ, तब इन्हीं रुपयों के हिसाब को लेकर दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव होगया। बाद में समझौता हुआ तो नीलमणि एक लाख रुपया नगद लेकर पाथुरियाघाट का मकान और धर्मादे की संप​ति‍ छोड़ अपने छोटे भाई से अलग होगये। नीलमणि ने जोड़ाबगान के कर ब्राण वैष्णवचरण सेठ से जोड़ासांकू में घर बनाने के लिये एक बीघा जमीन ली और सन् 1784 के जून महीने से उनका परिवार वहीं जाकर रहने लगा। कहा जाता है कि चूंकि नीलमणि खुद पक्के ब्राण थे, इसीलिये वैष्णव सेठ ने उन्हें बहुत मामूली कीमत पर जोड़ासांकू की जमीन दे दी थी। वैष्णव सेठ किस प्रकार के ब्राण थे, यह अकेले इस तथ्य से जाना जा सकता है कि वे कलको में शुद्ध गंगा जल के संरक्षक माने जाते थे और उसके सबसे बड़े निर्यातकर्ता थे। कलको से बाहर जहां गंगा जल नहीं मिलता था, वहां गंगा जल से भरे उन्हीं घड़ों को शुद्ध माना जाता था, जिन पर वैष्णव सेठ की मोहर लगी होती थी। बहरहाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जिस जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार से जोड़कर हम देखते हैं, उस परिवार की परंपरा इसी जोड़ासांकू के मकान से शुरू हुई थी। अर्थात, जयराम ठाकुर के दूसरे बेटे नीलमणि ठाकुर को जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार का आदिपुरुष, उत्स कहा जा सकता है।
नीलमणि के तीन बेटे और एक बेटी थी : रामलोचन, राममणि, रामवल्लभ, और कमलमणि। नीलमणि की अपनी सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के चलते उन्होंने अपनी बेटी का विवाह तो एक आस्थावान हिंदू परिवार में कर दिया लेकिन बेटों की शादी पीराली समाज में ही करनी पड़ी।
नीलमणि के बाद ठाकुर परिवार के मुखिया बने रामलोचन। उनकी अपनी कोई संतान न होने के कारण उन्होंने अपने भाई राममणि के बेटे द्वारकानाथ को गोद ले लिया। राममणि ने दो शादियां की थी। पहली पत्नी मेनका देवी से राधानाथ, जावी देवी, रासविलासी और द्वारकानाथ पैदा हुए तथा दूसरी पत्नी दुर्गामणि से रमानाथ और सरस्वती देवी का जन्म हुआ। रामलोचन अपने जमाने के एक संभ्रांत भद्रजन थे। प्रभातकुमार मुखोपाध्याय के शब्दों में अपनी वेशभूषा के ढंग, सांध्यभ्रमण, संगीत प्रेम आदि तत्कालीन कुलीनों के लक्षण उनमें दिखाई देते थे।

महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती पर विशेष- अकुंठ मानव का खुला आसमान-1- अरुण माहेश्वरी



(महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर)
19वीं सदी के बंगाल के किसी महापुरुष की जिंदगी में झांके और उसके कुलगोत्र का जिक्र न हो, यह कैसे संभव है? इसकी वजह यह नहीं कि किसी भी हिंदू धर्मावलंबी महापुरुष का जीवन चरित उसके कुलगोत्र की गहराइयों में जाए बिना नहीं समझा जा सकता है। यहां हमारा जोर 19वीं सदी, अर्थात भारत में अंग्रेजी राज के स्थिर होने की सदी, पर है ।
वर्ण व्यवस्था तो हिंदुओं में हजारों सालों से चली आ रही है। जाति विभाजन की निरंतर प्रक्रिया से उसके अंदर की गतिशीलता को भी इधर के इतिहासकारों ने पहचाना हैं। लेकिन दिलचस्प है इस प्राचीन व्यवस्था में अंग्रेजी शासन के योग का फल। प्राचीन पश्चिमी समाज में भले ही वर्ण  व्यवस्था की तरह की कोई चिरंतर व्यवस्था न रही हो, लेकिन 19वीं सदी के आधुनिक काल में पश्चिम का शासक वर्ग एक खास प्रकार के जातिवाद (नस्लवाद) के सिद्धांत पर प्रयोग कर रहा था। विभिन्न समुदाय के लोगों की चमड़ी और आंख की पुतली के रंग, उनके ललाट और मस्तक के माप आदि के कथित वैज्ञानिक तौर तरीकों से इस सिद्धांत का ईजाद किया था और उसी के जरिये समाज तथा शासन के क्रमविन्यास में विधि ने किसके लिये कौन सी जगह तय की है, इसे अनंत काल के लिये स्थिर कर देने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। वे नस्ल (जाति)( Race) को इतिहास की कुंजी मानते थे।

कहना न होगा कि इस देश में ब्रिटिश शासन के पैर जमाने के साथ ही अंग्रेजों की इसी वैज्ञानिकखुराफात के प्रयोग ने इस समाज पर कम रंग नहीं दिखाया। भारत में 1901 की जनगणना का आयुक्त राबर्ट रिस्ले कहता है,  जाति भावना ... इस सचाई पर आधारित है कि उसे वैज्ञानिक विधि से परखा जा सकता है; कि उससे किसी भी जाति को संचालित करने वाले सिद्धांत की आपूर्ति होती है; कि यह शासन के सर्वाधिक आधुनिक विकास को आकार देने के लिये गल्प अथवा परंपरा के रूप में कायम रहती है; और अंत में उसका प्रभाव उसके द्वारा समर्थित खास स्थिति को तुलनात्मक शुद्धता के साथ संरक्षित रखता है।
(...race sentiment...rests upon a foundation of facts that can be verified by scientific methods; that it supplied the motive principle of caste; that it continues, in the form of fiction or tradition, to shape the most modern developments of the system; and, finally, that its influence has tended to preserve in comparative purity the types which it favours. )
जाहिर है कि अंग्रेजों ने भारत की वर्ण व्यवस्था को यहां नस्ली शुद्धता को चिरंतर बनाये रखने के पहले से बनेबनाये एक मुकम्मल ढांचे के रूप में देखा और यहां अपनी शासन व्यवस्था के विकास लिये इसका भरपूर प्रयोग करने का निर्णय लिया। उनकी इसी दृष्टि ने भारत में 1871 का जरायमपेशा जातियों का कानून बना कर कुछ तबको को हमेशा के लिये दागी घोषित कर दिया। और यही वह नजरिया था जिसके चलते 1891 की पहली मदु‍र्म शुमारी में सिर्फ जातियों की गणना नहीं बल्कि उनकी परिभाषा और व्याख्या को भी शामिल किया गया। कहना न होगा कि जातियों की इन उद्देश्यपूर्ण पहचान की कोशिशों ने भारतीय समाज में ऐसा गुल खिलाया कि यहां के विभिन्न समुदायों में जनगणना के खातों में अपनी जाति को अपने खास ढंग से परिभाषितव्याख्यायित कराने की होड़ सी लग गयी। समझदारों को यह जानते देर नहीं लगी कि इसीसे यह तय होना है कि आने वाले दिनों में अंग्रेजी शासन की पूरी व्यवस्था में कौन सा समुदाय किस पायदान पर खड़ा होगा; शासन की रेवडि़यों के बंटवारे में किसके कितना हाथ लगेगा। और इसप्रकार, भारतीय वर्णव्यवस्था इस नये पश्चिमी नस्लवादी सिद्धांत से जुड़ कर एक अलग प्रकार की जाति चेतना के उद्भव का कारण बनी।
      आज हम जिस जातिवाद से अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं, उसके बहुत कुछ को भारत में अंग्रेजी शासन की देन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 19वीं सदी के पहले के इतिहास में जो ब्राण विरले ही कहीं बलशाली, वैभवशाली दिखाई देते हैं; सदा राजकृपा के मुखापेक्षी और उसीके बल पर यदाकदा भौतिक दुनिया में भी किंचित महत्व पाते रहे हैं, वे अंग्रेजों की जातिगणनामें दखल देकर आदमी के आत्मिक जगत के पूर्ण अधिकारी बन गये। और, इसप्रकार नई शासन व्यवस्था से उनका अपना एक खास रिश्ता बना, वे भी अंग्रेजों के कानून के शासनके एक प्रमुख स्तंभ बन गये। अंग्रेजों के संपर्क से बने बंगाल के नवजागरण के तमाम मनीषियों के जीवन में गहराई से उतरिये, ऐसी बहुतसी बातें साफ दिखाई देने लगेगी।
        लुब्बेलुबाब यह कि 19वीं सदी के ब्रिटिश राज में हिंदू समाज की जातिअस्मिता का बोध एक नयी ऊंचाई पर था। ऐसे काल में किसी के गोत्रकुल की क्या कीमत रही होगी, सहज ही समझा जा सकता है।
      इसके अलावा रवीन्द्रनाथ के पूर्वजों का इतिहास जानने की एक और दूसरी महत्वपूर्ण वजह है। इस अध्ययन के जरिये रवीन्द्रनाथ के संपूर्ण व्यक्तित्व की पड़ताल के आधार पर उन पर कोई निश्चित राय बनाने के पहले ही एक बात आसानी से कही जा सकती है कि रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते है: मति अकुंठ हरि भगति अखंडी। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है।
       रवीन्द्रनाथ के इसी व्यक्तित्व के संधान के क्रम में आइये सबसे पहले हम क्यों न रवींद्रनाथ के गोत्रकुल और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डाले। संभव है इससे उस विशाल, वैभवशाली जीवन की तहों में प्रवेश के भी कुछ जरूरी सूत्र मिल जाए।
रवीन्द्रनाथ के कुलगोत्र की तलाश में हम उन आख्यानों अथवा किंवदंतियों के विस्तार में नहीं जायेंगे जो बंग क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन के बारे में कही जाती है। इस पूरे संदर्भ में यहां रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात कुमार मुखोपाध्याय द्वारा प्रणीत चार खंडों में प्रकाशित रवीन्द्र जीवनी के संबंधित अंश में कही गयी बातों का उल्लेख करना ही काफी होगा। उनके अनुसार 11वीं सदी में किसी समय आदिशूर के राज्य में कान्यकुब्ज से शांडिल्य गोत्र के क्षितिश, वत्स्य गोत्र के सुधानिधि, सवर्ण गोत्र के सौभरि, भारद्वाज गोत्र के मेधातिथि और कश्यप गोत्र के बीतराग नामक पंचब्राह्मण महायान बौद्धधर्म के विचित्र विचारों में डूबे बंगदेश में ब्राह्मण धर्म को स्थापित करने के लिये आये थे। ये बंगदेश सिर्फ‍ आये भर थे, लेकिन यहां किसी प्रकार के यज्ञ अथवा दूसरे कामकाज नहीं किये थे। कहते हैं कि इन्हीं के पंचपुत्र भनारायण वेदाध्ययी के बेटे श्री हर्ष और दक्ष से बंगदेश में ब्राण कुल का उद्भव हुआ। 
       दक्ष की चौदह संतानों में से एक, धीर को आदिशूर के बेटे भूशूर से बंगाल में निवास के लिये गुड़ नामक एक गांव मिला था। आज यह गांव पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले में है। गुड़ गांव के निवासी होने के नाते वे धीरगुड़ीअथवा धीरगुड़के नाम से जाने जाने लगे। इन्हीं की सातवीं पीढ़ी के रघुपति आचार्य ने वयस्क होने के उपरांत संन्यास ले लिया और दंडीबन गये; कहते हैं कि उन्हें काशीवास के काल में दंडी समाज ने कनकदंड भेंट किया था। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कनकदांड़गांव में जाकर बस जाने के कारण परवर्ती दिनों में रघुपति के वंशजों को कनकदंडी गुड़कहा जाने लगा। इसी कनकदंडी गुड़की एक शाखा का यवनों (मुसलमानों) से संपर्क होने के कारण उन्हें पीराली दोष से दूषित माना गया और इसप्रकार वे ब्राह्मण समाज में पतित समझे जाने लगे।
        रघुपति आचार्य की चौथी पीढ़ी के जयकृष्ण ब्रचारी को ही शायद राय की उपाधि मिली थी। जयकृष्ण के दो बेटे थे नागर और दक्षिणानाथ। दक्षिणानाथ के चार बेटे थे कामदेव, जयदेव, रतिदेव और शुकदेव। इन्हीं कामदेव भाइयों का मुसलमानों से संपर्क हुआ और वे पीराली होगये। इस समय तक बंगाल में तुर्कों का शासन होगया था और दक्षिणानाथ को राजदरबार से रायचौधुरीकी उपाधि मिली थी। कामदेव बंधु आज के बांग्ला देश के जसहोर जिले के चेंगुटिया परगना के जमींदार थे। जाहिर है कि नाना कारणों से हिंदुओं के विभिन्न समुदाय विजेता शासकों के संपर्क में आये। और यवनों के साथ इस प्रकार से संपर्क में आये अनेक परिवारों को तब हिंदू समाज से अलग कर दिया गया था। सेरखानी, पिराली, श्रीमंथानी, आदि समुदायों का उद्भव इसी प्रकार हुआ।
                                          क्रमशः


सोमवार, 17 अगस्त 2009

'अशि‍क्षि‍त मूर्ख' बनाम मुसलमान और शाहरूख

शाहरूख खान के साथ अमेरि‍का में एयरपोर्ट के अधि‍कारि‍यों ने जो दुर्व्‍यवहार कि‍या था उस पर जब मैंने लि‍खा तो प्रति‍क्रि‍या में अमेरि‍का से 'नि‍धि‍' ने काफी अच्‍छी जबावी दस्‍तक दी, लि‍खा मैं नहीं जानता कि‍ अमेरि‍का की कि‍तनी अच्‍छी व्‍यवस्‍था है। यह सच है मैं कभी अमेरि‍का नहीं गया और भवि‍ष्‍य में शायद कभी जा भी न पाऊँ ? हो सकता है मेरा लि‍खा 'नि‍धि‍' को सही न लगा हो लेकि‍न आज जब मैं 'टाइम्‍स ऑफ इण्‍डि‍या' पढ़ रहा था तो उसमें प्रसि‍द्ध सि‍तार वादक उस्‍ताद सुजात हुसैन खान का एक साक्षात्‍कार पढ़ने को मि‍ला, यह साक्षात्‍कार काफी कुछ नई चीजों पर रोशनी डालता है।
सुजात हुसैन साहब ने स्‍वीकार कि‍या है , उन्‍हें मुस्‍लि‍म होने के नाते अनेक बार जांच अधि‍कारि‍यों का सामना करना पड़ा है,उन्‍होंने यह भी कहा कि‍ वे अनेकबार अमेरि‍का जा चुके हैं। लेकि‍न उन्‍होने भी इस बात को रेखांकि‍त कि‍या है कि‍ एयरपोर्ट के कर्मचारी अच्‍छा व्‍यवहार करते हैं। उन्‍होंने लि‍खा है वे एकबार लॉस एंजि‍ल्‍स से न्‍यूयार्क की यात्रा कर रहे थे उनके पास बि‍जनेस क्‍लास का टि‍कट था,यह घटना नाइन इलेवन की घटना के एक सप्‍ताह बाद की है, उनके पास बैठे यात्रि‍यों ने शि‍कायत की कि‍ वे सुजात साहब के साथ बैठने में असुवि‍धा महसूस कर रहे हैं। इसके बाद कैप्‍टन ने उनका प्रोफाइल जांच के लि‍ए वाशिंगटन स्‍वीकृति‍ हेतु भेजा,यह भी कहा कि‍ सारी प्रक्रि‍या में मात्र 20 मि‍नट लगेंगे। ज्‍योंही प्रक्रि‍या खत्‍म हुई कैप्‍टन ने आकर कहा कि‍ आप बैठे रहें। इसके बावजूद मेरे पास बैठे यात्रि‍यों ने मेरे पास बैठने पर आपत्‍ति‍ प्रकट की और यह मुझे बेहद अपमानजनक लगा।
सुजात साहब ने कैप्‍टन को बुलाकर कहा तब भी वो लोग नहीं माने तो कैप्‍टन ने उन लोगों को उतरकर दूसरी हवाईसेवा लेने के लि‍ए कहा। साथ ही कहा कि‍ सुजात साहब को कि‍सी भी तरह वे नहीं उतारेंगे। सुजात साहब ने कहा अमेरि‍का में कि‍सी भी व्‍यक्‍ि‍त को वि‍शि‍ष्‍ट दर्जा नहीं दि‍या जाता,सबको समान भाव से देखा जाता है। इसके बावजूद सुजात साहब ने माना है कि‍ उन्‍हें मुसलमान होने के कारण काफी मर्तबा परेशान होना पड़ा है। इसी क्रम में उन्‍होंने यह भी कहा कि‍ उनके बेटे को चेन्‍नई में पांच लोगों ने घर देने से इसलि‍ए मना कि‍या क्‍योंकि‍ वह मुसलमान था अंत में एक हि‍न्‍दू महि‍ला ने उसे कि‍राए पर घर दि‍या और जब यह लड़का बीमार पड़ा तो उसकी देखभाल,सेवा बगैरह भी की।
सुजात साहब का मानना है कि‍ असहि‍ष्‍णुओं की दुनि‍या में मुसलमान का जीना बेहद कठि‍न है। यह वैसे ही है जैसे कि‍सी दलि‍त को ब्राह्मणों के इलाके में भारत में आज भी घर नहीं मि‍लता। भारत में भी ऐसे लोग हैं जो मुसलमानों को आए दि‍न देश छोड़ने की धमकी देते रहते हैं। सुजात साहब ने कहा है यह सच है कि‍ इस्‍लाम धर्म में कुछ लोग हैं जो अपने को आतंकवादी कहते हैं ,आतंक के जरि‍ए ही सब कुछ तय करना चाहते हैं ।
किंतु मुसलमानों को इनके आधार पर नहीं देखा जाना चाहि‍ए। सुजात साहब ने बहुत सुंदर ढ़ंग से कहा है कि‍ जि‍न पांच 'अशि‍क्षि‍त मूर्खों ' ने मेरे बेटे को चेन्‍नई में घर देने से मना कि‍या उसके आधार पर हि‍न्‍दुओं को नहीं देखा जाना चाहि‍ए।
अंत में,शाहरूख खान के मसले पर यही कहना है कि‍ अमेरि‍की अधि‍कारि‍यों ने आज जो बयान दि‍या है यदि‍ उसमें दि‍ए गए तथ्‍य सही हैं और शाहरूख उनका खंडन नहीं करते तो यही माना जाएगा कि‍ शाहरूख के साथ कोई बदसलूकी नहीं हुई थी। कम से कम दो बातों के बारे में शाहरूख को अपना नजरि‍या बताना होगा,पहला जहां जांच के लि‍ए ले जाया गया था वहां पहले से ही भीड़ थी या और भी लोग लाइन में खड़े थे ? दूसरा ,क्‍या उनका सामान कि‍सी दूसरे हवाई जहाज से आया था ? यदि‍ इस संबंध में उनके वि‍चार अमरीकी अधि‍कारि‍यों से मेल खाते हैं तो उन्‍हें यह सोचना चाहि‍ए कि‍ उन्‍हें बयान देने की मूर्खता नहीं करनी चाहि‍ए थी,सदि‍ शाहरूख ने अपनी असहमति‍ व्‍यक्‍त की तो मामला कुछ और ही शक्‍ल लेगा, लेकि‍न जि‍स तरह के व्‍यवसायि‍क दांव लगे हैं उसे देखते हुए कोई भी फि‍ल्‍म अभि‍नेता अमेरि‍का के खि‍लाफ बोलने का साहस नहीं दि‍खाएगा। इस सबके बावजूद यह सच है कि‍ अमेरि‍का मेंअश्‍वेतों, मुसलमानों और तीसरी दुनि‍या के देशों के नागरि‍कों के प्रति‍ समान व्‍यवहार नहीं कि‍या जाता ,इस बात को अनेक सरकारी जांच दस्‍तावेजों में स्‍वीकार कि‍या गया है।

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