(महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर)
19वीं सदी के बंगाल के किसी महापुरुष की जिंदगी में झांके और उसके कुल–गोत्र का जिक्र न हो, यह कैसे संभव है? इसकी वजह यह नहीं कि किसी भी हिंदू धर्मावलंबी महापुरुष का जीवन चरित उसके कुलगोत्र की गहराइयों में जाए बिना नहीं समझा जा सकता है। यहां हमारा जोर 19वीं सदी, अर्थात भारत में अंग्रेजी राज के स्थिर होने की सदी, पर है ।
वर्ण व्यवस्था तो हिंदुओं में हजारों सालों से चली आ रही है। जाति विभाजन की निरंतर प्रक्रिया से उसके अंदर की गतिशीलता को भी इधर के इतिहासकारों ने पहचाना हैं। लेकिन दिलचस्प है इस प्राचीन व्यवस्था में अंग्रेजी शासन के योग का फल। प्राचीन पश्चिमी समाज में भले ही वर्ण व्यवस्था की तरह की कोई चिरंतर व्यवस्था न रही हो, लेकिन 19वीं सदी के आधुनिक काल में पश्चिम का शासक वर्ग एक खास प्रकार के जातिवाद (नस्लवाद) के सिद्धांत पर प्रयोग कर रहा था। विभिन्न समुदाय के लोगों की चमड़ी और आंख की पुतली के रंग, उनके ललाट और मस्तक के माप आदि के कथित वैज्ञानिक तौर तरीकों से इस सिद्धांत का ईजाद किया था और उसी के जरिये समाज तथा शासन के क्रम–विन्यास में विधि ने किसके लिये कौन सी जगह तय की है, इसे अनंत काल के लिये स्थिर कर देने का उन्होंने बीड़ा उठाया था। वे नस्ल (जाति)( Race) को इतिहास की कुंजी मानते थे।
कहना न होगा कि इस देश में ब्रिटिश शासन के पैर जमाने के साथ ही अंग्रेजों की इसी ‘वैज्ञानिक’ खुराफात के प्रयोग ने इस समाज पर कम रंग नहीं दिखाया। भारत में 1901 की जनगणना का आयुक्त राबर्ट रिस्ले कहता है, जाति भावना ... इस सचाई पर आधारित है कि उसे वैज्ञानिक विधि से परखा जा सकता है; कि उससे किसी भी जाति को संचालित करने वाले सिद्धांत की आपूर्ति होती है; कि यह शासन के सर्वाधिक आधुनिक विकास को आकार देने के लिये गल्प अथवा परंपरा के रूप में कायम रहती है; और अंत में उसका प्रभाव उसके द्वारा समर्थित खास स्थिति को तुलनात्मक शुद्धता के साथ संरक्षित रखता है।
(...race sentiment...rests upon a foundation of facts that can be verified by scientific methods; that it supplied the motive principle of caste; that it continues, in the form of fiction or tradition, to shape the most modern developments of the system; and, finally, that its influence has tended to preserve in comparative purity the types which it favours. )
जाहिर है कि अंग्रेजों ने भारत की वर्ण व्यवस्था को यहां नस्ली शुद्धता को चिरंतर बनाये रखने के पहले से बने–बनाये एक मुकम्मल ढांचे के रूप में देखा और यहां अपनी शासन व्यवस्था के विकास लिये इसका भरपूर प्रयोग करने का निर्णय लिया। उनकी इसी दृष्टि ने भारत में 1871 का जरायमपेशा जातियों का कानून बना कर कुछ तबको को हमेशा के लिये दागी घोषित कर दिया। और यही वह नजरिया था जिसके चलते 1891 की पहली मदुर्म शुमारी में सिर्फ जातियों की गणना नहीं बल्कि उनकी परिभाषा और व्याख्या को भी शामिल किया गया। कहना न होगा कि जातियों की इन उद्देश्यपूर्ण पहचान की कोशिशों ने भारतीय समाज में ऐसा गुल खिलाया कि यहां के विभिन्न समुदायों में जनगणना के खातों में अपनी जाति को अपने खास ढंग से परिभाषित–व्याख्यायित कराने की होड़ सी लग गयी। समझदारों को यह जानते देर नहीं लगी कि इसीसे यह तय होना है कि आने वाले दिनों में अंग्रेजी शासन की पूरी व्यवस्था में कौन सा समुदाय किस पायदान पर खड़ा होगा; शासन की रेवडि़यों के बंटवारे में किसके कितना हाथ लगेगा। और इसप्रकार, भारतीय वर्ण–व्यवस्था इस नये पश्चिमी नस्लवादी सिद्धांत से जुड़ कर एक अलग प्रकार की जाति चेतना के उद्भव का कारण बनी।
आज हम जिस जातिवाद से अपने को जकड़ा हुआ पाते हैं, उसके बहुत कुछ को भारत में अंग्रेजी शासन की देन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। 19वीं सदी के पहले के इतिहास में जो ब्राण विरले ही कहीं बलशाली, वैभवशाली दिखाई देते हैं; सदा राज–कृपा के मुखापेक्षी और उसीके बल पर यदा–कदा भौतिक दुनिया में भी किंचित महत्व पाते रहे हैं, वे अंग्रेजों की ‘जाति–गणना’ में दखल देकर आदमी के आत्मिक जगत के पूर्ण अधिकारी बन गये। और, इसप्रकार नई शासन व्यवस्था से उनका अपना एक खास रिश्ता बना, वे भी अंग्रेजों के ‘कानून के शासन’ के एक प्रमुख स्तंभ बन गये। अंग्रेजों के संपर्क से बने बंगाल के नवजागरण के तमाम मनीषियों के जीवन में गहराई से उतरिये, ऐसी बहुतसी बातें साफ दिखाई देने लगेगी।
इसके अलावा रवीन्द्रनाथ के पूर्वजों का इतिहास जानने की एक और दूसरी महत्वपूर्ण वजह है। इस अध्ययन के जरिये रवीन्द्रनाथ के संपूर्ण व्यक्तित्व की पड़ताल के आधार पर उन पर कोई निश्चित राय बनाने के पहले ही एक बात आसानी से कही जा सकती है कि रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते है: ‘मति अकुंठ हरि भगति अखंडी’। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है।
रवीन्द्रनाथ के इसी व्यक्तित्व के संधान के क्रम में आइये सबसे पहले हम क्यों न रवींद्रनाथ के गोत्र–कुल और उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पर नजर डाले। संभव है इससे उस विशाल, वैभवशाली जीवन की तहों में प्रवेश के भी कुछ जरूरी सूत्र मिल जाए।
रवीन्द्रनाथ के कुल–गोत्र की तलाश में हम उन आख्यानों अथवा किंवदंतियों के विस्तार में नहीं जायेंगे जो बंग क्षेत्र में ब्राह्मणों के आगमन के बारे में कही जाती है। इस पूरे संदर्भ में यहां रवीन्द्रनाथ के जीवनीकार प्रभात कुमार मुखोपाध्याय द्वारा प्रणीत चार खंडों में प्रकाशित रवीन्द्र जीवनी के संबंधित अंश में कही गयी बातों का उल्लेख करना ही काफी होगा। उनके अनुसार 11वीं सदी में किसी समय आदिशूर के राज्य में कान्यकुब्ज से शांडिल्य गोत्र के क्षितिश, वत्स्य गोत्र के सुधानिधि, सवर्ण गोत्र के सौभरि, भारद्वाज गोत्र के मेधातिथि और कश्यप गोत्र के बीतराग नामक पंचब्राह्मण महायान बौद्धधर्म के विचित्र विचारों में डूबे बंगदेश में ब्राह्मण धर्म को स्थापित करने के लिये आये थे। ये बंगदेश सिर्फ आये भर थे, लेकिन यहां किसी प्रकार के यज्ञ अथवा दूसरे काम–काज नहीं किये थे। कहते हैं कि इन्हीं के पंचपुत्र भनारायण वेदाध्ययी के बेटे श्री हर्ष और दक्ष से बंगदेश में ब्राण कुल का उद्भव हुआ।
दक्ष की चौदह संतानों में से एक, धीर को आदिशूर के बेटे भूशूर से बंगाल में निवास के लिये गुड़ नामक एक गांव मिला था। आज यह गांव पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले में है। गुड़ गांव के निवासी होने के नाते वे ‘धीरगुड़ी’ अथवा ‘धीरगुड़’ के नाम से जाने जाने लगे। इन्हीं की सातवीं पीढ़ी के रघुपति आचार्य ने वयस्क होने के उपरांत संन्यास ले लिया और ‘दंडी’ बन गये; कहते हैं कि उन्हें काशीवास के काल में दंडी समाज ने कनकदंड भेंट किया था। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ‘कनकदांड़’ गांव में जाकर बस जाने के कारण परवर्ती दिनों में रघुपति के वंशजों को ‘कनकदंडी गुड़’ कहा जाने लगा। इसी ‘कनकदंडी गुड़’ की एक शाखा का यवनों (मुसलमानों) से संपर्क होने के कारण उन्हें पीराली दोष से दूषित माना गया और इसप्रकार वे ब्राह्मण समाज में पतित समझे जाने लगे।
रघुपति आचार्य की चौथी पीढ़ी के जयकृष्ण ब्रचारी को ही शायद राय की उपाधि मिली थी। जयकृष्ण के दो बेटे थे – नागर और दक्षिणानाथ। दक्षिणानाथ के चार बेटे थे – कामदेव, जयदेव, रतिदेव और शुकदेव। इन्हीं कामदेव भाइयों का मुसलमानों से संपर्क हुआ और वे पीराली होगये। इस समय तक बंगाल में तुर्कों का शासन होगया था और दक्षिणानाथ को राजदरबार से ‘रायचौधुरी’ की उपाधि मिली थी। कामदेव बंधु आज के बांग्ला देश के जसहोर जिले के चेंगुटिया परगना के जमींदार थे। जाहिर है कि नाना कारणों से हिंदुओं के विभिन्न समुदाय विजेता शासकों के संपर्क में आये। और यवनों के साथ इस प्रकार से संपर्क में आये अनेक परिवारों को तब हिंदू समाज से अलग कर दिया गया था। सेरखानी, पिराली, श्रीमंथानी, आदि समुदायों का उद्भव इसी प्रकार हुआ।
क्रमशः
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें