(जेएनयू की जातिवादी संरचनाओं के विरोधी छात्र नेता बाएं से देवीप्रसाद त्रिपाठी,चन्द्रशेखर टिवरीवाल,रमेश दीक्षित)
हम लोग जब पढ़ते थे तब भी जेएनयू में जातिवाद था लेकिन सुसंस्कृतभाव से जातिवादी ऑपरेशन चलता था,छात्रों में जातिवाद नहीं था। प्रशासन में जातिवाद था। प्रशासन में जो लोग बैठे थे उनकी दिलचस्पी अभिजन समुदाय को तैयार करने में थी। जेएनयू में 1979-1986 के बीच पढ़ने का मौका मिला । इस दौर में जमकर छात्र राजनीति भी की।
इस दौर में सामान्य से तथ्य से प्रशासन में व्याप्त जातिवादी मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है कि उस समय सारे जेएनयू में 3-4 एससीएसटी शिक्षक थे। जबकि एससीएसटी के लिए आरक्षित पद थे 27 प्रतिशत। संवैधानिक तौर पर ये पद निर्धारित तक नहीं किए गए थे।
उदाहरण के लिए हिंदी-उर्दू विभाग को ही लें वहां एक भी रिजर्व केटेगरी के तहत शिक्षक नहीं था। समूचे लैंग्वेज स्कूल में किसी भी विभाग में एक भी शिक्षक रिजर्व केटेगरी से नहीं था। बाकी स्कूलों की भी यही दशा थी। मुश्किल से 3-7 प्रतिशत रिजर्व सीटें छात्रों की भर पाती थीं। बड़ी ही चालाकी से हमारे ‘प्रगतिशील’ प्रशासकों ने जेएनयू में जातिवाद के खेल को चलाया हुआ था। उस समय छात्रसंघ की प्रमुख मांग थी शिक्षकों और छात्रों में एससीएसटी कोटे की सीटें हर हालत में भरी जाएं।
विचारणीय समस्या यह है कि प्रशासनिक संरचनाएं अभिजनमुखी होंगी तो क्या जातिवादी मनोदशा के पनपने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं ? कृपया बताएं अभिजनोन्मुख संरचनाओं से मुक्ति का रास्ता या विकल्प क्या ?
हमारी पहली टिप्पणी पर फेसबुक पर कुछ पुराने जेएनयू के दोस्तों ने लिखा है। कुछ टिप्पणियां और आयी हैं ,देखें-
चन्द्रप्रकाश झा- aapke sawalon ke jawab dene ke main kabil nahin - lekin yeh bahas honi hi chahiye ki hum madhyayugin yug mein kyon laut rahe hain - Rajendra Sharma ( LokLahar ) ke putra Kabir ( Mattu ) ki ek baat mujhe yaad aati hai - jab KABIR jati mein yakin nahin karte the toh mere naam ke saath SHARMA surname jod kar KABIR ka naam kyon bigad diya gaya
जगदीश्वर- सवाल नाम का नहीं रवैय्ये का है। आप अपनी तरफ से संक्षेप में ही सही कह गए।
चन्द्रप्रकाश झा- aapko sahi laga - dhanyawad , ek baat aur SAMPRADAYIKTA se ladna jaatiwad se ladne ke mukable shayad jyada aasan hai - shahar mein curfew ke lekhak - Vibhuti Narain Rai ko dekh lijiye Vardha mein Namwar Singh ki sangat mein
"As far I understand, it is an iminent effect of the post Mandal era. The whole north India have been effected during the last two decades and JNU is cannot be an isolation. Politics of North Indian always effected JNU. Remember, during the anti Mandal movement in Delhi, JNU was also effected (during Amit Sengupta's Presidency). The left forces were sidelined. I remember the evening when Atul Aneja and othes were attacked at Purvanchal.
There has been a polarisation in JNU on caste line since than. Winning elections by SFI-AISF in between does not mean anything different. Another important factor, according to me is the caste politics played by our so called Ultra left. "
Kandarpa Das :
"I think it is the effect of the post Mandal North-Indian politics. Though JNU is supposed to be an all India University, North Indian politics always effected JNU student politics.(SYS during 1970s, NSUI during 1980s, ABVP during 1990s and AISA now) Remember the days of Anti Mandal movements in Delhi. JNU was also effected . When Amit Sengupta was theJNUSU president, a whole gang of anti-Mandal castiest created big problem in JNU campus. I still remember the evening in 1990, when Atul Aneja and others were attacked by these forces in Purvanchal.
During the last two decades castiest forces did consolidate their position. Many students Union elections were also fought in these lines. SFI-AISF alliance winning elections doesnot say anything. Moreover, many of our friends in the ultra left in JNU also play lower caste politics. All these have contributed to this. According to me only khate-pite parivar ke bande hi jati me ulazhte hei. ...........One thing I must add, since there is no castiesm in North-east like the north India,NE students in JNU are free from this. "
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