(स्व.शमशेरबहादुर सिंह)
जन्म शताब्दी के मौके पर शमशेर बहादुर सिंह का स्मरण आदमी की अंतहीन दबी हुई इच्छाओं के एक पावन खजाने के स्मरण जैसा है। ‘चुका भी हूं मैं नहीं, कहां किया मैंने प्रेम अभी’ की अतृप्ति का रचनाकार, ‘आज निरीह कल फतहयाब निश्चित’ के आत्म–विश्वास से परिपूर्ण मानवता के भविष्य पर अटूट आस्था वाला सच्चा साम्यवादी, ‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ कहने वाला यथार्थवादी, और सर्वोपरि जन–जन का हितैषी, एक निश्छल और सहज इंसान – शमशेर की कविताएं इसका यथेष्ट साक्ष्य है।
शमशेर अपनी सादगी के कारण ही प्रपंचों भरी इस दुनिया में सारी जिंदगी अनेक लोगों के लिये एक अबूझ पहेली बने रहे। उनमें घोषित मार्क्सवादी तक शामिल रहे हैं, उत्कट आत्मवादी और ‘सुरुचि–संधानी’ आभिजात्यों की तो बात ही क्या!
प्रकृति और मानव के अंतहीन रहस्यों तथा अनगिनत रंगों को विस्मय की फंटी आंखों से देखने की शमशेर की मानव–सुलभ जिज्ञासाओं ने बहुत सारे लोगों को भरमाया है, उन पर ‘रहस्य–साधना’ (डा. रामविलास शर्मा की शब्दावली) के प्रेतों की छाया से आशंकित किया है, जन–मन के कवि को ‘कवियों का कवि’ घोषित करने के लिये उत्साहित किया है।
दरअसल खंडित मनुष्यता के आज के समय में शमशेर की तरह का एक पूर्ण इंसान, जिसके लिये मार्क्स के शब्दों में, मानवोचित किसी भी वस्तु से कोई परहेज नहीं था, स्वयं में किसी महा–रहस्य का रूप न ले, तो यही आश्चर्य की बात होती। न अपने जीवन में और न अपनी कविता में ही उन्होंने इस पूर्णता की, स्वप्न और यथार्थ की द्वंद्वात्मक एकता की अवहेलना की, इसीलिये जितना उन्होंने अपने से बाहर के यथार्थ को व्यक्त किया, मन के भीतर की अथाह गहराइयों, वस्तु के अति–यथार्थवादी बिंबों को भी उन्होंने सदा उतना ही महत्व प्रदान किया।
प्रेम के दुर्लभ क्षणों की अतिवायवीय और अति मांसल अनभूतियों से लेकर जनजीवन की कठिनतम चुनौतियों और क्रांति की गहरी समस्याओं तक उनके व्यक्तित्व, उनकी कविता और उनकी चिंताओं का सहज विस्तार था और यही सहजता तथा उनके व्यक्तित्व की दुर्लभ निश्छलता ही उनकी रचनाओं के सौंदर्य का राज थी, दबी हुई इच्छाओं और अतृप्ति की पावनता का स्रोत थी।
जो कभी बुरा नहीं सोच सकता, जो अपने अवचेतन की अंतिम तहों तक में शिव और सुंदर की ही कामना करता है और जो सुप्त नहीं, पूरी तरह जागृत मानव है, उसकी रचना कभी बुरी नहीं हो सकती – शमशेर एक ऐसे ही कवि थे।
शमशेर की कविताएं यथार्थ और स्वप्नों के अनेक रंगों वाले निकटस्थ और दूरस्थ परस्पर विलीन होते बिंबों का, मौन और मुखर भावों का एक ऐसा निजी संसार है, रिक्तताओं की ऐसी आकर्षक घाटियां हैं जो पाठक को किसी सम्मोहक इन्द्रजाल की भांति अपनी ओर खींचती तथा गहरे उतारती जाती है। कोरा प्रलाप और अनाप–शनाप की गहरी खाइयों में महीन चेतना की जो रोशनी शमशेर की कविताओं में दिखाई देती है, उसमें कवि नहीं, उसका पाठक भी स्नात हो अनूठी अनुभूतियों की खुमारी में खो जाता है। जैसे पाठ की रिक्तताओं से बोलते अर्थ पात्र की सामर्थ्य के अनुरूप खुलते खुलते ही खुलते हैं – शमशेर का विलयनशील, मौन बिंबों का महीन और चेतन काव्य भी पाठक से उसकी पात्रता का प्रमाण–पत्र जरूर मांगता है।
देहरादून के एक संपन्न और शिक्षित जाट परिवार में जन्मे शमशेर का जीवन शुरू से नाना कारणों से बड़े उद्देश्यों का एकाकी जीवन रहा। 9 वर्ष की उम्र में ही मां चल बसना, पढ़ाई के समय होस्टल का जीवन, 24 वर्ष की उम्र में सिर्फ 6 वर्ष साथ निभा कर पत्नी का गुजर जाना और उसके चार वर्ष बाद ही पिता का न रहना। साथ रह गया किताबों का, पत्रिकाओं और कविताओं का। युवा वय में ही ‘माडर्न रिव्यू’,‘रूपाभ’, ‘सरस्वती’, ‘हंस’, ‘नया साहित्य’ तथा रवीन्द्रनाथ, सरोजिनी नायडू, एजरा पाउंड और निराला की कविताओं के रोमांच को वे उम्र की अंतिम घड़ी तक भुला नहीं पाये थे। इसके अलावा पार्टी, उसका कम्यून, साहित्यकारों की संगत, मजलिसें और मार्क्सवाद।
उर्दू के शहरी और महीन मिजाज को संस्कारों और साधना, दोनों से ही उन्होंने काफी हद तक जज्ब कर लिया था। उर्दू को वे गंगा–जमुना के दोआब वाले उस क्षेत्र की खड़ी बोली का सबसे स्वाभाविक विकास मानते थे और उधर के जन–मानस की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम। उनका कहना था, उर्दू हमारे भावों को जन के साथ अधिक निकटता से प्रकट करती है। (कवियों का कवि शमशेर, रंजना अरगड़े, पृ.210)।
यही वजह है कि अपने क्षेत्र के परिवेश को, वहां की जन–संस्कृति को, जनता का कवि बनने की अपनी आस को पूरा करने के लिये ही सारी उम्र वे उर्दू को साधते रहे, लेकिन कवि बने हिंदी के ही। मैं उर्दू और हिंदी का दोआब हूं – उनकी कई आंतरिक इच्छाओं की तरह की एक इच्छा ही रह गयी, सचाई यह है कि उर्दू में तो वे कविता का ककहरा पढ़ते रहे, हिंदी में सचमुच नयी जमीन तोड़ डाली।
शमशेर ने दिल्ली जाकर पेंटिंग की बाकायदा शिक्षा ली थी। उनके चित्रांकन में सफाई थी, रेखाओं में गति और अर्थ भी थे – लेकिन वे चित्रकार नहीं बने। हालांकि, पेंटिंग के प्रशिक्षण ने रंगों के उनके बोध को इतना जागृत कर दिया कि बाद में उनका कोई भी काव्य बिंब रंगविहीन नहीं रहा – हमेशा उनके पसंदीदा रंगों की छाया बिंबों के अनुरूप विलयित रंगों में उनके समूचे सृजन का अभिन्न अंग बनी रही।
बनारस में त्रिलोचन का साथ, इलाहाबाद में इप्टा के लोगों से संपर्क, गालिब, निराला, फैज के अलावा फ्रांस के सुरियलिज्म के आंदोलन, ब्रेतां और उसकी लोक घोषणा, अमेरिकी कवियत्री मैरियम मूर और एडिथ सिट्वेल आदि के प्रभावों से बन रहे।
शमशेर सन् 45 में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनें और मुंबई के पार्टी कम्यून के निवासी। उन्हीं दिनों की कविता है– ‘‘वाम वाम वाम दिशा/समय साम्यवादी/हीन भाव, हीन भाव/मध्यवर्ग का समाज, दीन/किंतु उधर/पथ प्रदर्शिका मशाल/कमकर की मुट्ठी में– किंतु उधर– आगे–आगे जलती चलती है/लाल लाल.../वाम–पक्षवादी है.../समय साम्यवादी।"
12 जुलाई 1944 के दिन रोटियां टंगे लाल झंडों को लिये ग्वालियर के मजदूरों पर रियासती सरकार ने गोलियां चलाई, इधर शमशेर की कविता आई, – "ये शाम है।"
"ये शाम है कि/आसमान खेत है पके हुए अनाज का/लपक उठी लहू भरी दर्रातियां– कि आग है:/धुंआ–धुंआ/ सुलग रहा/ग्वालियर के मजदूर का हृदय।.../गरीब के हृदय/टंगे हुए/ कि रोटियां लिये हुए निशान/लाल–लाल/जा रहे /कि चल रहा/लहू भरे ग्वालियर के बाजार में जुलूस/जल रहा/धुआं–धुआं/ग्वालियर के मजदूर का हृदय।"
"बात बोलेगी" इसी दौर की कविता है। कम्युनिस्टों के अभिवादन पर उनके एक मुक्तक की पंक्तियां हैं:
‘‘यह सलामी दोस्तों को है, मगर मुट्ठियां तनती है दुश्मन के लिए।"
शमशेर सन् 1948 तक ‘‘माया‘‘ के सम्पादक रहे। 1951 के ‘दूसरे सप्तक‘ में प्रयोगवादी समझे जाने वाले कवियों भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंत माथुर, हरिनारायण व्यास, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती के साथ ही शमशेर की बीस रचनाएं प्रकाशित हुई थी। इन रचनाओं के साथ दिये गये अपने वक्तव्य में शमशेर ने लिखा – "उसको (यानी कि अपने चारों तरफ की जिंदगी को) ठीक–ठाक यानी वैज्ञानिक आधार पर (मेरे नजदीक वह वैज्ञानिक आधार मार्क्सवाद है) समझना और अनुभूति और अपने अनुभव को इसी समझ और जानकारी से सुलझा कर, स्पष्ट करके, पुष्ट करके अपनी कला–भावना को जगाना। यह आधार इस युग के हर सच्चे और ईमानदार कलाकार के लिये जरूरी है।"
शमशेर ने अपने समकालीनों को जैसे देखा, उसमें खुद उनको भी देखा जा सकता है। मुक्तिबोध उनके लिये निराला के बाद सबसे मीनिंगफुल पोइट थे। उनकी बीमारी के दिनों में वे उनकी सेवा कर रहे थे और हर दिन लौट कर एक शेर लिखा करते थे। एक ही मीटर में लिखे गये उन शेरों से अंत में जो पूरी गजल बनी, उस गजल का अंतिम शेर है–
"वो सरमस्तों की महफिल में मुक्तिबोध आया/ सियासत जाहिदों की खन्दए–दीवाना हो जाए।"
(स्व.बाबा नागार्जुन)
नागार्जुन ठेठ जनता की ठाठ के अनमोल खजाने जैसे थे। "बाबा हमारे, अली बाबा/नागार्जुन बाबा.../बहादुर कविता के जीते–जागते/कभी न हार मानने वाली जनता के/बहादुर तराने/और जिंदा फसाने.../ऐसे खजाने कविता की/झोली में बरसाते/हमारे बाबा अली बाबा/नार्गाजुन बाबा।"
शमशेर की कविताओं में प्रकाशचंद गुप्त, सज्जाद जहीर, आर.डी.भारद्वाज, रजिया सज्जाद जहीर, भुवनेश्वर, प्रभाकर माचवे से लेकर मोहन राकेश, रघुवीर सहाय और अज्ञेय भी आए हैं। अज्ञेय उनके लिये एक महत्वपूर्ण हस्ती थे।
(स्व.कवि अज्ञेय)
उनके पहले संकलन, जगत शंखधर द्वारा संकलित ‘‘चुनी हुई कविताएं‘‘ की अंतिम कविता है– 'अज्ञेय से'। सम्पर्क में आये अन्यों के प्रति एक आंतरिक स्वीकार का जो भाव शमशेर में अक्सर देखने को मिलता है, अज्ञेय के मामले में वे थोड़ा ठहर कर उनके आभिजात्य की वेदनाओं को सहला भर के रह जाते हैं। "जो नहीं है/जैसे कि सुरुचि/उसका गम क्या?/वह नहीं है।/किससे लड़ना?/रुचि तो है शांति,/स्थिरता,/काल–क्षण में/एक सौंदर्य की/मौन अमरता।/अस्थिर क्यों होना/फिर?/जो है उसे ही क्यों न संजोना?/उसी के क्यों न होना?/जो कि है।"
इसका पहला कारण था राकेश की संस्कृत की पृष्ठभूमि और दूसरा सबसे बड़ा कारण था सिर्फ कलम के बूते, बिना किसी नौकरी के सहारे के एक सम्मानित जीवन जीने का उनका माद्दा। राकेश ने अन्यथा उन्हें बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं किया था। राकेश के बारे में उथला होने तक की उनकी गंभीर आपत्ति थी। रंजना को कहा था : राकेश में सोशल कांसियसनेश ज्यादा नहीं थी, ‘‘और अनलेस यू आर इंटरेस्टेड इन द डीपर प्रॉब्लम्स आफ सोसायटी यू आर नॉट कंप्लीट, आपका ड्रांइग रूम लिटरेचर हो जायेगा।‘‘
राकेश की मौत पर शमशेर ने कविता लिखी : ‘‘मोहन राकेश के साथ एक तटस्थ बातचीत‘‘।
ठहाके लगाने के लिये मशहूर राकेश इतनी जल्दी मौत की ओर क्यों चले गये, शमशेर कविता में इसी प्रश्न को मंथते हैं। कहते हैं, ‘‘मौत कोई सेंटीमेंट की चीज नहीं, कि राकेश उसमें बह गये। वह एक ठोस हस्ती है व्यक्ति के लिये, हर व्यक्ति के लिए। " और फिर गहरी शंका के साथ पूछ बैठते हैं, ‘‘तुम बहुत अधिक पी गये थे क्या/क्या अब भी जाम तुम्हारे हाथ में है।"
शमशेर आगे राकेश की खूबियों, आधुनिक नाटक को उनके अवदान की चर्चा कर्ते हैं। मृत्यु से, इस लोक से परे एक दूसरे रहस्य लोक से संवाद शमशेर का प्रिय विषय है। राकेश को भी वे इसका निमित्त बनाते हैं। एक–एक करके कितने ही अपनों को गंवा चुके शमशेर के लिये मृत्यु के बाद का लोक डरावना कत्तई नहीं है, लेकिन राकेश से उनकी यही शिकायत रही, ‘‘ओह माडर्न आर्टिस्ट/काश तुम इतने मार्डन न होते/ताकि जिंदा रहते/जिंदा रहते/अभी कुछ और दिन जिंदा रहते।"
मौत का अर्थ सीन से हट जाना भर है, यह शमशेर जानते थे। फिर भी यह बात राकेश पर लागू नहीं की जा सकती थी, इसलिये अफसोस करते है। गुमशुदगी तो शमशेर की चीज थी, राकेश भला क्यों उस ओर चला गया! शमशेर लिखते हैं :
"मैं/एक गुमशुदगी को प्यार/करता हूं/और तुम उसी की तरफ चले गये हो/कैसे कहूं कि मुझे तुमसे/ईर्ष्या नहीं"
इसके साथ ही शमशेर अपनी गुमशुदगी का राज खोलते हैं और उसी सिलसिले में कुछ ऐसी पंक्तियां कह जाते हैं, जिनसे शमशेर के व्यक्तित्व का मौन जैसे पूरी ऊर्जा के साथ मुखर हो उठता है। जैसे मुक्तिबोध अपनी ‘अंधेरे में‘ कविता की डरावनी दुनिया से जुझते हुए यही सब कुछ नहीं है, ‘‘मुझको जिंदगी–सरहद/सूर्यों के प्रांगण पर भी जाती सी दीखती।" कह कर अद्भुत दृप्त स्वरों में बोल उठते हैं:
‘‘कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं
वर्तमान समाज चल नहीं सकता।
पूंजी से जुड़ा हुआ ह्यदय बदल नहीं सकता"
बिल्कुल वैसे ही लहजे में अपनी गुमशुदगी के मृत्यु पार के उस लोक के बारे में शमशेर कहते हैं कि वह ऐसा लोक है :
‘‘जहां यह गंदगी /आज की सियासत की/आज की गंदी कला की/आज के झूठ की/आज के फरेब, आज के पैसे की/आज के वीभत्स शासक और शोषक की/नहीं है।"
वही शमशेर का अपना लोक है जिसमें वे गुमशुदा रहते थे। अपनी सारी अतृप्तियों के साथ भटकते थे। कइयों ने इस कविता से ही शमशेर में गहन मृत्युबोध के तत्व की खोज कर उन्हें अस्तित्ववाद के दोजख में रशीद कर देना चाता था। लेकिन मृत्यु की यह कितन सुंदर जीवन की उत्कट कामना है, इसे अतृप्ति के विवेक तत्व से ही समझा जा सकता है। शमशेर जानते थे–मृत्यु पार के ऐसे लोक में किसी माडर्निस्ट का मन नहीं बस सकता। इसीलिये विस्मित थे कि फिर राकेश वहां क्यों गये!
इसी सिलसिले में एक और जरूरी बात। रहस्य–संहार के उन्माद में आचार्य शुक्ल ने निर्गुणपंथी भक्ति साहित्य की पूरी लोक परंपरा की निंदा की, छायावाद को दुत्कारा और रवीन्द्रनाथ को भी अस्वीकारा। आचार्य से विरासत में मिले इसी फोबिया के चलते परवर्ती समय के प्रगतिशील दक्काकों ने शमशेर, मुक्तिबोध के सफाये की, उन्हें प्रगतिशील साहित्य की धारा से काटने की कम कोशिशें नहीं की। लेकिन इतिहास का न्याय यह है कि आज ‘साहित्यिक गुटबाजियों से दूर’ कविता में की गयी शमशेर की यह प्रार्थना ज्यादा सटीक जान पड़ती है जिसमें वे कहते हैं :
‘‘देवताओं मेरे साहित्य के युग–युग के सुनो/साधनाओं की परमशक्तियों इतना वर दो–(अपने भक्तों की चरण धूलि जो समझो मुझको)/एक क्षण भी मेरा व्यय ऐसों की संगत में न हो।/एक वरदान यही दो जो हो दया मुझ पर/स्वप्न में भी न पड़े ऐसों की छाया मुझ पर।"
शमशेर की शताब्दी के मौके पर उनके फिर से सम्यक मूल्यांकन का निवेदन करते हुए उनकी लिखी ‘‘एक प्रभात फेरी‘‘ के गीत के उद्धरण के साथ हम उन्हें श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं :
‘‘फिर वह एक हिल्लौर उठी– गाओ/ वह मजदूर किसानों के स्वर कठिन हठी/ कवि हे, उनमें अपना दय मिलाओ/ उनके मिट्टी के तन में है अधिक आग/ है अधिक ताप/उसमें, कवि हे/ अपने विरह मिलन के ताप जलाओ/ काट बुर्जुआ भावों की गुमठी को/ गाओ।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें