रविवार, 9 मई 2010

कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती पर विशेष- दीन-हीन मनुष्य का सम्मान पद है धर्म -2-

     हिंदी के लेखकों और आलोचकों की मुश्‍कि‍ल यह है कि‍ वे धर्म और साहि‍त्‍य को अलग -अलग खांचों में रखकर देखते हैं। वे धर्म,मनुष्‍य और साहि‍त्‍य के बीच के अन्‍तस्‍संबंध को अभी तक देख ही नहीं पाए हैं। आदि‍कवि‍ से लेकर भक्‍ति‍ आंदोलन के कवि‍यों तक यह अन्‍तस्‍संबंध साफ दि‍खाई देता है। यहां तक कि‍ भारतेन्‍दु के यहां भी इसकी छाप नजर आती है। उसके बाद पता नहीं कबसे यह संबंध टूट गया। धर्म,मनुष्‍य और साहि‍त्‍य को अलग कर दि‍या गया। हम साहि‍त्‍य से प्‍यार करने लगे और धर्म से नफरत।
      इस प्रक्रि‍या में पहले हाथ से धर्म गया अब साहि‍त्‍य भी जा रहा है। रह गयी हैं कुछ कि‍ताबें ,संपादक,अध्‍यापक,आलोचक और साहि‍त्‍य गायब है। साहि‍त्‍य का वि‍मर्श गायब है। धर्म हाथ से जाएगा तो कलाएं भी जाएंगी। हिंदी में कलावंतों और कलाबोध की क्‍या दशा है यह हम सब अच्‍छी तरह जानते हैं। हिंदीभाषी शहरों में कला के ट्यूटर तक नहीं मि‍लते। आस्‍वाद करने वाले तो दूर-दूर तक नजर नहीं आते और कला दीर्घाएं हजारों कि‍लोमीटर दूर जा चुकी हैं। साहि‍त्‍य की अवस्‍था इससे बेहतर नहीं है। इस समूची प्रक्रि‍या का दयानंद सरस्‍वती के सुधार आंदोलन और उपयोगि‍तावाद के साथ गहरा संबंध है।
         धर्म को हमने पहले त्‍यागा। धर्म को त्‍यागने का अर्थ है मनुष्‍यता को त्‍यागना। धर्म को त्‍यागकर कोई लेखक मनुष्‍यत्‍व के मर्म को नहीं पकड सकता। धर्म बैर की नहीं प्‍यार की चीज है, घृणा की नहीं मोहब्‍बत की चीज। धर्म की सतही और पोंगापंथी बातें धर्म का सही रूप नहीं हैं। प्रत्‍येक समझदार व्‍यक्‍ति‍ ने धर्म के दुरूपयोग, पाखंड, कर्मकांड आदि‍ का वि‍रोध कि‍या है। धर्म का अर्थ बाह्याचार नहीं है।धर्म अंदर की चीज है।धर्म हमारे अन्‍त:करण में होता है। धर्म हमारी प्राणवायु है।
साहि‍त्‍य हमारे हृदय से नि‍कलता है और मनुष्‍य के हृदय को ही सम्‍बोधि‍त करता है। लेखक हृदय के आदेश पर ही लि‍खता है। पार्टी,वि‍चारधारा,राष्‍ट्र आदि‍ के आदेश पर नहीं लि‍खता। धर्म का बाह्याडंबर अन्‍त:करण को सम्‍बोधि‍त नहीं करता फलत: अन्‍त:करण को बदलने की उसमें क्षमता नहीं है।
      धर्म स्‍वभावत: प्रगति‍शील है, मानवीय है। हमें सोचना चाहि‍ए धर्म से कटने के कारण कहीं समाज और सभ्‍यता से हमारा संबंध वि‍च्‍छेद तो नहीं हो गया ? सभ्‍यता वि‍मर्श धर्म में मि‍लता है,सृजन का वि‍मर्श भी धर्म की गोद में बैठकर ही आया है। जि‍तने भी क्‍लासि‍क हैं वे धर्मवि‍मुख होकर नहीं लि‍खे गए, हमारे पास जि‍तने भी बेहतरीन लेखक, महापुरूष, दार्शनि‍क आदि‍ हैं वे सभी धर्मप्राण थे।
उदयप्रकाश ने सही लि‍खा है ,‘धर्मके अंतर्विरोधों के बीच से ही उसकी सामाजिक जड़ता और उसके अमानवीकरण तथा सांस्थानीकरण के विरुद्ध विद्रोह फूटते रहे हैं। हमारे देश के अपने इतिहास में भी अंधविश्वासों और कर्मकांडों के विरुद्ध, ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद के विरुद्ध अथवा जड़ और प्रतिगामी सामाजिक रीति-रिवाजों, परंपराओं के विरुद्ध धर्म की किसी प्रशाखा ने ही सबसे सक्षम विद्रोह किया था।'
     मैं यहां सि‍र्फ अपने ज्‍योति‍षशास्‍त्र के तजुर्बे से बता सकता हूं कि‍ फलि‍त ज्‍योति‍ष के पाखंड के खि‍लाफ जि‍तना वि‍स्‍तार के साथ प्राचीन और मध्‍यकाल में सि‍द्धान्‍त ज्‍योति‍ष के वि‍द्वानों ने आम जनता को शिक्षि‍त कि‍या था उतना कि‍सी और ने नहीं कि‍या। स्‍वयं आर्यभट को वि‍ज्ञानसम्‍मत वि‍चार व्‍यक्‍त करने के कारण प्रसि‍द्ध राजज्‍योति‍षी वराहमि‍हि‍र ने कहीं नौकरी नहीं लेने दी।आर्यभट को दर दर की ठोकरें खानी पड़ीं लेकि‍न उन्‍होंने ज्‍योति‍ष संबंधी अपने वैज्ञानि‍क वि‍चारों को ति‍लांजलि‍ नहीं दी।
    उदयप्रकाश ने लि‍खा है '' यहां यह समझा पाना लगभग असंभव है भगत सिंह का लेख मैं नास्तिक क्यों हूंया राहुल जी का तुम्हारी क्षय होका उपयोग सांप्रदायिक राजनीति, समाज सुधार, कर्मकांड और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध तो हो सकता है, लेकिन सृजन और कला, साहित्य,संगीत, वास्तु और शिल्प आदि के क्षेत्रों में अगर उसे यथावत् किसी सौंदर्यशास्त्र के वैकल्पिक स्वरूप के बतौर लागू करने का प्रयत्न किया गया तो परिणाम घातक होंगे।''
     उदयप्रकाश की इस धारणा से पूरी तरह सहमत होना संभव नहीं है। इसका प्रधान कारण है कि‍ भगतसिंह और राहुल साकृत्‍यायन दोनों ही धर्म की सकारात्‍मक भूमि‍का देखने में असमर्थ रहे हैं। उनके यहां धर्म के प्रति‍ इकहरा नजरि‍या व्‍यक्‍त हुआ है, इससे साम्‍प्रदायि‍कता आदि‍ को परास्‍त करना संभव नहीं है।
इस प्रसंग में रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के 29 अगस्‍त 1921 को पढे गए नि‍बंध 'सत्‍य का आह्वान‘ का हवाला देना चाहूंगा। तमाम कि‍स्‍म के क्रांति‍कारी असहयोग आंदोलन की आलोचना कर रहे थे, और अलग से क्रांति‍ का बि‍गुल बजाए हुए थे,बंग भंग का राजनीति‍क वातावरण था।
       इस प्रसंग में टैगोर ने लि‍खा '' जब तक राष्‍ट्र तैयार नहीं है तब तक क्रान्‍ति‍ का प्रयत्‍न करना गलत मार्ग पर चलना है। यह मार्ग उचि‍त मार्ग की तुलना में छोटा है,लेकि‍न उस पर चलकर हम लक्ष्‍य तक नहीं पहुँचते ,रास्‍ते में दोनों पाँव कांटों से जख्‍मी हो जाते हैं।प्रत्‍येक वस्‍तु का पूरा दाम देना होता है -यदि‍ आधा ही दाम दि‍या गया तो रूपया भी जाता है और वस्‍तु भी नहीं मि‍लती। वे दु:साहसी युवक समझते थे कि‍ सारे देश के लि‍ए यदि‍ कुछ लोग आत्‍मोत्‍सर्ग करें तो क्रांति‍ सफल होगी।उनके लि‍ए यह सर्वनाशा था,देश के लि‍ए एक सस्‍ती बात।देश का उद्धार समस्‍त देश के अन्‍त:करण से होना चाहि‍ए,उसके एक अंश से नहीं।''
        एक अन्‍य चीज जि‍से ध्‍यान में रखना चाहि‍ए। टैगोर के ही शब्‍दों में '' मनुष्‍य मधुमक्‍खी की तरह नहीं है जो एक ही तरह का छत्‍ता बनाती है, न वह मकड़ी की तरह है जो एक ही 'पैटर्न' का जाल बुनती है।उसकी सबसे बड़ी शक्‍ति‍ है उसका अन्‍त:करण। मनुष्‍य का पूरा दायि‍त्‍व अन्‍त:करण के सामने है। अभ्‍यासपरता के सामने नहीं।''            
     धर्म डरने, दुत्‍कारने अथवा बहि‍ष्‍कार करने की चीज नहीं है। हजारों वर्षों से धर्म का दुरूपयोग,बहि‍ष्‍कार,दुत्‍कार आदि‍ सब कुछ चल रहा है, इसके बावजूद धर्म का प्रवाह अव्‍याहत बना हुआ है। इसका अर्थ है कि‍ कहीं कोई ऐसी शक्‍ति‍ जरूर होगी जो धर्म को आगे ले जा रही है। इस पहलू का रवीन्‍द्रनाथ ने बड़ा ही सुंदर वि‍वेचन कि‍या है।
लि‍खा है, '' मनुष्‍य की शक्‍ति‍ के दो पक्ष हैं : एक पक्ष का नाम है 'कर सकता है' और दूसरे पक्ष का नाम है 'करेगा'। पहला पक्ष उसके लि‍ए सहज है,लेकि‍न उसकी तपस्‍या दूसरे पक्ष की ओर है। धर्म मनुष्‍य के 'करेगा' पक्ष के सर्वोच्‍च शि‍खर पर खड़ा होकर उसके समस्‍त 'कर सकता है' को पुकारता है ; उसे वि‍श्राम नहीं करने देता ; उसे कि‍सी सामान्‍य लाभ से ही सन्‍तुष्‍ट नहीं होने देता। जहॉं मनुष्‍य का 'कर सकता है' इसी 'करेगा' के नि‍र्देशन में आगे बढ़ता जाता है वहीं मनुष्‍यता की वीरता है-वहीं उसका सत्‍य -रूप से आत्‍मलाभ है।''
     धर्म की मूल क्षमता यह है कि‍ वह मनुष्‍य को असाध्‍य कार्य करने में सक्षम बनाता है। मनुष्‍य की अक्षमता,मूर्खता,दुष्‍टता,शैतानि‍यों आदि‍ को अस्‍वीकार करता है और सि‍र्फ मनुष्‍यता पर बल देता है। धर्म बंदी नहीं बनाता,धर्म वि‍चारों की गुलामी भी नहीं थोपता। धर्म कहीं से भी अंधवि‍श्‍वास,पुनर्जन्‍म आदि‍ की हि‍मायत नहीं हैं। अंधवि‍श्‍वास, पुनर्जन्‍म आदि‍ की बातें उन लोगों ने की हैं जो धर्म को अन्‍त:करण से काटकर बाह्याचारों के रूप में देखते हैं।
एक मायने में धर्म और कला सृजन एक ही लक्ष्‍य की पूर्त्‍ति करते हैं । दोनों मनुष्‍यत्‍व का संदेश देते हैं। दोनों हृदय के साथ संवाद करते हैं,अन्‍त:करण की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ करते हैं। दोनों से पुण्‍य मि‍लता है। हृदय को शांति‍ मि‍लती है। तनाव दूर होता है। दोनों सर्जनात्‍मक हैं, ऊर्जा से भरे हैं। दोनों मनुष्‍य को और भी बेहतर मनुष्‍य बनाते हैं। दोनों के बि‍ना मनुष्‍य अधूरा है। इनमें से कि‍सी भी एक त्‍यागा नहीं जा सकता।
       धर्म का स्‍तर उठाने के लि‍ए हमें वहां से आगे सोचना चाहि‍ए जहां पर हमारे पूर्वज धर्म के वि‍मर्श को छोड़ गए थे। हमने इस वि‍मर्श को आगे नहीं बढाया है बल्‍कि‍ और भी पीछे की ओर ,सतही चीजों की ओर ले गए हैं। इससे हमारा धर्मबोध वि‍कृत हुआ है। धर्म और कलाओं के प्रति‍ हमें पुराने नुस्‍खे को अपनाना होगा,पुराना नुस्‍खा था '' अभी और'',हम जहां थे उससे आगे के बारे में सोचें। कला और धर्म जहां है उससे आगे के बारे में सोचें। इस प्रक्रि‍या को जि‍तनी दूर तक ले जा सकें,ले जाएं। इससे मानवीय चेतना के नए दि‍गंत खुलेंगे।
     हमें धर्म के बारे में सहजबुद्धि‍ के धरातल पर खड़े होकर नहीं सोचना चाहि‍ए। हमें धर्म को वि‍श्‍वास के आधार से भी नहीं देखना चाहि‍ए। धर्म अंदर की चीज है, मनुष्‍यत्‍व का मर्म है। उसे सहज,सस्‍ता,चमकीला बनाने से वह सामाजि‍क तकलीफ देता है।जो लोग ऐसा करते हैं वे धर्म नहीं 'ठगी धर्म' करते हैं।
      रवीन्‍द्रनाथ टैगोर ने लि‍खा है '' धर्म मनुष्‍य की पूर्ण शक्‍ति‍ की अकुण्‍ठि‍त वाणी है। उसमें कोई द्वि‍धा नहीं है। वह मनुष्‍य को मूर्ख कहकर स्‍वीकार नहीं करता,और न दुर्बल कहकर अवज्ञा करता है। वह मनुष्‍य को पुकारकर कहता है- ' तुम अजेय हो,अभय हो,अमर हो।' धर्म की शक्‍ति‍ से ही मनुष्‍य असंभव लगने वाले कामों में जुट जाता है, और ऐसे स्‍तर पर पर पहुँच जाता है जि‍सकी वह स्‍वप्‍न में भी कल्‍पना नहीं कर सकता। इसी धर्म के मुख से कहलाएं : 'तुम मूढ़ हो , समझ न सकोगे' तो फि‍र मनुष्‍य की मूढ़ता कौन दूर करेगा ?यदि‍ धर्म से ही हम कहलाएं: 'तुम अक्षम हो,कुछ न कर सकोगे', तो मनुष्‍य को शक्‍ति‍ कौन देगा ?'' '' वास्‍तव में हीन-से -हीन मनुष्‍य के लि‍ए सम्‍मान का एकमात्र स्‍थान धर्म ही है।''

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