सवाल उठता है कि आखिर यह पीराली क्या बला है? अगर हम इसकी तह में जाए तो भारतीय समाज में जातियों के उद्भव और विकास के अपने एक बेहद रोचक और उतने ही यातनापूर्ण आख्यान के सूत्रों को भी पकड़ पायेंगे। किसका किससे मेल होने अथवा कौन सा पेशा अपना लेने पर जातिगत पैमाने पर कौन क्या होता रहा है, इसकी सचमुच अपने आप में एक अनोखी दास्तान है। लेकिन जातियों के विभाजन की यह निरंतर प्रक्रिया ही वर्ण व्यवस्था के अंदर की किंचित गतिशीलता का भी एक प्रमुख कारण रही है। ‘पीराली’ भी, कहते हैं, ऐसे ही एक खास प्रकार के मेल–जोल और वहिष्कार–निष्काशन का परिणाम था। इसमें बहुत कुछ समाज के पंडे बने ब्राह्मणों की मनमर्जी का परिणाम भी रहा है। खास तौर पर यवनों के संपर्क में आने के कारण कुछ परिवारों को समाज के इन पंडों ने सम्मान का स्थान दिया, तो इसी कारण से कुछ को पूरी तरह से समाज से वहिष्कृत करके पतित करार दिया। ‘पीराली’ भी ऐसे ही पतित ब्राह्मणों में एक थे। पीराली ब्राह्मण की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि तुर्कों के शासन के दिनों में खान जहां अली नामका एक व्यक्ति दक्षिण बंगाल के सुंदरीवन (आज के बांग्लादेश के खुलना के सुंदरवन) में उपनिवेश कायम करने की सनद लेकर आया था और इसी सनद पर उसे चेंगुटिया परगना की जमींदारी मिली। इन खान जहां के पास ताहेर नामका एक व्यक्ति आया जो पहले ब्राण था, लेकिन एक मुसलमान महिला के प्रेम में पड़के इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया था। वह नवद्वीप के निकट के पिरलिया अथवा पिरल्या गांव का निवासी था। पिरल्या गांव का निवासी होने के नाते लोग उसे पिरल्या खां कह कर पुकारने लगे। ताहेर कार्यपटु और दक्ष व्यक्ति था, इसीलिये खान जहां ने उसे दीवान बना कर जसहोर बुला लिया था। इसी ताहेर के यहां उपरोक्त दक्षिणानाथ के दो बेटे कामदेव और जयदेव प्रमुख कर्मचारी के पद पर नियुक्त हुए।
कहते हैं कि एक दिन रोजा के समय ताहेर उर्फ पीरअली एक नींबू की सुगंध ले रहा था। उसी समय कामदेव ने मजाक में कहा कि शास्त्रों के अनुसार गंध लेना आधे भोजन के समान है। इसीलिये आपका रोजा टूट गया है। ताहेर मुसलमान होने पर भी ब्राह्मण की संतान था। वह कामदेव के मजाक को फौरन समझ गया, लेकिन उसने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। इसके बाद एक दिन उसने एक मजलिस बुलाई जिसमें ब्राह्मणों सहित तमाम जाति के लोगों को आमंत्रित किया था। इस जलसे में चारों ओर से मुगलाई खाने की गंध फैली हुई थी, जिसे हिंदू सहन नहीं कर पारहे थे। कई लोग कपड़े से नाक को ढक कर बाहर निकल गये। लेकिन चालाक पीरअली ने कामदेव और जयदेव को पकड़ लिया और कहा कि सुगंध से यदि आधा भोजन हो जाता है तो निश्चित तौर पर गोमांस की गंध लेकर तुमने अपनी जाति गंवा दी है। इन दोनों भाइयों ने भागने की कोशिश की, लेकिन पीरअली के लोगों ने उन्हें दबोच कर उनके मूंह में उस प्रतिबंधित मांस को ठूस दिया और इसप्रकार, वे दोनों ही जाति–च्युत होगये। इसके बाद से ही कामदेव को कमाल खान और जयदेव को जमाल खान के नाम से जाना जाने लगा। पीरअली ने दोनों को जागीर भी दिलवा दी। पीरअली की उस महफिल में और भी जो लोग उपस्थित थे, उनके दुश्मनों ने उन्हें ‘पीराली’ घोषित करके समाज से निकाल दिया। उनमें से भी जिनके पास रुपयों की ताकत थी, वे तो समाज के पंडों की कृपा से फिर से जाति में वापस आगये, और जो किसी भी वजह से इन पंडों को खुश नहीं कर पायें वे ‘पीराली’ बन कर समाज से वहिष्कृत रहे।
कामदेव, जयदेव के दो अन्य भाई रतिदेव और शुकदेव रायचौधुरी अपने दक्षिणडीही के घर में रहते थे। रतिदेव ने समाज के अत्याचारों से दुखी होकर गांव छोड़ दिया। शुकदेव को भी भारी कष्ट उठाने पड़े। नाना छल–चतुराई से शुकदेव ने अपनी बेटी और भतीजी का ब्याह किया। बेटी का विवाह एक श्रेष्ठ श्रोत्रिय जाति के नौजवान, पीठाभोग के जमींदार जगन्नाथ कुशारी से किया और भतीजी का विवाह फुलिया के एक मुखुटी से कर दिया। एक पतित ब्राह्मण परिवार में विवाह करने के कारण जगन्नाथ को उसके कुटुंब और जाति से वहिष्कृत कर दिया गया और वह पीठाभोग के बजाय दक्षिणडीही में अपने ससुराल में रहने लगा। शुकदेव ने अपने जंवाई को पूरी इज्जत बख्शी और आज के बारोपाड़ा नरेन्द्रपुर गांव के उार में उारपाड़ा नामका एक गांव उसे दान में दे दिया। इसप्रकार शुकदेव की भतीजी और बेटी के विवाह से ब्राणों की ‘पीराली’ शाखा चल पड़ी।
कहा जा सकता है कि बंगाल के ठाकुर परिवार के आदिपुरुष ये जगन्नाथ कुशारी महाशय ही थे जो अपने ब्याह के चलते पीराली समाज में शामिल होगये थे। जगन्नाथ के दूसरे बेटे पुरुषोत्तम से ठाकुर वंश की परंपरा चली। पुरुषोत्तम के पोते रामानंद के दो बेटे महेश्वर और शुकदेव के समय से यह ठाकुर परिवार कोलिकाता निवासी होगया।
इस बारे में कहानी यह है कि जाति के कारण झेल रहे अपमान की वजह से ही महेश्वर और शुकदेव अपने गांव बारोपाड़ा से निकल कर कोलिकाता गांव के दक्षिण में गोविंदपुर में आकर बस गये। तब तक अंग्रेजों को गोविंदपुर, सुतानाटी और कोलिकाता नामक तीन गांवों की सनद मिल चुकी थी। अंग्रेजों के वाणिज्यिक जहाज इसी गोविंदपुर की गंगा में ही आकर लगा करते थे। उन दिनों कोलिकाता और सूतानाटी में सेठ बसाक नामके एक प्रसिद्ध व्यापारी हुआ करते थे। अंग्रेज कप्तानों के इन जहाजों से माल–असबाब की ढुलाई–लदाई और खाने–पीने की व्यवस्था का काम पंचानन कुशारी किया करते थे। इन सभी मेहनत के कामों में स्थानीय हिंदू समाज की तथाकथित निम्न जातियों के लोग उनके लिये काम करते थे। ये लोग एक ब्राह्मण भले आदमी को उसके नाम से पुकारने में हिचकते थे, इसीलिये वे पंचानन को ‘ठाकुर मोशाय’ कह कर पुकारने लगे। इसीसे जहाज के कप्तान उसे पंचानन ठाकुर के नाम से जानने लगे। अपने कागजातों में उन्होंने उसके नाम के साथ Tagore, Tagoure लिखना शुरू कर दिया और इसप्रकार ‘कुशारी’ पदवी का स्थान ‘ठाकुर’ पदवी ने ले लिया।
पंचानन ठाकुर के दो बेटे हुए – जयराम और रामसंतोष तथा शुकदेव के एक बेटा, कृष्णचंद्र। अंग्रेज व्यापारियों से तीनों ने थोड़ी अंग्रेजी सीखी। इसके अलावा उन दिनों फ्रेंच भाषा का भी अच्छा–खासा चलन था। 1742 में कोलिकाता की पैमाईश का काम शुरू हुआ और जयराम तथा रामसंतोष अमीन के पद पर नियुक्त होगये। इसी कारण से खुलना में इनका पैतृक निवास ‘अमीन का निवास’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसी समय कंपनी ने ‘फोर्ट विलियम’ के निर्माण का काम शुरू किया था। सरकार के जिस विभाग को निर्माण का यह काम सौंपा गया था, जयराम उस विभाग से जुड़े हुए थे। ‘फोर्ट विलियम’ की इस इमारत को बनाने में तब बेशुमार पैसा खर्च हुआ था और इसके पूरा होने में भी अनुमान से काफी ज्यादा समय लगा था। कहते है कि उन दिनों कंपनी के अधिकारियों से लेकर साधारण गुमाश्ते तक में ईमानदारी नामकी कोई चीज नहीं हुआ करती थी और ‘फोर्ट विलियम’ की इमारत को बनाने में चीफ इंजीनियर से लेकर सरदार मिस़्त्री तक सबने काफी धन कमाया था। जयराम ने इस काम में क्या कमाया इसके बारे में कोई पक्की जानकारी न होने पर भी यह सच है कि उन्होंने उसी काल में धनसाय (आज के धर्मतल्ला, शहीद मीनार) में मकान बनाया, जमीनें खरीदी और फोर्ट विलियम्स के पास ही गंगा के तट पर एक बगान बाड़ी बनायी। वे जब मरे तब धन–संपिा के लिहाज से काफी अच्छे थे। जयराम ठाकुर के तीन बेटे थे – नीलमणि, दर्पनारायण और गोविंदराम। उन्होंने अपने बड़े बेटे आनंदीराम को त्याग दिया था, जिसके दो बेटे थे।
कोलिकाता पर जब सिराजुद्दौल्ला ने हमला किया तब जयराम ने अपनी चल संपिा, सोने के गहनों आदि को फोर्ट विलियम्स में जमा करा दिया था। उस हमले में धनसाय के घर को भी कोई नुकसान नहीं पंहुचा था। 1756 में जयराम की मृत्यु के थोड़े दिनों बाद ही नीलमणि आदि ने अपने पूर्वजों की धनसाय की संपत्ति को 5 हजार रुपयों में बेच दिया। 1757 में पलाशी की लड़ाई के बाद मीरजाफर अलि खां बंगाल सूबे के नवाब बने और सिराजुद्दौल्ला के हमले से हुई शहर की तबाही के मुआवजे के तौर पर उन्होंने ब्रिटिश कम्पनी को भारी रकम अदा की। उसी कोष में से ड्रेक साहब ने जयराम अमीन के बेटों को छ: हजार रुपये दिलवा दिये। जयराम के बेटों के पास इससे कुल 13 हजार रुपये की नगद संपत्ति होगयी। 1764 में इन्हीं बेटों ने कोलिकाता गांव के पाथुरियाघाटा क्षेत्र में जमीन खरीद कर अपना घर बनाया और 13 हजार रुपयों से कंपनी के कागजात खरीद कर अपने गृहदेवता श्रीश्री राधाकांत जीओ के नाम से एक धर्मादा खाता तैयार कर दिया। इन रुपयों पर मिलने वाले ब्याज से देवपूजा के खर्च की व्यवस्था होती थी।
नीलमणि और दर्पनारायण अपने पाथुरियाघाट के आवास के दिनों में साहबों के दीवान बन गये। बड़े भाई दर्पनारायण तो घर पर रह कर पुरखों की संपत्ति को सम्हाले हुए थे। छोटा भाई नीलमणि कमाई के लिये कलकत्ते के बाहर निकल गया। उसने पहले एक जिला अदालत में अधीनस्थ अमले के रूप में काम किया और धीरे–धीरे सेरिस्तदार के पद तक चला गया। उन दिनों कोई भी देशी आदमी सरकार में इससे बड़े पद की उम्मीद नहीं कर सकता था। इसके अलावा, तब धन होने मात्र से समाज में मान नहीं मिलता था। कोलिकाता में पैसेवालों को ‘बाबू’ कहा जाता था। कुलीनों की जमात में जगह तभी मिलती थी जब किसीके पास जमींदारी हो। नीलमणि ने सेरिस्तदार के पद पर रहते हुए जो कमाई की उसीसे ठाकुर परिवार में वस्तुत: जमींदारी का श्रीगणेश किया। उनकी अगली पीढ़ी के राममणि ने भी उड़ीसा में थोड़ी जमींदारी खरीदी; फिर उनके भाई राम वल्लभ ने उसमें और संपत्ति जोड़ी। लेकिन जिसे वास्तव में जमींदार का ओहदा कहते है, वह सम्मान नीलमणि के पोते, द्वारकानाथ को ही मिला।
बहरहाल, पाथुरियाघाट का संयुक्त परिवार एकदिन टूट गया। इसके मूल में संपत्ति का मसला था। नीलमणि बाहर से हर महीने अपने बड़े भाई को अपनी बचत से रुपये भेजा करता था। लेकिन जब वह सरकारी सेवा से निवृत्त्त हुआ, तब इन्हीं रुपयों के हिसाब को लेकर दोनों भाइयों के बीच मनमुटाव होगया। बाद में समझौता हुआ तो नीलमणि एक लाख रुपया नगद लेकर पाथुरियाघाट का मकान और धर्मादे की संपति छोड़ अपने छोटे भाई से अलग होगये। नीलमणि ने जोड़ाबगान के कर ब्राण वैष्णवचरण सेठ से जोड़ासांकू में घर बनाने के लिये एक बीघा जमीन ली और सन् 1784 के जून महीने से उनका परिवार वहीं जाकर रहने लगा। कहा जाता है कि चूंकि नीलमणि खुद पक्के ब्राण थे, इसीलिये वैष्णव सेठ ने उन्हें बहुत मामूली कीमत पर जोड़ासांकू की जमीन दे दी थी। वैष्णव सेठ किस प्रकार के ब्राण थे, यह अकेले इस तथ्य से जाना जा सकता है कि वे कलको में शुद्ध गंगा जल के संरक्षक माने जाते थे और उसके सबसे बड़े निर्यातकर्ता थे। कलको से बाहर जहां गंगा जल नहीं मिलता था, वहां गंगा जल से भरे उन्हीं घड़ों को शुद्ध माना जाता था, जिन पर वैष्णव सेठ की मोहर लगी होती थी। बहरहाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जिस जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार से जोड़कर हम देखते हैं, उस परिवार की परंपरा इसी जोड़ासांकू के मकान से शुरू हुई थी। अर्थात, जयराम ठाकुर के दूसरे बेटे नीलमणि ठाकुर को जोड़ासांकू के ठाकुर परिवार का आदिपुरुष, उत्स कहा जा सकता है।
नीलमणि के तीन बेटे और एक बेटी थी : रामलोचन, राममणि, रामवल्लभ, और कमलमणि। नीलमणि की अपनी सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के चलते उन्होंने अपनी बेटी का विवाह तो एक आस्थावान हिंदू परिवार में कर दिया लेकिन बेटों की शादी पीराली समाज में ही करनी पड़ी।
नीलमणि के बाद ठाकुर परिवार के मुखिया बने रामलोचन। उनकी अपनी कोई संतान न होने के कारण उन्होंने अपने भाई राममणि के बेटे द्वारकानाथ को गोद ले लिया। राममणि ने दो शादियां की थी। पहली पत्नी मेनका देवी से राधानाथ, जावी देवी, रासविलासी और द्वारकानाथ पैदा हुए तथा दूसरी पत्नी दुर्गामणि से रमानाथ और सरस्वती देवी का जन्म हुआ। रामलोचन अपने जमाने के एक संभ्रांत भद्रजन थे। प्रभातकुमार मुखोपाध्याय के शब्दों में अपनी वेशभूषा के ढंग, सांध्य–भ्रमण, संगीत प्रेम आदि तत्कालीन कुलीनों के लक्षण उनमें दिखाई देते थे।
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