रवीन्द्रनाथ की 150वीं जयन्ती के मौके पर उनके विचारों और नजरिए पर विचार करने का मन अचानक हुआ और पाया कि रवीन्द्रनाथ के यहां मृत्यु का जितना जिक्र है उससे ज्यादा जीवन का जिक्र है। रवीन्द्रनाथ ने अपने लेखन से विश्व मानव सभ्यता को आलोकित किया है, चारों ओर उनका यश इतने दिनों के बाद आज भी बना हुआ है, आज भी बांग्ला का कोई भी विमर्श उनके बिना अधूरा है। रवीन्द्र की इस विराटता में उनके दृष्टिकोण की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
(रवीन्द्रनाथ के जन्मस्थान जोडासांको में माल्यदान का दृश्य)
रवीन्द्रनाथ आधुनिकाल के उन चंद विचारकों और लेखकों में हैं जो मृत्यु की सत्ता को स्वीकारते हैं, उसका व्यापक चित्रण भी करते हैं। मृत्यु को गीत बनाने में रवीन्द्रनाथ ने विलक्षण महारत हासिल की थी। सामान्य तौर पर भारतीय मनोविज्ञान मौत से आंखें चुराता है अथवा उसका बहुत कम विमर्श मिलता है। रवीन्द्रनाथ ने मौत को स्वीकारा और उसे चुनौती भी दी।
(जोडासांको का एक दृश्य)
रवीन्द्रनाथ का प्रसिद्ध कथन था ,जो उन्हें अपनी परंपरा से मिला था, उन्होंने लिखा ' गृहीत इव केशेषु म़ृत्युना धर्म माचरेत्'- अर्थात् मौत ने चोटी पकड़ रखा है यह ध्यान में रखते हुए धर्म पर चलो।
इसी धारणा के आधार पर उन्होंने 'संसार नश्वर है', इस प्राचीन धारणा का खंड़न किया था और लिखा था ' अवसान के बाद जो मिथ्या है वह अवसान के पहले वास्तव है। जिस मात्रा में जो चीज सत्य है उस मात्रा में उसे मानना होगा। हम न मानें तो वह चीज ज़बरदस्ती अपने-आपको मनवा लेगी और एकदिन ब्याज सहित हमसे बदला लेगी।'
(संसद में रवीन्द्रनाथ की छवि पर माल्यार्पण के बाद दांए से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज,कांग्रेस नेत्री सोनिया गांधी,भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी)
जो है उसे मानो और आगे बढ़ो। यदि प्रस्तुत यथार्थ को अस्वीकार करते हैं तो यथार्थ मनवाकर छोड़ेगा। आमतौर पर हम सबमें यथार्थ को झुठलाने की आदत होती है अथवा यथार्थ से आंखें चुराते हैं। उन्होंने लिखा '' वस्तु को अपनाना और वस्तु को छोड़ देना ,दोनों में ही सत्य है। ये दोनों सत्य एक-दूसरे पर निर्भर हैं, और दोनों को यथार्थ रूप से मिलाकर ही पूर्णता लाभ संभव है।''
हिन्दी में सामंजस्य पर खूब बहस हुई है। इस प्रसंग में रवीन्द्रनाथ लिखा है '' यदि इस सामंजस्य का आश्रय लेना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें देखना होगा मनुष्य का सच्चा रूप। किसी विशेष प्रयोजन के पक्ष से मनुष्य को देखने से काम नहीं चलेगा।'' मनुष्य को किसी एक ही प्रयोजन के नजरिए से देखने से वह समझ में नहीं आ सकता। बल्कि यह बेकार का नजरिया है।
(जोडासांको के आंगन का दृश्य)
रवीन्द्रनाथ का मानना था '' यदि हम आम के फल को इस दृष्टिकोण से देखें कि उससे खटाई किस तरह मिल सकती है तो आम का समग्र रूप हमारे सामने नहीं आता- बल्कि हम उसे कच्चा ही तोड़कर उसकी गुठली नष्ट कर देते हैं। पेड़ को यदि हम केवल ईंधन के रूप में देखें तो उसके फल- फूल-पत्तों में हमें कोई तात्पर्य नहीं दीख पड़ेगा। इसी तरह यदि मनुष्य को हम राज्य रक्षा का साधन समझेंगे तो उसे सैनिक बना देंगे। यदि व्यक्ति को जातीय समृद्धि का उपाय-मात्र समझें तो उसे वणिक बनाने का प्रयास करेंगे। अपने संस्कारों के अनुसार जिस गुण को हम सबसे अधिक मूल्य प्रदान करते हैंउसी के उपकरण के रूप में मनुष्य को देखकर उस गुण से सम्बन्धित प्रयोजन-साधना को ही हम मानव-जीवन की सार्थकता समझने लगते हैं। यह दृष्टिकोण बिलकुल ही बेकार हो,ऐसी बात नहीं। लेकिन अंत में इससे सामंजस्य नष्ट होकर अहित ही हमारे पल्ले पड़ता है। जिसे हम तारा समझकर आकाश में उड़ाते हैं वह कुछ ही देर तक तारे की तरह चमकने के बाद जलकर खाक हो जाता है और जमीन पर आ गिरता है।''
मनुष्य का अर्थ प्रयोजनों से बड़ा है। हम व्यर्थ में प्रयोजनों के साथ मनुष्य के अर्थ को जोड़ देते हैं। मनुष्य के सत्य को इनके परे जाकर देखना होगा।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के जमाने में पूंजीवाद अपने यौवन पर था उन्होंने पूंजीवाद की बर्बरता और उपभोक्ता संस्कृति के मानव विरोधी चरित्र को बड़ी बारीकी के साथ पकड़ा था। टैगोर का मानना था '' आज हम बाजार की भीड़ और शोर-गुल में सम्मिलित हो रहे हैं,नीचे उतर आए हैं,ओछे हो गए हैं। कलह से हमारा सन्तुलन जाता रहा है। पदवियों-उपाधियों को लेकर आपस में झगड़ा कर रहे हैं। बड़े-बड़े अक्षरों के और ऊंचे स्वर के विज्ञापनों से अपने को औरों से बड़ा घोषित करने में हमें संकोच नहीं होता। और मजे की बात तो यह है कि जो कुछ हम कर रहे हैं सब 'नकल' है। इसमें सत्य की मात्रा नहीं के बराबर है। इसमें शान्ति नहीं,संयम नहीं,गाम्भीर्य नहीं, शालीनता नहीं।''
(जोडासांको में रवीन्द्रनाथ का अध्ययन कक्ष)
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सादगी और मानवता पर जोर दिया और ऊपरी आडम्बर की जबर्दस्त मुखालफत की थी। भद्रता को वे आंतरिक चीज मानते थे, भद्रता कोई बाजार में मिलने वाली वस्तु नहीं थी जिसे जाकर खरीद लो और पहनकर भद्र बन जाओ।
टैगोर के शब्दों में '' आज हमारी भद्रता सस्ते कपड़ों से अपमानित होती है,घर में विलायती ढंग की सजावट न हो तो उस पर आंच आती है बैंक में हमारे नाम पर जो अंक लिखे हैं वे कम हों, तो हमारी भद्रता कलंकित होती है। हम यह भूल बैठे हैं कि ऐसी प्रतिष्ठा को सिर पर ढोकर उसका आदर करना वास्तव में लज्जा का विषय है। जिन बेकार की उत्तेजनाओं को हमने सुख मानकर चुना है उनसे हमारे समाज का अन्त:करण दासता के पाश में जकड़ा जा रहा है।''
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