प्यार के फलसफे़ ने बड़े -बड़े लोगों का भूत उतार दिया है। मीडिया से लेकर से पंचायतें तक सभी प्यार की मार से बेहाल हैं। आए दिन प्यार का नकली राग अलापने वाला कारपोरेट मीडिया भी अपनी औकात पर उतर आया है और सच्ची और आंखों देखी खबरें दिखाने वाले मीडिया के रणबांकुरे युवा पत्रकार खुलकर प्यार की तौहीन करने में लगे हैं। राजदीप सरदेसाई,अर्णव गोस्वामी,बरखा दत्त से लेकर सभी एंकर और समाचार संपादक मीडिया के तालिबानी भाव में खुलकर खेल रहे हैं।
खासकर कारपोरेट मीडिया ने निरुपमा हत्याकांड के मामले पर जिस तरह यूटर्न लिया है और प्रेमी को ही कातिल बनाया है उससे एक बात साफ है कि कारपोरेट मीडिया में प्यार के लिए कोई जगह नहीं है।
एक तरफ हरियाणा की बदनाम और दागी जाति पंचायतों के आपराधिक कारनामों को कारपोरेट मीडिया महिमामंडित कर रहा है। दूसरी ओर प्यार विरोधियों को व्यापक कवरेज दे रहा है। एनडीटीवी से लेकर सीएनएन तक सभी जगह प्यार विरोधी शैतानों को विचारों की संतुलित प्रस्तुति और सभी पक्षों की राय पेश करने के नाम पर मीडिया कवरेज का तालिबानी फ्लो बना हुआ है।
सवाल यह है कि एक ही टॉक शो में प्यार के दुश्मन और दोस्त एक ही साथ कैसे बैठ सकते हैं। उत्पीड़क और उत्पीडि़त एक ही समान धरातल पर कैसे रखे जा सकते हैं ? शैतान को इंसान के बराबर कैसे रखा जा सकता ? यह विचारों के प्रति समानता नहीं है बल्कि विचारों के प्रति असमानता की अभिव्यक्ति है। शैतान का महिमामंडन है। यह मीडिया का तालिबानी भावबोध है।
इस तरह की प्रस्तुतियों में शैतान और इंसान को वस्तुगत प्रस्तुति के नाम पर समान दर्जा दिया जा रहा है। जिन लोगों को शैतानी विचारों के सार्वजनिक प्रसारण के लिए जेल में होना चाहिए,वे खुश हैं और सनसनाते घूम रहे हैं कि चलो चैनल पर बोल आए और अब देखते हैं हमारा कोई क्या बिगाड़ लेता है। ऐसे लोग अपने इलाकों में तालिबानी फरमान जारी करने,सामूहिक तौर पर मानवाधिकारों का हनन करने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। अपने शैतानी विचारों को यह कहकर प्रचारित करते हैं कि हम जो कह रहे हैं वह बात मीडिया में भी बोल चुके हैं,हमारे विचार सही हैं यही वजह है हमारे थिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
मीडिया और जीवन में शैतान और इंसान को एक साथ बिठाने का अर्थ है मनुष्य का अपमान,मनुष्य को छोटा बनाना और शैतान को महान बनाना। इस प्रवृत्ति के कारण ही सभी रंगत के नेता और कारपोरेट मीडिया, प्यार को दण्डित करने के मामले में एकजुट हो गया है।
कारपोरेट मीडिया में प्यार के आख्यान को देखकर हम नकली आनंद में जीते हैं। मीडिया के छोटे-बड़े पर्दे पर प्यार अपील करता है और यही नकली प्यार जब बार-बार मीडिया के विभिन्न रुपों के जरिए दोहराया जाता है तो अपना विलोम पैदा करता है। प्यार के प्रति नफ़रत पैदा करता है। प्यार का मीडिया में रुपायन सामाजिक जीवन में प्यार के प्रति विपरीत वातावरण बनाता है। स्त्री पर हमले तेज हो जाते हैं। औरतों की सामाजिक असुरक्षा बढ़ जाती है।
निरुपमा की हत्या में कौन शामिल है यह तहकीकात करना मीडिया का नहीं पुलिस का काम है और मीडिया ने इस मामले में जिस तरह अमानवीय भूमिका निभायी है उससे फिर से यह बात सिद्ध हुई है कि कारपोरेट मीडिया की मानवीय मूल्यों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है।
निरुपमा प्रकरण से लेकर पंचायतों के बर्बर कारनामों तक मीडिया कवरेज के जरिए एक ही संदेश दिया जा रहा है कि प्यार बुरी चीज है,प्यार में झंझट है.झगड़ा है, हत्या है,पुलिस है,कानून है,लोकनिंदा है, जान को खतरा है,प्यार करो तो डरो। प्यार को समाज और कानून पसंद नहीं करता ,प्यार करने वालों से परहेज करो। प्यार से दूर रहो।
कारपोरेट मीडिया का समूचा रवैय्या इस तर्क से संचालित है हम सही तुम गलत। इस चक्कर में कारपोरेट मीडिया उस जगह खड़ा होता है जहां उसे नहीं होना चाहिए। कारपोरट मीडिया की प्रेम के प्रसंग में ,न्याय के प्रसंग में,भ्रष्टाचार के प्रसंग में,अपराधियों के प्रसंग में ,सत्य की खोज के प्रसंग में हमेशा गलत के साथ दोस्ती रही है। गलत,असत्य और अमानवीय का चित्रण करने के लिए कारपोरेट मीडिया तरह-तरह की पद्धतियों का इस्तेमाल करता है।
जब मिडिया में बैठे लोगों का दिमाग रिमोट की तरह काम करेगा, तो उनकी विचारों को तरजीह देना ही मुर्खता है /अब तो देश भर के इमानदार लोगों को आगे आना होगा, इन रिमोट दिमाग का पोल खोलने के लिए / ऐसे मिडिया को देखना और पढना हमें बंद कर देना चाहिए और इन पर प्रसारित विज्ञापन के वस्तुओं को खरीदना भी बंद कर देना चाहिए / हमने तो शुरू कर दिया है ,क्या आपने किया क्या ?
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