(महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर)
‘‘बड़ा आदमी वह होता है जिसके सम्पर्क में आनेवाले का अपना देवत्व जाग उठता है। रवीन्द्रनाथ ऐसे ही महान पुरुष थे। ... वे उन महापुरुषों में थे जिनकी वाणी किसी विशेष देश या सम्प्रदाय के लिए नहीं होती, बल्कि जो समूची मनुष्यता के उत्कर्ष के लिए सबको मार्ग बताती हुई दीपक की भांति जलती रहती है।‘‘ (हजारी प्रसाद द्विवेदी)
रवीन्द्रनाथ की 150वीं जयंती हम एक ऐसे काल में मना रहे हैं जब मानव सभ्यता उथल–पुथल के एक अभूतपूर्व अकल्पनीय दौर से गुजर रही है। लगता है जैसे आदमी ने अपने अथक और अनवरत प्रयासों से जिस सृष्टि की रचना की उसे वह अपने ही हाथों मटियामेट करने पर तुल गया है। लाभ और लोभ की कोख से जन्मी पूंजी और उसपर टिका पूरा तंत्र, एक समग्र पूंजीवादी दर्शन, उसका विकराल पैशाचिक रूप, साम्राज्यवादी वैश्वीकरण आज समूची मानवता को अपने नागपाश में जकड़कर लहूलुहान कर रहा है। जल, जमीन, जंगल और यह पूरा जगत आज उसके जहर से विषाक्त अजीबोगरीब ढंग से विरूपित दिखाई देता है। सभ्यता के ऐसे संकट की काली छाया को उस भविष्यद्रष्टा कवि, चिंतक ने देख लिया था और अपनी मौत से कुछ दिन पहले उनकी आत्मा उनसे सवाल कर रही थी–
‘‘भगवान्, तुमने युग–युग में बार–बार इस दयाहीन संसार में अपने दूत भेजे हैं।
वे कह गये हैं–क्षमा करो,
कह गये हैं– प्रेम करो, अंतर से विद्वेष का विष नष्ट कर दो।
वरणीय हैं वे, स्मरणीय हैं वे,
तो भी आज दुर्दिन के समय उन्हें निरर्थक नमस्कार के साथ बाहर के द्वार से ही लौटा दे रहा हूं।
मैंने देखा है–गोपन हिंसा ने
कपट–रात्रि की छाया में निस्सहाय को चोट पहुंचाई है,
मैंने देखा है–प्रतीकारविहीन जबर्दस्त के अत्याचार से विचार की वाणी
चुपचाप एकांत में रो रही है,
मैंने देखा है–तरुण बालक उन्मत्त होकर दौड़ पड़ा है, बेकार ही पत्थर पर
सिर पटककर मर गया है़;
कैसी घोर यंत्रणा है उसकी!
आज मेरा गला रुंध गया है, मेरी बांसुरी का संगीत खो गया है, अमावश्या
की कारा ने मेरे संसार को दु:स्वप्नों के नीचे लुप्त कर दिया है,
इसीलिए तो आंसू भरी आंखों से तुमसे पूछ रहा हूं–
जो लोग तुम्हारी हवा को विषाक्त बना रहे हैं,
उन्हें क्या तुमने क्षमा कर दिया है?
उन्हें क्या तुमने प्यार किया है?‘‘
रवीन्द्रनाथ क्या ये प्रश्न किसी अदृश्य, अमूर्त शक्ति से कर रहे थे? नहीं, उसे तो उन्होंने निरर्थक नमस्कार के साथ बाहर के द्वार से ही लौटा दिया था। वे यह सवाल उस मनुष्य से कर रहे थे, उसकी मनुष्यता से कर रहे थे जो दिन–प्रतिदिन अपनी प्राण शक्ति खोे रही थी। और इसलिये वे उसकी प्राण शक्ति को, उसके विवेक को ललकार करके कह रहे थे कि तुम इन्हें कैसे माफ कर सकते हो, तुम इन्हें कैसे प्यार कर सकते हो?
रवीन्द्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ इन्हीं द्वारकानाथ ठाकुर के सबसे बड़े पुत्र थे। लोग इन्हें महर्षि के नाम से पुकारते थे। मात्र 18 वर्ष की वय में इस तरुण ने गंगा के किनारे तीन दिनों तक अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रही प्रिय दादी के पास रहते हुए जीवन के एक नये सत्य को खोज लिया था। अब वह एकदम बदल गया था। उन्होंने लिखा – ‘‘मैं ठीक पहले जैसा आदमी नहीं रहा। संपत्ति के प्रति मेरा लगाव उदासीन सा हो गया। वह फटी–पुरानी बांस की चटाई जिस पर मैं बैठा था– मुझे अपने लिये उपयुक्त जान पड़ी। कालीन और कीमती दिखावे मुझे घृणास्पद प्रतीत होने लगे और मेरा मानस उस आनंद से परिपूर्ण हो उठा, जिसका अनुभव मैंने पहले कभी नहीं किया।‘‘ इस प्रकार यह युवक धन की माया से दूर मनुष्य की अंतरआत्मा के गहन संसार में डूब गया। प्राचीन वैदिक साहित्य के साथ ही पाश्चात्य दर्शन का भी अघ्ययन किया।
इसी महर्षि की चौदहवीं कृति संतान के रूप में 7 मई 1861 (बंगाब्द 25 बैसाख 1268) को रवीन्द्रनाथ का जन्म हुआ था। बड़ी बहन ने ‘होनहार बिरवा के चिकने–चिकने पात‘ की झलक बचपन में ही देख ली थी इसीलिये नहलाने के समय प्राय: कहा करती, मेरा रवि भले ही सावंला हो, बहुत गोरा न हो लेकिन वह अपने तेज से सब पर छा जायेगा। रवीन्द्रनाथ ने अपनी बड़ी बहन की इस भविष्यवाणी को पूरी तरह सच साबित करके दिखाया और न सिर्फ अपने देश बल्कि पूरे विश्व को मानवता की उदात्तता का प्रकाश दिखाया।
उनकी मृत्यु पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने लिखा – ‘‘रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु में हमने न केवल इस युग के एक महानतम कवि को खोया है बल्कि एक उत्कृष्ट राष्ट्रभक्त जो एक मानवतावादी भी थे, उन्हें खोया है। शायद ही ऐसा कोई सार्वजनिक कार्य हो जिस पर उनके शक्तिशाली व्यक्तित्व ने छाप न छोड़ी हो। शांतिनिकेतन और श्रीनिकेतन के रूप में उन्होंने सारे राष्ट्र के लिए, वस्तुत: विश्व के लिए एक विरासत छोड़ी है।‘‘
आज के इस अंधेरे दौर में रवीन्द्रनाथ की उस महान विरासत को याद करके उन्हीं की तरह हम उस अक्षत, अपराजित विश्वास को हासिल कर सकें और कह सके– ‘‘टुक खड़े तो हो जाओ एक बार सिर उठाकर! जिसके भय से तुम डर रहे हो, वह अन्यायी तुम से कहीं अधिक कमजोर है। तुम जागे नहीं कि वह भाग खड़ा होगा–जैसे ही तुम उसके सामने तनकर खड़े हुए कि वह राह के कुत्ते की भांति संकोच और त्रास से दुबककर रह जायेगा। देवता उससे विमुख है–कोई नहीं है उसका सहायक–वह तो केवल मुंह से ही बड़ी–बड़ी बातें हांका करता है; किंतु मन ही मन अपनी हीनता को खूब पहचानता है! अतएव हे कवि ,उठ आओ! यदि तुम्हारे अंदर केवल प्राण ही बाकी हों, तो उन्हें ही साथ लेते आओ–(वही क्या कम है)–उन्हें न्यौछावर कर दो। बड़ा दुख है...बड़ी व्यथा है–सामने कष्ट का संसार फैला हुआ है। बड़ा ही दरिद्र है–शून्य है–क्षुद्र है...अंधकार में बद्ध है। उसे अन्न चाहिए–प्राण चाहिए–आलोक चाहिए, चाहिए मुक्त वायु, बल, स्वास्थ्य–आनंदोज्जवल परमायु और चाहिए साहस से चौड़ी छाती। इसी दीनता के बीच, हे कवि, एक बार ले तो आओ स्वर्ग से विश्वास की छवि!‘‘
रवीन्द्रनाथ का स्वर्ग कोई काल्पनिक इन्द्रलोक नहीं था। वे ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या में विश्वास नहीं करते थे। वे इस पृथ्वी को ही मनुष्य की सबसे सुंदर कृति बनाना चाहते थे। और इसलिये इस पृथ्वी को छोड़कर वैरागी बनकर किसी देवता की शरण में जाकर स्वर्ग को खोजने वालों को कहते हैं, देवता मंदिर में नही है, मनुष्यत्व में है। अपनी एक कहानी में वे कहते है।– ‘‘संसार से वैराग्य लेने वाला एक वैरागी गंभीर रात्रि में बोल उठा : आज मैं इष्टदेव के लिए घर छोड़ दूंगा –कौन मुझे भुलाकर यहां बांधे हुए है? देवता ने कहा :‘मैं‘! उसने नहीं सुना। नींद में डूबे शिशु को छाती से चिपटाकर प्रेयसी शय्या के एक किनारे सो रही थी। वैरागी ने कहा : ऐ माया की छलना, तू कौन है? देवता बोल उठे : ‘मैं‘! किंतु किसी ने नहीं सुना। शय्या पर से उठकर वैरागी ने पुकारा : प्रभो! तुम कहां हो? देवता ने उत्तर दिया : ‘यहां‘! तो भी वैरागी ने नहीं सुना। स्वप्न में माता को शिशु खींच कर रो पड़ा – देवता ने कहा : ‘लौट आओ‘। वैरागी को यह वाणी भी नहीं सुनाई दी। अंत में लंबी सांस लेकर देवता ने कहा – ‘हाय, मेरा भक्त मुझे छोड़कर कहां चला!'
रवीन्द्रनाथ ने कबीर की तरह बार–बार मनुष्य को चेताया कि तुम्हारे देवता देवालयों में नहीं है। उन्होंने इस भले मानुष को समझाते हुए कहा–‘‘अरे ओ भलेमानुष, क्यों तू देवालय का दरवाजा बंद करके उसके कोने में पड़ा हुआ है? अरे, रहने दे अपने इस भजन और पूजन को, ध्यान और आराधना को। अपने मन के अंधेरे में छिपा हुआ तू चुपचाप किसकी पूजा कर रहा है? जरा आंख खोलकर देख तो भला, देवता तेरे घर में नहीं है। वे वहां चले गये हैं, जहां किसान मिट्टी तोड़कर हल जोत रहा है, जहां मजदूर बारह महीने पत्थर काटकर रास्ता तैयार कर रहा है। वे धूप और पानी में सबके साथ हैं। उनके दोनों हाथों में धूल लगी हुई है। भले मानस, तू भी उन्हीं के समान इस पवित्र वस्त्र को फेंककर धूल में उतर जा। रहने दे अपनी घ्यान धारणा, पड़ी रहने दे अपने फूलों की डलिया, फट जाने दे इस शुचि–वस्त्र को, लगने दे इस शरीर में धूल और बालू। ऐसा हो कि उनके साथ कर्मयोग में चूर होकर तेरा पसीना चुए।‘‘
रवीन्द्रनाथ ने जहां कहीं भी मनुष्य और मनुष्यता का अपमान होते हुए देखा फिर चाहे वह सांमती–पूंजीवादी–साम्राज्यवादी शोषण हो, संकीर्ण उग्रराष्ट्रवाद हो, फासीवाद हो, स्वार्थों की आग से धधकता युद्धोन्माद हो, जातिवाद और धार्मिक करता हो, हर किसी का तीखा विरोध किया। साम्राज्यवादी वैश्वीकरण और उसको संचालित करने वाली मुक्त बाजार की इस बर्बर व्यवस्था में जब एक बार फिर सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का राग अलापा जा रहा है, उस समय हमें रवीन्द्रनाथ की वाणी याद आती है–
‘‘जापान को पश्चिम के बाह्य लक्षणों का अनुकरण करने में खतरा नहीं है, बल्कि पश्चिमी राष्ट्रवाद की प्रेरक शक्ति को अपना बना लेने से है। राजनीति के दबाव के आगे उसके सामाजिक आदर्शों के ह्रास के संकेत अभी से दिखने लगे हैं। विज्ञान से उधार लिया गया आदर्श वाक्य, ‘योग्यत्तम की उत्तरजीविता‘ मुझे उसके आधुनिक इतिहास पर लिखा हुआ साफ–साफ दिखाई पड़ रहा है। यह एक ऐसा आदर्श वाक्य है जिसका एक अर्थ यह भी होता है कि ‘अपनी सहायता खुद करो और दूसरों की परवाह मत करो‘। यह एक ऐसा आदर्श वाक्य है जो उस अंधे आदमी का आदर्श होता है जो केवल उसी चीज में विश्वास करता है जिसे वह छू रहा होता है क्योंकि बाकी को तो वह देख ही नहीं पाता। लेकिन जो लोग देख सकते हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि मानव एक–दूसरे से एक सूत्र में पिरोया हुआ है और जब आप दूसरों पर चोट करते हैं तो उसका असर आप पर भी होता है। नैतिक नियम जो मनुष्य का सबसे बड़ा आविष्कार है, वह इस अद्भुत सत्य पर आधारित है कि मानव उतना ही अधिक सच्चा साबित होता है जितना अधिक वह दूसरों में स्वयं को अनुभूत करता है।"
रवीन्द्रनाथ मनुष्य में ही सत्य को देखते थे। ‘‘सत्य ही मनुष्य का प्रकाश है। इस सत्य के विषय में उपनिषद का कहना है : ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू य पश्यति स पश्यति‘। जिन्होंने जीवन मात्र को अपने समान समझा है, उन्होंने ही सत्य को समझा है।"
इस सत्य की अवहेलना करके ,उसे अपमानित और उपेक्षित करके पूंजी को ब्रह्म और मुनाफे को मोक्ष समझने वालों को धिक्कारते हुए रवीन्द्रनाथ ने कहा था – ‘‘ये तो महास्वार्थ को ही विश्व के सभी देशों का सार्वभौमिक धर्म बनाने पर तुले हुए हैं। हम विज्ञान द्वारा दी गई किसी भी अन्य चीज को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं लेकिन हम उसके द्वारा नैतिकता के अमृत को नष्ट होता स्वीकार नहीं कर सकते।"
लेकिन आज हिंस्र, बर्बर और अराजक हो चुकी आवारा पूंजी मनुष्यता के हर मूल्य को बाजार में बेच रही है। लगभग 150 वर्ष पहले कार्ल मार्क्स ने पूंजी के इस भयावह दानवीय रूप के बारे में कहा था –‘‘यदि लाभ समुचित हो तो, पूंजी बहुत साहसी होती है। 10 प्रतिशत निश्चित लाभ उसकी व्यग्रता सुनिश्चित करेगा और 50 प्रतिशत उसकी अति साहसिकता; 100 प्रतिशत लाभ के लिए यह सभी कानूनों को पैरों तले रौंदने को तैयार हो जायेगी; लाभ 300 प्रतिशत हो तो ऐसा कोई अपराध नहीं है जिसे करने में यह हिचकिचायेगी, न कोई ऐसा खतरा है जो यह नहीं उठाएगी, चाहे इसके मालिक के फांसी चढ़ने की ही संभावना क्यों न हो...।"
खतरों की खिलाड़ी इस चमत्कारी पूंजी ने अपने मुनाफे के लिये पूरी मानवता को खतरे में डाल दिया, एक ओर मुट्ठी भर लोगों के वैभव का सुखी संसार और दूसरी और अभावों और असुरक्षा का दुखी संसार। पूंजी का इतना कुत्सित रूप कि खुद पूंजीवाद के प्रवक्ता शर्मसार हो गये और पूंजी के इस कुत्सित रूप को मानवीच चेहरा देने, विकास के इस एकांगी रूप को समावेशी रूप देने, नैतिकता की राजनीति, और ऐथिक्स आफ इकोनोमी की बातें होने लगी, ताकि किसी तरह इस डूबते हुए जहाज को बचाया जा सके। लेकिन अन्याय, अत्याचार, अमानवीयता से भरा हुआ यह जहाज किनारे लग नहीं सकता। डूबना ही इसकी नियति है।
एक बार फिर रवीन्द्रनाथ याद आते हैं – ‘‘मानव के इतिहास में आतिशबाजी के कुछ ऐसे युग भी आते हैं, जो अपनी शक्ति व गति से हमें चकित कर देते हैं। ये न केवल हमारे साधारण घरेलू दीपकों की हंसी उड़ाते हैं, बल्कि अनंत नक्षत्रों का भी मजाक उड़ाते हैं। लेकिन इस भड़काऊ दिखावे के आगे हममें अपने दीपकों को निरस्त करने की इच्छा मन में नहीं आनी चाहिए। हमें इस अपमान को धैर्यपूर्वक सहना होगा और यह समझना होगा कि इस आतिशबाजी में आकर्षण तो है पर यह स्थायी नहीं है क्योंकि इसकी अति ज्वलनशीलता ही इसकी शक्ति और अंतत: इसके बुझ जाने का भी कारण होती है। यह किसी लाभ व उत्पादन के बजाय अपनी ऊर्जा तथा क्षार को भारी मात्रा में खर्च करती है।"
मनुष्य की आत्मा के दीपक को बुझाकर कोई भी सभ्यता जिंदा नहीं रह सकती और रवीन्द्रनाथ मनुष्य की इसी अक्षत, अपराजेय आत्मशक्ति के महान गायक थे। उनकी वाणी आज भी हमें बल प्रदान कर रही है– ‘तुम सबको इस स्वार्थ–दानव के मंदिर की दीवालें तोड़ देनी होगी, यह नरबली अब नहीं चलेगी। हुक्म मिलते ही तोप के गोले आकर उस मंदिर की दीवालों को तड़ातड़ चूर्ण करने में जुट गये हैं। ...जो लोग आराम में थे, वे आराम को धिक्कार देकर कहने लगे हैं–प्राणों से चिपके नहीं रहेंगें, मनुष्य के पास प्राणों से भी बढ़कर कोई और चीज है। आज तोपों के गर्जन में मानव का जय–संगीत बज उठा है।"
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