हिन्दी ब्लॉगरों और बेव लेखकों ने पिछले दिनों कमाल का काम किया थ्री जी स्पेक्ट्रम के बारे में चल रहे घोटाले पर जमकर लिखा। केन्द्रीय संचारमंत्री और उसके साथ जुड़े घोटालों का पर्दाफाश किया।
सबसे पहले थ्री जी स्पेक्ट्रम का पर्दाफाश टीवी चैनल ‘आजतक’ और ‘हेडलाइन टुडे’ ने किया। कैसे भारत में संचार मंत्रालय रेडियो तरंगों की लूट का केन्द्र बना है और कैसे मंत्री की नियुक्ति से लेकर रेडियो तरंगों की निजी क्षेत्र के हाथों बिक्री तक समूचे मामले में पारदर्शिता का अभाव है, नियम तोड़े जा रहे हैं, कम दामों पर भारतीय कंपनियां तरंगों की खरीद करके विदेशी कंपनियों को कई गुना ज्यादा दामों पर बेच रही हैं इत्यादि पहलुओं का अनेक ब्लॉगरों और बेव पत्रिकाओं में उदघाटन भी हुआ है।
टीवी चैनलों का दावा है कि तरंगों की बिक्री के मामले में 60 हजार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है। इस घोटाले में दो मीडिया सैलीबरेटी बरखा दत्त और वीर सिंघवी के नाम भी आए हैं। इन दोनों की वर्तमान संचारमंत्री को वांछित मंत्री पद दिलाने में भूमिका रही है। यह मसला संसद में भी उठा है,विपक्षी दलों ने काफी हंगामा किया है और भारत के इतिहास का इसे सबसे बड़ा घोटाला कहा है।
इस प्रसंग में हमारे सारे एक्सपोजर लेखक कहीं न कहीं यह मानकर चल रहे हैं कि थ्री जी स्पेक्ट्रम की बिक्री के मामले सीधे संचारमंत्री दोषी है और लॉबिंग करने वाले अपराधी हैं। सारे मसले को जिस तरह पेश किया गया है उससे मूल सवाल और मूल अपराधी ही गायब हो गया है।
मूल सवाल आवंटन में ईमानदारी का नहीं है। रेडियो तरंग राष्ट्रीय संपत्ति है और अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत इनका राष्ट्र को ही आवंटन होता है। रेडियो तरंग अमूल्य है और इसका निजी क्षेत्र में व्यापार नहीं किया जा सकता।
कांग्रेस पार्टी ने बड़ी चालाकी से अमेरिकन पूंजीपतियों के मार्ग का अनुसरण करते हुए रेडियो तरंगों को निजी क्षेत्र के हाथों बेचने का सिलसिला आरंभ किया और दूरसंचार और मीडिया के क्षेत्र में इसे गैट समझौते के तहत निजी क्षेत्र को बेचने और धन कमाने का फैसला लिया।
रेडियो तरंगे बेचना राष्ट्रद्रोह है और इसे किसी भी तर्क से स्वीकार नहीं किया जा सकता। रेडियो तरंगों को जब निजी क्षेत्र के हाथों बेचा जा रहा था उस समय तरंगों के स्वामित्व के सवाल पर किसी भी राजनीतिक दल ने आवाज नहीं उठायी, सभी दल नव्यउदारवाद पर बहस कर रहे थे। मीडिया में भी रेडियो तरंगों के स्वामित्व पर कभी बहस नहीं हुई। रेडियो तरंगों के स्वामित्व का प्रश्न कभी संसद में भी नहीं उठा। यह हमारी गुलाम मनोदशा का संकेत है।
यूनेस्को में एक जमाने में भारत सरकार की यह नीति रही है कि रेडियो तरगों को निजी क्षेत्र को नहीं सौंपा जा सकता। सारी दुनिया के अधिकांश देश इस पर एकमत थे लेकिन अमेरिकी बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियां चाहती थीं कि रेडियो तरंगों को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया जाए। इसके लिए अंत में उन्होंने विश्व व्यापार संगठन और गैट वार्ताओं के चोर दरवाजे का इस्तेमाल किया और सारी दुनिया की रेडियो तरंगों को निजी क्षेत्र के हाथों सौंपने का रास्ता खोज निकाला। रेडियो तरंगों की चोरी के लिए भाषा और मुहावरे को बदला गया।
दूरसंचार और मीडिया को विदेशी निजी पूंजी निवेश के लिए खोल देने की वकालत की गयी। मुक्त व्यापार के नाम पर रेडियो तरंगों पर राष्ट्र के स्वामित्व को खत्म किया गया। जिस समय यह सब चल रहा था हमारे अक्लमंद बुद्धिजीवी रेडियो तरंगों के स्वामित्व के सवाल पर नहीं नीम और हल्दी के पेटेंट के सवालों में उलझे हुए थे। यह हमारे बुद्धिजीवियों की गुलामी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भक्ति का आदर्श उदाहरण है। हमें सवाल करना चाहिए के गैट वार्ताओं पर हजारों लेख लिखने वालों ने रेडियो तरंगों के सवाल पर एक भी लेख क्यों नहीं लिखा,जो लोग नीम,हल्दी,चावल के पेटेंट पर हंगामा कर रहे थे वे रेडियो तरंगों के सवाल पर चुप क्यों थे आज भी वे चुप क्यों हैं ?
गैट और विश्व व्यापार संगठन की वार्ताओं में रेडियो तरंगों के सवाल पर क्या हो रहा है इसे केन्द्र सरकार ने छिपाया। राजनीतिक दल रेडियो तरंगों के स्वामित्व के सवाल पर चुप थे। किसी भी राजनीतिक दल ने रेडियो तरंगों के निजीकरण का सीधे विरोध नहीं किया। संसद में रेडियो तरंगों के सवाल पर कभी बहस ही नहीं हुई।
गैट वार्ताओं के नाम पर जो समझौता हुआ उसके जरिए चालाकी से रेडियो तरंगों की लूट का रास्ता खुल गया। इसके लिए बहुत सुंदर नाम दिया दूरसंचार और मीडिया में विनिवेश। दूरसंचार से लेकर मीडिया तक जो लोग विनिवेश कर रहे हैं वे बुनियादी तौर पर रेडियो तरंगों की लूट कर रहे हैं।
रेडियो तरंगों की लूट अक्षम्य अपराध है। इन तरंगों को बेचना भी अपराध है। लेकिन गैट वार्ताओं के जरिए पिछले दरवाजे से रेडियो तरंगों की लूट का मार्ग निकाल लिया गया। इस लूट का सबसे ज्यादा लाभ निजी क्षेत्र की संचार कंपनियों और बहुराष्ट्रीय संचार और मीडिया कंपनियों को हुआ है। वे रातों-रात अरबों-खरबों का मुनाफा कमाने लगीं हैं और भारत सरकार का दूरसंचार विभाग गरीब होता चला गया। हमें बताया गया यह संचार क्रांति है,ज्ञानसमाज और सूचना समाज की ओर प्रयाण है। एक तरफ रेडियो तरंगे बेची जा रही थीं इससे राष्ट्र कंगाल बन रहा था दूसरी ओर ज्ञान ही शक्ति है,मीडिया ही शक्ति है का नारा देकर दिग्भ्रमित किया जा रहा था।
रेडियो तरंगे दुनिया की सबसे मूल्यवान संपदा है। बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियां रेडियो तरंगों की लूट के जरिए राजनीति को पूरी तरह नियंत्रित रखती हैं। संचारमंत्री के टेप की बातचीत का मीडिया में आना इस बात का संकेत तो है ही कि तरंगों के आवंटन में घोटाला हो रहा है उससे भी बडी बात यह है कि इस घोटाले की टेप को टीवी चैनल के जरिए प्रसारित कराकर दूरसंचार कंपनियां केन्द्र सरकार पर दबाब बनाना चाहती हैं,वे तरंगों के मामले में ब्लैकमेल कर रही हैं। सरकार और राजनीतिक दलों को अपने इशारों पर नाचने के लिए मजबूर कर रही हैं।
यह हम सब जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा दोनों ही पार्टियां दूरसंचार क्षेत्र के निजीकरण और इस क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश के पक्ष में रहीं हैं। सिर्फ वामदलों ने दूरसंचार में निजी पूंजी के प्रवेश का विरोध किया था।रेडियो तरंगों के स्वामित्व पर वे भी चुप थे। बाकी दलों ने विनिवेश का समर्थन किया था। मूल बात यह कि जब आप एकबार दूरसंचार में निजी क्षेत्र के प्रवेश पर एकमत हैं तो आपको रेडियो तरंगों को निजी कंपनियों को बेचना होगा। रेडियो तरंगों का बेचना अपराध है राष्ट्रद्रोह है।
जब से दूरसंचार कंपनियों को रेडियो तरंगें बेची जा रही हैं तब से दूरसंचार कंपनियां ,केन्द्र सरकार और दलों की नीति निर्धारक बन गयी हैं और स्थायी तौर पर विभिन्न राजनीतिक दलों को धन मुहैय्या कराने का काम कर रही हैं। दूरसंचार कंपनियों को रेडियो तरंगें किसी भी कीमत पर नहीं मिलनी चाहिए ये तरंगें संपदा उत्पादन का समुद्र हैं। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।
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