गुरुवार, 6 मई 2010

कश्मीर की दहशत के आर-पार

 (कश्मीर में आतंकवाद के शिकार लोग)  
            कश्मीर में दहशत का राज्य है। राज्य और केन्द्र सरकार कितना ही दावा करें कि वहां पर स्थिति सामान्य है,लेकिन यथार्थ यही बताता है कि कश्मीर अशांत है। कश्मीर की अशांति की जड़ें जितनी भारत के अंदर फैली हैं उससे ज्यादा भारत के बाहर फैली हैं। कश्मीर की अशांति का सबसे घातक प्रभाव यह हुआ है कि उसने उत्पीड़ितों को बांट दिया है। उत्पीड़ितों में एका की बजाय फूट है इसके विपरीत कश्मीर के उत्पीड़क आतंकी और उनके संरक्षक एकजुट हैं।
     कश्मीर में आतंकी वातावरण और हिंसाचार से हिन्दू,मुसलमान,औरतें ,बच्चे,किसान और मजदूर सभी परेशान हैं। इन सबके घर उजड़े पड़े हैं। हजारों लोगों को विस्थापन का सामना करना पड़ा है। किसी के पास धंधा नहीं है। सब सरकारी मदद पर गुजारा कर रहे है। कोई भी घर ऐसा नहीं है जिसे आतंकी आग ने जलाया न हो।  कश्मीर के आतंकवाद का स्रोत है साम्प्रदायिकता।  
    आम तौर पर यह देखा जाता है कि आतंकी ताकतों के खिलाफ जनता और खासकर उत्पीड़ित जनता नहीं रहती। लेकिन भारत में आतंकी,साम्प्रदायिक और पृथकतावादी संगठन अपने साथ आम जनता के एक हिस्से को गुमराह करके गोलबंद करने में सफल रहे हैं। इससे विभाजनकारी राजनीति को प्राणवायु जुटाने में मदद मिली है।
     भारत-पाक में आतंकवाद और पृथकतावादी राजनीतिक फिनोमिना का मूल स्रोत साम्प्रदायिक विचारधारा है। साम्प्रदायिकता कब आतंकवाद में अपने को रूपान्तरित कर लेगी और कब पृथकतावादी शक्ल अख्तियार कर लेगी,इसके बारे में पूर्वानुमान लगाना संभव नहीं है। खालिस्तान की मांग पर पंजाब में अकाली राजनीति का पृथकतावादी राजनीति में रुपान्तरण हम सब जानते हैं। यही बात कश्मीर के बारे में कह सकते हैं। कश्मीर को लेकर पाक और संघ परिवार का अपने-अपने कारणों से साम्प्रदायिक नजरिया रहा है। पृथकतावादी-आतंकी राजनीति को अलग-थलग ड़ालने के लिए साम्प्रदायिक राजनीति से आम लोगों का अलगाव बेहद जरुरी है।
     आतंकवाद और पृथकतावाद का गोमुख है साम्प्रदायिक राजनीति । मुस्लिम लीग ने साम्प्रदायिक आधार पर भारत-पाक विभाजन किया,बाद में पाकिस्तान अपना विभाजन नहीं रोक पाया,भाषा के सवाल पर बंगला देश अलग हो गया।
      साम्प्रदायिकता के आधार पर पाक को एकजुट रखने में पाक की असमर्थता का ही दुष्परिणाम है कि आज समूचा पाकिस्तान आतंकवाद की ज्वाला में जल रहा है। पाक में आतंकवाद के आने का वातावरण अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के प्रवेश ने नहीं बनाया वह तो बहाना मात्र है। अफगानिस्तान की समस्या नहीं होती तब भी पाक को आतंकी मार्ग पर ही जाना था। बंगलादेश का जन्म अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के प्रवेश के पहले हुआ था।                     
      कहने का तात्पर्य है कि जब आप एकबार साम्प्रदायिक राजनीति का रास्ता पकड़ लेंगे तो यह मार्ग आपको साम्प्रदायिकता तक सीमित नहीं रहने देगा। साम्प्रदायिक संगठन कभी भी पृथकतावादी रास्ते पर जा सकते हैं , कभी भी आतंकी रास्ते पर जा सकते हैं और कभी भी अंधक्षेत्रीयतावाद का मार्ग पकड़ सकते हैं।
      इन दिनों आए दिन हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक संगठनों के कार्यकर्ता आतंकी योजनाओं को अंजाम देते पकड़े गए हैं। ऐसा क्यों हो रहा है कि हिन्दुत्ववादी राजनीतिक संगठनों के लोग ही आतंकी हरकतों में धरे जा रहे हैं।  इससे पहले पंजाब में अकालीदल की साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले खालिस्तानी आतंकी का रुप धारण कर चुके हैं। हमें इस सवाल पर गंभीरता के साथ सोचना चाहिए कि कश्मीर में फैले आतंकवाद का विचारधारात्मक स्रोत क्या है ?
         सामाजिक विभाजन पैदा करने वाली राजनीतिक ताकतें हमेशा आम जनता की दैनन्दिन जिंदगी के किसी न किसी यथार्थ ज्वलंत मसले के जरिए अपना आंदोलन आरंभ करती है। बाद में वह मसला गौण हो जाता है और उसकी जगह विभाजनकारी प्रसंग आकर कब्जा जमा लेते हैं। यथार्थ सवालों पर साम्प्रदायिक-विभाजनकारी राजनीतिक ताकतों की सक्रियता भयावह भविष्य की पूर्व-सूचना है।   
     विभाजनकारी फिनोमिना को घटना के आधार पर मांगों के आधार पर नहीं राजनीतिक मंशा और परिप्रेक्ष्य के आधार पर देखना चाहिए। विभाजनकारी ताकतों का घटना विशेष पर किया गया प्रौपेगैण्डा घटना के प्रति जागरूकता कम विभाजनकारी, साम्प्रदायिक अथवा आतंकी भावबोध ज्यादा पैदा करता है।
       वे घटना विशेष का प्रचार करके आम लोगों में विभाजन के बीज बोने का प्रयास करते हैं। वे घटना को बहाने के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। घटना को औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं । उनका असल मकसद घटना के न्यायपूर्ण समाधान की खोज करना नहीं है बल्कि विभाजन के फिनोमिना को दिलो-दिमाग में उतारना है। विभाजनकारी ताकतें सबसे पहले आम आदमी के दिलोदिमाग पर हमला करती हैं। विचारों की फौज के जरिए हमला करती हैं।    
       साम्प्रदायिक विचारों की फौज का अहर्निश हमला इंटरनेट और टीवी के युग में और भी तेजी से विषाक्त वातावरण बना सकता है। अगर आप विचारों की दुनिया में जहर उगलते हैं तो आपको इस प्रक्रिया में बदले में अमृत नहीं मिलेगा। साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद और आतंकवाद के नाम पर जितना विचारधारात्मक प्रचार अभियान तेज होगा उतना ही आम जनता के दिल में सामाजिक विभाजन पुख्ता होगा। सामाजिक विभाजन साम्प्रदायिक विचारों के हमले से बढ़ता है। इस प्रक्रिया में आम जनता किसी भी विभाजनकारी मार्ग पर जा सकती है। 
      कश्मीर के उत्पीड़क वातावरण में कई चीजें एक साथ घुली-मिली हैं। यह वातावरण किसी एक कारक की देन नहीं है। बल्कि कारकों के समूह की देन है। कश्मीर के संदर्भ में सरलीकृत फार्मूले हमारी मदद नहीं कर सकते। साम्प्रदायिक ,आतंकी और पृथकतावादी ताकतें सरलीकृत राजनीतिक फार्मूलों के जरिए कश्मीर की जनता को भावनात्मक तौर पर भड़काती हैं और फिर कहते हैं कि देखो हम सही कह रहे थे, देखो वहां की जनता भी वही कह रही है जो हम कह रहे थे।
     सबसे पहले कश्मीर के विध्वंसक मॉडल को समझे। पाकिस्तान ने पहले कश्मीर के बारे में गलत बोला कि कश्मीर ,भारत का नहीं पाक का हिस्सा है, इस दावे को बार-बार दोहराया गया। पाक का कश्मीर पर दावा आज से 60 साल पहले गलत था और आज भी गलत है। गलत को सही सिद्ध करने के लिए कश्मीर का एक हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया। इस मामले में भारत के शासकों की राजनीतिक कमजोरियों का पाक ने फायदा उठाया।
       भारत के राजनीतिज्ञों की सबसे बड़ी कमजोरी है साम्प्रदायिक और पृथकतावादी ताकतों के प्रति दो टूक रवैय्ये का अभाव। सामाजिक विभाजन के परिणामों के प्रति उदासीनता। आजादी के संग्राम के दौरान ही यह कमजोरी सामने आ गयी थी कि भारत के राजनेता विभाजनकारी फिनोमिना के प्रति तदर्थ भाव से पेश आ रहे थे। विभाजनकारी ताकतों के प्रति दो-टूक रवैय्या अपनाने की बजाय उन्होंने तदर्थ रुख अपनाया। खासकर साम्प्रदायिकता के प्रति सामंजस्य बिठाने या फिर जोड़तोड़ करके रास्ता निकालने की कोशिश की। साम्प्रदायिक राजनीति को संगठन विशेष में सीमित करके देखा। यह रवैय्या कांग्रेस की विशेषता रही है बाद में अन्य ने इसका अनुकरण किया।
      

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