भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं,कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं । उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय,घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है। आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों , पश्चिमी रहन-सहन,वेशभूषा,जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्त हैं। हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलेगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है ,वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों,दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना,दृढ़ बंधुत्व के बिना ,दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते,खासकर ऐसे समय ,जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’ भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
रविवार, 31 जुलाई 2011
शनिवार, 30 जुलाई 2011
साइबर अन्ना और लोकतंत्र
अन्ना हजारे का जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन धीरे धीरे अंगड़ाई ले रहा है। अन्ना को दिल्ली पुलिस ने जंतर-मंतर पर आमरण अनशन करने की अनुमति नहीं दी है। सवाल उठता है वे जंतर-मंतर पर ही आमरण अनशन क्यों करना चाहते हैं ? वे दिल्ली के बाहर कहीं पर भी आंदोलन क्यों नहीं कर रहे ? अन्ना अपने कर्मक्षेत्र महाराष्ट्र में ही आमरण अनशन पर क्यों नहीं बैठते ? जंतर-मंतर तो लोकपाल का मुख्यालय नहीं है। संसद को सुनाने के लिए संसद के गेट पर ही आमरण अनशन होगा और तब ही संसद सुनेगी,यह तर्क गले नहीं उतरता।
असल में अन्ना का दिल्ली का जंतर-मंतर एक्शन अप्रासंगिक है। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकपाल बिल की एक मसले के रूप में विदाई हो गयी है और अन्ना अपने अहंकार के शिकार हो गए हैं। केन्द्र सरकार ने लोकपाल बिल बनाने के लिए उन्हें पिछलीबार अनशन से उठाकर लोकपाल बिल की एक विषय के रूप में पहल अन्ना के हाथ से छीन ली।अन्नाटीम को मसौदे की बातचीत में उलझाए रखा और अपना मसौदा संसद के सामन पेश करके अन्ना को हाशिए पर डाल दिया है।
केन्द्र सरकार ने जिस तरह लोकपाल बिल को तैयार किया है और संसद में पेश करने की घोषणा की है उससे एक ही संदेश गया है कि सरकार लोकपाल बिल पर काम कर रही है और सिस्टम बनाने में लगी है। इस तरह उसने अन्ना टीम के जन लोकपाल बिल को महज एक दस्तावेज में तब्दील कर दिया है। केन्द्र सरकार ने चालाकी करके अन्नाटीम के अधिकांश सुझाव अपने बिल के मसौदे में शामिल कर लिए हैं। सरकारी मसौदे में अन्नाटीम के 32 सुझाव शामिल किए गए हैं। केन्द्र सरकार का अन्नाटीम के अधिकांश सुझावों को मानना ही जनलोकपाल बिल की मौत की घोषणा है।
अन्ना के आंदोलन को जिस तरह कारपोरेट घराने समर्थन कर रहे हैं और कारपोरेट मीडिया कवरेज दे रहा है उसका एक अर्थ यह भी है कि भारत में 'एंटी कारपोरेट आंदोलन' का अंत हो गया है। यह उस संघर्ष के इतिहास के अंत की घोषणा है जिसे पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष कहते हैं।
अन्ना प्रतीक है उस समापनक्षण के जिसमें कारपोरेट घरानों के खिलाफ अब जंग नहीं लड़ी जा रही। अन्नाटीम का संघर्ष महत्वपूर्ण है कि उसने एंटी कारपोरेट आंदोलन को विदाई दे दी है। अन्ना की मीडिया इमेज की अहर्निश वर्षा का संदेश है कि अब वैकल्पिक दुनिया संभव नहीं है। अन्ना के मतवाले साइबरवीरों से लेकर दनदनाते स्वयंसेवकों तक सभी का लक्ष्य है आम जनता के मूड को एंटी कारपोरेट अनुभूतियों से बाहर निकालना।
अन्नाटीम को आमतौर पर मीडिया ने सिविल सोसायटी नाम दिया है। इस आंदोलन में अनेक छोटे स्वयंसेवी संगठनों की शिरकत है। लेकिन अन्ना आंदोलन के पास भारत की जनता के लिए,संघर्षशील सामाजिक और वर्गीय आंदोलनों के लिए प्रेरणा देने लायक न तो कोई भाषण है और न कोई वक्तव्य है। अन्नाटीम आज तक एक भी ऐसा प्रेरणाप्रद बयान जारी नहीं कर पायी है जो सारे देश की इमेजिनेशन को पकड़े और अपनी ओर आकर्षित करे।
अन्ना की भाषा में मर्मस्पर्शी माधुर्य नहीं है। उनकी आवाज में हमेशा एक सैनिक का कर्कश कण्ठस्वर सुनाई देता है। वे जब बोलते हैं तो एक हायरार्की पैदा करते हुए बोलते हैं। उनकी भाषा में विनम्रता कम और अहंकार का भाव ज्यादा है। आंदोलनकारी की भाषा गांधी की भाषा होनी चाहिए। विनम्रभाषा होनी चाहिए। आंदोलनकारियों की नई फौज ऐसी भाषा बोल रही है जिसमें विचारधारा नहीं दिखती,खाली मांग दिखती हैं। जनता के मर्म को सम्बोधित करने का भाव व्यंजित नहीं होता। इसके विपरीत रेटोरिक व्यक्त होता है। रेटोरिक अपने आपमें विषय के अंत की घोषणा है।
अन्ना के साथ विभिन्न रंगत और विचारधारा के लोग जुड़ गए हैं। उनको समर्थन देने वालों में माकपा से लेकर भाजपा तक सभी शामिल हैं। उनके साथ काम करने वाले संगठनों में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले संगठन भी हैं। इतने व्यापक विचारधारात्मक संगठनों का अन्ना के पीछे समाहार इस बात का संकेत है कि अब कारपोरेट घरानों को घबड़ाने की जरूरत नहीं हैं। विचारधारा की जगह व्यवहारवाद ने ले ली है। व्यवहारवाद का केन्द्र में आना एंटी कारपोरेट आंदोलन की समाप्ति है।
अन्नाटीम को जितना व्यापक मीडिया कवरेज मिल रहा है वैसा हाल के वर्षों में किसी आंदोलन को कवरेज नहीं मिला। अन्नाभक्तों के हजारों संदेश, ईमेल, बयान आदि मीडिया से लेकर इंटरनेट तक छाए हुए हैं लेकिन कारपोरेट घरानों और नव्य आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ कोई स्मरणीय प्रतिवाद नहीं है। जबकि सच यह है कि भ्रष्टाचार का गोमुख कारपोरेट घराने और नव्य आर्थिक उदार नीतियां हैं।
अन्ना हजारे बार -बार कड़े लोकपाल का हल्ला करके अपनी वर्गीय भूमिका पर से ध्यान हटाना चाहते हैं। अन्ना का मीडिया और इंटरनेट पर प्रौपेगैण्डा खूब है लेकिन यह आम जनता में नीचे नहीं जा रहा। मीडिया और नेट प्रचार की यह सीमा है कि उसे आप आम जनता के निचले और सुदूरवर्ती क्षेत्रों तक प्रसारित नहीं कर सकते। आप इंटरनेट और मोबाइल संदेशों से इवेंट निर्मित कर सकते हैं। आंदोलन नहीं कर सकते। अन्ना ने अब तक इवेंट निर्मित किए हैं। आंदोलन नहीं। आगे भी वो इवेंट ही बनाने जा रहे हैं। इवेंट को आंदोलन में तब्दील करने की कला अन्ना को नहीं आती।
अन्ना का 16 अगस्त का इवेंट निश्चित रूप से सरकारी बिल को लेकर क्रिटिकल है। लेकिन आम जनता के मन को स्पर्श करने में असमर्थ है। अन्ना टीम की मुश्किल यह है कि वे अपने आंदोलन के जरिए एक ही एक्शन करना चाहते हैं। और यह भी चाहते हैं कि कोई सरप्राइज घटना घटित हो। यही पद्धति बाबा रामदेव ने अपनायी थी। अन्ना और रामदेव के विगत दिनों हुए आंदोलन में सरप्राइज यहीथा कि केन्द्र सरकार ने पर्याप्त दिलचस्पी ली और मंत्रियों को एक्शन में उतारा।
अन्नाटीम की विशेषता है कि उनके पास अंतर्राष्ट्रीय से लेकर राष्ट्रीय और राज्य स्तर तक के नेटवर्क सांगठनिक कनेक्शन हैं। लेकिन इनके पास कोई विज़न नहीं है। कोई क्रांतिकारी या परिवर्तनकामी दर्शन नहीं है। अन्नाटीम और उनके अनुयायियों के नेट पर बयान और अस्वाभाविक सक्रियता का अर्थ यह भी है कि इन लोगों की नागरिक अभिलाषाओं को डिजिटल संचार हजम कर रहा है।
अन्ना के यहां डिजिटलकल्चर का व्यापक दोहन हो रहा है। इंटरनेट पर तमाम किस्म के समूह हैं जो विभिन्न विषयों पर सक्रिय हैं। ये जीवनशैली से लेकर हिन्दुत्व, अन्ना से लेकर सेक्स, माल की बिक्री से लेकर निजी प्रचार के क्षेत्र तक सक्रिय हैं। नेट की साइबर भीड़ वस्तुतः नागरिक का विकल्प है,यह नागरिक नहीं हैं। इस साइबर भीड़ का अपना साझा एजेण्डा भी है।
साइबर भीड़ के अचानक उदय का प्रधान कारण है समाज में सामूहिक समूहों और समुदायों की सक्रियता का ह्रास। सामाजिक जीवन में सार्वजनिक स्पेस का क्षय होने के कारण साइबर भीड़ में इजाफा भी हो रहा है। आमजीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतिवाद गायब है। इसीलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ इंटरनेट पर लोगों की संख्या बढ़ रही है। आमजीवन में दोस्त गायब हैं लेकिन फेसबुक पर सैंकड़ो-हजारों मित्रों की संख्या बढ़ रही है। आम जीवन में संवाद गायब है,आमने-सामने मिलते हैं तो बात ही नहीं करते लेकिन साइबर चैट,ईमेल.फेसबुक संवाद आदि ज्यादा करने लगे हैं। यह असल में नागरिक जीवन में संवाद,मित्रता,संगठन,समुदाय आदि के साथ नागरिकता के क्षय की सूचना है यह लोकतंत्र के क्षयिष्णु रूप की सूचना है। यह कारपोरेट घरानों के लिए आराम की नींद सोने का दौर है।
अन्नाटीम या अन्य किसी को इंटरनेट और मीडिया में अपनी खबरों और संदेशों के प्रवाह को देखकर यह महसूस हो सकता है कि देखो कितनी जनता बात कर रही है,देख रही है,समर्थन कर रही है। लेकिन सच यह है कि यह जनता नहीं साइबर भीड़ है। वे सामाजिक या राजनीतिक घटना को कवरेज नहीं दे रहे हैं। बल्कि नजारा बना रहे हैं। वे कोई घटना नहीं बनाते बल्कि पहले से बने हुए मीडिया वातावरण में 'कुछ बयां' करते हैं। इस क्रम में वे चैनल,सेवा और माल (अन्ना आदि) की बिक्री करते हैं।यहां जो आत्मीयता और लगाव दिखाई देता है वह मार्केटिंग की कला है।
शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
कारपोरेट मीडिया का अन्ना ऑब्शेसन
अन्ना हजारे ने अपने अनशन की घोषणा कर दी है। वे 16 अगस्त से अनशन पर बैठेंगे। असल में इस अनशन का कोई अर्थ नहीं है। अन्ना हजारे की राजनीति का आधार है 'मैं सही और सब गलत' । लोकतंत्र में ' मैं' के लिए जितनी जगह है उससे ज्यादा 'अन्य' के लिए जगह रखनी होती है। अन्ना के राजनीतिक एजेण्डे में 'अन्य ' के लिए कोई जगह नहीं है। अन्ना की राजनीति में 'जिद' का बड़ा महत्व है,यह ऐसे व्यक्ति की जिद है जिसकी कोई सामाजिक जबावदेही नहीं है। अन्ना और उनकी टीम की लोकतंत्र के मौजूदा ढ़ांचे में कोई जबाबदेही नहीं है। वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र हैं।
अन्ना की पूरी समझ इस धारणा पर टिकी है कि 'सरकारी लोकपाल' भरोसेमंद नहीं है। वे 'सरकार' के प्रति संदेह की नजर रखते हैं। सरकार के प्रति अविश्वास के आधार पर राजनीति नहीं चलती। सरकार के प्रति आलोचनात्मक हो सकते हैं लेकिन सरकार के पक्ष को पूरी तरह दरकिनार नहीं कर सकते। आखिरकार सरकार भी तो देश की बृहत्तर जनता का प्रतिनिधित्व कर रही है। जबकि अन्ना तो अपने गुटों और सहयोगी संगठनों का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
अन्ना की एक अन्य दिक्कत है कि वे हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं। लोकतंत्र में यह संभव नहीं है। तानाशाही में यह संभव है कि किसी एक ने कहा और उसे सारे देश पर थोप दिया गया। अन्ना की जिद है जो कहा है उसे मानो।जैसा कह रहे हैं वैसा करो। जिस दिन करने को कह रहे हैं उसदिन करो। अन्ना का स्वभाव लोकतंत्र की प्रक्रियाओं के बाहर रमण करता है। वे चाहते हैं भ्रष्टाचार पर लगाम लगे,भ्रष्ट लोगों को दण्ड मिले लेकिन मुश्किल यह है कि वे इसे अपनी गति और मति के आधार पर करना चाहते हैं।
अन्ना की गति और मति का लोकतंत्र की गति और मति से दूर-दूर तक तार नहीं जुड़ता। अन्ना लोकतंत्र के डिक्टेटरर हैं। लोकतंत्र में डिक्टेटरशिप नहीं चलती चाहे जितनी भी अच्छी बातें करे डिक्टेटरर। अन्ना की पहले अनशन के समय मांग थी कि सारे देश में मजबूत लोकपाल की स्थापना हो और उसके लिए तुरंत लोकपाल बिल लाया जाए। केन्द्र सरकार ने उनकी यह मांग बुनियादी तौर पर मान ली है और संसद के अगस्त से आरंभ हो रहे सत्र में लोकपाल बिल पेश होने जा रहा है। अनशन आरंभ होने के बाद अन्ना ने स्टैंड बदला और कहा कि लोकपाल के लिए संयुक्त समिति बने जिसमें सरकार और 'अन्ना ब्रॉण्ड सिविल सोसायटी' के लोग हों। सरकार ने यह भी मान लिया। संयुक्त मसौदा समिति बना दी गयी। बाद में अन्ना स्वयं ही समिति में चले आए जबकि आरंभ में वे किसी समिति में रहना नहीं चाहते थे। मजेदार बात यह है कि अन्ना क्या चाहते हैं और उनकी मांगे क्या हैं उनके विवरण और ब्यौरे बादमें आम जनता में आए। आरंभ में मांग थी लोकपाल बिल लाओ।
अन्ना अब कह रहे हैं केन्द्र सरकार ने लोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया है वह देश की जनता के साथ छल है। अन्ना जानते हैं छल तब होता है जब कोई बात छिपायी जाए। धोखा तब होता है जब ठगा जाए। केन्द्र सरकार ने अपने नजरिए से न तो ठगा है और न किसी को धोखा दिया है। केन्द्र सरकार ने कभी नहीं कहा कि वह अन्ना की सारी बातें मानते हैं।
केन्द्र सरकार ने अपने नजरिए से एक लोकपाल बिल तैयार किया है और उसे वह संसद में पेश करने जा रही है। सांसदों के ऊपर है कि वे उसे किस रूप में पास करें। केन्द्र सरकार ने लोकपाल बिल का वायदा किया था और वे जिस नजरिए से देख रहे हैं उसके आधार पर एक मसौदा संसद में पेश करने जा रहे हैं। सारी चीजें पारदर्शी हैं। अन्ना के लोग खुलेआम जितना बोल रहे हैं और अपनी असहमतियों का इजहार कर रहे हैं वैसा अन्य दल नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मीडिया ने सारे मसले को अन्ना बनाम सरकार का मसला बना दिया है।
अन्ना और सरकार के अलावा अनेक राजनीतिक दल हैं और विभिन्न किस्म के सैंकड़ों संगठन हैं जिनकी लाखों-करोड़ों की मेम्बरशिप है। मीडिया की बहस में ये संगठन एकसिरे से गायब हैं। इससे एक बात का पता चलता है कि अन्ना को लेकर मीडिया ऑब्शेसन का शिकार है। मसलन् विभिन्न विचारधारा के महिला,किसान ,मजदूर,युवा और छात्र संगठन हैं,इसके अलावा ऐसे भी स्वयंसेवी संगठन हैं जिनकी सैंकड़ों यूनिटें हैं। इनकी राय एकसिरे से गायब है।
कारपोरेट मीडिया का अन्ना के प्रति ऑब्शेसन इस बात का सबूत है कि वह भारत की बृहत्तर ओपिनियन की उपेक्षा कर रहा है। विगत दिनों टीवी स्टूडियो में डिशकशन के नाम पर जो भीड़ अन्नाभक्तों की जुटायी गयी थी वह भी कारपोरेट मीडिया के अन्ना ऑब्शेसन को ही सामने लाती है। अन्न्भक्त स्टूडियो में अन्नाटीम से भिन्न राय व्यक्त करने वालों को हूट कर रहे थे।
अन्नाभक्तों की बॉडी लैंग्वेज में लोकतांत्रिक विनम्रता नहीं है। वे आक्रामक और उद्धत हैं। जबरिया मनवाने में विश्वास करते हैं और मीडियासेवी लोग हैं। इन्हें लोकतंत्र के अधीर नागरिक कहना समीचीन होगा। लोकतंत्र अधीरों से नहीं धीरवान समाज से चलता है। लोकतंत्र में जिद्दीभाव की नहीं लोकतांत्रिक भाव की जरूरत है। लोकतंत्र 'मैं 'का नहीं 'हम' का खेल है।
लोकतंत्र में व्यक्ति नहीं संस्थान महत्वपूर्ण हैं। अन्ना -मनमोहन,सिविल सोसायटी-कांग्रेस-भाजपा-माकपा आदि से बहुत बड़ा दायरा है लोकतंत्र का। लोकतंत्र का आधार हैं संस्थान। संस्थानों की अपनी काम करने की गति है। उस गति की उपेक्षा करने से लोकतंत्र के नष्ट हो जाने का खतरा है। अन्ना की मुश्किल यह है कि वे लोकतंत्र के साथ संस्थान की गति के बाहर रहकर संबंध बनाना चाहते हैं।
अन्ना का 16 अगस्त को अनशन पर बैठना एकसिरे से गलत है। उन्हें लोकपाल बिल के अंतिम शक्ल लेने तक का इंतजार करना चाहिए। अभी पहला चरण है जिसमें मसौदा तैयार हुआ है और वह संसद में जाएगा तो उसको अन्य प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। इसमें जो भी समय लगे वह देना होगा ,लेकिन अन्ना के पास धैर्य नहीं है। अधीरता से अन्ना की छोटी टीम तो चल सकती है लोकतंत्र नहीं चल सकता। लोकतंत्र में प्रक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं और उसके विभिन्न चरणों में गति बनाए रखने के लिए अपार धैर्य की जरूरत है।
अन्ना की एक और मुश्किल है कि वे लोकतंत्र के काल्पनिक संसार में रहते हैं। लोकतंत्र को कल्पना में पाना और संस्थान की प्रक्रियाओं में ठोस रूप में देखने में जमीन- आसमान का अंतर है। लोकतांत्रिक संस्थाएं भेड़-बकरी नहीं हैं जिन्हें कोई चरवाहा हांककर ले जाए।
लोकपाल बिल आरंभ है यह अंतिम पड़ाव नहीं है लोकपाल का। अन्ना की मुश्किल है कि वे लोकपाल और भ्रष्टाचार के भविष्य की सारी समस्याएं एक ही साथ पूरे परफेक्शन के साथ सिलटा देना चाहते हैं। लोकतंत्र में परफेक्शन, अनुभव से आता है।ख्यालों से परफेक्ट बिल या कानून हमेशा डिक्टेटर बनाते हैं। इस अर्थ में अन्ना लोकतंत्र के डिक्टेटर हैं। हमें लोकतांत्रिकअन्ना कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा जिसमें धैर्य हो, अन्य के लिए जगह हो,संसद की प्रक्रियाओं के प्रति नमनीय भाव हो।
अन्ना टीम का सारा प्रचार अभियान मीडिया ऑबशेसन पर टिका है। सभी बहसों में अन्नाटीम को सैलीब्रिटी के रूप में रखा जाता है। सामान्यतौर पर स्टूडियो में ऐसे लोग बुलाए जाते हैं जो अन्ना के फेन हैं या अनुयायी हैं। अन्नाटीम को मीडिया ने सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि सैलीब्रिटी के रूप में कल्टीवेट किया है।
अन्ना के इस समय जितने अनुयायी नेट पर हैं उतने जमीन पर नहीं है। जमीन पर वेही हैं जो नेट पर हैं। इनमें अधिकांश वे लोग हैं जो सोशल नेटवर्क से जुड़े हैं और सोशल नेटवर्किंग और मीडिया के ऑब्शेसन के शिकार हैं।
इनमें एक वर्ग उन लोगों काभी है जो भीडतंत्र का हिस्सा हैं। भीडतंत्र और लोकतंत्र में कारपोरेट मीडिया भेद करना नहीं जानता। भीडतंत्र की भाषा में ही बौखलाकर अन्नाटीम ने लोकपाल बिल को जोकपाल बिल कहा है। भीड़तंत्र के तर्कशास्त्र में सरकार या अधिकारी की बात न मानने का भाव होता है। वे सरकार की जमकर खिल्ली उड़ाते हैं। अन्नाटीम के लोग लोकतंत्र की खिल्ली उड़ा रहे हैं, मतदाता की खिल्ली उड़ा रहे हैं, वे वोटर की अज्ञानता,उपेक्षा,संवादहीनता,शिरकत के अभाव की खिल्ली उड़ा रहे हैं। स्वयं अन्ना हजारे यही हथकंडा अपना चुके हैं। स्वयं अन्ना ने आम नागरिकों की खिल्ली उड़ायी है। अन्नाटीम अपने को ज्ञानी और आम आदमी को मूर्ख मानकर तर्क दे रही है। संस्थान के नियम,कानून का शासन,कानून की गति,सरकार की मजबूरियां और जिम्मेदारियों आदि के प्रति अन्नाटीम का अनैतिहासिक नजरिया है। वे न तो संरचनाओं को ऐतिहासिक नजरिए से देख रहे हैं और न संसद और संविधान को ही।
सोमवार, 25 जुलाई 2011
ममता बनर्जी में माकपा की आवाजें
ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने के बाद आमलोगों को लग रहा था कि राज्य सरकार की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव आएगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि वे लगातार उसी मार्ग पर चल रही हैं जिसे माकपा ने वाम शासन में बनाया था। प्रत्येक क्षेत्र में ममता और उनके दल के कारनामे एक ही तथ्य की पुष्टि करते हैं कि पिछले वाम शासन के रास्ते से ममता मूलतः बंधी हुई हैं। राजनीतिक दलीय उत्पीड़न, जमीन, किसान,शिक्षा,संस्कृति आदि सभी क्षेत्रों में वे अभी तक नया कुछ भी नहीं कर पायी हैं। इस बात की पुष्टि हाल ही में पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी के गठन की घोषणा से भी होती है।
पश्चिम बंग बिन्दी अकादमी से जिस तरह का अपमानजनक व्यवहार वाम सरकार ने किया था वैसा सारे देश में किसी सरकार ने नहीं किया। उल्लेखनीय बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने समूचे 8 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल में हिन्दी अकादमी का गठन ही नहीं किया था।जबकि प्रत्येक 4 साल में गठन होना चाहिए। वाम सरकार ने विगत विधानसभा चुनाव से 2 माह पहले किसी तरह अकादमी की गवर्निंग बॉडी घोषित कर दी। कम से कम ममता बनर्जी को इसबात का श्रेय जाता है कि उन्होंने चुनाव जीतने के बाद ही अकादमी गठित कर दी। लेकिन वे वाम शासन के रास्ते को छोड़ नहीं पायी हैं। विगत वाम सरकार ने हिन्दी अकादमी की गवर्निंग बॉडी में 5 ऐसे लोग रखे जो हिन्दी लिखना नहीं जानते थे,15 ऐसे लोग रखे जो हिन्दी साक्षर-शिक्षक थे,लेकिन लेखक नहीं थे।
हाल ही में ममता बनर्जी सरकार ने पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी का गठन किया है। इसमें राज्य का एक भी बड़ा लेखक शामिल नहीं है। अकादमी में हिन्दी के अ-साहित्यिकों , भू.पू.पुलिस अफसरों और लालाओं को रखा गया है। इनमें ऐसे लोग हैं जिन्होंने सतीप्रथा और भारतीय फासिज्म का महिमामंडन किया है।ज्यादातर लोग खाकीनेकर मार्का फासिज्म के प्रचारक हैं। इन्होंने कभी भी हिन्दीभाषा और संस्कृति के लिए कुछ नहीं किया है। ज्यादातर लोगों को ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं आता। हां ,धन कमाने और फासीवाद का प्रचार करने की कला में वे कुशल जरूर हैं। मूलतःइनलोगों का कला-साहित्य संस्कृति से कोई संबंध नहीं है।यह हिन्दी साहित्य ,जनता और लेखकों का अपमान है। ममता सरकार ने हिन्दी अकादमी को वामशासन की तरह हिन्दीसेवियों की संस्था बना दिया है।
'जनसत्ता' (कोलकाता संस्करण,25जुलाई2011) के अनुसार 13सदस्यीय कमेटी बनाई गयी है। इसमें विवेक गुप्ता(अध्यक्ष),अरूण चूडीवाल,पुष्करलाल केडिया,दिनेश बजाज, शांतिलाल जैन,सुल्तान सिंह,आरके प्रसाद,कुसुम खेमानी,राजकमल जौहरी,निर्भय मल्लिक, मंजूरानी सिंह,रूपा गुप्ता, और जेके गोयल को सदस्य के रूप में रखा गया है। मजेदार बात यह है राज्य के सूचना और संस्कृति विभाग ने 29जून2011 को प्रेस विज्ञप्ति जारी की, लेकिन किसी भी अखबार ने इसे आज तक नहीं छापा। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ,जिन्हें अपनी सामान्य सी गतिविधि को टीवी को बताने में मजा आता है, उन्होंने भी इसकी मीडिया को जानकारी नहीं दी। यह खबर इतने लंबे अंतराल के बाद प्रेस में क्यों आई ? क्या यह हिन्दी अकादमी के प्रति हिन्दीप्रेस का शोभनीय आचरण है ? जबकि राज्य का सूचना और संस्कृति मंत्रालय स्वयं ममता बनर्जी देख रही हैं।
विगत अकादमी के गठन पर हिन्दीप्रेस ने बड़ा हंगामा किया था। लेकिन इसबार हिन्दीप्रेस ने भी यह खबर नहीं छापी। मजेदार बात यह है कि विगत अकादमी की घोषणा के बाद हिन्दी के अखबारों जैसे जागरण,प्रभातखबर,सन्मार्ग,जनसत्ता में अलेखकों को रखे जाने के खिलाफ खूब बयानबाजी छपी थी। वाम सरकार की तकरीबन सभी लेखकों ने निंदा की थी। लेकिन इसबार अकादमी का 29जून को गठन हुआ और किसी अखबार ने 26 दिनों तक इस खबर की ओर ध्यान नहीं दिया। मैंने जब फेसबुक पर इस पर लिखा तब लोगों का इस ओर ध्यान गया और उसके बाद जनसत्ता ने खोजकर खबर बनायी। हिन्दीप्रेस की वाम सरकार के खिलाफ अति सक्रियता और ममता सरकार की एक सही खबर का प्रकाशित न होना कई सवाल खड़े करता है। असल में हिन्दीप्रेस,वाममोर्चा और ममता प्रशासन इन तीनों के लिए हिन्दीवाले वोटबैंक से ज्यादा महत्व नहीं रखते। ये लोग हिन्दीप्रेमी और हिन्दीलेखक का अंतर नहीं जानते।यह बंगला राजनीति और हिन्दीमीडिया में फैले सांस्कृतिक अज्ञान की अभिव्यक्ति है।
ममता बनर्जी सरकार ने हिन्दी अकादमी के गठन में जिस तरह हिन्दी लेखकों का अपमान किया है । सवाल उठता है क्या वे ऐसा बंगला अकादमी में कर सकती हैं ? क्या महाश्वेतादेवी के स्थान पर किसी अनपढ़ जाहिल आईपीएस अफसर या बंगला पूंजीपति को बांग्ला अकादमी का अध्यक्ष बना सकती हैं ?क्या बंगला अकादमी में बंगला लेखकों की बजाय बंगाली भाषानुरागी रखे जा सकते हैं ?
पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी का वामशासन में सबसे बुरा हाल था। विगत विधानसभा चुनाव के दो माह पहले सरकार ने गवर्निंग बॉडी बना दी। 8साल तक इसका पुनर्गठन नहीं किया। 8 सालों में कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। अकादमी के पास ऑफिस नहीं है। निदेशक,सचिव से लेकर चपरासी तक सब पार्टटाइम हैं। अकादमी को सालाना 4 लाख रूपये के आसपास पैसा मिलता था। जिससे चपरासी,टाइपिस्ट,बिजली का बिल,फोन बिल का भुगतान होता था।ज्योति बाबू के शासनकाल से लेकर बुद्धदेव बाबू के शासनकाल तक हिन्दी अकादमी को घनघोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। राज्य सरकार ने अकादमी को कभी सामान्य संसाधन तक मुहैय्या नहीं कराए,बुनियादी सुविधाएं नहीं दीं। हम उम्मीद करते हैं नयी सरकार हिन्दी अकादमी को बुनियादी सुविधाएं और संसाधन देगी जिससे वे काम कर सकें।
रविवार, 24 जुलाई 2011
हिन्दी बुर्जुआ के सांस्कृतिक खेल
हिन्दी बुर्जुआ का हिन्दीभाषा और साहित्य से तीन-तेरह का संबंध है। इसमें आत्मत्याग की भावना कम है। उसमें दौलत,शानो-शौकत और सामाजिक हैसियत का अहंकार है। वह प्रत्येक काम के लिए दूसरों पर निर्भर है।दूसरों के अनुकरण में गर्व महसूस करता है। दूसरों के अनुग्रह को सम्मान समझता है।वाक्चातुर्य से भाव-विह्वल हो जाता है। दूसरों की आँखों में धूल झोंकने की इसे आदत है।यही इसकी राजनीति का मूलाधार भी है। स्वभाव से हृदयहीन,क्षुद्र,दंभी और निजभाषा और संस्कृति से रहित है। हिन्दी बुर्जुआ का व्यक्तित्व बेहद जटिल और संश्लिष्ट है। उसमें सरलता का अभाव है। हिन्दी बुर्जुआ की बुद्धि बाल की खाल निकालने में सक्षम है लेकिन बड़ी-बड़ी गांठों को सुलझा नहीं सकती। इस वर्ग में आलस्यमय शांतिप्रियता और स्वार्थमय निष्ठुरता कूट कूटकर भरी है। इसमें दयावृत्ति और चारित्र्य-बल नहीं है।
बुर्जुआवर्ग ने हिन्दीभाषी समाज को ग्राम्य पांडित्य और ग्राम्य बर्बरता से मुक्ति दिलाने का काम नहीं किया। फलतः हिन्दीभाषी समाज में भद्रसमाज के निर्माण की प्रक्रिया काफी धीमी गति से चल रही है। हिन्दीसमाज में ग्रामीण आचार-व्यवहार की संकीर्णताएं बनी हुई हैं। इन संकीर्णताओं की ओट में हिन्दी में 'लोक' का बड़ा महिमामंडन हुआ है। धर्म के प्रति विलक्षण प्रेम है। वह धर्म और मासकल्चर पर जितनी आसानी से खर्च करता है उतनी आसानी से सामाजिक जीवन के विकास कार्यों और संस्कृति पर खर्च नहीं करता। धर्म और मासकल्चर का उसने इस तरह प्रचार किया है कि आम आदमी धर्म और मासकल्चर के कमरे में बंद होकर रह गया है।
हिन्दीभाषी समाज में विचारहीन नियमों का घेरा है। इसे हिन्दीबुर्जुआ ने कभी चुनौती नहीं दी। धर्मगत भेदबुद्धि के बारे में सवाल नहीं उठाए। इसके कारण हिन्दीसमाज में जातिभेद और धर्मभेद आज भी बुनियादी समस्या बने हुए हैं। धर्मभेद ने साम्प्रदायिकता को हवा दी और जातिभेद ने जातिप्रथा को पुख्ता बनाया। इन दोनों भेदों को उसने कभी चुनौती नहीं दी। इसके विपरीत इन दोनों भेदों को विभिन्न तरीकों से ढंकने की कोशिश की है। मजेदार बात यह है हिन्दीबुर्जुआ ने अबुद्धि की प्रशंसा की है । उसका महिमामंडन किया और बुद्धि और बुद्धिजीवियों को हिकारत की नजर से देखा। व्यावसायिक पेशेवरज्ञान को महत्व दिया। साहित्य-कला-संस्कृति और इनसे जुड़े पेशेवर लोगों की उपेक्षा की। बुद्धि के स्थान पर सामाजिक हैसियत को प्रतिष्ठित किया। बुद्धि के स्थान पर सामाजिक हैसियत की प्रतिष्ठा की। फलतःस्वाधीनचेतना का विकास बाधित हुआ। परनिर्भरता बढ़ी है। इसके कारण हिन्दीभाषी समाज में कूपमण्डूकता,धर्म,अन्ध संस्कारों, जड़प्रथाओं, गुरू,ज्योतिषी, पंडित, पुजारी आदि की साख बढ़ी। देववाणी,अलौकिक शक्तियां और अंध आज्ञाकारिता का तेजी से प्रसार हुआ।
हिन्दीमन आस्था में विश्वास करता है बुद्धि में नहीं। हमारी शिक्षाप्रणाली ने इसे कभी चुनौती नहीं दी गयी। शिक्षित होने के बाबजूद हमारे मन में कुसंस्कार ,पोंगापंथ और भेद-बुद्धि बनी रहती है। हिन्दी में जो शिक्षित हैं उनमें एक बड़ा वर्ग है जो शिक्षा के बाबजूद अंधविश्वासों की हिमायत करता है। वे कुतर्कों के आधार पर अपनी सड़ी-गली मान्यताओं को बचाए रखने में ज्ञानी महसूस करते हैं। वे बुद्धि पर कम और कुबुद्धि पर ज्यादा विश्वास करते हैं। लेकिन हिन्दी में एक छोटा सा समुदाय ऐसा भी है जो बुर्जुआजी के इन नकरात्मक लक्षणों से मुक्त है। इसे प्रगतिशील हिन्दी बुर्जुआवर्ग कह सकते हैं। इस समुदाय के लोगों ने बड़े पैमाने पर शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में पैसा लगाया है। इसमें विज्ञानचेतना भी है। संस्कृतिप्रेम भी है।
कुछ बुर्जुआ परिवार ऐसे भी हैं जिन्होंने साहित्य,कला,संस्कृति,प्रेस आदि में पूंजी निवेश किया है। इस तरह के निवेश के जरिए एक तरफ कला आकांक्षाओं की पूर्ति हुई है । सांस्कृतिक इमेज बनी है। लेकिन समग्रता में देखें तो हिन्दीबुर्जुआ ने हिन्दीभाषी राज्यों में संस्कृति,सांस्कृतिक धरोहरों, सांस्कृतिक रूपों,संगीत आदि के विकास पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। हिन्दीबुर्जुआ ने शिक्षा में विज्ञान, प्रबंधन, इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर पैसा खर्च किया है। लेकिन समाजविज्ञान ,भाषाओं की उच्चशिक्षा और शोध पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। हिन्दीभाषी इलाकों में दो विश्वविद्यालय है ,एक है वनस्थली विद्यापीठ और दूसरा है सागर विश्वविद्यालय । ये दो विश्वविद्यालय हिन्दीभाषी बुर्जुआजी ने स्थापित किए थे। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में अनेक कॉलेज हैं जो हिन्दीबुर्जुआ की मदद से चलते हैं। साहित्य में ज्ञानपीठ और भारतीय भाषा परिषद की साहित्य के आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन साहित्य,कला,संस्कृति के संरक्षण,अनुसंधान आदि के बुनियादी कार्यों में आज भी हिन्दीभाषी बुर्जुआवर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं है।
हिन्दी बुर्जुआवर्ग की आरंभ से ही प्रेस में दिलचस्पी थी और हिन्दी का शक्तिशाली प्रेस और कालान्तर में टीवी मीडिया बनाने में उसने गहरी दिलचस्पी ली । हिन्दी प्रेस के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार समूहों का उसने निर्माण किया। इसमें तेजी से तरक्की की । हिन्दीप्रेस में सक्रिय हिन्दीबुर्जुआ ने ओपिनियन मेकर का काम किया है। उसने लोकतांत्रिक आंदोलन के साथ विभिन्न समयों पर गहरा संबंध भी बनाया है।
हिन्दीप्रेस की ताकतवर इमेज ने हिन्दी को शक्तिशाली बनाया है। जनप्रिय बनाया है। हाल के बीस सालों में हिन्दीप्रेस में पेशेवरशैली का तेजी से विकास हुआ है। जो मीडिया घराने बहुभाषी प्रेस चलाते हैं वहां पर एक हिन्दीप्रेस के प्रति भेदभाव दिखता है। एक्सप्रेस ग्रुप से लेकर टाइम्स ग्रुप तक इस भेदभाव को साफ देखा जा सकता है। लेकिन हिन्दीबुर्जुआ का जो वर्ग सिर्फ हिन्दीप्रेस चला रहा है उसने अभूतपूर्व विकास किया है। हिन्दीप्रेस की सामग्री,रूपसज्जा से लेकर काम करने वालों की पेशेवर क्षमता में भी गुणात्मक परिवर्तन आया है। यही वजह है आज हिन्दीप्रेस का भारतीय प्रेस में सर्वोच्च स्थान है।
हिन्दी बुर्जुआ की सफलता का एक और बड़ा क्षेत्र है जहां उसने छोटी पूंजी और आवारा पूंजी के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर हिन्दी सिनेमा उद्योग का निर्माण किया। विगत 10 सालों में देश के बड़े पूंजीपति घरानों और बैंकों ने सिनेमाजगत की ओर रूख किया है। लेकिन इससे पहले सिनेमा उद्योग में बड़े पैमाने पर आवारा पूंजी और मझोले किस्म के हिन्दीभाषी पूंजीपतियों की पूंजी लगी थी और कलाकारों में अधिकांश हिन्दीभाषी मध्यवर्ग और निम्नमध्यवर्ग के कलाकारों,गीतकारों,लेखकों ,संगीतकारों, तकनीशियनों आदि का योगदान रहा है। हाल के नव्य-उदारतावादी दौर में सिनेमा और टीवी उद्योग की ओर हिन्दीबुर्जुआ की स्पीड बढ़ी है। हॉलीवुड का भारत में प्रवाह रोकने में हिन्दीसिनेमा की बड़ी भूमिका रही है। यह एक तरह का हिन्दी बुर्जुआ का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध भी है।
उल्लेखनीय है संचार तकनीक के द्वारा निर्मित वातावरण स्वभावत: ग्लोबल-लोकल होता है। दूसरी बात यह कि भारतीय सिनेमा का मूलाधार है वैविध्य और बहुलतावाद। जबकि हॉलीवुड सिनेमा की धुरी है इकसारता। भारतीय सिनेमा में संस्कृति और लोकसंस्कृति के तत्वों का फिल्म के कथानक के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जबकि हॉलीवुड सिनेमा के कथानक की धुरी है मासकल्चर। हॉलीवुड सिनेमा विश्वव्यापी अमरीकी ग्लोबल कल्चर के प्रचारक-प्रसारक की अग्रणी भूमिका रही है। जबकि भारतीय सिनेमा में पापुलरकल्चर के व्यापक प्रयोग मिलते हैं।
हिन्दीबुर्जुआ की सांस्कृतिक शक्ति ही है कि हॉलीवुड सिनेमा आज तक हिन्दी के मुंबई फिल्म उद्योग को अपदस्थ नहीं कर पाया है। इसने खिचड़ी फिल्मी संस्कृति का निर्माण किया है। स्वायत्त भारतीय फैंटेसी का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है। हिन्दी फिल्मी फैंटेसी के चार प्रमुख क्षेत्र हैं, प्रेम, परिवार -समुदाय, राष्ट्र और गरीब। इसमें भाषायी सहिष्णुता है । इसके कारण यह सहज ही भाषायी -सांस्कृतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है।
हिन्दी सिनेमा मूलत: समग्रता में ‘महा- आख्यान’ नहीं बनाता। वह ऐसा कोई कथानक नहीं बनाता जो सब कुछ अपने अंदर समेटे हो। इसमें संस्कृति,इतिहास, व्यक्तित्व,अभिनय और कथानक की इकसार अवस्था नहीं मिलती। इससे राष्ट्रीय विविधता को रुपायित करने और बनाए रखने में मदद मिली है। इस बिखरे फिल्मी संसार में सेतु का काम किया है पापुलरकल्चर ने (मासकल्चर नहीं) । पापुलरकल्चर के सेतु से गुजरने के कारण ही मुम्बईया सिनेमा की ‘फ्रेगमेंटरी ’और संवादमूलक प्रकृति है। यह सांस्कृतिक विमर्शों को पैदा करता है।
हिन्दी का मूलाधार है आनंद। इसके तीन मुख्य तत्व हैं, ये हैं, संस्कार, गाने और संगीत। ये तीनों ही तत्व मिश्रित संस्कृति का रसायन तैयार करते हैं। मिश्रित संस्कृति का संचार करने के कारण ही हिन्दी की फिल्में किसी भी विकसित और अविकसित पूंजीवादी मुल्क से लेकर समाजवादी देशों तक में कई बार वर्ष की सर्वोच्च 10 या 20 फिल्मों में स्थान बनाती रही हैं। सांस्कृतिक बहुलतावाद की जैसी सेवा हिन्दी सिनेमा ने की है वैसी सेवा हॉलीवुड ने नहीं की है। यही वजह है कि बॉलीवुड का हिन्दी सिनेमा शीतयुद्ध के समय में हॉलीवुड के सामने चट्टान की तरह अड़ा रहा। पूरे शीतयुद्ध के दौरान हॉलीवुड सिनेमा ने दुनिया के अधिकांश देशों के सिनेमा उद्योग को बर्बाद कर दिया। किंतु भारत में उसे पैर जमाने में सफलता नहीं मिली।
द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में भारत का एक बड़ा फिनोमिना है आप्रवासी भारतीय। इसमें विविध किस्म के भारतीय हैं और ये अमेरिका से दक्षिण अफ्रीका,मारीशस से कैरिबियन देशों ,मध्यपूर्व के देशों से लेकर समूचे यूरोप तक फैले हैं। इनमें भारत की जातीय-सांस्कृतिक विविधता साफ नजर आती है। हम यह भी कह सकते है कि भारतीय संस्कृति का इन लोगों के कारण विश्वव्यापी प्रसार हुआ है। यही वह बुनियादी कारक है जिसके कारण हिन्दी फिल्मों में आप्रवासी एशियाई संस्कृति की व्यापक अभिव्यक्ति होती रही है। आप्रवासियों का अपनी संस्कृति से प्रेम ही है जो ‘प्राचीन भारत’ से जोड़े रखता है। इस कार्य में भारत की फैंटेसी,संस्कार,यथार्थ,गाने आदि का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है।
उल्लेखनीय है आप्रवासी भारतीय दोहरे दबाब में हैं,एक तरफ वे अपने काम की जगह पर आए दिन भेदभाव के शिकार होते रहते हैं और दूसरी ओर प्राचीन भारत की उम्मीदें उन्हें घेरे रहती हैं। यही वजह है आप्रवासी भारतीय भारत में बनी फिल्में खूब देखते हैं, यह काम वे आजादी के पहले से कर रहे हैं। हाल के वर्षों में ग्लोबल भारतीय सिनेमा में वितरण, माइग्रेसन और स्थानीयतावाद का प्रवेश हुआ है। भारतीय सिनेमा सांस्कृतिक समूहों को सम्बोधित करता है। वह जिस तरह देश में देखा जाता है वैसे ही विदेश में भी देखा जाता है। देशी-विदेशी दर्शकों को आकर्षित करने में जिस तत्व का सबसे बड़ा रोल है वह है‘भारतीयता’, इस ‘भारतीयता’ का आधार राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक है। हिन्दी बुर्जुआ का यह सकारात्मक पक्ष है कि उसने देशज कलारूपों और देशज भाषाओं जैसे मैथिली-भोजपुरी के सिनेमा का व्यापकरूप में विकास किया। इसके अलावा ऑडियो इण्डस्ट्री का भी विकास किया। इसके कारण हिन्दी संस्कृति के संचार और प्रसार को व्यापक आधार मिला।
शनिवार, 23 जुलाई 2011
मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं...- बटुकेश्वर दत्त
सरदार की गुनगुनाहट आज भी मेरे कानों से टकरा रही है- मैं तो एक मुश्ते-गुबार हूं... धोकर निचोड़े गए कपड़ों को झटके दे देकर जैसे वह धूप में फैला रहा हो और पूरी तन्मयता के साथ गुनगुना रहा हो।कानपुर स्थित सुरेश दादा के मेस की दूसरी मंजिल की छत पर किशोर सरदार के कपड़े धोने का दृश्य अब भी उसी तरह अम्लान है-कंधे सहित सिर पर लिपटा केश-गुच्छ, कमर में एक कच्छा छोड़कर पूरा नंगा बदन, जल की धार पर वह लगातार कपड़े पटक रहा है। साबुन के शुभ्र फेन उड़-उड़कर इधर-उधर फैल रहे हैं। मैं बगल में बैठा अन्य कपड़ों पर साबुन घिस रहा हूं और सरदार बार-बार वही एक पंक्ति दुहराये जा रहा है-मैं तो...
सन् उन्नीस सौ चौबीस के शुरू का कोई महीना। मैं उन दिनों कानपुर के बंगाली मिडिल स्कूल का विद्यार्थी और पारिवारिक अनुशासन की आंखें बचाकर क्रांतिकारी दल की शाखा का एक सक्रिय कार्यकर्त्ता। श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र 'प्रताप' से सम्बध्द, दल के प्रमुख नेता श्री सुरेशचंद्र के निर्देशानुसार एक शाम उनसे मिलने कम्पनी बाग गया। क्यों और किसलिए बुलाया गया था, यह पूछना दलीय अनुशासन के विरुध्द था और आदेश पर आंख मूंदकर चलना ही हमारे विप्लवी जीवन का प्रथम पाठ। इसलिए हर तरह की परिस्थिति के प्रति अपने को तैयार कर समय से वहां पहुंचा। सुरेश दादा नहीं थे। बाग के एक छोर से दूसरे तक मेरी चंचल निगाहें ढूंढ़ गयीं, पर कहीं पर भी वह नजर नहीं आया। मुझे आश्चर्य हुआ क्रांतिकारियों के कार्यक्रम में इस तरह की भूल पहले कभी देखने को नहीं मिली थी। घनघोर अंधेरी रात में भी मूसलाधार वर्षा सिर पर झेलते हुए, सीआईडी की निगाहें बचाता निर्दिष्ट कार्य के लिए ठीक जगह निर्धारित समय पर हाजिरी बजाने में इसके पहले मुझसे कभी भूल नहीं हुई थी। फिर आज प्रमुख क्रांतिकारी नेता के निर्देश और कार्य में यह अंतर क्यों?
इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि मेरी आंखें एक घनी, कांटेदार झाड़ी से जाकर उलझ गयीं। क्या ही अजीब, रोंगटे खड़े कर देने के साथ-साथ हंसाने वाला दृश्य! झाड़ी केऊपर एक सफेद पगड़ी का सिरा लगातार दायें से बायें और बायें से दायें मोर की पखी की तरह डोल रहा था। मैं नजर गड़ाये उसे देखता रहा। बीच-बीच में वह स्थिर हो जाता और फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह अपनी चाल पकड़ लेता। बाग के निस्तब्ध वातावरण में, जबकि संध्या का रक्तिम प्रकाश रात के अंधेरे में अपना मुंह छिपाने की तैयारी कर रहा हो, कांटेदार झाड़ी के ऊपर से सफेद पगड़ी का वह हिलता सिरा इशारे से जैसे मुझे अपने पास बुला रहा था। मैं आगे बढ़ा। झाड़ी के समीप पहुंचते ही उस सफेद पगड़ी का अधिकारी साढ़े पांच फुट से भी लंबा एक सिख युवक मेरी आहट पर उछलकर खड़ा हो गया। उसकी काली चमकती आंखों में शंका की भावना और लम्बी लटकती दोनों भुजाओं पर कमीज के चढ़े आस्तीन, दृढ़ मुट्ठियों में बंद लंबी उंगलियां, दोनों गालों पर दाढ़ी की हल्की रेखा, सिर पर पगड़ी में कैद केश-गुच्छ, जिसकी कुछ लटें बाहर झूल रहीं थीं। मेरे सामने वह सिख युवक चैलेंज का भाव चेहरे पर लिए खड़ा था और मैं उसकी तात्कालिक मुद्रा के प्रति उदासीन, कि तभी बगल में निश्चल गिरिराज की भांति बैठे विप्लवी सुरेश दादा पर ध्यान गया। मुझे देखकर उनके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कराहट खेल गयी और सरदार शांत पड़ा। उसकी दृढ़ मुट्ठियों की उंगलियां सहज और शिथिल हुई। मुझ नवागंतुक को देखते ही जो चमक और खून उसकी आंखों में उतर आया था, सुरेश दादा की मुस्कराहट से जैसे पूरे चेहरे पर लालिमा बन फैल गया और मुझे लगा अपनी अनावश्यक दृढ़ता के लिए वह कुछ झेप-सा रहा है। सुरेश दादा ने हंसते हुए हम दोनों को आमने-सामने बैठाया और उस तरुण सरदार से मेरा परिचय कराया नाम- बलवंत सिंह पंजाब के नेशलनल कालेज में बीए के छात्रा हैं। प्रमुख क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस निकटतम सहयोगी शचींद्रनाथ सान्याल 'बंदी जीवन' के लेखक एवं बाद में काकौरी षड़यंत्रा के प्रमुख अभियुक्त उस समय उत्तरी भारत में क्रांतिकारी दल के प्रमुख संगठनकर्त्ता थे। पंजाब नेशनल कालेज के अध्यापक श्री जयचंद्र विद्यालंकार की मार्फत शचींद्र दादा से उस सिख नवयुवक का परिचय हुआ और वह क्रमश:विप्लवी संगठन में खिंच आया। उसकी क्रांतिकारी विचारधारा देखते हुए परिवार के लोग छात्रावस्था में ही उसका विवाह कर देने का निर्णय कर चुके थे, लेकिन क्रांतिपथ के पथिक उस तरुण को अपने विवाह का प्रस्ताव मंजूर नहीं था और उसी से मुक्ति पाने के लिए तमाम पारिवारिक आत्मीयता एवं परिवार के लोगों से संबंध-विच्छेद कर वह लाहौर से सुरेश दादा के आश्रय में कानपुर भाग आया था। रूसी विप्लवियों का प्रभाव उसकी स्मृतियों में था और उन्हीं की तरह उसने भी शपथ ले रखी थी कि जीवन में न किसी से प्रेम करेगा, न किसी का प्रेम-पात्र बनेगा, न विवाह करेगा, न किसी का विवाह रचायेगा। उससे संबंधित ये तमाम बातें मुझे धीरे-धीरे बाद में मालूम हुईं जब अपने पहले परिचय के बाद प्रत्येक दिन, प्रत्येक घड़ी हम एक-दूसरे के करीब आते गए। और उसी वर्ष यानी 1924 में ही! जीवनदायनी गंगा का प्रलयंकारी प्लावन! दोनों तटों पर बसे कानपुर शहर के साथ-साथ अनगिनत गांव उस प्लावन के शिकार हुए थे। प्लावन के शिकार ग्रामवासियों ने वृक्ष की ऊंची डाल पर आश्रय लिया। बहते हुए लोगों को सहारा देने के लिए गंगा पुल पर मोटी-मोटी रस्सियां बांधकर लटकायी गयीं थीं, ताकि धारा के साथ बहते हुए लोग उन रस्सियों को पकड़कर अपने प्राण बचा सकें। शहर में बाढ़ पीड़ितों की सेवा के लिए कैम्प डाले गएं। 'तरुण संघ' नाम की एक संस्था काम कर रही थी और हमें भी सेवा दल में काम करने की पुकार मिली। बाढ़ से क्षतिग्रस्त लोगों की सेवा में मैं जुट गया। बलवंत सिंह साथ था। घर के अनुशासन की उपेक्षा कर किसी सार्वजनिक सेवा कार्य के लिए घर छोड़ दिन-रात काम करने का मेरा वह पहला मौका था। बलवंत का नाता घर से पहले ही टूट चुका था, इसलिए उसे किसी तरह के पारिवारिक अनुशासन की चिंता थी नहीं। सेवा कार्य में जुट जाना उसके लिए अनायास था जबकि उसी काम के लिए मेरे किशोर मन ने घर के विरुध्द पहली दफा विद्रोह का रास्ता अपनाया।
हम दोनों की डयूटी प्राय: एक साथ ही पड़ती। रात में हम दोनों गंगा के अंधेरे तट पर खड़े होकर हाथों में जलती लालटेन लिए शून्य में अविराम हिलाया करते ताकि प्लावन की तीक्ष्ण धारा में बहते हुए मनुष्य-मवेशी अंधेरी रात में किनारे का संकेत पा सकें और जब कभी मवेशियों का कोई झुंड उस रोशनी के सहारे हमारे पैरों के पास पहुंच जाता, हम उसे बाहर निकालते, फिर उसे रखने की व्यवस्था की जाती थी।
दिन के समय हम दोनों मल्लाहों के साथ निकलते और बाढ़ग्रस्त निराश्रित परिवारों को उनकी बची हुई सामग्री के साथ नाव पर लादकर गंगा तट के कैम्पों में पहुंचाते किशोर सरदार का हृदय यह सब देख-देखकर पसीजता रहता और उसकी आंखों में उस वक्त एक अव्यक्त-सी करुणा समायी होती थी। शहर के पास ही कल्याणपुर के बाढ़ पीड़ित कैम्प का वह दृश्य आज भी मेरी आंखो में सुरक्षित है। बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में सबकुछ गंवा कर हताश, भूखे-असहाय लोगों का वह हुजूम! उनकी हृदय वेधी चीख पुकार से पूरा इलाका गूंज रहा था। भोजन की प्रतीक्षा करते स्त्री-पुरुष अलग-अलग कतारों में पत्तल के सामने बैठे थे कि तभी गर्म पूड़ियों की टोकरी दोनों हाथों से ऊपर उठाये तरुण सरदार दिखाई पड़ा। सिर पर सफेद रेशमी पगड़ी, बदन में साधारण कपड़े की कमीज जिसकी दोनों आस्तीनें ऊपर चढ़ी थीं। मुझसे आंखें मिलते ही उसके होठों पर स्वत: स्फूर्त मुस्कान एवं आंखों में चमक कौंध उठी, लेकिन बातचीत का समय कहां।वह उत्साह एवं उमंग के साथ भूख से बेचैन लोगों की कतार की तरफ बढ़ गया।
बाढ़ पीड़ितों की सहायता-सेवा के उस दौर ने हम दोनों को एक-दूसरे के करीब लाने में काफी मदद की। उस दिन क्षुधित, सर्वहारा जनों के बीच पूड़ियां बांटने का सरदार का अंदाज, काम के प्रति उसकी लगन एवं निष्ठा आज भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं। पूड़ियां परोसने वाले उसके हाथों ने बाद के क्रांतिकारी जीवन में उसी निष्ठा के साथ पिस्तौल या बम भी चलाये। उस रोज किसे मालुम था कि परवर्ती क्रांतिकारी जीवन में हमें अति साधारण भोजन भी नियमित रूप से नसीब न होगा या यह कि पूड़ियां परोसने वाले उन हाथों पर सूखी रोटी और नमक ही शेष जीवन के आधार होगें।
उन दिनों हम दोनों के किशोर जीवन में एक-दूसरे के प्रति आकर्षण भाव के साथ-साथ जो सबसे बड़ा आकर्षण था, वह शहर (कानपुर) के पास कनालफाल के समीप गंगा के तट पर बैठ उसकी सुषमा को अनवरत निरखते रहना और बीच-बीच में किसी विषय, किसी बात या योजना पर परस्पर विचार-विमर्श करना। इसी सिलसिले में अकसर हम क्रांतिकारी जीवन के आने वाले दिनों की कल्पना में तल्लीन हो जाया करते। प्रसिध्द क्रांतिकारी जीवनियों या क्रांति से संबंधित साहित्य का पाठ हम यहीं बैठकर किया करते। एक ओर गंगा की अश्वेत जलधारा गरज के साथ लगातार आगे की ओर बढ़ती और दूसरी ओर क्रांतिकारी साहित्य का प्रभाव हमारी किशोर रंगों में खून की रफ्तार बढ़ा जाता। पानी का प्रचंड वेग एवं उसकी अथक गतिशीलता की छाप हमारे ऊपर सर्वाधिक पड़ी और शायद इसीलिए गंगा के तट का आकर्षण हम दोनों के मन में सदैव बना रहा।
एक शाम हम गंगा के तट पर बैठे अपनी क्रांति संबंधी कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के तरीकों पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि अचानक ही आकाश काले बादलों से पटने लगा। गंगा पार की बस्तियां धुधली पड़ने लगीं, हवा का वेग बढ़ गया और थोड़ी ही देर में बादलों की भीषण गड़गड़ाहट से लगा आसमान फट जायेगा। क्षण भर में ही प्रकृति ने भयंकर रूप धारण कर लिया था। इससे पहले कि हम उठकर वहां से शहर की ओर चल देते, बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी और शहर के फूलबाग स्थिति 'एडवर्ड मेमोरियल हॉल' पहुंचते-पहुंचते जमकर वर्षा होने लगी थी। यहां आकर हमें मालूम हुआ कि साथ की बहुमूल्य पुस्तक 'हीरो एंड हीरोइन ऑफ रशिया' तो हम जल्दबाजी में गंगा किनारे ही छोड़ आए हैं। रूस पर जारतन्त्र के विरुध्द रूसी युवक-युवतियों के सशस्त्र संग्राम की वह इतिहास-पुस्तक दुर्लभ होने के कारण हमारे लिए बहुत ज्यादा मूल्यवान थी, लेकिन उस घने अंधकार में वर्षा के साथ प्रचंड वायु का वेग सम्भालता हुआ दो मील का रास्ता तय करके उसे लाये कौन। मेरे जाने की बात सरदार को नागवार सी लगी। शरीर में वह मुझसे निश्चित रूप से तगड़ा था और अपने उसी तगड़ेपन की दलील देकर उस वक्त उसने मुझे जाने से रोक दिया और खुद लम्बी डग भरता हुआ अंधेरे में गुम हो गया।उसे जाते हुए कुछ ही क्षण गुजरे होंगे कि मेरी भावुकता ने मुझे झिंझोड़ा और मैं भी उस बीहड़ अंधकार में सरदार के पीछे हो गया। घने अंधकार में बेतहाशा भागते मेरे पैरों को अपने भागने का अहसास तब हुआ जब वे बीच सड़क पर बैठे सरदार से टकराये। सिर की रेशमी पगड़ी आधी खुलकर कीचड़ में सनी थी, एक हाथ से पुस्तक एवं दूसरे से अपने पैर का अंगूठा थामे वह लथपथ पड़ा था। पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ गया था। पगड़ी चीरकर मैंने पट्टी बांधी और उसे सहारा देकर सुरेश दा के मेस भीगते हुए वापस आया। उससे अलग अपने घर लौटकर मेरा मन सरदार के दुख से बेचैन था। मैं वहां से रूई-पट्टी, जैम्बक की डिबिया लेकर उसी मूसलाधार वर्षा में सरदार के पास पहुंचा, उसके अंगूठे का खून साफ कर उस पर मरहम पट्टी की और रात भर उसके पास बैठा रहा। सुबह होते ही घर के अनुशासन की सुधि आयी। उस दिन परिवार से मिलने वाली तमाम यंत्राणाएं मैं धैर्यपूर्वक सह गया सिर्फ इस तसल्ली पर कि अपने प्रिय मित्र के प्रति अपना छोटा-सा कर्त्तव्य निभाया। और सरदार का वह स्नेहयुक्त आवेश- 'पीओ, देर न करो। तुम्हें पीना ही पडेग़ा। दूध वाले की दुकान के सामने गर्म दूध से भरा गिलास लिए वह मुझे आदेश दे रहा है। दूध से उन दिनों अरुचि नहीं थी लेकिन भरपेट भोजन के बाद पक्का आधा सेर दूध चढ़ा जाना मेरे पेट के लिए मुश्किल था। आज भी दिल्ली और आगरा स्थित दूध की दुकानों के दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाते हैं। उन्हीं दुकानों के मालिक बाद में हमारी उपस्थिति दिल्ली और आगरा में सिध्द करने के लिए हमारे मुकदमों में आए थे।
दरअसल, भोजन के बाद गर्मागर्म दूध का गिलास चढ़ा जाने का पाठ मुझे सरदार ने ही दिया। जब कभी पैसा पास होता वह दूध पीने के विलास से नहीं चूकता था। जहां रोटी का लुकमा भी निश्चित न हो वहां दुग्धपान विलास की ही श्रेणी में आएगा न? और उसे सिर्फ तीन पाव गर्मागर्म दूध से ही संतोष नहीं था बल्कि गिलास के दूध पर कम-से-कम डेढ़ छटांक मोटी मलाई का टुकड़ा भी अलग से पड़ना चाहिए। मलाई न रहने पर घी का तडका (छोंक) वह गर्म दूध में दे लेता था। शरीर में खून बढ़ाने का उसका यही उपयुक्त नुस्खा था। दूध के प्रति एक असीम आसक्ति उसके मन में थी। स्वास्थ्य के प्रति वह कभी उदासीन न रहा, हालांकि बाद के पार्टी जीवन में नियमित रूप से हमें भोजन भी नसीब नहीं हुआ। विप्लवी जीवन की अनिश्चित परिस्थिति एवं जीवन-धारण के लिए सीमित साधन और व्यवस्था के अभाव में भी वह शरीर और स्वास्थ्य के प्रति हमेशा सचेत रहा। यद्यपि जीवन के प्रति उसके मन में जबरदस्त आसक्ति थी, तथापि उसका कहना था कि जीवन जब अधिक सुंदर और प्रिय मालूम पड़ने लगे, तभी अपने आदर्श के लिए उसे बलिदान करना चाहिए।
संस्मरण की इस कड़ी के रूप में एक और दृश्य मेरी आंखों के सामने अब भी कौंध जाता है...
कानपुर स्टेशन का जन-प्लावित प्लेटफार्म, 'जो बोले सो निहाल.... सत्श्री ..अ...का....ल...' के गगनभेदी नारे से दिग-दिगंत गूंज उठा है। गुरु के बाग के सत्याग्रही सिख मोर्चा डालने के लिए पंजाब जा रहे हैं। उन दिनों हर स्टेशन पर, जहां ट्रेन रुकती थी, अधीर जनता सत्याग्रहियों के दर्शनार्थ टूट पड़ती थी। प्रत्येक स्टेशन पर वीर सत्याग्रहियों को भोजन कराने के लिए लंगर खोले गए थे। कानपुर स्टेशन पर भी ऐसी ही व्यवस्था थी और सत्याग्रहियों की एक झलक लेने के लिए जनता उमड़ पड़ी थी। फूलों और फूल-मालाओं की वर्षा! मैं भी स्टेशन गया था। अपार जनसमूह के बेग को ठेलकर सत्याग्रहियों के डिब्बों तक न पहुंच पाने की मजबूरी में ओवर-ब्रिज पर जाकर खड़ा हो गया और असंख्य सिरों से पटे प्लेटफार्म का दृश्य वहीं से देखने में तल्लीन था कि भीड़ को चीरती मेरी दृष्टि अपने सरदार मित्र पर पड़ी वही रेशमी पगड़ी और सफेद कमीज दोनों आस्तीनें बांह पर चढ़ी हुईं । एक हाथ में शरबत की बाल्टी और दूसरे में लंबा-सा गिलास। अपने कंधों से भीड़ को ठेलता हुआ वह सत्याग्रहियों के हाथों में शरबत के गिलास पकड़ा रहा था। भीड़ की खींचातानी में पगड़ी सिर से खिसककर कंधें पर लटक आई है जिसकी चिंता उसे नहीं थी। कम-से-कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा सत्याग्रहियों की प्यास बुझा पाने की व्यग्रता उसके चेहरे, आंख और चाल में स्पष्ट देखी जा सकती थी। ट्रेन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसकी विश्रामहीन भाग-दौड़! मेरे प्रिय साथी सरदार का यह एक और रूप था।
थोड़ी देर ठहरने के बाद ट्रेन चल पड़ी। फिर एक बार सत्श्री अकाल के नारे से आकाश गूंजा और कोलाहल मुखरित स्टेशन का प्लेटफार्म खाली होना शुरू हो गया। भीड़ पिघलने लगी। जो सत्याग्रहियों को देखने, उनसे मिलने-मिलाने आए थे, बाहर कीओर खिसकने लगे और बच गया हाथों में गिलास-बाल्टी लिए मेरा वह सरदार मित्र! मैं ओवर-ब्रिज से उतर उसकी बगल में खड़ा हुआ पर उसे जैसे किसी बात की सुध नहीं थी। ट्रेन जाने की दिशा में मंत्रमुग्ध आंखों में उदासी लिए अब भी वह खाली पटरी देखे जा रहा था। अपने कंधे पर मेरे हाथ का दबाव महसूस कर मुड़ा और मुस्कराकर एक हाथ से मेरे पंजे को दबाया बोटू ...। उसकी आंखों में कोई अदृश्य निर्णय कौंध उठा था उस घड़ी।
उस दिन लगभग गुमसुम और उदास वह जनशून्य स्टेशन से मेरे साथ बाहर हुआ था और फिर वह दिन भी आया जब दल के आदेशों पर उसे कानपुर, 'प्रताप', सुरेश दादा और मुझे छोड़कर एक छोटे स्कूल का हेडमास्टर बनकर अन्यत्र जाना पड़ा। विप्लव दल के नियमानुसार कुतूहलवश जरूरत से ज्यादा किसी का परिचय प्राप्त करना हमारे लिए मना था और सरदार शायद सब दिन ऐसा अनुभव करता रहा था कि कोई रहस्य वह अपने एकमात्र एवं अनन्य साथी मुझसे छिपाता रहा है, वरना कानपुर से विदाई लेने के दिन ही क्या खुलता। शिक्षक का पद ग्रहण करने जाते वक्त मुझसे मिलने आया था और हमारी आत्मीय घनिष्टता के बावजूद दल की मर्यादा रखने के लिए अब वह जिस रहस्य को छिपाये हुए था, विदाई के क्षण उसे व्यक्त किये बगैर न रह सका। जिस तरुण बलवंत सिंह के स्नेहपाश में मैं अब तक बंधा था, वही सरदार भगत सिंह के रूप में मुझसे विदा ले गया।
यही उसका असली परिचय था लोगों ने उसे बाद में विप्लवी सरदार भगत सिंह के रूप में जाना, लेकिन मेरे लिए तो वह सब दिन मानवीय गुण-सम्पन्न, भाव में गम्भीर भावुकता से ओतप्रोत बलवंत सिंह बना रहा। बाद की हमारी मैत्री परवर्ती क्रांतिकाल में एक-दूसरे के साथ सहयोगी की भूमिका, उसकी फांसी से लेकर मेरे जलावतन तक का प्रसंग इस कड़ी की अगली कहानी है।
सन् उन्नीस सौ सत्ताईस-अट्ठाईस का समय हमारे राष्ट्रीय जीवन में क्रांति के साथ-साथ संकट का काल भी कहा जा सकता है क्योंकि उन्हीं दिनों हमारी आजादी की लड़ाई का स्रोत एक नये रास्ते की ओर प्रवाहित हुआ। उस वक्त तक देशवासी क्रांतिकारी आंदोलन और उसकी विचारधाराओं से ज्यादा परिचित नहीं थे और अंग्रेज सरकार क्रांतिकारियों को साधारण खूनियों तथा डकैतों की श्रेणी में डालकर देश की जनता को सब दिन गुमराह करने का प्रयत्न करती रही थी। ब्रिटिश सरकार का यह कहना था कि विप्लवी देश में संत्रास एवं अराजकता फैलाना चाहते हैं जबकि विप्लवी देश में परिवर्तन के प्रति आग्रही थे। जनसाधारण को विप्लवी के प्रति जागरुक बनाकरआर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषणविहीन समाज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह जरूरी था कि क्रांतिकारियों की ओर से देशवासियों के सम्मुख एक निश्चित कार्यक्रम पेश किया जाए और देश के नेताओं को असेंबली भवन के भीतर वैधानिक कार्यक्रमों के दांव-पेच से मुक्त कर जनांदोलन के प्रति उत्साहित किया जाए, दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में अंग्रेज सरकार की ओर से भारत के लिए स्वायत्ता शासन की मांग बार-बार ठुकरा दी गयी थी। जन नेताओं के लाख विरोध के बावजूद यहां की जनता के मानवीय अधिकारों को विलुप्त करने के लिए केंद्रीय धारा सभा से टे्रड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था। कानून स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के करोड़ों भूखे-मेहनतकश लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रारंभिक स्वत्व एवं एकमात्र उपाय हड़ताल से वंचित कर दिए गए थे।
केंद्रीय विधानसभा में हमारे जन-प्रतिनिधियों के उस अपमान और उस अमानुषिक बर्बरतापूर्ण कानून द्वारा देश की करोडों ज़नता पर जो हमला हुआ था उसी के विरोध में भारतीय क्रांतिकारी संस्था 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' द्वारा केंद्रीय असेंबली के सभाकक्ष में बम डालकर गोरी हुकूमत को एक चेतावनी देने के सुझाव पर आगरा हेड क्वार्टर में आलोचना गोष्ठी की बैठक चल रही थी। असेंबली में बम डालकर आत्मसमर्पण करना एवं बाद में मुकदमे के दौरान अभियुक्त के कटघरे में खड़े होकर भारतीय क्रांतिकारी दल की ओर से विप्लवियों के विचारों, आदर्शों एवं उद्देश्यों का दिग्गर्शन कराने के लिए एक विशद राजनीतिक वक्तव्य देने की सूझ सरदार भगत सिंह के मस्तिष्क की ही उपज थी। लेकिन इसे निभाये कौन? यानी केंद्रीय असेंबली में बमफेंकने जैसा जोखिम भरा कार्य कौन करे? इसे पूरा करने का सीधा एवं साफ अर्थ था मृत्यु! लाख सावधानी के बावजूद असेंबली भवन के फर्श पर बम फटने के साथ किसी की मृत्यु की सम्भावना स्पष्ट थी और उसके बाद वहां नियुक्त सुरक्षा पुलिस या सार्जेंट द्वारा बम फेंकने वाले को तुरंत मौत के घाट उतार देना भी लगभग निश्चित ही था। बावजूद इसके कि हम सभी क्रांतिकारी देश को स्वतंत्र कराने की बलिदानी भावना से प्रेरित हो, प्रियजनों से नाता तोड़, किसी भी क्षण मृत्यु का आलिंगन करने का संकल्प ले, सिर पर कफन बांध, गृह-त्यागी बनकर निकल पड़े थे, फिर भी विचार गोष्ठी में बैठकर अपनी-अपनी सुरक्षा पर नजर गड़ाये दूसरे साथी को निश्चित मौत का फरमान सुनाना किसी के लिए भी संभव न था। ऐसा कोई व्यवहार किसी के भी मन को संदिग्ध बना सकता था। सरदार ने सहर्ष आगे बढ़कर निश्चित मौत से खेलने का बीड़ा उठाया, साथ-साथ मैंने भी। वर्षों पहले कानपुर में गंगा के किनारे बैठे-बैठे जिन अनागत दिनों की कल्पनाएं हम बार-बार किया करते थे, कि एक साथ ही दोनों देश की स्वतंत्राता के लिए आत्माहुति देंगे, उसे साकार करने का समय आ गया था...
हम दोनों- सरदार और मैं- बम के साथ आगरे से दिल्ली पहुंचे। लगभग महीने भर तक दिल्ली में ही टिके रहे। मैं हाफ पैंट, कमीज और जूता पहनता था और सरदार फ्लैट हैट लगाने लगे थे। प्रत्येक संध्या बम को अखबार में ढंककर कोट की नीचे वाली जेब में रखे हम साथ-साथ असेंबली भवन जाते, वहां का वातावरण परखते, पहरे पर संतरियों की गतिविधि देखते और अनुमान लगाते-कैसे अपने उद्देश्यों में सफल हो सकेंगें।
इसी बीच एक दिन सरदार ने साथ-साथ फोटो खिंचवाने की बात रखी। कुछ देर तो मैं टालता रहा, लेकिन सरदार जब जिद पर उतर आए तब मुझे भी झुकना पड़ा, और वही एकमात्रा तस्वीर हम दोनों की आखिरी यादगार बनकर रह गयी।
फिर आया वह दिन जिसके लिए हम आगरे से चलकर दिल्ली आए थे और लगातार महीने भर तक बिना नागा असेंबली भवन के अगल-बगल चक्कर लगाते रहे थे। यानी 8 अप्रैल, 1928। दिन के ग्यारह बजे स्थान केंद्रीय असेंबली हॉल जिसे अब संसद कहा जाता है। ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल पर जनमत जानने के लिए प्रस्ताव स्वीकृत हो गया था। अध्यक्ष की कुर्सी पर सरदार बल्लभ भाई पटेल विराजमान थे। ट्रेजरी बेंचों पर सर जेम्स क्रेरर एवं सर जार्ज शुस्टर। विशिष्ट व्यक्ति के रूप में वायसराय की सीट पर, दर्शक दीर्घा में, सर जान साइमन।
सरकारी बैंचों के सामने विरोधी सीट पर पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित मदनमोहन मालवीय एवं डा. मुंजे आदि। बम हम दोनों ही की जेब में थे। ऊपर से पीछे की खाली बैंचों को लक्ष्य करके हमने बम फेंके। जोरों का धमाका हुआ, लेकिन चूंकि किसी को मारने का इरादा तो था नहीं, इसीलिए कमजोर बम बनाये गए थे ताकि धमाके पैदा करने के अलावा और किसी तरह का भयंकर, घातक या मारक प्रभाव उससे पैदा न हो सके। 'इंकलाब जिंदाबाद' एवं 'साम्राज्यवादी शासकों के बहरें (राष्ट्रीय मांगों के प्रति) कानों को खोलने के लिए जोरदार आवाज की जरूरत है' के नारों एवं फटे बम के धुएं से हॉल भर गया और भगदड़ मच गयी। डर के मारे सर जेम्स क्रेरर बैंचों के नीचे जा छिपे। बम के साथ फेंके गए लाल रंग के छपे पर्चें धुएं की सतह पर हॉल में इधर-उधर तैर रहे थे।
उस पर्चें में गोरी हुकूमत की आंखें खोलने के लिए भारतीय क्रांतिकारी दल के उद्देश्यों का स्पष्ट हवाला दिया गया था-'दो नगण्य इकाइयां (सरदार भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्ता) को कुचलने से राष्ट्र नहीं दबेगा... सरकार इस बात को समझे कि पब्लिक सेफ्टी तथा ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या के विरुध्द जनमानस का विरोध प्रदर्शित करने के अतिरिक्त हम इतिहास को भी यह साक्ष्य देना चाहतेहैं कि व्यक्तियों का दमन करना आसान है, लेकिन विचारधाराओं का दमन नहीं किया जा सकता। विशाल साम्राज्य नष्ट हो जाते हैं लेकिन विचारधारा नष्ट नहीं होतीं। बोरबोन और जार का पतन हो गया, किंतु क्रांतिकारी आगे बढ़ते गए, हमें, जिनको मनुष्य जीवन से प्रेम है और जो एक बड़े ही गौरवमय भविष्य की कल्पना करते हैं, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्राता के लिए बाध्य होकर मानव-रक्त बहाना पड़ रहा है यह आवश्यक है क्योंकि जो मनुष्यता के लिए शहीद होते हैं, उनके त्याग से क्रांति की वह वेदी बनती है जहां से मानव द्वारा मानव के शोषण का अंत हो सकेगा-इंकलाब जिंदाबाद'।
अपनी पूर्व योजनाओं के अनुसार एवं मार्शल लॉ जारी न हो या बम फेंकने के अपराध में निर्दोष व्यक्ति न पकड़ लिए जायें, हम दोनों ही ने आत्मसमर्पण कर दिया। तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने उस घटना का तात्पर्य अच्छी तरह समझा और बम विस्फोट के बाद ही व्यवस्थापिका सभाओं के संयुक्त अधिवेशन में भाषण के समय चर्चा करते हुए बताया कि बमों का यह प्रकार किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक संस्था (अंग्रेजी शासन) पर किया गया है।
हम दोनों को दिल्ली के दो अलग-अलग थाना में रखा गया। मुकदमे शुरू हुए फिर हमारा स्थानान्तरण दिल्ली जेल में हुआ जहां एक साथ सटी दो अलग-अलग कोठरियों में हमें रखा गया। बीच में खड़ी अभेद्य दीवार। नियाज अली हमारा जेल वार्डन था जिसे एक अरसे तक हम हाड़-मांस का न होकर पत्थर का बना समझते रहे। नियाज अली ने कभी मुझे और सरदार को एक साथ न होने दिया। स्पर्शानुभूति की बात तो दूर रही, उसने कभी हम दोनों को एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखने दिया, उन दो-चार दिनों को छोड़कर जबकि इकट्ठे हमें अदालत ले जाया जाता था। दिल्ली की उस विशेष अदालत में न्यायाधीश के सामने प्रविष्ट होते समय अपने-अपने हाथ-पांवों में पड़ी बेड़ियां की झंकार के साथ हम 'क्रांति चिरंजीवी हो' का नारा लगाते। पूरा न्यायालय गूंज उठता था, और तभी से यह नारा राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त हो गया। बम विस्फोट के साथ पहले-पहल सरदार के मुंह से निकली 'इंकलाब जिंदाबाद' की घोषणा जैसे पूरे राष्ट्रीय जनजीवन में व्याप्त हो गयी।
मुकदमे के दौरान न्यायाधीश महोदय ने सरदार से 'क्रांति' शब्द की व्याख्या करने को कहा तो सरदार ने बताया- 'क्रांति या विप्लव खून-खच्चर ही का रास्ता नहीं, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिशोध का कोई स्थान है। बम और पिस्तौल ही क्रांति का धर्म हो, ऐसा भी नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब है कि वर्तमान समाज और शासन व्यवस्था जो स्पष्टत: अन्याय एवं अत्याचारों पर आधारित है, परिवर्तित हो। आप पूर्ण परिवर्तन के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना करें जिसमें सर्वसाधारण की सत्ता कायम हो सके।'
आसिफ अली साहब ने हमारी ओर से वकालत की थी और हमारे गवाह बने थे डॉ. मुंजे एवं पंडित मदनमोहन मालवीय। न्यायालय ने हम दोनों को आजीवन काले पानी की सजा दी। 1930 में 'लाहौर षडयंत्र केस' के अंत में जब मैं सदा के लिए सरदार से बिछुड़कर मुलतान जेल भेज दिया गया, तब सरदार ने मेरी बहन को एक पत्र लिखा था जो आज भी मेरे जीवन की अमूल्य निधि है। 17 जुलाई, 1930 को लाहौर सेंट्रल जेल से लिखा गया वह पत्र सरदार के व्यथातुर हृदय की अभिव्यक्ति हैं-'बटुक की जुदाई आज मेरे लिए असह्य हो रही है। इस बिछोह से मैं एकदम स्तब्ध सा हो गया हूं... एक-एक पल मेरे लिए असह्य भार बन गया है। सचमुच, अपने भाई एवं परिजनों से भी ज्यादा प्रिय उस मित्र से अलग हो जाना आज मेरे लिए अत्यन्त ही कठिन गुजर रहा है...हमें सबकुछ धैर्यपूर्वक सहन करना है और आपसे भी हिम्मत के साथ परिस्थिति का सामना करने का अनुरोध करूंगा ।'
'लाहौर षडयंत्र केस' में जब सरदार को फांसी की सजा का फैसला सुनाया गया तब अपने एक पत्र में उसने मुझे लिखा:
'प्रिय बटुक,
दीर्घकाल तक हम लोगों का विचार-प्रहसन चलने के बाद अब उस पर यवनिका पात हुआ। न्यायाधीशों ने सजाएं घोषित कर दी हैं और उन सजाओं की इत्तला हमें भेज दी गयी है। मुझे फांसी की सजा मिली है।
तुम्हें मालूम है कि मैं लाहौर जेल की उन्हीं फांसी की कोठरियों में हूं, जहां चंद रोज पहले तुम मेरे साथ थे। इन फांसी की कोठरियों में कुल पैंतालीस मृत्यु-दंड प्राप्त बंदी हैं जो प्रतिक्षण अपनी अंतिम घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अभागे बन्दी फांसी के फंदे से छूट पाने के लिए दिन-रात भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। उनमें से अधिकांश अपने कृत्यकर्म के लिए अत्यंत ही अनुलप्त हैं और इन अभागे बन्दियों के बीच मैं ही एक ऐसा व्यक्ति हूं, भगवान के बदले अपने आदर्शों में ही जिसकी अविचल आस्था है, एवं जिस आस्था के लिए मैं मृत्यु का आलिंगन करने जा रहा हूं, इसके लिए संतुष्ट हूं। तुमसे मेरा बिछोह अत्यंत ही पीड़ादायक है, लेकिन इससे कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति होगी। मैं फांसी के तख्ते पर अपना प्राण विसर्जित कर दुनिया को दिखाऊंगा कि क्रांतिकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी आत्म-बलिदान कर सकता है। मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन तुम आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए जीवित रहोगे और मेरा दृढ़विश्वास है कि तुम यह सिध्द कर सकोगे कि विप्लवी अपने उद्देश्यों के लिए आजीवन तिल-तिल कर यंत्राणाएं सहन कर सकता है। मृत्यु दंड पाने से तुम बचे हो और मिलने वाली यंत्राणाओं को सहन करते हुए दिखा सकोगे कि फांसी का फंदा, जिसके आलिंगन के लिए मैं तैयार बैठा हूं, यंत्रणाओं से बच निकलने का एक उपाय नहीं है। जीवित रहकर विप्लवी जीवन भर मुसीबतें झेलने की दृढ़ता रखते हैं।
तुम्हारा-भगत सिंह'
गंभीर मननशीलता, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं आत्मबल पर अटूट विश्वास सरदार के अन्य गुण थे। दूसरे देश के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ पराधीन भारतवर्ष की राजनीतिक परिस्थिति का तुलनात्मक विचार सरदार के चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष था। बलिष्ठ हाथों में पिस्तौल लेकर जिस प्रकार लक्ष्य- भेद करने में वह माहिर थे, उसी प्रकार उनकी सुंदर उंगलियां लेखनी चलाने में माहिर थीं।
सरदार सचमुच आजादी देखने के लिए नहीं रहे, लेकिन उनका बलिदान भी यों ही नहीं गया। आज सोचता हूं तो लगता है जैसे स्पष्ट दृष्टि में आने वाला समय बिल्कुल ही स्पष्ट और साफ होकर कैद था- शहादत के बाद चाहे जितना समय लगे, देश आजाद होगा और जरूर होगा।
सरदार अपने विचारों या व्यवहारों में कट्टरपंथी कभी नहीं रहे मस्तक पर सिख धर्म के द्योतक लंबे बाल, कंघा, कच्छा और कड़ा लेकर वह कानपुर आए थे, लेकिन बाद के दिनों में परिस्थिति के अनुसार उन्होंने खुद को दूसरे रूप में ढाल दिया। लंबे-लंबे बाल कटवाकर नीचे से ऊपर तक सूट एवं हैट से लैस उन्होंने अंग्रेज साहबों का रूप धारण किया। हिंसा एवं अहिंसा की उधेड़बुन में उनके विचार उलझे हुए नहीं थे, न ही उनके मन में कभी किसी के प्रति हिंसा या द्वेष पनपा। राजनीतिक बंदियों को युध्दबंदी (प्रिजनर ऑफ बार) की स्वीकृति दिलाने एवं तदनुसार उनके सम्मानपूर्वक व्यवहार की मांग पर बंदियों द्वारा सामूहिक अनशन का संग्राम आरम्भ करना तथा उसी संग्राम के द्वारा देश की मुरझाई हुई चेतना में फिर से स्पंदन जगाने की कल्पना सरदार ने ही की थी और उसी संग्राम के फलस्वरूप पूरे देश में एक अभूतपूर्व परिस्थिति उत्पन्न हुई एवं बाद में 1930 का जनांदोलन जिससे प्रेरित हुआ। खुद सरदार ने जेल के भीतर 14 जून, 1929 से प्रारंभ करके लगातार 127 दिनों तक भूख की अनन्त ज्वाला में घुलते हुए मौत की प्रतीक्षा की थी...
गंभीर मननशीलता, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं आत्मबल पर अटूट विश्वास सरदार के अन्य गुण थे। दूसरे देश के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ पराधीन भारतवर्ष की राजनीतिक परिस्थिति का तुलनात्मक विचार सरदार के चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष था। बलिष्ठ हाथों में पिस्तौल लेकर जिस प्रकार लक्ष्य- भेद करने में वह माहिर थे, उसी प्रकार उनकी सुंदर उंगलियां लेखनी चलाने में माहिर थीं।
'प्रताप' में काम करते समय डैन ब्रीन लिखित 'माई फाइट फार आइरिश फ्रीडम' का बड़ा ही सुंदर अनुवाद उन्होंने किया था। दिल्ली के साप्ताहिक 'अर्जुन' के सम्पादकीय में भी वह लेखनी चलाते रहे। उन्हीं दिनों पंजाब के विद्रोही किसान आंदोलन, कूका विद्रोह और बब्बर अकाली आंदोलन पर लिखी उनकी पांडुलिपियां मैंने पढ़ी थीं। फांसी के पहले पंजाब के तत्कालीन गवर्नर के पास उन्होंने अपने साथ फांसी की सजा से दंडित अन्य साथियों को फांसी के फंदे से लटकाने के बजाय युध्दबंदियों की भांति गोली से उड़ा दिए जाने के लिए जो आवेदन पत्र भेजा था। उसकी शैली एवं दलील दोनों ही अपने ढंग की अकेली चीज थीं यानी सरदार न सिर्फ एक क्रांतिकारी भर ही थे बल्कि इसके साथ-साथ एक दूरदर्शी राजनेता, सफल अनुवादक, पत्रकार एवं चिंतक का अद्भुत सम्मिश्रण उनके व्यक्तित्व में मौजूद था।
अपने ध्येय के लिए जीवन की आहुति चढ़ा देने की प्रबल प्रेरणा एवं आकांक्षा से ही सब दिन प्रेरित हुए और निश्चित मृत्यु की ओर बढ़ते गए। अनासक्त हृदय का कोई व्यक्ति ही इस प्रकार संसार की स्थूल वासनाओं से मुक्त होकर मृत्यु को सहर्ष गले लगा सकता है। स्वामी विवेकानंद की वाणी, सरदार के संदर्भ में, मुझे हमेशा याद आती रहती है-'यदि तुम्हारा मन अनासक्त है। तो तुम्हारी भक्ति भी अपरिसीम है। संसार की कोई भी ताकत तुम्हारी गति का प्रतिरोध नहीं कर सकती'। और इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज शासकों की विशाल राक्षसी शक्ति भी सरदार की जीवन गति का प्रतिरोध कर पाने में सब दिन असमर्थ रही। 7 अक्टूबर, 1930 को फांसी की सजा सुनाई गयी थी और 23 मार्च, 1931 की शाम उन्हें फांसी दे दी गयी। वह सब दिन कहा करते थे मातृभूमि की बलिवेदी पर कौन पहले जायेगा, कौन पीछे, नहीं मालूम लेकिन चाहे जो कोई पहले जाए उसके लिए हम आंसू नहीं बहायेंगे बल्कि उसके अधूरे कार्यों को पूरा करने की कोशिश करेंगे। हमारा बलिदान यों ही नहीं जायेगा बटुक! यह और बात है कि आने वाले परिणामों को देखने के लिए हम संसार में नहीं रहें...
सरदार सचमुच आजादी देखने के लिए नहीं रहे, लेकिन उनका बलिदान भी यों ही नहीं गया। आज सोचता हूं तो लगता है जैसे स्पष्ट दृष्टि में आने वाला समय बिल्कुल ही स्पष्ट और साफ होकर कैद था- शहादत के बाद चाहे जितना समय लगे, देश आजाद होगा और जरूर होगा।
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