अन्ना हजारे ने अपने अनशन की घोषणा कर दी है। वे 16 अगस्त से अनशन पर बैठेंगे। असल में इस अनशन का कोई अर्थ नहीं है। अन्ना हजारे की राजनीति का आधार है 'मैं सही और सब गलत' । लोकतंत्र में ' मैं' के लिए जितनी जगह है उससे ज्यादा 'अन्य' के लिए जगह रखनी होती है। अन्ना के राजनीतिक एजेण्डे में 'अन्य ' के लिए कोई जगह नहीं है। अन्ना की राजनीति में 'जिद' का बड़ा महत्व है,यह ऐसे व्यक्ति की जिद है जिसकी कोई सामाजिक जबावदेही नहीं है। अन्ना और उनकी टीम की लोकतंत्र के मौजूदा ढ़ांचे में कोई जबाबदेही नहीं है। वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र हैं।
अन्ना की पूरी समझ इस धारणा पर टिकी है कि 'सरकारी लोकपाल' भरोसेमंद नहीं है। वे 'सरकार' के प्रति संदेह की नजर रखते हैं। सरकार के प्रति अविश्वास के आधार पर राजनीति नहीं चलती। सरकार के प्रति आलोचनात्मक हो सकते हैं लेकिन सरकार के पक्ष को पूरी तरह दरकिनार नहीं कर सकते। आखिरकार सरकार भी तो देश की बृहत्तर जनता का प्रतिनिधित्व कर रही है। जबकि अन्ना तो अपने गुटों और सहयोगी संगठनों का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
अन्ना की एक अन्य दिक्कत है कि वे हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं। लोकतंत्र में यह संभव नहीं है। तानाशाही में यह संभव है कि किसी एक ने कहा और उसे सारे देश पर थोप दिया गया। अन्ना की जिद है जो कहा है उसे मानो।जैसा कह रहे हैं वैसा करो। जिस दिन करने को कह रहे हैं उसदिन करो। अन्ना का स्वभाव लोकतंत्र की प्रक्रियाओं के बाहर रमण करता है। वे चाहते हैं भ्रष्टाचार पर लगाम लगे,भ्रष्ट लोगों को दण्ड मिले लेकिन मुश्किल यह है कि वे इसे अपनी गति और मति के आधार पर करना चाहते हैं।
अन्ना की गति और मति का लोकतंत्र की गति और मति से दूर-दूर तक तार नहीं जुड़ता। अन्ना लोकतंत्र के डिक्टेटरर हैं। लोकतंत्र में डिक्टेटरशिप नहीं चलती चाहे जितनी भी अच्छी बातें करे डिक्टेटरर। अन्ना की पहले अनशन के समय मांग थी कि सारे देश में मजबूत लोकपाल की स्थापना हो और उसके लिए तुरंत लोकपाल बिल लाया जाए। केन्द्र सरकार ने उनकी यह मांग बुनियादी तौर पर मान ली है और संसद के अगस्त से आरंभ हो रहे सत्र में लोकपाल बिल पेश होने जा रहा है। अनशन आरंभ होने के बाद अन्ना ने स्टैंड बदला और कहा कि लोकपाल के लिए संयुक्त समिति बने जिसमें सरकार और 'अन्ना ब्रॉण्ड सिविल सोसायटी' के लोग हों। सरकार ने यह भी मान लिया। संयुक्त मसौदा समिति बना दी गयी। बाद में अन्ना स्वयं ही समिति में चले आए जबकि आरंभ में वे किसी समिति में रहना नहीं चाहते थे। मजेदार बात यह है कि अन्ना क्या चाहते हैं और उनकी मांगे क्या हैं उनके विवरण और ब्यौरे बादमें आम जनता में आए। आरंभ में मांग थी लोकपाल बिल लाओ।
अन्ना अब कह रहे हैं केन्द्र सरकार ने लोकपाल बिल का जो मसौदा तैयार किया है वह देश की जनता के साथ छल है। अन्ना जानते हैं छल तब होता है जब कोई बात छिपायी जाए। धोखा तब होता है जब ठगा जाए। केन्द्र सरकार ने अपने नजरिए से न तो ठगा है और न किसी को धोखा दिया है। केन्द्र सरकार ने कभी नहीं कहा कि वह अन्ना की सारी बातें मानते हैं।
केन्द्र सरकार ने अपने नजरिए से एक लोकपाल बिल तैयार किया है और उसे वह संसद में पेश करने जा रही है। सांसदों के ऊपर है कि वे उसे किस रूप में पास करें। केन्द्र सरकार ने लोकपाल बिल का वायदा किया था और वे जिस नजरिए से देख रहे हैं उसके आधार पर एक मसौदा संसद में पेश करने जा रहे हैं। सारी चीजें पारदर्शी हैं। अन्ना के लोग खुलेआम जितना बोल रहे हैं और अपनी असहमतियों का इजहार कर रहे हैं वैसा अन्य दल नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मीडिया ने सारे मसले को अन्ना बनाम सरकार का मसला बना दिया है।
अन्ना और सरकार के अलावा अनेक राजनीतिक दल हैं और विभिन्न किस्म के सैंकड़ों संगठन हैं जिनकी लाखों-करोड़ों की मेम्बरशिप है। मीडिया की बहस में ये संगठन एकसिरे से गायब हैं। इससे एक बात का पता चलता है कि अन्ना को लेकर मीडिया ऑब्शेसन का शिकार है। मसलन् विभिन्न विचारधारा के महिला,किसान ,मजदूर,युवा और छात्र संगठन हैं,इसके अलावा ऐसे भी स्वयंसेवी संगठन हैं जिनकी सैंकड़ों यूनिटें हैं। इनकी राय एकसिरे से गायब है।
कारपोरेट मीडिया का अन्ना के प्रति ऑब्शेसन इस बात का सबूत है कि वह भारत की बृहत्तर ओपिनियन की उपेक्षा कर रहा है। विगत दिनों टीवी स्टूडियो में डिशकशन के नाम पर जो भीड़ अन्नाभक्तों की जुटायी गयी थी वह भी कारपोरेट मीडिया के अन्ना ऑब्शेसन को ही सामने लाती है। अन्न्भक्त स्टूडियो में अन्नाटीम से भिन्न राय व्यक्त करने वालों को हूट कर रहे थे।
अन्नाभक्तों की बॉडी लैंग्वेज में लोकतांत्रिक विनम्रता नहीं है। वे आक्रामक और उद्धत हैं। जबरिया मनवाने में विश्वास करते हैं और मीडियासेवी लोग हैं। इन्हें लोकतंत्र के अधीर नागरिक कहना समीचीन होगा। लोकतंत्र अधीरों से नहीं धीरवान समाज से चलता है। लोकतंत्र में जिद्दीभाव की नहीं लोकतांत्रिक भाव की जरूरत है। लोकतंत्र 'मैं 'का नहीं 'हम' का खेल है।
लोकतंत्र में व्यक्ति नहीं संस्थान महत्वपूर्ण हैं। अन्ना -मनमोहन,सिविल सोसायटी-कांग्रेस-भाजपा-माकपा आदि से बहुत बड़ा दायरा है लोकतंत्र का। लोकतंत्र का आधार हैं संस्थान। संस्थानों की अपनी काम करने की गति है। उस गति की उपेक्षा करने से लोकतंत्र के नष्ट हो जाने का खतरा है। अन्ना की मुश्किल यह है कि वे लोकतंत्र के साथ संस्थान की गति के बाहर रहकर संबंध बनाना चाहते हैं।
अन्ना का 16 अगस्त को अनशन पर बैठना एकसिरे से गलत है। उन्हें लोकपाल बिल के अंतिम शक्ल लेने तक का इंतजार करना चाहिए। अभी पहला चरण है जिसमें मसौदा तैयार हुआ है और वह संसद में जाएगा तो उसको अन्य प्रक्रियाओं से गुजरना होगा। इसमें जो भी समय लगे वह देना होगा ,लेकिन अन्ना के पास धैर्य नहीं है। अधीरता से अन्ना की छोटी टीम तो चल सकती है लोकतंत्र नहीं चल सकता। लोकतंत्र में प्रक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं और उसके विभिन्न चरणों में गति बनाए रखने के लिए अपार धैर्य की जरूरत है।
अन्ना की एक और मुश्किल है कि वे लोकतंत्र के काल्पनिक संसार में रहते हैं। लोकतंत्र को कल्पना में पाना और संस्थान की प्रक्रियाओं में ठोस रूप में देखने में जमीन- आसमान का अंतर है। लोकतांत्रिक संस्थाएं भेड़-बकरी नहीं हैं जिन्हें कोई चरवाहा हांककर ले जाए।
लोकपाल बिल आरंभ है यह अंतिम पड़ाव नहीं है लोकपाल का। अन्ना की मुश्किल है कि वे लोकपाल और भ्रष्टाचार के भविष्य की सारी समस्याएं एक ही साथ पूरे परफेक्शन के साथ सिलटा देना चाहते हैं। लोकतंत्र में परफेक्शन, अनुभव से आता है।ख्यालों से परफेक्ट बिल या कानून हमेशा डिक्टेटर बनाते हैं। इस अर्थ में अन्ना लोकतंत्र के डिक्टेटर हैं। हमें लोकतांत्रिकअन्ना कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा जिसमें धैर्य हो, अन्य के लिए जगह हो,संसद की प्रक्रियाओं के प्रति नमनीय भाव हो।
अन्ना टीम का सारा प्रचार अभियान मीडिया ऑबशेसन पर टिका है। सभी बहसों में अन्नाटीम को सैलीब्रिटी के रूप में रखा जाता है। सामान्यतौर पर स्टूडियो में ऐसे लोग बुलाए जाते हैं जो अन्ना के फेन हैं या अनुयायी हैं। अन्नाटीम को मीडिया ने सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि सैलीब्रिटी के रूप में कल्टीवेट किया है।
अन्ना के इस समय जितने अनुयायी नेट पर हैं उतने जमीन पर नहीं है। जमीन पर वेही हैं जो नेट पर हैं। इनमें अधिकांश वे लोग हैं जो सोशल नेटवर्क से जुड़े हैं और सोशल नेटवर्किंग और मीडिया के ऑब्शेसन के शिकार हैं।
इनमें एक वर्ग उन लोगों काभी है जो भीडतंत्र का हिस्सा हैं। भीडतंत्र और लोकतंत्र में कारपोरेट मीडिया भेद करना नहीं जानता। भीडतंत्र की भाषा में ही बौखलाकर अन्नाटीम ने लोकपाल बिल को जोकपाल बिल कहा है। भीड़तंत्र के तर्कशास्त्र में सरकार या अधिकारी की बात न मानने का भाव होता है। वे सरकार की जमकर खिल्ली उड़ाते हैं। अन्नाटीम के लोग लोकतंत्र की खिल्ली उड़ा रहे हैं, मतदाता की खिल्ली उड़ा रहे हैं, वे वोटर की अज्ञानता,उपेक्षा,संवादहीनता,शिरकत के अभाव की खिल्ली उड़ा रहे हैं। स्वयं अन्ना हजारे यही हथकंडा अपना चुके हैं। स्वयं अन्ना ने आम नागरिकों की खिल्ली उड़ायी है। अन्नाटीम अपने को ज्ञानी और आम आदमी को मूर्ख मानकर तर्क दे रही है। संस्थान के नियम,कानून का शासन,कानून की गति,सरकार की मजबूरियां और जिम्मेदारियों आदि के प्रति अन्नाटीम का अनैतिहासिक नजरिया है। वे न तो संरचनाओं को ऐतिहासिक नजरिए से देख रहे हैं और न संसद और संविधान को ही।
अन्ना को अच्छे साथियों का और चाहने वालों का ना मिल पाना एक फ़िक्र की बात है. काल आप के इस लेख की चर्चा मंच पे होगी.
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bahut badiya samyik chaintan prastuti ke liye aabhar!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विचार ...
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