'आलोचना' और 'साहित्य' ये दो अवधारणाएं आधुनिकयुग की देन है। हिन्दी में मध्यकाल-प्राचीनकाल में 'आलोचना' और 'साहित्य' पदबंध का प्रयोग नहीं मिलता। हिन्दी में मध्यकाल में 'काव्य' मिलता है। 'साहित्य' नहीं मिलता। संस्कृत साहित्य में काव्य, नाटक, गद्य, काव्यशास्त्र,दर्शन,चिकित्साशास्त्र,नाट्यशास्त्र आदि पर लिखे ग्रंथ मिलते हैं। लेकिन हिन्दी में सिर्फ 'काव्य' मिलता है। हिन्दी में मध्यकाल में 'काव्येतर विधाओं' की ओर लेखकों का ध्यान क्यों नहीं गया ? आधुनिककाल आने के बाद 'काव्येतर विधाओं' की ओर ध्यान क्यों गया ? इन दोनों सवालों पर हिन्दी आलोचक चुप हैं। मध्यकालीन काव्य में विचार हैं ,लेकिन विचार-विमर्श नहीं है। विचार-विमर्श की प्रक्रिया आधुनिककाल आने के साथ आरंभ होती है।
हम जब तक विचारों को अपनी भाषा में विवाद का हिस्सा नहीं बनाते ,उस पर विवाद नहीं करते तब तक सामाजिक मुक्ति का मार्ग अवरूद्ध रहता है। मध्यकाल में काव्य को सम्मान दिया गया और उसे ही सामाजिक परिवर्तन का उपकरण माना गया। जबकि संस्कृत में गद्य और पद्य दोनों का विकास हुआ । संस्कृत में गद्य विगत दो हजार साल से लिखा जा रहा है।भरत का नाट्यशास्त्र संस्कृत में गद्य का आदिग्रंथ है। हिन्दी में आमलोग गद्य बोलते थे लेकिन लिखना आधुनिककाल में आरंभ हुआ। इससे हिन्दी के वैचारिक मन की उम्र को समझा जा सकता है। मध्यकाल में मनोरंजन और दिल बहलाने का सबसे बड़ा साधन कविता थी। कविता हमारे लेखक को अप्रिय समाज और असंतुष्ट जगत से पलायन में मदद करती थी। काव्य में रमा हुआ व्यक्ति इस दुनिया से बेखबर होकर तल्लीन भाव से सृजन करता था। वह कविता के जरिए निजी जीवन की सामान्य अवस्था से आगे जाकर महान या बड़े होने का सपना देखता था। जीवन के अंधकारमय वातावरण में कविता में ही उसे रोशनी नजर आती थी। सामाजिक असंतोष,भौतिक अभाव और सामाजिक वैषम्य के दायरे के परे जाकर जोखिमरहित भाव से सोचने की उसे शक्ति कविता में मिली । गद्य में लिखना जोखिमभरा था। सत्ता और प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्गों से टकराव की संभावनाएं थीं। इसके कारण हिन्दी में गद्य लिखा ही नहीं गया।
मध्यकाल में व्यक्ति का निजी जीवन की सीमाओं का यथार्थ में अतिक्रमण करना संभव नहीं था ,लेकिन कविता में सीमाओं का अतिक्रमण कर पाता था । जीवन में प्रेम और ज्ञान का अभाव था लेकिन कविता में ये दोनों भरे पड़े है। वास्तव जीवन में न्यायसंगत समाज व्यवस्था नहीं थी लेकिन कवि ने कविता में न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था का ढ़ांचा बना लिया । निजी जीवन की जो सीमाएं थीं उन सभी का वह खुलकर कविताओं में अतिक्रमण करता है। जीवन में वैयक्तिकता का अभाव था लेकिन काव्य में वह वैयक्तिकता ने नए सोपान खड़े करने में समर्थ रहा।
हिन्दी साहित्येतिहास में मघ्यकाल में काव्य के अलावा अन्य किसी भी विधा का न मिलना,खासकर 'आलोचना' का न मिलना कई नए तथ्यों पर विचार करने को बाध्य करता है। मसलन् काव्य सुनाते थे। पढ़ते नहीं थे। सुनाने की पद्धति मूलतःनाटक की पद्धति है। नाटक में भी वाचन का महत्व है और मध्यकाल में कविता भी गाकर सुनाते थे। गाकर सुनाने और कविता पढ़ने में बुनियादी अंतर है। कविता गाकर सुनाते समय श्रोता के शिक्षित होने की जरूरत नहीं है। 18वीं सदी में ब्रज का गद्य मिलना आरंभ हो जाता है। 19वीं सदी में प्रेस और शिक्षा के प्रसार ने 'काव्येतर विधाओं' के उदय का वातावरण बनाया। 'साहित्य' पदबंध का प्रयोग आरंभ हुआ।
'साहित्य' का शब्द पढ़ने की क्षमता के साथ संबंध है। 'साहित्य' के आने का मतलब है समाज में साक्षरता का आरंभ। साक्षरता के उदय और विकास के साथ 'साहित्य' पदबंध का विकास अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है। प्रेस के आने के बाद कविता या गद्य का वाचन की बजाय रीडिंग के युग में प्रवेश होता है। शब्द और अर्थ को मिलाकर साहित्य बनता है। पहलीबार नये माध्यम के रूप में किताब,समाचारपत्र और पत्रिका का जन्म होता है। पहले कविता गायी जाती थी अब कविता पढ़ी जाने लगी। यानी वाचन से रीडिंग के युग में दाखिल होने के बाद ही 'काव्येतर विधाओं' में लेखन संभव हुआ। उल्लेखनीय है संस्कृत में हम सैंकड़ों साल पहले रीडिंग के युग में पहुँच गए थे लेकिन हिन्दी में रीडिंग के युग में 18वीं सदी में ही पहुँच पाए।
सामान्यतः मध्यकालीन कविता को हिन्दी आलोचक 'साहित्य' कहते हैं। लेकिन वास्तव अर्थ में यह 'साहित्य' नहीं 'काव्य' है। प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है साहित्य का आधुनिक साक्षरता से गहरा संबंध है। साक्षरता के बिना साहित्य का विकास संभव नहीं है। इसके कारण साहित्य के पुराने अर्थ का अंत हो जाता है। मध्यकाल में कवि पढ़ा लिखा था। लेकिन साक्षरता का वातावरण नहीं था। आधुनिककाल में साक्षरता के परिवेश का जन्म होता है। पहले कम पढ़े-लिखे थे,लिखने-पढ़ने में कमजोर थे,लेकिन आधुनिककाल में साक्षरता के विकास ने पढ़ने-लिखने की तमाम कमियों को दूर किया और इससे हिन्दी साहित्य में व्याप्त भाषिक अराजकता का अंत हुआ। मध्यकाल में निरक्षर की भी स्वीकृति थी लेकिन आधुनिककाल में ऐसा नहीं है। यहां साक्षर की स्वीकृति है। निरक्षरता यानी भाषा को लिखने-पढ़ने में असमर्थ। साक्षरता का अर्थ है भाषा को लिखने-पढ़ने में समर्थ।
मध्यकाल में सरल और बोधगम्य पाठ की मांग उठी और उसके अनुरूप कविता लिखी गयी। आधुनिककाल में साक्षरता के विकास के साथ ही सरल और सहज पाठ की मांग उठी। बोधगम्य किताबें लिखी गयीं। बोधगम्यता का अर्थ साक्षरता से जोड़ा गया। बोधगम्यता को लेखन के अभ्यास ,गुणवत्ता और महत्ता से जोड़ा गया। पहले लेखक किसी न किसी के संरक्षण में रहता था। हिन्दी में लेखकों का एक वर्ग दरबार और मंदिरों के संरक्षण में था।बहुत कम लेखक थे जो इस संरक्षण के दायरे बाहर थे। आधुनिककाल आने के बाद यह संरक्षण पूरी तरह खत्म हो जाता है और लेखक पूरी तरह बाजार के ऊपर आश्रित हो जाता है। आधुनिककाल आने के बाद साहित्य और साहित्यिकता दोनों में बुनियादी बदलाव आता है। आधुनिककाल के साथ राष्ट्र-राज्य का जन्म होता है। यही वजह है आधुनिककाल के साथ ही जातीय साहित्य की अवधारणा पैदा होती। मध्यकाल में यह धारणा नहीं मिलती। साहित्य के साथ जातीय पदबंध का जुड़ने का अर्थ है साहित्य के साथ राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास का जुड़ना। साहित्य का मतलब यह भी है कि खास किस्म का प्रकाशन। खासकर कविता,कहानी,उपन्यास, निबंध, आलोचना, नाटक आदि। मध्यकाल में कविता अतीत के विषयों की ओर लौटती है,लेकिन साहित्य के युग में विधाओं में अतीत के कम और वर्तमान के विषयों पर ज्यादा लिखा गया। साहित्य के लिए वर्तमान और भविष्य के विषय महत्वपूर्ण माने गए।
इसी तरह 'आलोचना' आधुनिक विधा है। आधुनिककाल के पहले हिन्दी में आलोचना नहीं लिखी गयी। संस्कृत में काव्यशास्त्र है ,लेकिन आलोचना नहीं है। सर्जनात्मक विधाओं से काव्यशास्त्र का अंतर है। यह शास्त्र काव्य के सवालों पर सुचिंतित ढ़ंग से प्रकाश डालता है। संस्कृत में कविता,नाटक और गद्य साहित्य अलग अलग हैं। उसी तरह दर्शन,न्याय,चिकित्साशास्त्र आदि भी अलग अलग हैं। जो कुछ कविता के फॉर्म में लिखा है वह सब साहित्य नहीं है। साहित्य की कोटि में क्या आएगा और क्या नहीं,इसका संस्कृत के आलोचकों और लेखकों को ज्ञान था। वे काव्यशास्त्र और दर्शन में अंतर करते हैं, कविता और दर्शन में अंतर करते हैं,कादम्बरी और कथा में अंतर करते हैं। कविता के फॉर्म में लिखे सर्जनात्मक साहित्य और काव्यरूप में लिखे गैर साहित्यिक लेखन में अंतर करते हैं। यह सवाल भी उठा है कि हिन्दी में सन् 1940 के बाद से ही नवजागरण की बहस का आरंभ क्यों होता है ? हिन्दी में रैनेसां हुआ है यह बोध भारतेन्दुमंहल के लेखकों के बीच क्यों नहीं है ? सन् 1940 के पहले 'नवजागरण साहित्य' पदबंध क्यों नहीं मिलता ? दूसरा सवाल यह है 19वीं सदी में नवजागरण क्यों आया ? तीसरा सवाल उठता है कि क्या हिन्दी में सामाजिक जीवन में नवजागरण हुआ है ?
आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन संबंधों और छापे की मशीन के आगमन के पहले नवजागरण संभव नहीं है। नई परिवहन व्यवस्था,मासमीडिया,साक्षरता,जनशिक्षा आदि के गर्भ से नए वर्ग के रूप में मध्यवर्ग जन्म लेता है।
मध्यकाल में काव्य में आनंद लेने वालों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो अशिक्षित था लेकिन आधुनिक साहित्य के साथ यह स्थिति नहीं है। साहित्य के पाठक शिक्षित हैं। साहित्य के केन्द्र में भगवान,स्वर्ग-नरक,मिथकीय और पौराणिक आख्यानों की जगह मनुष्य केन्द्र में आया। सामान्य मनुष्य के जीवन का चित्रण होने लगा। साहित्य और साक्षरता का अन्तस्संबंध बना और अब साहित्य के विकास की सारी गतिविधियां साक्षरता और मनुष्य के विकास के साथ जुड़ गयीं। रेमण्ड विलियम्स ने लिखा है कि साहित्य मूलतः साक्षरता से आधुनिक अर्थों में संपर्क-संबंध बनाता है। साहित्य से पुराने विषयों की विदाई होती है। आधुनिक युग के साथ किताब और समाचारपत्र-पत्रिकाओं का नए माध्यम के रूप में जन्म होता है। । साहित्य वह है जो साक्षरता की सीमारेखा का अतिक्रमण करे। साहित्यकार वह जो कृति को बेहतर ढ़ंग से लिख,पढ़ और समझ सके। लेखक के रूप में अपनी मेधा,ऊर्जा और शक्ति का प्रदर्शन कर सके।
मध्यकाल में भाषा और भाषण एक-दूसरे के पर्यायवाची थे, लेकिन आधुनिककाल में लेखन और किताब एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। साहित्य को कल्पनाशीलता से जोड़ा गया ,मध्यकाल में काव्यात्मक अभिव्यक्ति को साहित्य कहा गया। काव्य श्रेष्ठ कोटि का साहित्य माना जाता था। मध्यकाल में काव्यग्रंथों किसी न किसी देवी-देवता की आरंभ में वंदना की गई है। जबकि 'साहित्य' अपने साथ मानवीय अनुभूतियां लेकर आया। फलतः काव्य को दैवकृत और साहित्य मनुष्यकृत कहा गया। पुराने जमाने में काव्य का संबंध कल्पना और भाषण से था,वह अभिव्यक्ति और संचार का हिस्सा था। आधुनिककाल में साहित्य को साहित्यिकता ,तथ्यपूर्ण खोज और यथार्थ अनुभव से जोड़ा । काव्य लिखना गंभीर माना जाता था ,साहित्य ने गंभीरता को अपदस्थ किया और उसे सामान्य लेखन बना दिया। आनंद के लिए पढ़े जाने वाला अनुशासन बना दिया।
'आलोचना' आधुनिक विधा है। यह पुराने संस्कृत काव्यशास्त्र से बुनियादी तौर पर भिन्न है। संस्कृत काव्यशास्त्र में साहित्य के विभिन्न रूप तत्वों का व्यापक विवेचन मिलता है। इसके विपरीत 'आलोचना' के तीन बुनियादी कार्य हैं,पहला,कृति में मूल्य की खोजकरना, दूसरा ,साहित्य की सामाजिकता की खोज करना। तीसरा है, मूल्यांकन करना। 'साहित्य' और 'आलोचना' इन दो साझा भूमिकाएं है,पहला, समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाना। दूसरा, विचारधारा के सवालों पर विचार-विमर्श तेज करना। आधुनिककाल के आने के बाद ही वर्ग,व्यक्ति ,अस्मिता और विचारधारा के सवालों पर जमकर विचारधारात्मक संघर्ष हुए। विचारधारा के आधार पर सामाजिक ध्रुवीकरण हुआ और साहित्य को राष्ट्र,राष्ट्रीयता,राष्ट्रवाद आदि से जोड़कर देखा गया। साहित्य की आलोचनात्मक भूमिका का जन्म हुआ। मध्यकालीन भावबोध की विदाई हुई।
बीस जून से अभी तक के सभी आलेख पढ़े. बहुत बढ़िया हैं. कहना चाहूंगा कि इन आलेखों में हिन्दुओं के प्रति आपका जो प्रेम गायब रहा, उसकी वजह से लेख संतुलित हैं और अच्छे हैं.
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