पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अब विकास के सपने नहीं आते। उनका खुदरा व्यापार में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का विरोध उनकी नई मनोदशा की अभिव्यक्ति है। वे इन दिनों विकास की नहीं विकास के विरोध की भाषा बोल रही हैं। विकास के नाम पर जनता का असीम प्यार और समर्थन पाने के बाद ममता का विकास की बजाय बागी की भाषा में बोलना उस असंतुलन को व्यक्त करता है जो पश्चिम बंगाल में पहले से मौजूद है। लोकतंत्र में बागी और विकास में सीधे टकराव है।
ममता की खूबी है कि उन्होंने वाममोर्चे की नाकामियों और जनविरोधी हरकतों का प्रतिवाद करते हुए बागी और विकास के बीच नकली संतुलन बनाकर जो विभ्रम पैदा किया था वह विगत पांच सालों में खूब चला। लेकिन अब यह विभ्रम टूट रहा है। सत्ता में आने के बाद बागी और विकास का नकली संतुलन टूटा है। राज्य के शासन पर बागी सवार हैं और विकास काफूर हो गया है।
ममता की मुश्किल यह है कि वे बागी के तानबाने में कैद हैं और बागी के नजरिए से राज्य प्रशासन को चलाना चाहती हैं। बागी के नजरिए से शासन चलाने का अर्थ है वस्तुगत प्रशासनिक प्रणाली का अभाव। बागी भाव से शासन चलाएंगे तो हमेशा दलतंत्र हावी रहेगा। पहले दलतंत्र की ममता आलोचना करती थीं लेकिन इन दिनों दलतंत्र की ओर जा रही हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब शासन में आई थीं तो उनसे उम्मीद थी कि वे जिस भाषा में विपक्ष में रहते हुए बोलती थीं उस भाषा और नजरिए को त्यागकर सुशासन की भाषा में बोलेंगी। लेकिन ममता ने अपनी भाषा और राजनीतिक तेवर नहीं बदले। ममता के बागी तेवर और उग्रभाषा उनकी कल तक सबसे बड़ी पूंजी थी लेकिन आज वही सबसे बड़ी बाधा है।
लोकतंत्र में अ-स्वाभाविक भाषा वह है जो अहर्निश अशांतमन और टकराव को व्यक्त करती है।इस तरह की भाषा का सामाजिक अवसाद से गहरा संबंध है। सामाजिक अवसाद बागी भाषा को सहज अभिव्यक्ति देता है। इसके विपरीत लोकतंत्र की स्वाभाविक भाषा वह है जिसमें सामंजस्य का भाव है और अन्य के लिए बराबर की जगह है। बागी की भाषा सामाजिक असमानता और सामाजिक अवसाद की अभिव्यक्ति है। इस तरह की भाषा असमानता को बनाए रखती है । इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की भाषा और राजनीतिक तेवरों को पढ़ा जाना चाहिए।
विगत 26सितम्बर को ममता बनर्जी के दल ने राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया है कि खुदरा व्यापार के क्षेत्र में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का राज्य में निवेश स्वीकार्य नहीं है। यह ऐसा प्रस्ताव है जो राज्य के समूचे विकास को सीधे प्रभावित कर सकता है। मसलन् बड़ा बाजार का कोई व्यापारी यदि खुदरा व्यापार में 5000करोड़ रूपये का निवेश करना चाहेगा तो उसे निवेश की अनुमति नहीं होगी। यह तो सीधे व्यापारियों के व्यापार करने के अधिकार पर हमला है। केन्द्र और राज्य के व्यापार संबंधी कानूनों में कहीं पर भी यह प्रावधान नहीं है कि देशी व्यापारी खुदरा व्यापार के क्षेत्र में किस सीमा तक पूंजी निवेश करेगा। देशी व्यापारी जिस किसी भी क्षेत्र में यहां तक कि खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी पूंजी का निवेश कर सकता है। समूचे देश में मॉलकल्चर और बिग बाजार की संस्कृति जिस समय आई उस समय ममता के दल ने इसका विरोध नहीं किया था। लेकिन आज सत्ता में आने के बाद वे अचानक खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी पूंजी के प्रवेश का विरोध कर रही हैं। इस तरह का विरोध न्यायसंगत नहीं है और देश के मौजूदा व्यापार कानूनों का सीधे उल्लंघन है। ममता को यह पता है कि खुदरा व्यापार में मॉल कल्चर पुराने खुदरा व्यापार की अपडेटिंग है। लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह अपडेटिंग पसंद नहीं है। उनका बड़ी पूंजी के खिलाफ गुस्सा इस बात का भी संकेत है कि वे देश की सामयिक वास्तविकता को ठीक से नहीं देख पा रही हैं। खुदरा व्यापार के खिलाफ ममता फिलहाल जो भाषा बोल रही हैं वही भाषा भाजपा और अतिवामपंथी भी बोल रहे हैं।
बागी भाषा अवसाद की भाषा है। राजनेता का अवसाद जब शासन में व्यक्त होता है तो सीधे टकराव की भाषा में व्यक्त होता है।पश्चिम बंगाल में लंबे समय से अवसाद का माहौल है और इस माहौल से कमोबेश सभी रंगत के नेता प्रभावित हैं। पश्चिम बंगाल में अवसाद का जिस तरह का वातावरण है वैसा वातावरण देश के अन्य राज्यों में नहीं है। अवसाद के माहौल को यहां मेले-ठेले और क्रांतिकारी लफ्फाजी के जरिए ढकने की आदत है। सामाजिक अवसाद से ध्यान हटाने के लिए व्यापारियों,पूंजीपतियों और अभिजन के खिलाफ में बोलना एक फैशन है। दिलचस्प बात यह है कि इस राज्य में अवसाद की भाषा बोलने वाले बहादुर और बागी कहलाते हैं। सच यह है कि अवसाद की भाषा कूपमंडूकों की भाषा है। एक ऐसे व्यक्ति की भाषा है जिसके पास कोई सपना नहीं है और जो निठल्ला है। ममता शासन को कायदे से इस बागी भाषा और निठल्लेपन से लड़ना चाहिए। राजनीति में बागी और निठल्ला भाव अंततः नीतिहीनता की ओर ले जाता है ,इस नीतिहीनता का एक और नमूना है हाल ही में राज्य के पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय कानून 2011 में उपकुलपति की नियुक्ति के लिए गठित चयन समिति के चरित्र में किया गया बदलाव। सारे देश में उपकुलपति चयन समिति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का प्रतिनिधि रहता है लेकिन पश्चिम बंगाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रतिनिधि को चयन समिति से निकालकर उसकी जगह राज्य सरकार के प्रतिनिधि को रखा गया है जो कि गलत है। कायदे से राज्यपाल को इस संशोधन बिल को अपनी स्वीकृति नहीं देनी चाहिए,यह देश के अकादमिक नियमों का सीधे उल्लंघन है। इसी तरह ममता सरकार की दिशाहीन नीतियों का ही दुष्परिणाम है कि दानकुनी स्थित सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बालमर लॉरी एंड कंपनी ने अपने ढ़ाई हजार करोड़ रूपये के प्रकल्प को बंद करने का फैसला किया है क्योंकि इस कंपनी को इस इलाके में जगह नहीं मिल रही है और ममता सरकार ने किसानों से जमीन खरीदने से मना कर दिया है। ममता सरकार की अराजक और दिशाहीन नीतियों के कारण हाल में सिंगूर से टाटा मोटर को भागना पड़ा। ममता के शासन में आने के बाद लॉर्सन एंड टुब्रो कंपनी ने 2012 में अपने बिजली प्रकल्प को बंद कर दिया।इसी साल श्याम स्टील ने अपना पुरूलिया स्थित स्टील प्रकल्प बंद करने का फैसला लिया है।बागी भाषा और नीतिहीनता के ये कुछ नमूने हैं। असल में पश्चिम बंगाल के लिए यह त्रासद समय है ,यहां लगातार विकास से जुड़े प्रकल्प बंद हो रहे हैं।
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