कोलगेट कांड पर मीडिया लबालब भरा है।कोई भी अखबार उठाओ या चैनल देखो चारों ओर कोलगेट की वर्षा हो रही है।इस तरह की समाचार वर्षा हाल-फिलहाल के दिनों में किसी भी खबर की नहीं देखी गयी। कोलगेट कांड में सच क्या है यह सब लोग जानते हैं। इसमें धांधली हुई है। यह धांधली मुख्यमंत्रियों ने की या केन्द्रीय मंत्री ने की या प्रधानमंत्री ने की ,लेकिन धांधली तो हुई है। धांधली आवंटन के पहले हुई या बाद में हुई यह सवाल भी बेमानी है।लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि धांधली हुई है। एक कंपनी ने की या चार ने की लेकिन धांधली तो हुई है। धांधली पर कोई विवाद नहीं है। सभी दल मानते हैं कि कोलगेट में कुछ न कुछ गड़बड़ है।पहले कांग्रेस मानने को तैयार नहीं थी लेकिन अब वह भी मान रही है कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। दो सांसदों की शिकायत पर सीबीआई जांच कर रही है,कई कंपनियों के खिलाफ नियमों के उल्लंघन को लेकर एफआईआर दायर की गयी हैं।विपक्ष का कोलगेट कांड पर गुस्सा और प्रतिवाद जायज है।
इस सबसे अलग हटकर हमें यहां पर इस विषय पर विचार करना है कि आखिरकार मीडिया में कोलगेट रिपोर्टिंग का स्रोत क्या है ?क्या यह पत्रकारों के परिश्रम का खेल है ? क्या यह खोजी पत्रकारिता की देन है ? या फिर यह सरकारी स्रोत की लीक रिपोर्ट पर आधारित है ? कोलगेट कांड को किसी पत्रकार ने उजागर नहीं किया । यह सीएजी ( कंट्रोलर ऑफ ऑडीटर जनरल) रिपोर्ट पर आधारित है। सीएजी रिपोर्ट कैसे बाहर आय़ी,संसद में बहस किए जाने के पहले ही कैसे लीक हुई,बिना संसद में पास हुए और पीएसी के बिना तहकीकात किए किस तरह इसे वैध माना जाय,ये सारे सवाल अभी अनुत्तरित हैं।
लेकिन कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं जिनका इस प्रसंग में जिक्र करना समीचीन होगा। मसलन् सीएजी की रिपोर्ट गोपनीय होती है।वह पहले संसद में पेश की जाती है उसके बाद संसद की मुहर लगने के बाद पब्लिक एकाउंट कमेटी के पास जाती है और फिर वहां से जांच पूरी होने के बाद सरकार को एक्शन के लिए भेजी जाती है। कोई भी सीएजी रिपोर्ट स्वयं में तब तक मान्य नहीं है जब तक उसके तथ्यों और सूचनाओं की पीएसी जांच न कर ले। सीएजी की रिपोर्ट का पीएसी (पब्लिक एकाउंट कमेटी) द्वारा जांच किया जाना अनिवार्य है और उसके बाद ही सरकार उस पर कार्रवाई करने को बाध्य है। कोलगेट कांड सीएजी रिपोर्ट के संदर्भ में अभी तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। यह रिपोर्ट संसद में पेश किए जाने के पहले ही लीक कर दी गयी। किसने लीक की,क्यों लीक की और सीएजी ने इस रिपोर्ट के लीक किए जाने की अभी तक जांच क्यों नहीं करायी,यह सवाल अभी तक अनुत्तरित है। विपक्ष भी सीएजी रिपोर्ट पर संवैधानिक प्रक्रिया पूरी होने के पहले ही एक्शन चाहता है। प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा गया है।
इसी प्रसंग में कांग्रेसनेता दिग्विजय सिंह ने हैडलाइन टुडे टीवी चैनल में एक साक्षात्कार में सवाल किया है कि सीएजी की रिपोर्ट जब तक संसद में पेश नहीं हो जाती तब तक सीएजी के महानिदेशक की यह जिम्मेदारी है कि वह उस रिपोर्ट की गोपनीयता बनाए रखें,लेकिन महानिदेशक विनोद राय ने सचेत तरीके से सीएजी रिपोर्ट को मीडिया में लीक किया और बाद में वह रिपोर्ट संसद में पेश की गयी। आश्चर्य की बात है विनोद राय ने रिपोर्ट लीक किए जाने की अभी तक जांच कराए जाने की मांग नहीं की है। संसद में रिपोर्ट पेश करने के पहले मीडिया को रिपोर्ट लीक हो जाने के लिए विनोद राय को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। सवाल यह है कि केन्द्र सरकार ने या पीएमओ ने अपनी पहल पर इस पहलू की जांच क्यों नहीं करायी ?कांग्रेस को जांच कराने से किसने रोका था ?
एक अन्य पहलू है जिस पर गौर करें और यह कवरेज से संबंधित है। कोलगेट कांड का कवरेज किसी संवाददाता की देन नहीं है।यह तो सीएजी रिपोर्ट की देन है और बिना छानबीन के सीएजी के बताए तथ्यों या सूचनाओं का प्रचार है। यह मूलतःनिष्पन्न खबर की कटपेस्ट कला है।इसमें सत्य कितना है और असत्य कितना यह कोई नहीं जानता। लेकिन कांग्रेस के आरोप में दम है कि सीएजी ने अपनी जांच के संवैधानिक दायरे का अतिक्रमण किया है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कोयला खानों के उपयोग की कानूनी समूची और वैज्ञानिक प्रक्रिया की रिपोर्टिंग में एकसिरे से अनदेखी हुई है।इस प्रसंग में सरकार के मंत्रियों को ही बीच बीच में बोलना पड़ा है।लेकिन मीडिया की इस प्रक्रिया को जानने और बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है। मीडिया यह भी देखना नहीं चाहता कि जिनलोगों को आवंटन हुआ है वे किस दशा और दिशा में काम कर रहे हैं।
विवादास्पद कोयलाखानों की जमीनी सच्चाई को किसी भी पत्रकार ने उदघाटित करने की कोशिश नहीं की । मीडिया तो सीधे सीएजी रिपोर्ट में जो लिखा है उसे ब्रह्म वाक्य मानकर चल रहा है अथवा नेताओं के बाइटस को प्रमाण मान रहा है।नेताओं के बाइटस प्रमाण नहीं प्रचार हैं। असल में मीडिया ने इस घोटाले को सनसनीखेज बनाकर रख दिया है। घोटाले को सनसनीखेज बनाने से अंततःलुटेरों को फायदा होता है। सनसनीखेज प्रस्तुति सत्य को आंखों से ओझल कर देती है।बोफोर्स इस तरह की प्रस्तुतियों का आदर्श उदाहरण है।मूल अभियुक्त देश से सकुशल चले गए और राजीव गांधी और अमिताभ-अजिताभ बच्चन पर मीडिया निशाने लगाता रहा और 25साल बाद पता चला कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं।बोफोर्स मामले में इन तीनों का अंततः निर्दोष साबित होना मीडिया कवरेज की सनसनीखेज प्रस्तुतियों की पराजय थी। सनसनीखेज प्रस्तुति देखने में अच्छी लगती है पढ़ने में अपील करती है। लेकिन असल में फेक होती है।
उल्लेखनीय है फेक स्टोरियों से एक जमाने में राममंदिर का उन्माद पैदा किया गया,तथ्यों को गढ़ा गया,जनता को गुमराह किया गया। प्रेस कौंसिल ने भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दी के चार बड़े अखबारों की इस आंदोलन के संदर्भ में जो भूमिका रही थी उसकी तीखी आलोचना की ।
कोलगेट के दस्तावेज या उससे जुड़ी खबरों का सीएजी की रिपोर्ट लीक होने के पहले क्षेत्रीय मीडिया से लेकर नेशनल मीडिया में अनुपस्थित रहना,इस बात का संकेत है कि पत्रकार अब खबरें खोजने नहीं जाते बल्कि बनी-बनायी खबरें उनके पास चली आती हैं।सीएजी रिपोर्ट पर सिलेसिलेबार आया कवरेज इस बात को पुष्ट करता है।
यही हाल कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा के मामले में आए कवरेज के समय भी देखा गया ,उस समय लोकपाल की रिपोर्ट के आधार पर दनादन खबरें आईं। कायदे से जहां घटना घट रही है वहां पत्रकार को होना चाहिए और इसके बाद तथ्य संकलन करके लिखना चाहिए। इनदिनों मीडियावाले सीधे किसी सरकारी स्रोत की तलाश में रहते हैं।सरकारी स्रोत जब पत्रकारिता के प्रमाण बन जाते हैं तो मीडिया अपनी स्वतंत्र भूमिका,भाषा और विवेक खो देता है।
कोलगेट से जुड़ी सभी स्टोरियां इसलिए फेक हैं,निष्पन्न हैं, रेडीमेड हैं,वर्चुअल हैं, क्योंकि वे सीएजी की रिपोर्ट से हैं या सीबीआई की एफआईआर से ली गयी हैं। ये रिपोर्ट किसी पत्रकार के खोजी परिश्रम का कमाल नहीं हैं ।यह तो हमारे ऑडीटरों की देन है।ऑडीटर को पत्रकार नहीं कहते।ऑडीटर की रिपोर्ट के आधार पर निर्मित कवरेज में पत्रकार कम ऑडीटर ज्यादा बोलता रहा है।
सवाल यह है कि क्या पत्रकार को ऑडीटर के जरिए अपदस्थ कर सकते हैं ? क्या पत्रकार और ऑडीटर के काम करने का तरीका एक है ? यदि सीएजी रिपोर्ट ही कवरेज के केन्द्र में है तो मीडिया में किसी भी चैनल ने या प्रिंट मीडिया ने देश के ख्यातिलब्ध ऑडीटरों की राय क्यों नहीं ली ? ऑडिट का क्या नियम है और कहां मेनीपुलेशन है इसे ऑडीटर ही बता सकता है कोई पत्रकार नहीं। इस अर्थ में कोलगेट कवरेज एकदम फेक है। इस तरह का कवरेज देकर मीडिया ने फेक को महान बनाया है।
सवाल यह भी है कि कोलगेट जब घट रहा था तब मीडिया कहां सोया था ? सीएजी रिपोर्ट लीक होने के पहले किसी भी पत्रकार को या टीवी समाचार संपादक को इस घोटाले के दर्शन क्यों नहीं हुए ? जबकि लूट तो पहले से चल रही थी,किसी भी भाजपा या विपक्ष के सांसद ने यह मसला सीएजी रिपोर्ट के पहले मीडिया के सामने पेश क्यों नहीं किया और जब सीएजी रिपोर्ट आ गयी तो संवैधानिक प्रक्रिया पूरी करने तक इंतजार क्यों नहीं किया ?
भारत के मीडिया की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह किसी भी घोटाले की तह तक जाने में असमर्थ रहा है और उसने सत्य को सामने रखने का साहस नहीं दिखाया है। इसके विपरीत मीडिया ने लगातार राजनीतिक प्रौपेगैंडा के अस्त्र का काम किया है। बोफोर्स कांड से लेकर राममंदिर आंदोलन तक के अब तक के कवरेज की त्रासदी यह है कि रिपोर्टर अपनी स्वतंत्र सत्ता-महत्ता को त्यागकर प्रौपेगैंडा करने लगता है या फिर रिपोर्टर न होकर स्टैनोग्राफर हो जाता है। कोलगेट कांड पर पत्रकार अभी तक सीएजी के स्टैनोग्राफर का ही काम करते रहे हैं । कायदे से पत्रकार को स्टैनोग्राफर नहीं होना चाहिए। उसे घटना की अपने नजरिए से जांच करनी चाहिए और घटना जब घट रही हो या घटने के बाद घटनास्थल पर जाकर जांच करनी चाहिए और संबंधित सभी पक्षों को यथोचित कवरेज भी देना चाहिए।
इस सबसे अलग हटकर हमें यहां पर इस विषय पर विचार करना है कि आखिरकार मीडिया में कोलगेट रिपोर्टिंग का स्रोत क्या है ?क्या यह पत्रकारों के परिश्रम का खेल है ? क्या यह खोजी पत्रकारिता की देन है ? या फिर यह सरकारी स्रोत की लीक रिपोर्ट पर आधारित है ? कोलगेट कांड को किसी पत्रकार ने उजागर नहीं किया । यह सीएजी ( कंट्रोलर ऑफ ऑडीटर जनरल) रिपोर्ट पर आधारित है। सीएजी रिपोर्ट कैसे बाहर आय़ी,संसद में बहस किए जाने के पहले ही कैसे लीक हुई,बिना संसद में पास हुए और पीएसी के बिना तहकीकात किए किस तरह इसे वैध माना जाय,ये सारे सवाल अभी अनुत्तरित हैं।
लेकिन कुछ संवैधानिक व्यवस्थाएं हैं जिनका इस प्रसंग में जिक्र करना समीचीन होगा। मसलन् सीएजी की रिपोर्ट गोपनीय होती है।वह पहले संसद में पेश की जाती है उसके बाद संसद की मुहर लगने के बाद पब्लिक एकाउंट कमेटी के पास जाती है और फिर वहां से जांच पूरी होने के बाद सरकार को एक्शन के लिए भेजी जाती है। कोई भी सीएजी रिपोर्ट स्वयं में तब तक मान्य नहीं है जब तक उसके तथ्यों और सूचनाओं की पीएसी जांच न कर ले। सीएजी की रिपोर्ट का पीएसी (पब्लिक एकाउंट कमेटी) द्वारा जांच किया जाना अनिवार्य है और उसके बाद ही सरकार उस पर कार्रवाई करने को बाध्य है। कोलगेट कांड सीएजी रिपोर्ट के संदर्भ में अभी तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। यह रिपोर्ट संसद में पेश किए जाने के पहले ही लीक कर दी गयी। किसने लीक की,क्यों लीक की और सीएजी ने इस रिपोर्ट के लीक किए जाने की अभी तक जांच क्यों नहीं करायी,यह सवाल अभी तक अनुत्तरित है। विपक्ष भी सीएजी रिपोर्ट पर संवैधानिक प्रक्रिया पूरी होने के पहले ही एक्शन चाहता है। प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगा गया है।
इसी प्रसंग में कांग्रेसनेता दिग्विजय सिंह ने हैडलाइन टुडे टीवी चैनल में एक साक्षात्कार में सवाल किया है कि सीएजी की रिपोर्ट जब तक संसद में पेश नहीं हो जाती तब तक सीएजी के महानिदेशक की यह जिम्मेदारी है कि वह उस रिपोर्ट की गोपनीयता बनाए रखें,लेकिन महानिदेशक विनोद राय ने सचेत तरीके से सीएजी रिपोर्ट को मीडिया में लीक किया और बाद में वह रिपोर्ट संसद में पेश की गयी। आश्चर्य की बात है विनोद राय ने रिपोर्ट लीक किए जाने की अभी तक जांच कराए जाने की मांग नहीं की है। संसद में रिपोर्ट पेश करने के पहले मीडिया को रिपोर्ट लीक हो जाने के लिए विनोद राय को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। सवाल यह है कि केन्द्र सरकार ने या पीएमओ ने अपनी पहल पर इस पहलू की जांच क्यों नहीं करायी ?कांग्रेस को जांच कराने से किसने रोका था ?
एक अन्य पहलू है जिस पर गौर करें और यह कवरेज से संबंधित है। कोलगेट कांड का कवरेज किसी संवाददाता की देन नहीं है।यह तो सीएजी रिपोर्ट की देन है और बिना छानबीन के सीएजी के बताए तथ्यों या सूचनाओं का प्रचार है। यह मूलतःनिष्पन्न खबर की कटपेस्ट कला है।इसमें सत्य कितना है और असत्य कितना यह कोई नहीं जानता। लेकिन कांग्रेस के आरोप में दम है कि सीएजी ने अपनी जांच के संवैधानिक दायरे का अतिक्रमण किया है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि कोयला खानों के उपयोग की कानूनी समूची और वैज्ञानिक प्रक्रिया की रिपोर्टिंग में एकसिरे से अनदेखी हुई है।इस प्रसंग में सरकार के मंत्रियों को ही बीच बीच में बोलना पड़ा है।लेकिन मीडिया की इस प्रक्रिया को जानने और बताने में कोई दिलचस्पी नहीं है। मीडिया यह भी देखना नहीं चाहता कि जिनलोगों को आवंटन हुआ है वे किस दशा और दिशा में काम कर रहे हैं।
विवादास्पद कोयलाखानों की जमीनी सच्चाई को किसी भी पत्रकार ने उदघाटित करने की कोशिश नहीं की । मीडिया तो सीधे सीएजी रिपोर्ट में जो लिखा है उसे ब्रह्म वाक्य मानकर चल रहा है अथवा नेताओं के बाइटस को प्रमाण मान रहा है।नेताओं के बाइटस प्रमाण नहीं प्रचार हैं। असल में मीडिया ने इस घोटाले को सनसनीखेज बनाकर रख दिया है। घोटाले को सनसनीखेज बनाने से अंततःलुटेरों को फायदा होता है। सनसनीखेज प्रस्तुति सत्य को आंखों से ओझल कर देती है।बोफोर्स इस तरह की प्रस्तुतियों का आदर्श उदाहरण है।मूल अभियुक्त देश से सकुशल चले गए और राजीव गांधी और अमिताभ-अजिताभ बच्चन पर मीडिया निशाने लगाता रहा और 25साल बाद पता चला कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं।बोफोर्स मामले में इन तीनों का अंततः निर्दोष साबित होना मीडिया कवरेज की सनसनीखेज प्रस्तुतियों की पराजय थी। सनसनीखेज प्रस्तुति देखने में अच्छी लगती है पढ़ने में अपील करती है। लेकिन असल में फेक होती है।
उल्लेखनीय है फेक स्टोरियों से एक जमाने में राममंदिर का उन्माद पैदा किया गया,तथ्यों को गढ़ा गया,जनता को गुमराह किया गया। प्रेस कौंसिल ने भी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दी के चार बड़े अखबारों की इस आंदोलन के संदर्भ में जो भूमिका रही थी उसकी तीखी आलोचना की ।
कोलगेट के दस्तावेज या उससे जुड़ी खबरों का सीएजी की रिपोर्ट लीक होने के पहले क्षेत्रीय मीडिया से लेकर नेशनल मीडिया में अनुपस्थित रहना,इस बात का संकेत है कि पत्रकार अब खबरें खोजने नहीं जाते बल्कि बनी-बनायी खबरें उनके पास चली आती हैं।सीएजी रिपोर्ट पर सिलेसिलेबार आया कवरेज इस बात को पुष्ट करता है।
यही हाल कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा के मामले में आए कवरेज के समय भी देखा गया ,उस समय लोकपाल की रिपोर्ट के आधार पर दनादन खबरें आईं। कायदे से जहां घटना घट रही है वहां पत्रकार को होना चाहिए और इसके बाद तथ्य संकलन करके लिखना चाहिए। इनदिनों मीडियावाले सीधे किसी सरकारी स्रोत की तलाश में रहते हैं।सरकारी स्रोत जब पत्रकारिता के प्रमाण बन जाते हैं तो मीडिया अपनी स्वतंत्र भूमिका,भाषा और विवेक खो देता है।
कोलगेट से जुड़ी सभी स्टोरियां इसलिए फेक हैं,निष्पन्न हैं, रेडीमेड हैं,वर्चुअल हैं, क्योंकि वे सीएजी की रिपोर्ट से हैं या सीबीआई की एफआईआर से ली गयी हैं। ये रिपोर्ट किसी पत्रकार के खोजी परिश्रम का कमाल नहीं हैं ।यह तो हमारे ऑडीटरों की देन है।ऑडीटर को पत्रकार नहीं कहते।ऑडीटर की रिपोर्ट के आधार पर निर्मित कवरेज में पत्रकार कम ऑडीटर ज्यादा बोलता रहा है।
सवाल यह है कि क्या पत्रकार को ऑडीटर के जरिए अपदस्थ कर सकते हैं ? क्या पत्रकार और ऑडीटर के काम करने का तरीका एक है ? यदि सीएजी रिपोर्ट ही कवरेज के केन्द्र में है तो मीडिया में किसी भी चैनल ने या प्रिंट मीडिया ने देश के ख्यातिलब्ध ऑडीटरों की राय क्यों नहीं ली ? ऑडिट का क्या नियम है और कहां मेनीपुलेशन है इसे ऑडीटर ही बता सकता है कोई पत्रकार नहीं। इस अर्थ में कोलगेट कवरेज एकदम फेक है। इस तरह का कवरेज देकर मीडिया ने फेक को महान बनाया है।
सवाल यह भी है कि कोलगेट जब घट रहा था तब मीडिया कहां सोया था ? सीएजी रिपोर्ट लीक होने के पहले किसी भी पत्रकार को या टीवी समाचार संपादक को इस घोटाले के दर्शन क्यों नहीं हुए ? जबकि लूट तो पहले से चल रही थी,किसी भी भाजपा या विपक्ष के सांसद ने यह मसला सीएजी रिपोर्ट के पहले मीडिया के सामने पेश क्यों नहीं किया और जब सीएजी रिपोर्ट आ गयी तो संवैधानिक प्रक्रिया पूरी करने तक इंतजार क्यों नहीं किया ?
भारत के मीडिया की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि वह किसी भी घोटाले की तह तक जाने में असमर्थ रहा है और उसने सत्य को सामने रखने का साहस नहीं दिखाया है। इसके विपरीत मीडिया ने लगातार राजनीतिक प्रौपेगैंडा के अस्त्र का काम किया है। बोफोर्स कांड से लेकर राममंदिर आंदोलन तक के अब तक के कवरेज की त्रासदी यह है कि रिपोर्टर अपनी स्वतंत्र सत्ता-महत्ता को त्यागकर प्रौपेगैंडा करने लगता है या फिर रिपोर्टर न होकर स्टैनोग्राफर हो जाता है। कोलगेट कांड पर पत्रकार अभी तक सीएजी के स्टैनोग्राफर का ही काम करते रहे हैं । कायदे से पत्रकार को स्टैनोग्राफर नहीं होना चाहिए। उसे घटना की अपने नजरिए से जांच करनी चाहिए और घटना जब घट रही हो या घटने के बाद घटनास्थल पर जाकर जांच करनी चाहिए और संबंधित सभी पक्षों को यथोचित कवरेज भी देना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें