पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने
केन्द्र सरकार को 72घंटे का अल्टीमेटम दिया है और कहा है डीजल के बढ़े दाम और
खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश का फैसला वापस ले। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार
अपने ये दोनों फैसले वापस नहीं लेने जा रही है। सबकी आंखें ममता के अगले कदम पर
टिकी हैं।
ममता का तर्क है कि सरकार
ने हमसे सलाह नहीं ली, हमारे मंत्री ने मीटिंग में हिस्सा नहीं लिया।अतःहम इस
फैसले को नहीं मानते। केन्द्र सरकार के फैसले की घोषणा के तत्काल बाद तृणमूल
कांग्रेस के बड़े नेताओं की ममता के साथ अनौपचारिक बैठक हुई।इसमें पार्थ
चटर्जी-सुब्रत मुखर्जी आदि ने ममता की राय से असहमति व्यक्ति की।
तृणमूल सरकार में
वरिष्ठमंत्री ने नाम न बताए जाने की शर्त पर कहा यह फैसला यूपीए-2 सरकार का
सामूहिक फैसला है। इस फैसले से यूपीए-2के सभी दल बंधे हैं। मंत्रीमंडल किसी दल
विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करता। वह तो सारे देश का प्रतिनिधित्व करता है। सभी
सत्तारूढ़ दल मंत्रीमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी से बंधे हैं। कोई मंत्री
मंत्रीमंडल की बैठक में शामिल हो या न हो वह मंत्रीमंडल के सामूहिक फैसलों से बंधा
है। शुक्रवार की रात को ही इस मंत्री ने ममता को उनके घर जाकर अपनी राय से अवगत
करा दिया और कहा कि वे यूपीए छोड़ने का फैसला न लें।
असल में
राजनीति में एक होता है सत्ताखेल और दूसरा होता है सत्तामोह। सत्ताखेल में
वे नेता सफल होते हैं जो दूरदृष्टि रखते
हैं और दीर्घकालिक बृहत्तर जनहितों का ख्याल रखते हैं।पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी के सारे राजनीतिक दांवपेंच सत्तामोह की देन हैं।सत्तामोह विवेकहीन
बनाता है।
पापुलिज्म ,नकली प्रतिवाद और उत्सवधर्मिता में
बांधे रखता है।सत्तामोह में बंधे लोग नकली प्रतिवाद के लिए सड़कों पर हंगामे करते
हैं ,मीडिया में खूब हो-हल्ला करते हैं।वामदलों में भी यह बीमारी है। सत्तामोहित
नेता गैर-जिम्मेदार होता है और सामाजिक जबाबदेही से भागता है। ।
इनदिनों जो नकली प्रतिवाद
ममता और उनका दल कर रहा है यह प्रतिवाद नहीं है यह प्रतिवाद का ऑब्शेसन है। प्रतिवाद
का ऑब्शेसन वामदलों में भी है और ममता में भी है। प्रतिवाद का ऑब्शेसन अंततः
अ-राजनीतिकरण करता है और नीतिविहीन बनाता है। प्रतिवाद का ऑब्शेसन लोकतंत्र और
अर्थव्यवस्था के विकास को अवरूद्ध करता है। आमलोगों में राजनीति और राजनेताओं के
प्रति अनास्था पैदा करता है।
ममता का 72 घंटे का अल्टीमेटम
एब्सर्ड पापुलिज्म की देन है। यह सामूहिक जिम्मेदारी से पलायन है। सामूहिक
जिम्मेदारी से पलायन के कारण ही ममता बनर्जी विगत दो महिनों से यूपीए-2 की सरकार
में हाशिए पर आ गयी हैं। एक जमाना था उनसे प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी बात करते
थे।लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के बाद से ममता बनर्जी को उनकी राजनीतिक हैसियत का
एहसास करा दिया गया है। विगत बृहस्पति और शुक्रवार को मंत्रीमंडलीय उपसमिति के
बैठकों से तृणमूल कांग्रेस के मंत्री नदारत थे। ममता बनर्जी ने राजनीतिक
जिम्मेदारी से भागने का एक सुगम रास्ता अख्तियार किया है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल
के बैठकों में उनके दल के मंत्री हिस्सा ही नहीं लेते और इसके बाद ममता बनर्जी
मीडिया में हल्ला करती हैं कि उनसे पूछा नहीं गया,उनकी राय नहीं ली गयी, उन्हें
मंत्रीमंडल का फैसला सुनकर अचम्भा हुआ है,इसके बाद वे धमकियां देती हैं।यह नाटक
विगत 3सालों से चल रहा है और मनमोहन सिंह इसे झेलते रहे हैं। इसे ममता ने अपनी
राजनीतिक ताकत के रूप में प्रचारित किया है और मीडिया ने भी ममता को ताकतवर महिला
के रूप में खूब उछाला है। लेकिन विगत बृहस्पतिवार और शुक्रवार के मंत्रीमंडलीय
समिति के फैसलों ने ममता बनर्जी की राजनीतिक ताकत की सीमाओं को एकसिरे से उजागर कर
दिया है। ममता की समझ है कि उनका दल यदि सरकार से समर्थन वापस ले लेता है तो सरकार
गिर जायगी । लेकिन राजनीतिक सूत्रों का मानना है कि ममता बनर्जी के समर्थन वापस लेने
से सरकार नहीं गिरने वाली। तृणमूल कांग्रेस यदि समर्थन वापस लेता है तो वैसे
स्थिति में मुलायम सिंह यादव और अन्यदलों का समर्थन मिलना पक्का है।इस संदर्भ में
पहले से ही राजनीतिक तैयारियां कर ली गयी हैं और बदले में समर्थक दलों के नेताओं
से भी विस्तार के साथ बातें हो गयी हैं।
केन्द्र सरकार के बयान के
अनुसार रिटेल में विदेशी पूंजी निवेश के सवाल पर विगत शुक्रवार को जो फैसला लिया
गया वह विगत 24नवम्बर 2011 को ही मंत्रीमंडलीय समिति ने पास कर दिया था सिर्फ उसके
कार्यान्वयन को स्थगित रखा गया था। कार्यान्वयन के संदर्भ में 7दिसम्बर 2011
को विभिन्न राज्य सरकारों और मजदूर, किसान,दुकानदार,छोटे
व्यापारी आदि के संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ बैठक हुई थी जिसमें दिल्ली,असम, महाराष्ट्र,
उत्तराखंड, आंध्र,राजस्थान,हरियाणा,मणिपुर, जम्मू-कश्मीर, केन्द्र शासित क्षेत्र
दमन-दीउ,दादरा और नागर हवेली के प्रतिनिधियों ने रिटेल में विदेशी पूंजी निवेश का
समर्थन किया था जबकि बिहार, कर्नाटक, उडीसा,केरल,मध्यप्रदेश,त्रिपुरा ने इस प्रस्ताव
का विरोध किया था। पश्चिम बंगाल सरकार ने अपना प्रतिनिधि इस बैठक में नहीं भेजा और
नहीं बाद में इस पर अपनी कोई राय दी। इस बीच विभिन्न राज्यों के साथ सलाह-मशविरे
के बाद यह तय पाया गया कि खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को
राज्य सरकारें लागू करें या न करें यह उनका फैसला होगा। यानी ममता बनर्जी के लिए
रास्ता खुला रखा गया है कि वे अब यह तय करें कि इसके बावजूद वे मंत्रीमंडल में
रहना चाहती हैं या नहीं। इस स्थिति में ममता बनर्जी के दल में आंतरिक अन्तर्विरोध
तेज हो गया है। तृणमूल कांग्रेस के केन्द्र में जो मंत्री हैं वे चाहते हैं कि
उनका दल सरकार का समर्थन जारी रखे। जबकि ममता बनर्जी चाहती हैं कि मंत्रीमंडल से
इस्तीफा दे दिया जाय और बाहर से सरकार का समर्थन किया जाय। पार्थ चटर्जी-सौगत
राय-सुब्रत मुखर्जी आदि का मानना है कि मनमोहन सरकार से समर्थन वापस न लिया जाय और
न ही सरकार के काम में अडंगे डाले जाएं इस सबसे तृणमूल कांग्रेस की अड़ंगेबाज
पार्टी की इमेज बन रही है।
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