जगदीश्वर चतुर्वेदी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर। पता- jcramram@gmail.com
शुक्रवार, 28 नवंबर 2014
गुमशुदा 39 के कवरेज से उठे सवाल
गुरुवार, 27 नवंबर 2014
पाक अछूत नहीं है मोदीजी
मोदी जानते हैं कि दक्षिण एशिया के देशों में सबसे तनावपूर्ण संबंध भारत-पाक के बीच में हैं। इन तनावपूर्ण संबंधों को 'हठी राजनीति' के आधार पर सामान्य नहीं बनाया जा सकता। खासकर विदेशनीति के मामले में हठ नहीं चल सकता। विदेशनीति के तमाम चैनल और कोशिशें देशज दबावों और तनावों से मुक्त होकर ही सामान्य रुप में काम कर सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मनमोहन सरकार के जमाने में संघ का दबाव काम करता था और मोदी सरकार के जमाने में पाक के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के मामले में संघ का ही दबाव विदेशनीति पर असर डाल रहा है। मोदी सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे संघ के पाकविरोधी हठवाद से विदेशनीति को मुक्त रखे। संघ की मुश्किल है कि वह विदेशनीति के ऊपर दबाव बनाए रखने के चक्कर में देश-विदेश में पाकविरोधी मुहिम में तेजी बनाए रखता है।
यह सच है भारत को पाक प्रशिक्षित –संचालित आतंकी संगठनों से हमेशा खतरा बना रहता है और वे आए दिन जम्मू-कश्मीर में खासतौर पर हिंसक हरकतें करते रहते हैं। लेकिन इस बात को आधार बनाकर पाक से संबंध बिगाड़ना सही नहीं होगा। हमें पाक सरकार और पाक की जनता को आतंकियों से अलग करके देखना चाहिए। संघ की मुश्किल है कि वह पाक शासन,पाक जनता और आतंकी संगठनों एक साथ मिलाकर देखता है। सबके खिलाफ उन्मादी बयानबाजी करता रहता है, इससे भारत-पाक के बीच तनाव बना रहता है, मुसलमानों के प्रति घृणा बनी रहती है। मोदी सरकार ने अब तक पाक से बातचीत न करने का जो बहाना दिया है वह सही नहीं है,मोदी सरकार का कहना है पाक ने हुर्रियत कॉफ्रेस के नेताओं के मुलाकात करके सदभाव का माहौल तोड़ा है इसलिए बातचीत नहीं करेंगे। सच यह है जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों तक संघ, पाकविरोधी गरमी बनाए रखने के लिए विदेशनीति का दुरुपयोग कर रहा है, जिससे जम्मू-कश्मीर में वोटबैंक बनाया जा सके।
उल्लेखनीय है पाक स्थित आतंकी हाफिज सईद से वेदप्रताप वैदिक मिले तो संघ को कोई परेशानी नहीं हुई, पाक ने भी इस मुलाकात पर आपत्ति नहीं की,बल्कि उलटे सईद-वैदिक मुलाकात की पाक सरकार ने ही व्यवस्था करायी, सारा देश जानता है कि मोदी सरकार ने ही वैदिक सरकार को रहस्यमय मिशन के लिए पाक भेजा था। वैदिक के संघ के साथ मित्रतापूर्णसंबंध हैं,वे उनके जलसों में जाते रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव खत्म होते ही भारत-पाक बातचीत के लिए मोदीजी राजी होंगे।
पाकहठ के कारण संघ और उसका भोंपू मीडिया लगातार इस्लाम,पाक और मुसलमान इन तीनों के खिलाफ अहर्निश प्रौपेगैण्डा कर रहा है। इससे समूचा माहौल विषाक्त हो रहा है। विदेशनीति को घरेलू वोटबैंक के लिए और खासकर बहुसंख्यकवाद के आधार पर हिन्दुओं को गोलबंद करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। संघ को यदि सच में देशसेवा करनी है तो पाकहठ त्यागना होगा। पाक को स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के रुप में सम्मान देकर बात करने की आदत डालनी होगी। पाक हठ से पाक को मदद मिल रही है भारत को नहीं। पाक को विश्व रंगमंच पर हम अलग-थलग नहीं कर पा रहे हैं।
दूसरी बात यह कि भारत के हित में है कि पाक में लोकतंत्र रहे और वहां काम करने वाली लोकतांत्रिक सरकार को हम समर्थन दें। पाक में लोकतंत्र का अभाव हमारे लिए और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए खतरा है। पाक स्थित आतंकी संगठन लगातार पाक में लोकतंत्र के अभाव का दुरुपयोग करते रहे हैं। पाक में इस समय लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी गयी सरकार है और पाक में लोकतंत्र के निर्माण की प्रक्रिया चल रही है जिसमें हमें लोकतांत्रिक शक्तियों का समर्थन करना चाहिए। मोदी सरकार ने पाकहठ के आधार पर पाक की लोकतांत्रिक सरकार से बातचीत बंद करके अप्रत्यक्षतौर पर पाक की अ-लोकतांत्रिक ताकतों का मनोबल ऊँचा उठाने का काम किया है। बेहतर यही होगा कि मोदी सरकार पाठ हठ छोड़े और पाक के प्रति अछूतभाव त्यागे।
मंगलवार, 25 नवंबर 2014
फेसबुकिए मोदीभक्तों का कष्ट
फेसबुक पर एकवर्ग ऐसे लोगों का है जिनके पास भडुआ मनोदशा है,वे इस माध्यम को भडुआ मीजिसम बनाने में लगे हैं,कुछ के लिए मात्र फोटो स्टूडियो है तो कुछ के लिए भाषा के अश्लील और अशालीन प्रयोगों का मीडियम है,इसी तरह कुछ मात्र पाठक के नाते आते हैं, फेसबुक पर युवाओं का बहुत बडा हिस्सा भी है जिनके पास लोकतांत्रिक संघर्षों का कोई अनुभव नहीं है| ये युवा संघर्ष की भाषा में देश को नहीं देखते,इनके लिए देश का कैरियर और मीठे सपनों के अलावा कोई महत्व नहीं है| स्त्रियों बहुत कम अंश है जो फेसबुक पर लिखता है,कायदे से औरतों की सक्रियता बढनी चाहिए | औरतें जितनी सक्रिय होंगी फेसबुक लेखन उतना ही वैविध्यपूर्ण बनेगा|फेसबुक पर लोकतांत्रिक कम्युनिकेशन की औरतें धुरी बन सकती हैं| उनके सक्रिय होने से इस मीडियम पर तल रही लफंगई कम होगी | औरतें जहां नहीं बोलतीं वहां लफंगे गुलगपाड़ा ज्यादा मचाते हैं|
मिथ्या के संसार का मनुष्य
लोकतंत्र ,बाजार और मीडिया तो मिथ्या के बिना चल ही नहीं सकता,परिणामत: मिथ्या में रमण करते हुए मनुष्य सत्य से विमुख हुआ है ,अनेक मामलों में सत्य से नफरत करने लगा है| समाज में एकवर्ग है जो मिथ्या को स्वाभाविक मानता है| सामान्यत: मिथ्या को जीवनशैली के रुप में इस्तेमाल करता है| इसके कारण ये लोग मेनीपुलेशन के कौशल में भी माहिर हो गए हैं| यही वजह है कि हर स्तर पर मेनीपुलेशन को जायज मानने लगे हैं|इसके परिणामस्वरुप राजनीति में मिथ्या को सच और सच को मिथ्या मानने लगे हैं| सरकारी संसाधनों के शोषण और लूट को विकास कहने लगे हैं| लोकतंत्र में शोषण और असमानता है लेकिन प्रचार का असर है कि हमें चीजों को उलटा देखते हैं|
झूठ बोलने और झूठा जीवन जीने की कला में हमारा मध्यवर्ग तो गुरु है| अध्ययन-अध्यापन से लेकर राजनीति तक सबमें न्यूनतम काम करते हैं,कामचलाऊ ढंग से काम करते हैं लेकिन दावा बहुत काम का करते हैं| न्यूनतम काम क्यों करते हैं और अधिकतम काम क्यों नहीं करते हमारे पास इसका कोई उत्तर नहीं है|
झूठ को लेकर निष्ठा इतनी गहरी है कि सत्य के पैमानों पर बातें करना अप्रासंगिक हो गया है| सबसे पहले किस सामाजिक संरचना में झूठ दाखिल हुई यह कहना संभव नहीं है लेकिन मानव सभ्यता के विकास के क्र में ईश्वर सबसे पहली झूठ है| ईश्वर का तंत्र जितना प्रचारित - प्रसारित हुआ झूठ का तंत्र भी उतना प्रसारित हुआ है| ईश्वर की वैधता ने झूठ को अपरिहार्य और अनिवार्य बना दिया है|
झूठ की दूसरी बडी संरचना है कला,कलाओं के सृजन का जितना बेहतरीन ढांचा बनता गया झूठ के कलात्मक आयाम उतने ही बड़ी संख्या में विकसित होते गए | कलाओं में यथार्थ का तत्व तो बहुत बाद में दाखिल हुआ है|
झूठ के वैचारिक आयामों को निर्मित करने में दर्शन की बडी भूमिका है| दर्शन का जन्म ही इसलिए हुआ कि जिससे झूठ को वैध और स्वीकार्य बनाया जा सके|
मानव सभ्यता के विकास के काफी लंबे लमय के बाद वास्तववादी दर्शन और कलारुप आए जिनके जरिए झूठ को पहलीबार चुनौती मिली | लेकिन सच यही है कि हमें यथार्थ कम निर्मित यथार्थ ज्यादा अपील करता है | झूठ या कृत्रिमता अपील करती है | वास्तव की बजाय विभ्रम अपील करते हैं|
मंगलवार, 18 नवंबर 2014
नरेन्द्र मोदी का झूठ और कंगारू छलांगें
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ''मेक इन इंडिया'' नामक प्रचार के जरिए देश-विदेश के भारतीय और गैर- भारतीय पूंजीपतियों को पूंजी निवेश के लिए आमंत्रित किया है, लेकिन वे आचरण एकदम उलटा कर रहे हैं। अदानी ग्रुप को 1 विलियन ड़लर का कर्ज देकर उन्होंने ''मेक इन इंडिया'' प्रचार को बधिया कर दिया है,अदानी के आस्ट्रेलिया में 1विलियन ड़लर निवेश से भारत मजबूत नहीं होगा, भारत में रोजगार नहीं बढ़ेंगे,बल्कि इससे तो आस्ट्रेलिया में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और अदानी को बिना कोई पैसा खर्च किए मुनाफा कमाने का मौका मिलेगा। भारत सरकार जब ''मेक इन इंडिया'' का प्रचार कर रही है तो उसे कम से कम अपने देश के पूंजीपतियों को तो समझाना चाहिए कि वे भारत में निवेश करें। साथ ही विदेशों में निवेश के लिए इस मंदी के दौर में 1 विलियन डॉलर का अदानी को कर्ज मुहैय्या कराना तो घाटे का सौदा है। कम से कम अदानी की परियोजना के बारे में विशेषज्ञों की राय को तो बैंक कर्ज देते समय ध्यान रखता।
सामंतों की आदत होती है वे अपने सेवकों पर हमेशा खूब मेहरबान रहते हैं,सेवकों को हर तरह खुश रखते हैं,भाड़ों की जय हो,जय हो, सुनकर गदगद रहते हैं। लोकतंत्र में यह अदानी के आस्ट्रेलियाई निवेश के बरक्स रखकर यह भी तो सोचें कि मोदीजी जब से सत्ता में आए हैं विदेश से एक पैसे का औद्योगिक पूंजी निवेश लेकर नहीं आए हैं , विदेशों से सिर्फ सट्टाबाजार में पैसा आ रहा है अथवा बैंकों में जमा करके ब्याजखोरी के लिए पैसा आ रहा है।
इस पूरे प्रसंग में उल्लेखनीय है कि अदानी आदि की सेवा कररने वाले मोदी इकलौते नेता नहीं हैं बल्कि कांग्रेस का भी इस मामले में कलंकित रिकॉर्ड रहा है। मनमोहन सरकार के दौर में गुजरात के समुद्र किनारे के ग्रामीण इलाकों को मात्र 25करोड़ में अदानी ने बिना किसानों की रजामंदी के सीधे सरकार के जरिए खरीद लिया और 25करोड़ की संपत्तिवाले इन गांवों के विकास के लिए भारत की बैंकों से 400करोड़ रुपये का कर्ज भी मनमोहन सरकार ने जारी करवा दिया। जबकि अदानी के द्वारा अवैध ढ़ंग से गांवों का अधिग्रहण किया गया था।
सोमवार, 17 नवंबर 2014
स्वाधीनता सेनानी कमला नेहरु
नेहरु ने लिखा '' मेरे लिए वह हिंदुस्तान की महिलाओं ,बल्कि स्त्री-मात्र,की प्रतीक बन गई। कभी-कभी हिंदुस्तान के बारे में मेरी कल्पना में वह एक अज़ीब तरह से मिल-जुल जाती,उस हिंदुस्तान की कल्पना में ,जो अपनी सब कमजोरियों के बावजूद हमारा प्यारा देश है,और जो इतना रहस्यमय और भेद-भरा है। कमला क्या थी ? क्या मैं उसे जान सका था , उसकी असली आत्मा को पहचान सका था ? क्या उसने मुझे पहचाना और समझा था ? क्योंकि मैं भी अनोखा आदमी रहा हूँ और मुझमें भी ऐसा रहस्य रहा है ,ऐसी गहराईयाँ रही हैं,जिनकी थाह मैं खुद नहीं लगा सका हूँ। कभी-कभी मैंने ख़याल किया है कि वह मुझसे इसीवजह से ज़रा सहमी रहती थी। शादी के मामले में मैं खातिर-ख़ाह आदमी न रहा हूं , न उस वक्त था। कमला और मैं,एक-दूसरे से कुछ बातों में बिलकुल ज़ुदा थे,और फिर भी कुछ बातों में हम एक-जैसे थे।हम एक-दूसरे की कमियों को पूरा नहीं करते थे। हमारी जुदा-जुदा ताकत ही आपस के व्यवहार में कमजोरी बन गई। या तो आपस में पूरा समझौता हो ,विचारों का मेल हो,नहीं तो कठिनाईयां तो होंगी ही।हममें कोई भी साधारण गृहस्थी की ज़िन्दगी गुजारे,उसे कुबूल करते हुए ,नहीं बिता सकते थे।''
कमला की बीमारी के समय पंडित नेहरु उनके साथ रहे और उनकी देखभाल भी की, यह एकमात्र उनके करीब रहने और एक-दूसरे से शेयर करने का सबसे बेहतरीन समय था। कमला की खूबी थी कि वह निडर और निष्कपट थीं। वे नेहरु के राजनीतिक लक्ष्यों को जानती,मानती और उसमें यथाशक्ति मदद भी करती थी।सन् 1930 में जब कांग्रेस के सभी नेता जेलों में बंद थे उन्होंने राजनीति में जमकर रुचि दिखाई। मजेदार बात यह थी उस समय सारे देश में औरतें सड़कों पर संघर्ष के मैदान में उतर पड़ीं, इन औरतों में कमला भी थी। मैदान में उतरनेवाली औरतों में सभी वर्गों और समुदायों की औरतें थीं। नेहरु ने 'हिंदुस्तान की कहानी' में इसका जिक्र किया है। उस समय मोतीलाल नेहरु ने बीमारी की हालत में कांग्रेस के आंदोलन का नेतृत्व किया और बड़ी संख्या में औरतों ने उस आंदोलन में हिस्सा लिया। यह घटना 26जनवरी1931 की है। इस दिन सारे देश में आजादी की सालगिरह मनाने का फैसला लिया गया। देश में हजारों जलसे हुए उनमें एक ''यादगार प्रस्ताव'' पास किया गया। यह प्रस्ताव हर सूबे की भाषा में था। कमला ने इसके पहले1921के असहयोग आंदोलन में भाग लिया। कमला दिखने में सामान्य थी, लेकिन कर्मठता के मामले में असाधारण थी। उनकी क्षयरोग के कारण 28फरवरी 1936 में स्विटजरलैंड में मृत्यु हुई। नेहरु ने अंतिम समय का वर्णन करते हुए लिखा है, '' ज्यों-ज्यों आखिरी दिन बीतने लगे,कमला में अचानक तबदीली आती जान पड़ी। उसके जिस्म की हालत,जहांतक हम देख सकते थे,वैसी ही थी,लेकिन उसका दिमाग अपने इर्द-गिर्द की चीज़ों पर कम ठहरता। वह मुझसे कहती कि कोई उसे बुला रहा है या कि उसने किसी शक़्ल या आदमी को कमरे में आते देखा,जबकि मैं कुछ न देख पाता था।
28फरवरी को, बहुत सबेरे उसने अपनी आखिरी सांस ली।इंदिरा वहां मौजूद थी,और हमारे सच्चे दोस्त और इन महीनों के निरंतर साथी डाक्टर अटल भी मौजूद थे।
कुछ और मित्र स्विटजरलैंड के पास के शहरों से आ गए और हम उसे लोज़ान के दाहघर में ले गए।चंद मिनटों में वह सुंदर शरीर और प्यारा मुखड़ा,जिस पर अकसर मुस्कराहट छाई रहती थी,जलकर ख़ाक हो गया। और अब हमारे पास सिर्फ़ एक बरतन रहा,जिसमें उस सतेज,आबदार और जीवन से लहलहाते प्राणों की अस्थियां हमने भर ली थीं।''
नेहरु जब कमला की अस्थियां लेकर लौट रहे थे तो उनका मन एकदम खिन्न और उदास था,उस क्षण को याद करते हुए लिखा है, '' मैंने ऐसा महसूस किया कि मुझमें कुछ नहीं रह गया है और मैं बिना किसी मकसद का हो गया हूं।मैं अपने घर की तरफ़ अकेला लौट रहा था,उस घर की तरफ़ जो अब घर नहीं रह गया था,और मेरे साथ एक टोकरी थी,जिसमें राख़ का एक बरतन था।कमला का जो कुछ बच रहा था,यही था।और हमारे सब सुख सपने मर चुके थे और राख़ हो चुके थे। वह अब नहीं रही,कमला अब नहीं रही-मेरा दिमाग़ यही दुहराता रहा।'' नेहरु ने अपनी आत्मकथा कमला को समर्पित करके बेहतरीन श्रद्धांजलि दी।
रविवार, 16 नवंबर 2014
नेहरु का पत्नी प्रेम
नेहरु का समूचा व्यक्तित्व आधुनिक था,इसकी खूबी थी अन्य के जीवन में हस्तक्षेप न करना, अन्य का सम्मान करना और अन्य को समानता के नजरिए से देखना। आधुनिक होने की ये पूर्व शर्तें हैं। हमालोगों में मुश्किल यह है कि हमने आधुनिकता का अर्थ नए कपड़े,नए हाव-भाव,नए किस्म का घर,नया फर्नीचर,नई गाडी,नया घर मान लिया। आधुनिक होने का ये चीजें प्रमाण नहीं हैं। आधुनिक होने के लिए आधुनिक नजरिए का होना बेहद जरुरी है। नेहरु इस अर्थ में आधुनिक थे कि उनके पास आलोचनात्मक विवेक था,विज्ञान और न्याय की कसौटी या वैज्ञानिक कसौटी पर चीजों,वस्तुओं,विचारों और व्यक्तियों के आचरण को वे परखकर देखते थे। उन्होंने स्वयं को वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतारने की भरसक कोशिश की। आधुनिक होने का अर्थ पुराने का विरोधी नहीं है, आधुनिक होने का अर्थ है विज्ञान और न्यायसम्मत नजरिए से लैस होना। अपने समूचे आचरण को विज्ञान और न्यायसम्मत बनाना। अन्य का सम्मान करना,मानवाधिकारों का सम्मान करना, उनको मानना। इस नजरिए से नेहरु के अपनी पत्नी के साथ संबंधों को ध्यान से देखें तो बेहतर होगा।
पंडित नेहरु अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे और उस प्यार से उनको शक्ति मिलती थी।हिन्दी में जो लेखक-आलोचक इन दिनों आत्मकथाओं के नाम पर अल्लम-गल्लम लिख रहे हैं वे नेहरु के आत्मकथा लेखन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। नेहरु ने कमला के बारे में लिखा है '' कुछ थोड़ी सी तालीम के अलावा उसे कायदे से शिक्षा नहीं मिली थी। उसका दिमाग शिक्षा की पगडंडियों में से होकर नहीं गुजरा था। हमारे यहां वह एक भोली लड़की तरह आई और जाहिरा उसमें कोई ऐसी जटिलताएं नहीं थीं, जो आजकल आमतौर से मिलती हैं। चेहरा तो उसका लड़कियों –जैसा बराबर बना रहा,लेकिन जब वह सयानी होकर औरत हुई ,तब उसकी आंखों में एक गहराई, एक ज्योति, आ गई और यह इस बात की सूचक थी कि इन शांत सरोवरों के पीछे तूफ़ान चल रहा है। वह नई रोशनी की लड़कियों –जैसी न थी,न तो उसमें वे आदतें थीं, वह चंचल थी। फिर भी नए तरीकों में वह आसानी से घुल-मिल जाती थी। दर-असल वह एक हिंदुस्तानी और खासतौर पर कश्मीरी लड़की थी-चैतन्य और गर्वीली,बच्चों-जैसी और बड़ों –जैसी,बेवकूफ़ और चतुर। अजनबी,लोगों से और उनसे,जिन्हें वह पसंद नहीं करती थी,वह संकोच करती थी;लेकिन जिन्हें वह जानती और पसंद करती थी,उनसे वह जी खोलकर मिलती और उनके सामने उसकी खुशी फूटी पड़ती थी।चाहे जो शख्स हो उसके बारे में झट से अपनी राय कायम कर लेती। यह राय उसकी हमेशा सही न होती,और न इन्साफ़ की नींव पर बनी होती,लेकिन अपनी इस सहज पसंद या विरोध पर वह दृढ़ रहती। उसमें कपट नाम को न था। अगर वह किसी व्यक्ति को नापसंद करती और यह बात जाहिर हो जाती ,तो वह उसे छिपाने की कोशिश न करती। कोशिश भी करती तो शायद वह उसमें कामयाब न होती। मुझे ऐसे इन्सान कम मिले हैं.जिन्होंने मुझ पर अपनी साफ-दिली का वैसा प्रभाव डाला हो,जैसा उसने डाला था।''(हिदुस्तान की कहानी,पृ.49-50)
इस समूचे उद्धरण में जो चीज समझने की है वह ध्यान में रखें तो आत्मकथाओं के बारे में, उनमें आए चरित्रों के बारे में सही नजरिया बना सकते हैं। मसलन् , आत्मकथा में देखें कि चरित्रों की राय ''इन्साफ़ की नींव पर '' आधारित है या नहीं ? व्यक्तित्व की आंतरिक बुनाबट किस तरह की है उसमें छल और निष्कपट भावबोध की क्या भूमिका है ? नेहरु के इस बयान से एक बात और साफ होती है कि कमला को वे बेइंतिहा प्यार करते थे। इस प्यार की अभिव्यक्ति में वे अपने मन की उन तमाम बातों को स्पष्ट ढ़ंग से कहते हैं जो वे कमला के बारे में महसूस करते थे। उन्होंने आत्मालोचना करते हुए लिखा , '' मैंने अपने ब्याह के शुरु के सालों का ख़याल किया,जबकि बावजूद इस बात के कि मैं उसे हद से ज्यादा चाहता था,मैं करीब-करीब उसे भूल गया था,और उसे उस संग से वंचित रखता था,जिसका उसे हक़ था,क्योंकि उस वक्त उस मक़सद को पूरा करने में लगा रहता था,जिसे मैंने अपनाया था। '' आगे लिखा '' जब-जब और धंधों से निपटकर उसके पास आता,तो मुझे ऐसा अनुभव होता कि किसी सुरक्षित बंदरगाह में पहुँच गया हूँ। अगर घर से कई दिनों के लिए बाहर रहता ,तो उसका ध्यान करके मेरे मन को शांति मिलती और मैं बेचैनी के साथ घर लौटने की राह देखता। अगर वह मुझे ढ़ाढ़स और साहस देने के लिए न होती और मेरे थके मन और शरीर को नया जीवन न देती रहती,तो भला मैं कर ही क्या पाता ? '' नेहरु के इन शब्दों में साफ कहा कि '' मैं उसे हद से ज्यादा चाहता था''।
कमला के व्यक्तित्व के बारे में नेहरु ने लिखा '' वह जो कुछ मुझे दे सकती थी,उसे मैंने उससे ले लिया था।इसके बदले में इन शुरु के दिनों में मैंने उसे क्या दिया ? जाहिरा तौर पर मैं नाकामयाब रहा,और मुमकिन है कि उन दिनों की गहरी छाप उस पर हमेशा बनी रही हो। वह इतनी गर्वीली और संवेदनशील थी कि मुझसे मदद मांगना नहीं चाहती थी,अगरचे जो मदद मैं उसे दे सकता था , वह दूसरा नहीं दे सकता था।वह राष्ट्रीय लड़ाई में अपना अलग हिस्सा लेना चाहती थी; महज़ दूसरे के आसरे रहकर या अपने पति की परछाईं बनकर वह नहीं रहना चाहती थी। वह चाहती थी कि दुनिया की निगाहों में ही नहीं,बल्कि अपनी निगाहों में वह खरी उतरे।'' नेहरु ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाटक की चित्रा को उद्धृत करते हुए लिखा '' मैं चित्रा हूँ,देवी नहीं हूँ कि मेरी पूजा की जाय। अगर तुम खतरे और साहस के रास्ते में मुझे अपने साथ रखना मंज़ूर करते हो,अगर तुम अपनी जिन्दगी के बड़े कामों में मुझे हिस्सा लेने की इजाजत देते हो,तो तुम मेरी असली आत्मा को पहचानोगे।'' नेहरु जी ने लिखा यह बात कमला ने '' शब्दों में नहीं कही ,धीरे-धीरे यह संदेश मैं उसकी आंखों में पढ़ पाया।''
नेहरुजी का कमला के बारे में मानना था '' मेरे लिए वह हिन्दुस्तान की महिलाओं,बल्कि स्त्री-मात्र ,की प्रतीक बन गयी।''
गुरुवार, 13 नवंबर 2014
पंडित जवाहरलाल नेहरु के जन्मदिन पर विशेष- ''क्लिक कल्चर'' के प्रतिवाद में पंडित नेहरु
नई डिजिटल कल्चर 'क्लिक कल्चर' है। 'क्विक' कल्चर है।इसने 'पुसबटन' और इमेज को महान और लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को खोखला और निरर्थक बनाया है। सम्प्रति टीवी से लेकर फेसबुक तक अनेक संगठन और नेता इसके शैतान खिलाड़ी के रुप में खेल रहे हैं और भारत की मासूम युवापीढ़ी को इमेजों के जरिए दिग्भ्रमित करने में लगे हैं। 'क्लिक कल्चर' ने युवाओं के विवेक पर सीधे हमला बोला हुआ है। कहा जा रहा है 'क्लिक ' इमेज ही सत्य है,विचार तो बकबास होते हैं,बोर करते हैं,कमाना मूल्यवान काम है,सोचना फालतू चीज है, व्यवहारवादी बनो,जनवादी मत बनो, धर्मनिरपेक्षता फालतू चीज़ है,लोकतंत्र में रहो लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों के बिना। लोकतांत्रिक मूल्य तो बोझा हैं, वोट दो, लेकिन विवेकवाद के आधार पर सोचो मत, सार्थक है सिर्फ चुनाव जीतना। इस 'क्लिक कल्चर' के नायक इन दिनों पंडित नेहरु का भी 'क्लिक संस्कार' करने में मशगूल हैं।
उल्लेखनीय है पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के सामान्य प्रधानमंत्री नहीं थे, वे सामान्य राजनेता भी नहीं थे। आमतौर पर लोकतंत्र में नेता आते हैं और जाते हैं।औसत नेता ही लोकतंत्र की संपदा के रुप में नजर आते हैं, भारत में अनेक औसत नेता प्रधानमंत्री बने,लेकिन आधुनिक विचारवान विरल प्रधानमंत्री तो एकमात्र पंडितजी ही थे। वे ऐसे प्रधानमंत्री थे जिनके पास आधुनिक भारत का विज़न था,आधुनिक विचार थे ,आधुनिक जीवनशैली थी और इन सबसे बढ़कर अपने विचारों के लिए जोखिम उठाने का साहस था।
नेहरु को पूजना आसान है,उनकी विरासत को समझना और उनके विचारों की दिशा में जोखिम उठाकर चलना बहुत मुश्किल काम है। खासकर वे लोग जो आधुनिक विचारों,वैज्ञानिक सचेतनता ,धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मर्म से अनभिज्ञ हैं या जो लोग आए दिन इनकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम करते हैं,उनके लिए नेहरु को पाना बेहद मुश्किल है। नेहरु 'क्लिक कल्चर' की देन नहीं थे, वे तो संस्कृति की देन थे। नेहरु को पाने के लिए भारत की संस्कृति के पास जाना होगा। संस्कृति का मार्ग बेहद जटिल और जोखिम भरा है ,वह फेसबुक की वॉल पर लिखी 'क्विक' इबारत नहीं है, नेहरु कोई किताब नहीं है,कोई कुर्सी नहीं है या मूर्ति नहीं है जिसके साथ खड़े होकर फोटो क्लिक करो और नेहरु की पंक्ति में शामिल हो जाओ! भारत के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद नेहरु की पंक्ति में खड़े होना संभव नहीं है। क्योंकि नेहरु कुर्सी नहीं बल्कि देश का आधुनिक विज़न हैं। नेहरु के आधुनिक विज़न को सचेत रुप से अर्जित करना होगा तब ही सही मायने में नेहरु की रुह को स्पर्श किया जा सकता है। महसूस किया जा सकता है।
नेहरु को महान जिस चीज ने बनाया वह था जीवन के प्रति उनका विवेकवादी नजरिया। नेहरु के लिए साधन और साध्य एक थे। उन्होंने लिखा है '' शुरुमें जिंदगी के मसलों की तरफ़ मेरा रुख़ कमोबेश वैज्ञानिक था,और उसमें उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के शुरु के विज्ञान के आशावाद की चाशनी भी थी। एक सुरक्षित और आराम के रहन-सहन ने और उस शक्ति और आत्म-विश्वास ने ,जो उस समय मुझमें था,आशावाद के इस भाव को और बढ़ा दिया था।'' हमारे नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में एक बड़ा अंश है जो अंधविश्वासी और धर्म का अंधपूजक है। वे धर्म को आलोचनात्मक विवेक की आंखों से देखते ही नहीं हैं। ऐसे अंधपूजक हमारे देश के प्रधानसेवक भी हैं। जबकि नेहरु में ये चीजें एकदम नहीं थीं। नेहरु ने लिखा है, '' मजहब में – जिस रुप में मैं विचारशील लोगों को भी उसे बरतते और मानते हुए देखता था,चाहे वह हिन्दू-धर्म ,चाहे इस्लाम या बौद्ध-मत या ईसाई-मत-मेरे लिए कोई कशिश न थी । अंध-विश्वास और हठवाद से उनका गहरा ताल्लुक था और जिन्दगी के मसलों पर ग़ौर करने का उनका तरीक़ा यक़ीनी तौर पर विज्ञान का तरीक़ा न था। उनमें एक अंश जादू-टोने का था और बिना समझे-बूझे यकीन कर लेने और चमत्कारों पर भरोसा करने की प्रवृत्ति थी।''
'' फिर भी यह एक जाहिर-सी बात है कि मज़हब ने आदमी की प्रकृति की कुछ गहराई के साथ महसूस की हुई जरुरतों को पूरा किया है और सारी दुनिया में,बहुत ज्यादा कसरत में ,लोग बिना मज़हबी अकीदे के रह नहीं सकते। इसने बहुत-ऊँचे किस्म के मर्दों और औरतों को पैदा किया है ,और साथ ही तंग-नज़र और ज़ालिम लोगों को भी।इसने इन्सानी ज़िन्दगी को कुछ निश्चित आंकें दी हैं और अगरचे इन आंकों में से कुछ आज के ज़माने पर लागू नहीं हैं.बल्कि उसके लिए नुकसानदेह भी हैं,दूसरी ऐसी भी हैं, जो अख़लाक़ और अच्छे व्यवहार लिए बुनियादी हैं।''
नेहरु ने लिखा है '' असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है,किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिंदगी में नहीं।'' पंडितजी पुनर्जन्म की धारणा में यकीन नहीं करते थे,अंधविश्वासों के विरोधी थे।दिमागी अटकलबाजी में यकीन नहीं करते थे। वे चीजों,घटनाओं,व्यक्तियों,समुदाय और वस्तुओं को वैज्ञानिक नजरिए से देखने में विश्वास करते थे। उन्होंने माना '' मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को एक नई रोशनी में देखने में बड़ी मदद पहुँचाई। इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया।''
बुधवार, 12 नवंबर 2014
संघ का नया नारा 'क्लिक करो और गप करो''
संघ का नया नारा है 'क्लिक करो और गप करो'', यह मूलतः इमेज अपहरण और असभ्यता का नारा है। कैमरा इसकी धुरी है। इसके तहत धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्ष नेताओं को हड़पने के सघन प्रयास हो रहे हैं। संघवालों की मुश्किल यह है कि वे धर्मनिरपेक्षता पर हमला करते -करते थक गए हैं!मुसलमानों पर हमले करते-करते थक गए हैं ! अब वे उन क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ से उनके खिलाफ वैचारिक प्रतिवाद आता रहा है। वे उन तमाम धर्मनिरपेक्ष नेताओं को 'अपना' बनाने में लगे हैं जिनके नजरिए और आचरण से उनका तीन-तेरह का रिश्ता है।
संघ की 'क्लिक करो और गप करो''मुहिम में सीखने-सिखाने ,मूल्यांकन, विचार-विमर्श का कोई काम नहीं हो रहा,सिर्फ मीडिया इवेंट बनाने,मूर्तियाँ लगाने, शिलान्यास करने और मीडिया बाइट्स देने पर जोर है। उनके अनुसार 'क्लिक करो और गप करो'' मुहिम का लक्ष्य है कैमरे में धर्मनिरपेक्ष नेताओं के साथ अपनी इमेज को प्रचारित-प्रसारित करो। हेकड़ी के साथ ,सीना ताने असभ्यों की तरह अपने को धर्मनिरपेक्ष नेताओं की इमेज के साथ पेश करो। संघवाले तर्क दे रहे हैं गांधी-पटेल-नेहरु किसी दल के नहीं हैं ,वे तो देश के हैं, फलतःवे उनके भी हैं, विवेकानंद- भगतसिंह किसी एक विचारधारा के नहीं हैं ,वे तो सबके हैं,फलतःवे उनके असली बारिस हैं। इस तरह का बेहूदा तर्कशास्त्र कॉमनसेंस के फ्रेमवर्क में रखकर खूब परोसा जा रहा है। मध्यवर्ग का एक अशिक्षित हिस्सा है जो उनके इस तरह के कॉमनसेंस तर्कों को खूब पसंद कर रहा है, अ-राजनीतिक युवा इन सब हरकतों पर तालियां बजा रहा है,मीडिया भी इन सब चीजों को खूब उछाल रहा है।
'क्लिक करो और गप करो'' अभियान के जरिए संघवाले अपनी असभ्यता को सभ्य बनाने,गप्पबाजी को शास्त्र बनाने में मशगूल हैं। उनके भक्त युवागण भी फेसबुक पर विचार -विमर्श नहीं करते वे तो बस 'कहते हैं',मानना है तो मानो ,वरना वे फिर भारतीय असभ्यता का जोशीलेभाव से प्रदर्शन करने लगते हैं,ज्ञान-शून्यता और राजनीति शून्यता को इससे विस्तार मिला है। जो राजनीति का ककहरा नहीं जानता वह भी अपने को चाणक्य समझता है। मूर्खता का इस तरह का तूफान भारतीय मीडिया से लेकर फेसबुक तक पहले कभी नहीं देखा गया।
'क्लिक करो और गप करो'' का नारा मूलतः देशी हास्य पैदा कर रहा है। तर्कहीनता को तर्क के रुप में पेश करना,बिना सोचे-समझे बक -बक करना,अपने को सच्चा और अन्य को झूठा कहना, फेसबुक से लेकर मीडिया तक दबाव की राजनीति से लेकर आत्म-सेंसरशिप का इस्तेमाल करना इसकी विशेषताएं हैं। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति सुखद नहीं त्रासद है। लोकतंत्र फले-फूले इसके लिए जरुरी है कि हम कम्युनिकेशन में इमेजों की बजाय ठोस सभ्यता विमर्श का विकास करें,इमेजों में जीने की बजाय यथार्थ के सवालों पर बहस करें।
संघ की नयी विशेषता है कि वह युवाओं के ज्वलंत सवालों और समस्याओं पर सीधे बात ही नहीं कर रहा है। वह इमेज युद्ध में युवाओं को व्यस्त किए हुए है। इमेज युद्ध बोगस होता है। यह सभ्यता के विमर्शों से विमुख बनाता है। पशुवत क्रियाओं में मनुष्य को ठेल देता है और पशुवत क्रियाओं को ही हम संस्कृति-सभ्यता समझने लगते हैं।
मंगलवार, 11 नवंबर 2014
'भाईयों' का लोकतंत्र
मजेदार बात यह है कि ऩए स्वच्छता अभियान के दौर में 'स्वच्छता के आदर्श नायक' (साम्प्रदायिक,पृथकतावादी और वैदिकजी) एक-दूसरे देश से 'भाई' की तरह मिल रहे हैं,स्वच्छ राजनीति का यह आदर्श है! इसबार कश्मीर में 'भगवा वैदिक'' की पाक में 'भाई' से हुई मुलाकात के फल मिलने की संभावनाएं हैं ! कश्मीर से सीधे दिल्ली आकर 'भाई' से 'भाई' मिल रहा है ! पाक में भारत का 'भाई' जाकर 'भाई' से मिल रहा है! 'भाईयों' यह मिलन विरल है ! यह विरल संयोग लोकतंत्र ने उपलब्ध कराया है! 'भाई' से 'भाई' मिल रहा है!ये मिलकर जनता के लोकतंत्र की बजाय 'भाईयों का लोकतंत्र' रच रहे हैं! दिलचस्प बात यह है 'भगवा भाई' ,पाक के 'भाई' और 'कश्मीरी पृथकतावादी भाई' के स्पांसर,आर्थिक मददगार या मालिक एक ही वर्ग के लोग हैं। इन तीनों 'भाईयों' के पास देशी कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों की दलाली करके खाने के अलावा कोई और काम नहीं है। इनकी आंखों का तारा(सामाजिक विभाजन) एक है! इनकी वैचारिक शैली एक है!
'भाईयों' का ऐसा सुखद मिलन इधर बार बार हो रहा है। 'भाई' मिलते हैं तो 'भाईचारा' खूब फलता-फूलता है, लोकतंत्र का ये खूब चर्वण करते हैं! लोकतंत्र को खाने में 'भाईयों' को मजा आता है। ' भाईयों के लोकतंत्र' का अगला पड़ाव कश्मीर है! 'भाईयों' की समूची फौज इसबार 'भगवा भाई' के साथ जाने की जुगत में है! यह 'भाईयों' का विरल प्रयोग है जो 'भगवा भाई' संपन्न करने जा रहा है!
रविवार, 9 नवंबर 2014
इक़बाल के नजरिए की मुश्किलें
पहले दौर में इकबाल की शायरी में भारत ही भारत छाया हुआ है। भारत की जनता, उसके हित,ईमान,हिन्दू-मुस्लिम प्रेम उनका मज़हब,स्वतंत्रता और संगठन पर केन्द्रित ढ़ेरों कविताएं मिलती हैं। ये वे कविताएं हैं जो आज भी प्रसांगिक हैं। इस दौर की कविताओं में भारत की गूंज उन्हें बहुत दूर तक ले जाती। नमूना देखें-
''यूनानियोंको जिसने हैरान कर दिया था।
सारे जहाँको जिसने इल्मोहुनर दिया था।।
मिट्टीको जिसकी हक़ने ज़रका असर दिया था।
तुर्कोंका जिसने दामन हीरोंसे भर दिया था।।
मेरा वतन वही है,मेरा वतन वही है।।''
भारत में मज़हबी फंडामेंटलिज्म,गाय और बाजे पर हंगामा खड़े करने वाले,हलाल और झटका का सवाल खड़े करने वाले,मन्दिर और मस्जिद के पंगे खड़े करनेवालों को सम्बोधित कविता में लिखा-
''सच कह दूँ ऐ बिरहमन गर तू बुरा न माने।
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने।।
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा।
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़को भी ख़ुदाने।।
तंग आके मैंने आख़िर दैरोहरम को छोड़ा।
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़िसाने।।
पत्थरकी मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है।
ख़ाके-वतनका मुझ को हर ज़र्रा देवता है।।
आ, ग़ैरियत के पर्दे इकबार फिर उठा दें।
बिछड़ोंको फिर मिला दें नक़्शे-दुई मिटा दें।।
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिलकी बस्ती।
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें।।
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ।
दामाने-आस्माँसे इस का कलस मिला दें।।
हर सुबह उठके गायेंमनतर वोह मीठे -मीठे।
सारे पुजारियोंको मय प्रीतकी पिला दें।।
शक्ति भी,शान्ति भी भक्तोंके गीतमें है।
धरतीके वासियोंको मुक्ती पिरीतमें है।।
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे।
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें।।
शक्ती भी शान्ती भी भक्तों के गीत में है।
धरती के वासियों की मुक्ती पिरीत में है।।''
''आफ़ताबे सुबुह'' कवितामें अपने विशाल –हृदय का परिचय देते हुए लिखा-
''शौक़े-आज़ादीके दुनियामें न निकले होसले,
ज़िन्दगी भर क़ैदे ज़ंजीरे तअल्लुकमें रहे।
जेरोबाला एक हैं तेरी निगाहों के लिए,
आरजू है कुछ इसी चश्मे तमाशाकी मुझे।।''
'सर सैयदकी लोहे तुरबत' कविता में अमन की भीख मांगते हुए लिखा-
''वा न करना फ़िर्काबन्दीके लिए अपनी जबाँ,
छिपके है बैठा हुआ हंगामिए महशर यहाँ।
वस्लके सामान पैदा हों तेरी तहरीरसे,
देख कोई दिल न दुख जाये तेरी तक़रीरसे।।
महफ़िले-नौमै पुरानी दास्तानोंको न छेड़।
रंगपर जो अब न आएँ उन फ़िसानोंको न छेड़।।''
यह भी लिखा-
''दिखा वोह हुस्ने आलम सोज़,अपनी चश्मेपुरनमको।
जो तड़पाता है परवानेको,रुलवाता है शबनमको।।''
थोड़ा इधर भी गौर करें-
''यह दौर नुक्ताचीं है कहीं छुपके बैठ रह।
जिस दिल में तू मुकीं है वहीं छुपके बैठ रह।।''
इक़बाल की शायरी का दूसरा दौर 1905 से 1908 तक माना जाता है। इस दौरान वे विलायत में रहे और इस दौर में उन्होंने बहुत कम लिखा,इस दौर की कविताओं में फारसी का रंग हावी है।इसके बावजूद उर्दू के भी कई सुंदर प्रयोग मिलते हैं। देखें-
''भला निभेगी तेरी हमसे क्योंकर ऐ वाइज़!
कि हम तो रस्मे मुहब्बतको आम करते हैं।।
मैं उनकी महफ़िले-इशरतसे काँप जाता हूँ।
जो घर को फूँक के दुनिया में नाम करते हैं।।''
यह भी लिखा-
''गुज़र गया अब वोह दौर साकी,कि छुपके पीतेथे पीनेवाले।
बनेगा सारा जहान मयखाना,हर कोई बादहख़्वार होगा।
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़जरसे आपकी खडुदकशी करेगी।
जो शाख़े नाज़ुकपै आशियाना बनेगा,ना पाएदार होगा।
ख़ुदाके बन्दे तो हैं हज़ारों ,वनोंमें फिरते हैं मारे-मारे।
मैं उसका बन्दा हनूँगा जिसको,ख़ुदाके बन्दों से प्यार होगा।''
इकबाल की कविता का तीसरा दौर 1908 में विलायत से लौटने से लेकर उनकी मृत्यु पर्यन्त 1938तक फैला हुआ है। इस दौर में इकबाल पूरी तरह साम्प्रदायिक रंग में रंगे नजर आते हैं।इस दौर की अधिकांश कविताएं मुस्लिम नजरिए के रंग में रंगी है। इस दौर के उनके दो प्रसिद्ध मुसद्दस हैं, एक है,'शिकवा' और दूसरा है 'जबाबे शिकवा',इन दोनों ने मुसलमानों और उर्दू शायरी में नए अध्याय की शुरुआत की। इन दोनों कविताओं में उन्होंने खुदा से अपने कष्टों और आंतरिक भावनाओं को बड़ी बेबाकी के साथ शेयर किया है। नमूना देखें-
'हो जाएँ खून लाखों लेकिन लहू न निकले।'
'जवाबे-शिकवा' में लिखा- '' जिनको आता नहीं दुनियामें कोई फ़न तुम हो।
नहीं जिस क़ौमको परवाए-नशेमन तुम हो।।
बिज़लियाँ जिसमेंहों आसूदा वोह खिरमन तुम हो
बेच खाते हैं जो इसलाफ़के मदफ़न तुमहो।''
जो लोग आए दिन खुदा को दुखों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं उनके बारे में लिखा-
''शिकवा न बेशोकमका तकदीरका गिला है।
राज़ीहैं हम उसीमें,जिसमें तेरी रज़ा है।।''
इक़बाल ने अंधविश्वास और अकर्मण्यता के खिलाफ भी लिखा है।इसके अलावा मनुष्य की जिजीविषा को केन्द्र में रखकर नए किस्म के आधुनिक नजरिए को रुपायित किया। इसमें दुनिया के प्रति व्यवहारिक नजरिया अपनाने पर जोर है। इक़बाल के ऊपर नीत्शे,बर्गसां,गोयथे ,रुमी आदि का गहरा असर था। इसके अलावा मुस्लिम लीग से जुड़े रहे। यह भी सच है कि जिन्ना के मन में पाक का विचार पुख्ता करने में उनके जिन्ना को लिखे पत्रों की बड़ी भूमिका थी। मुस्लिम लीग के 1930 में अध्यक्ष बननेपर इकबाल ने मुसलमानों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र की मांग रखी। इलाहाबाद में 1930 में मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए उन्होंने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग की।
अपने देश के बाशिंदों पर चोट करते हुए लिखा-
''इक वलवला-ए-ताज़ा दिया मैंने दिलों को
लाहौर से ता-ख़ाके-बुख़ारा-ओ-समरक़ंद
लेकिन मुझे पैदा किया उस देस में तूने
जिस देस के बन्दे हैं ग़ुलामी पे रज़ामंद।''
इक़बाल की 'राम' शीर्षक कविता का अंश देखें-
''लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द.
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द।
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक[3] उसका है असर,
रिफ़अत[4] में आस्माँ से भी ऊँचा है बामे-हिन्द।
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त,
मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द
एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत, का है यही
रोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था,
पाकीज़गी में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था।''
मंगलवार, 4 नवंबर 2014
इंटरनेट और सामाजिक परिवर्तन के आयाम
कम्प्यूटर और इंटरनेट के आने के बाद कम्युनिकेशन में मूलगामी बदलाव आया है।राजनीति से लेकर संस्कृति तक सब क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन घटित हुए हैं।इसकी शक्ति और स्पीड पर सारी दुनिया मुग्ध है।लेकिन दूसरी ओर लोकतंत्र,लोकतांत्रिक प्रक्रिया और लोकतांत्रिक संस्थानों को इस तकनीक ने बहुत तेजी से क्षतिग्रस्त किया है। इंटरनेट और कम्प्यूटर की आर्थिक सफलता पर हम मुग्ध हैं लेकिन इसकी अन्य भूमिकाओं को लेकर विभ्रम में जी रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी खासकर दैनंदिन अभिव्यक्ति के रुपों को लेकर खुश हैं लेकिन कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी करते रहे हैं। राजनीतिक अर्थशास्त्र के आधार पर इंटरनेट के अधिकांश मूल्याँकन असफल साबित हुए हैं । वे यह बताने में असमर्थ रहे हैं कि पूंजीवाद आखिरकार किस तरह समाज को बना रहा है और पूंजीवाद अपने चरित्र का किस तरह गठन कर रहा है । साथ ही इंटरनेट को घर घर में किस तरह घरेलू मीडियम के रूप में पहुँचाया जा रहा है।इंटरनेट के " फ्लो ने इस कदर प्रभावित किया है कि हम भूल ही गए हैं कि पूंजीवाद अपनी हजम कर जाने की प्रवृत्ति के कारण किस तरह समाज में वर्चस्व बनाने का काम कर रहा है । पूंजीवाद के पक्ष-विपक्ष में बोलने वाले दोनों ही पक्ष यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे इंटरनेट हमारे "समय "को किस तरह प्रभावित कर रहा है ? खासकर राजनीति ,समाज की प्रकृति और अन्य चीज़ों को किस तरह प्रभावित कर रहा है । मुनाफे की मंशा, व्यावसायिकता , पब्लिक रिलेशन, मार्केटिंग आदि कारपोरेट पूंजीवाद को परिभाषित करने वाले तत्व हैं । ये वे बुनियादी क्षेत्र हैं जिनके आधार पर इंटरनेट को देखा जाना चाहिए । इन्हीं आधारों पर इंटरनेट के विकास का अध्ययन चाहिए और वह इन्हीं आधारों पर विकसित होगा ।मैकचेनी ने लिखा है तकनीक को नियंत्रण के बाहर बताने वाले लोग अब व्यावसायिकता को भी नियंत्रण के बाहर बता रहे हैं ।
माध्यम विशेषज्ञ मैकचेनी के अनुसार इंटरनेट या बृहत्तर डिजिटल क्रांति का निर्धारित तत्व तकनीक मात्र नहीं है । बल्कि हमें देखना चाहिए कि तकनीक को किस शक्ल में लाया जाता है और उसके आने से समाज को किस तरह की शक्ल मिल रही है । इंटरनेट आने के बाद अमेरिका के कारपोरेट घरानों के पास अकूत राजनीतिक शक्ति संचित हो गयी है और वे लोकतंत्र के सिद्धान्तों का उल्लंघन करते रहते हैं । यह संचार नीति अपने असली रुप में निर्माता के रुप में नज़र आती है । दूरसंचार और इंटरनेट के क्षेत्र में बड़ी कंपनियां इंटरनेट व्यावसायिकता के ज़रिए अहर्निश मानवीय स्वभाव को निशाना बना रही हैं। लोगों की सूचनाएँ एकत्रित करना , उनका मुनाफे और विज्ञापन के लिए इस्तेमाल करना , निजी डाटा का दुरुपयोग करना और लोगों को विज्ञापनों के ज़रिए निशाना बनाना , निगरानी करना और प्राइवेसी का उल्लंघन करना आम बात हो गयी है । अमेरिकी राज्य अपने सैन्य हितों और "राष्ट्रीय सुरक्षा" के नाम पर दुरूपयोग करता रहा है ।
कारपोरेट घरानों ने मीडिया में विगत 25सालों में खुलेपन और बहुलतावाद को सीमित करने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश किया है । उनके अस्तित्व का दारोमदार मौजूदा व्यवस्था को और भी बंद या क्लोज सिस्टम में तब्दील करने पर है । वे जनता के लिए कम से कम विकल्प खुले रखना चाहते हैं । वे इंटरनेट यूजर की राज्य के ज़रिए निगरानी रखना चाहते हैं और व्यावसायिकता का बांध खोल देना चाहते हैं । आज इंटरनेट को मीडिया का सरताज कहते हैं । उसके ज़रिए उपभोक्ता की शक्ति और दांत काटी प्रतिस्पर्धा की बातें की जा रही हैं । आर्थिक विकास के इतिहास में आज यह माध्यम इजारेदारियों के विकास का सबसे बड़ा माध्यम है । डिजिटल तकनीक तेज़ी से नीचे तक जा रही है । वह उन क्षेत्रों में भी पैठ बना रही है जहाँ पर परंपरागत तकनीक घुस नहीं पायी थी । मैकचेनी ने इसे " किलर एपलीकेशन" की संज्ञा दी है । नई डिजिटल तकनीक प्रतिस्पर्धा के युग से निकलकर इजारेदाराना गति से अपना विकास कर रही है । यह सच है कि इंटरनेट की अनेक सफल फ़र्में हैं । इनका काम करने का तरीका पुराने किस्म के पूंजीवाद की याद ताज़ा करता है । सिस्टम के रुप में ये फ़र्में जो शक्ल बना रही हैं उसको समझने की ज़रूरत है । वे प्राइवेसी को नहीं मानतीं,व्यावसायिकता पर जोर देती हैं, कर अदा करने से परहेज करती हैं, टैक्सचोरी करती हैं । तीसरी दुनिया के देशों में कम पगार पर काम कराती हैं । इन सब बातों को हम बहुत ही जल्दी भूल जाते हैं । वे अपने सिस्टम के लिए खास तरीके से लोग तैयार करते हैं जिससे वे अपने कर्मचारियों के मूल्य और मनोदशा बनाने में सफल हो जाते हैं । इंटरनेट की प्रकृति पूंजी संजय की मानसिकता से बंधी है । इंटरनेट आने के बाद खुलेपन और पारदर्शिता का बंद और मुनाफाखोरी की सीमित सूचना व्यवस्था के बीच सीधे टकराव पैदा हुआ है । इंटरनेट का अपना आंतरिक तर्क है जो डिजिटल तकनीक की लोकतांत्रिक क्षमताओं पर निर्भर है। इंटरनेट पर व्यापक सार्वजनिक स्पेस और वातावरण है जो वस्तु विनिमय के संसार से बाहर ले जाता है । लेकिन निजी स्पेस को और भी क्लोज या बंद बनाता है । इसकी प्राथमिकताएं इजारेदाराना बाजार की हैं । इंटरनेट लगातार गैर- व्यावसायिक साइबर स्पेस को पैदा कर रहा है इसके बावजूद यह गैर - व्यावसायिक स्पेस हाशिए पर है।इंटरनेट को यदि लोकतंत्र का माध्यम बनना है तो उसे असमानता , इजारेदारी, भ्रष्टाचार , अ- राजनातिकरण और ठहराव की ताकतों के बढ़ाव को रोकने का काम करना चाहिए ।
डिजिटल तकनीक आज शिखर पर है । इसके कारण समाज क्या पैदा करता है और क्या पैदा नहीं करता , इसके कारकों को आसानी से देखा जा सकता है । मैकचेनी का मानना है इंटरनेट सार्वजनिक वस्तु है और यह सामाजिक विकास के लिए आदर्श माध्यम है । यह अभाव को ख़त्म करता है और उसे लोकतंत्र के हवाले करता है । नई तकनीक इससे भी आगे बढ़कर उत्पादन की प्रकृति मूलगामी तौर पर बदल रही है । आज चीज़ों के निर्माण में कम लागत आती है और ज्यादा सक्षम चीजें बन रही हैं ।समाज में विकेन्द्रीकृत उत्पादन और वातावरण की अनुगूंज देख सकते हैं। । मैकचेनी के अनुसार 80 और 90 के दशक में जब इंटरनेट की शुरुआत हुई थी तब लोगों को लगा कि यह गैर व्यावसायिक अभिव्यक्ति का समुद्र है । वहाँ आम आदमी जाकर समानता के आधार पर अपने को सबल बनाएगा । आर्थिक और राजनीतिक तौर पर ताकतवर महसूस करेगा । प्रौपेगैण्डा कर सकता है उसके ऊपर कोई निगरानी नहीं होगी । यही इंटरनेट का लोकतांत्रिक विजन है । लेकिन व्यवहार में देखा गया कि इंटरनेट आने के बाद बड़े पैमाने पर इजारेदारियां बढ़ी हैं । पूंजी का केन्द्रीकरण बढ़ा है । गूगल,अमाजा़न,एपल,फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट आदि कंपनियां सारी दुनिया में वर्चस्व बनाए हुए हैं । धीरे धीरे इनके बीच में महाद्वीप और देश की सीमाएँ भी तय हो जाएंगी । विभिन्न वस्तुओं के पेटेंट को जिस तरह से इन कंपनियों ने अपने नाम कर लिया है उसके कारण किसी नए खिलाड़ी का इंटरनेट खेल में शामिल होना मुश्किल हो गया है ।
डिजिटल क्रांति सूचना और उसकी व्यापक शेयरिंग पर टिकी है । सूचनाओं को इस दौर में जितना शेयर किया गया पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर सूचनाएँ शेयर नहीं की गयीं । यह "सूचना बेचैनी" है। " सूचना बेचैनी" अति सूचना के कारण पैदा हुई है । डिजिटल में लाखों किताबें रोज़ छप रही हैं । अकेले अमेरिका में ही सैंकडों पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं । इंटरनेट के सारी दुनिया में 1995 में 10 मिलियन यूजर थे । सन् 2011 में इनकी संख्या दो विलियन हो गयी । सन् 2020 तक यह संख्या बढ़कर तीन विलियन हो जाएगी । अफ्रीका में मोबाइल फोन के विकास की गति सन् 2000 में दो प्रतिशत थी जो सन्2009 में बढ़कर 28 फीसदी हो गयी है । यह उम्मीद की जा रही है कि 2013 के अंत तक 70 फीसदी जनता के पास मोबाइल पहुँच जाने की उम्मीद है । IMS के शोध के अनुसार मौटेतौर 22 विलियन डिवाइस इंटरनेट और ऑनलाइन कनेक्ट हैं । सन् 2012 तक विश्व की तीन चौथाई आबादी मोबाइल से कनेक्ट हो जाएगी । सन् 2012 की विश्व बैंक रिपोर्ट में कहा कि मनुष्यों पर यह सबसे बड़े प्रभाव की ख़बर है । मैकचेनी के अनुसार इंटरनेट का विकास विगत 200 सालों के इलैक्ट्रोनिक कम्युनिकेशन के शोध का परिणाम है । वेन स्कॉट के अनुसार यह त्रिस्तरीय पैराडाइम शिफ्ट है । निजी संचार , मासमीडिया और बाज़ार सूचना को नई सूचना प्रणाली में समायोजित करके पेश किया गया है इससे इन तीनों पैराडाइम का अंतर ख़त्म हो गया है । मैकचेनी का मानना है आज इंटरनेट हर उस चीज़ को अपना गुलाम बना रहा है और रुपान्तरित कर रहा है जो उसके रास्ते में आ रही है । वस्तुओं और संचार को इंटरनेट अपने उपनिवेश में शामिल करता जा रहा है। इससे भी बड़ी बात यह कि समूची मानव जाति को स्पीड के साथ एक- दूसरे से जोड रहा है । इसके कारण सभी किस्म के कम्युनिकेशन को क्षणभर में पा सकते हैं । इसके कारण समूची मानवीय संस्कृति आपकी पकड में आ गयी है । आज वह मानव सभ्यता का आमुख है और उसके ज़रिए ही वस्तुएँ और सूचनाएँ पहुँच रही हैं । यह ऐसी मशीन है जिसने हमारी मनुष्य की समझ ही बदलकर रख दी है । आज मनुष्य को समझना और भी मुश्किल हो गया है । इंटरनेट ने हमारी ज़िंदगी के हर पहलू को प्रभावित किया है । आज विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे जीवन को प्रभावित कर रही हैं और इनके कारण विकास की नई नीतियां सामने आ रही हैं ।
इंटरनेट के प्रभाव का यह परिणाम है कि अब हम यह नहीं जानते कि भविष्य में कैसा मनुष्य जन्म लेगा । इंटरनेट के बारे में उपलब्ध सामग्री का विवेचन करते हुए रॉबिन मनसैल ने लिखा कि इंटरनेट सामग्री मूलत: दो कोटि में आती है ,पहली कोटि उस साहित्य की है जो उत्सवधर्मी है और इंटरनेट को महिमामंडित करता है दूसरी कोटि में वह साहित्य आता है जो पलायनवादी है ,ये लोग इंटरनेट की किसी भी किस्म की सकारात्मक भूमिका नहीं देखते। इंटरनेट अध्ययन के क्षेत्र में ये दोनों कोटियां खूब फल फूल रही हैं । हम यहां इंटरनेट के महिमामंडन करने वालों के नजरिए तक सीमित रखेंगे। मैकचेनी ने लिखा मैं इन दोनों कोटियों से प्रभावित हूं और दोनों कोटियाँ संतोषजनक समाधान नहीं देतीं । ये दोनों कोटियाँ बंद गली में ले जाती हैं । इन कोटियों में विभाजन करने वाली कोई बर्लिन की दीवार नहीं है । बल्कि यह दो किस्म के मानसिक गठन के लोगों का विवेचन है ।जेम्स कुरेन ने " मिसअंडरस्टेंडिंग इंटरनेट "( 2012) में लिखा हमें बताया गया इंटरनेट क्रांतिकारी परिवर्तनों का वाहक है । वह व्यापार को संगठित करेगा । समृद्धि लाएगा । वह नए युग के सांस्कृतिक लोकतंत्र का जनक है । यह भी कहा गया पुराना मीडिया ख़त्म हो जाएगा । वह लोकतंत्र को नया जीवन देगा । ई गवर्नेंस के ज़रिए पारदर्शिता बढ़ेगी । कमज़ोर और हाशिए के लोग ताकतवर बनेंगे । ऑटोक्रेट धराशायी होंगे । शक्ति संतुलन बदलेगा । इंटरनेट के कारण दुनिया छोटी हो जाएगी और दो देशों में आपसी संवाद बढ़ेगा । दुनिया में एक दूसरे के प्रति समझदारी बढ़ेगी । एक वाक्य में कहें तो इंटरनेट अबाधित शक्ति है । यह कहा गया कि प्रिंट और बारुद की तरह इंटरनेट अपरिवर्तनीय शक्ति है जो समूचे समाज को स्थायी और अपरिवर्तनीय तौर पर बदल देगा । यह भी कहा गया कि इंटरनेट के द्वारा संसार को बेहतर रुप में बदल दिया जाएगा । इसके बाद संसार को पहचानना मुश्किल होगा । "इंटरनेट केन्द्रित" विश्वासों के कारण उसे सभी तकनीकों का मूलाधार घोषित कर दिया गया । उसे सभी एजेंसियों का आधार बताया गया । जबकि मनसेल के अनुसार डिजिटल तकनीक की खोज और इंटरनेट पर वर्चुअल स्पेस के उदय ने एक किस्म की रहस्यात्मक गुणवत्ता को जन्म दिया है। इस बीच में कईबार मंदी आई लेकिन इंटरनेट और सूचना उद्योग इस संकट से निकलते गए । क्ले सिर्की ने"कागनेटिव सरप्लस" (2010) में लिखा आज जिस तरह की शिरकत नज़र आती है यह उसका छोटा उदाहरण है और यह चारों ओर फैलेगा । यही चीज़ हमारी संस्कृति का आधार हो जाएगी।समस्या यह है कि हमारी संस्कृति कैसी हो । युवा लोग मानते हैं कि नेटमीडिया तो उपभोग, प्रस्तुति, और शेयरिंग का काम करता है । साथ ही वह सबके लिए खुला है । मानवता के लिए लिखने का अर्थ है विश्व के लिए फ्री टाइम को संसाधन बनाना । नए किस्म की शिरकत और शेयरिंग ही इस नए किस्म के संसाधन की विशेषता है। इससे हमारा समाज मूलगामी तौर पर बदलेगा । यही "कागनेटिव सरप्लस "है जो हमारे जीवन को बदलेगा ।हेनरी जैनकिंस ने लिखा, इंटरनेट पर लेखन मशरूम की तरह आ रहा है । यह "सामूहिक बौद्धिकता " की निशानी है । क्योंकि इंटरनेट पर आप अपने संसाधनों एवं कौशल को काम पर लगाते हैं तो उसे सामूहिक बौद्धिकता में रुपान्तरित करते हैं ।मिशेल नेलशेन (फिजिसिस्ट और क्वांटम कम्प्यूटर वैज्ञानिक ) ने "री इनवेंटिंग डिस्कवरी"( 2012) में लिखा इंटरनेट ने जन सहभागिता को संभव करके विज्ञान में कॉगनेटिव वैविध्यगत मूलगामी परिवर्तन किए हैं । ऑनलाइन उपकरणों की उपलब्धता के कारण वैज्ञानिकों की खोजों का रूप ही बदल दिया है । इसके कारण विज्ञान और समाज का संबंध बुनियादी तौर पर बदल गया है । यहाँ पर असंख्य लोगों के शिरकत करने की संभावनाएं हैं और असंख्य लोग शिरकत कर रहे हैं । ऑनलाइन सहभागिता के कारण एकदिन ऐसा भी आएगा कि नोबुल पुरस्कार सामूहिक तौर पर काम करने वाले एमेच्योर वैज्ञानिकों के समूह को मिलेगा । इंटरनेट से सिर्फ़ व्यापार ही नहीं होगा बल्कि अब हर चीज़ का पेटेंट कराने की ज़रूरत होगी और यह भी पता चलेगा कि ज्ञान को कैसे निर्मित किया जाता है । इस प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता । इंटरनेट आने के बाद मानवीय प्रकृति में बुनियादी बदलाव आया है । हम बेहतरी की ओर बढ़े हैं । चारों ओर नेट पर एक दूसरे से सहयोग करके लोग काम कर रहे हैं । सहभागिता से काम कर रहे हैं । ईमानदारी से काम कर रहे हैं , सही दिशा में काम कर रहे हैं । उदार व्यवहार कर रहे हैं । समूहों में मिलकर काम कर रहे हैं । सही बातों के लिए सहयोग कर रहे हैं । सभ्यता और ममता के साथ पेश आ रहे हैं । विकीपीडिया जैसे ओपन सोर्स मंच खुले हैं ।
मैकचेनी ने लिखा है एक ज़माना था जब सुस्टेंस जैसे लोग कहते थे कि इंटरनेट के कारण लोग असामाजिक हो रहे हैं ।जनता से कट रहे हैं । लेकिन 2006 में सुस्टेन्स ने ही इंफोटोपिया में लिखा कि मनुष्य को इंटरनेट से संचित ज्ञान मिल रहा है ।विकीपीडिया के आने के साथ हमने सूचना की आक्रामकता को मानना आरंभ कर दिया है । उसके प्रति सहिष्णु बने हैं । परा-राष्ट्रीय , परा-भाषी संबंध बने हैं । निज के स्वार्थ और सामाजिक स्वार्थ की पूर्ति के मामले में संतोष मिला है । जैफ जरविस ने इंटरनेट के सार्वजनिक पहलू पर रोशनी डालते हुए लिखा ,"इंटरनेट आने के बाद अभूतपूर्व सार्वजनिकता का उदय हुआ है । यह पब्लिकनेस युगान्तरकारी है ,फलत : पूरी तरह डिसरप्टिव है । इस पब्लिकनेस ने उन संस्थानों को चुनौती दी है जो सूचना और दर्शकों को नियंत्रित करते थे । पब्लिकनेस एक तरह से उन संस्थानों की कीमत पर सशक्तिकरण हासिल करने का प्रयास है ।तानाशाह,राजनेता , मीडिया मुग़ल बताया करते थे कि हम क्या सोचें और क्या न सोचें, लेकिन अब इन लोगों का ज़माना लद गया । आज हमारा समाज वास्तव अर्थों में सार्वजनिक समाज बना है । राजनेता सुनने को मजबूर हैं कि इंटरनेट पर क्या कहा जा रहा है या जनता क्या कह रही है । राजनेताओं को जनता का सम्मान करने की , व्यक्ति के तौर पर सम्मान करने की आदत डालनी होगी । क्योंकि समूह के तौर पर पब्लिक के तौर पर जो शक्ति हासिल की है ,यह उसका सम्मान है । इंटरनेट आने के बाद लोकतांत्रिक शक्तियों की ताकत में इजाफा हुआ है । इंटरनेट तो लोकतंत्र की शक्ति है । यह सूचना की इजारेदारी और केन्द्रीकृत नियंत्रण का अंत है " सोशलमीडिया एंड टैक्नोलाजी " में पामेला लुंड ने लिखा " यह माध्यम पहले की तुलना में और भी ज्यादा शक्ति देता है, मनुष्य को इतनी शक्ति पहले कभी नहीं मिली ।" जरविस ने लिखा है कि "इस माध्यम के खिलाफ़ प्रतिरोध निरर्थक है "
शनिवार, 1 नवंबर 2014
नामवर सिंह और साहित्य की कसौटियाँ
मार्क्स से एकबार एक पत्रकार ने पूछा था कि मार्क्सवाद क्या है ? तो मार्क्स ने कहा कि यह स्वयं के ख़िलाफ़ संघर्ष है। तक़रीबन इससे मिलती - जुलती बात देरिदा ने अपने अंतिम साक्षात्कार में कहीं कि ' मैं स्वयं के ख़िलाफ़ युद्धरत हूँ ।'यह बात उन्होंने जिस समय कहीं उस समय वे गंभीर शारीरिक कष्टों और बीमारियों से जूझ रहे थे । तक़रीबन यही नज़रिया हिन्दी आलोचक नामवर सिंह का रहा है। वे निरंतर अपने कहे से संघर्ष करते रहे हैं।
पिछले दिनों उनको दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सुनने का मौक़ा मिला । ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित 'वाक्' नामक कार्यक्रम में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं जिनसे उनके अंदर की छटपटाहट का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनकी पहली गंभीर आलोचना तो यह थी कि उनसे लोग तीखे आलोचनात्मक सवाल नहीं पूछते,विश्वनाथ त्रिपाठी ने बातचीत की जो पृष्ठभूमि तैयार की थी उसकी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि आपने जिस तरह से पूछा है उससे तो सारी बातचीत संस्मरणात्मक होकर रह जाएगी, जबकि मैं चाहता हूँ कि लोग आलोचनात्मक सवाल करे। लेकिन जैसाकि होता रहा है उनसे किसी ने आलोचनात्मक सवाल नहीं पूछा ।
आमतौर पर नामवर सिंह स्वयं के प्रति बेहद क्रिटिकल रहते हैं और श्रोता लोग भक्ति भाव में डूबे रहते हैं। यह जटिल स्थिति है कि आलोचक तो क्रिटिकल है लेकिन जनता नहीं। इससे एकबात का अंदाज़ा लगता है कि आलोचना परिवेश का क्षय हुआ है ।
आलोचना परिवेश के क्षय में आलोचकों और लेखकों और हिन्दी विभागों के पठन- पाठन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नामवरजी ने इसी कार्यक्रम में कहा कि हमने विभागों सर्जना निर्माण के लिए विकास नहीं किया । कविता, कहानी आदि रचनात्मक विधाओं के लेखक तैयार नहीं किए। पीएचडी के पोथे लिखने वाले तैयार किए। इससे सर्जनात्मकता का विकास नहीं हुआ।
समस्या यह है कि स्वयं नामवरजी जब पढ़ाते थे तो उनका सर्जनात्मक प्रतिभाओं के प्रति द्वेषपूर्ण राजनीतिक रुख़ क्यों था ? वे निजी तौर पर सर्जनात्मक क़िस्म के मेधावी छात्रों को बढ़ावा देने की बजाय ग़ैर- सर्जनात्मक छात्रों को बढ़ावा क्यों देते रहे ? मसलन मनमोहन, असदजैदी,उदयप्रकाश, कुलदीप कुमार आदि को बढ़ावा देने की बजाय उनका ग़ैर- रचनात्मक क़िस्म के छात्रों की ओर झुकाव क्यों रहा ? यह बात मैं इसलिए रेखांकित कर रहा हूँ जिससे नामवरजी के ग़ैर- सर्जनात्मक मन की थाह ले सकूँ।
नामवरजी के कई मन हैं। कई नज़रिए हैं। सवाल यह है कि एक आलोचक को क्या कई मन रखने चाहिए ? यदि किसी आलोचक के पास कई मन हैं तो इसका अर्थ है कि वह उनका मन अवसरवादी है। नामवरजी कभी गंभीर आत्मालोचना क्यों नहीं करते कि उनके आलोचनात्मक विवेक और जीवन विवेक में गहरे अंतराल हैं जिनके ज़रिए अवसरवाद ने आलोचना में गहरी पैठ बना ली है।
नामवरजी की ख़ूबी है कि वे अपने निजी जीवन को निजी रखते हैं और उसको कभी सार्वजनिक बहस में नहीं आने देते । निजी के वे ही पहलू सामने आते हैं जो सार्वजनिक कर्म का हिस्सा रहे हैं । निजी और पब्लिक में नामवरजी का यह संतुलन देखने योग्य है।
नामवरजी ने बड़े ही तरीक़े से इस कार्यक्रम में बताया कि वे कैसे पढे , उन्होंने किससे भाषा सीखी , किनका उनके ऊपर असर था, साथ ही बेबाकी के साथ यह भी बताया कि किस तरह उन्होंने तीन सप्ताह के अंदर भारत भूषण अग्रवाल के कहने पर ' कविता के नए प्रतिमान' किताब लिखी , जिसे बाद में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत किया गया। उन्होंने साफ़ कहा कि यह किताब तो मैंने साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए लिखी थी । यह किताब पांडित्यपूर्ण ज़्यादा है और इसमें आलोचना कम है।
नामवरजी की इस घटना से मुझे यह सवाल उठाने की इच्छा हो रही है कि हम कैसे जीएँ ? और किस तरह जीते रहे हैं ? हर लेखक को इन दोनों सवालों को अपने तरीक़े से खोलना चाहिए । नामवरजी ने कैसे जीएँ ? सवाल का हल कैसे निकाला इसका उत्तर उनके लंबे दैनन्दिन जीवन में फैला हुआ है जिसमें अनेक बातें हैं जिनको सीखने की ज़रुरत है मसलन् भाषा पर उनका जो अधिकार है वह चीज़ सीखने की है। वे बेहतर हिन्दी गद्य लिखते और बोलते हैं। उदात्त ,उत्तेजक और मधुर काव्यात्मक गद्य के उन्होंने बेहतरीन मानक बनाए हैं । इसके अलावा व्यक्तिगत जीवन में वे भ्रष्ट नहीं रहे हैं। उनके ऊपर पक्षपात और आत्मगत फ़ैसले लेने के आरोप लगते रहे हैं और हो सकता है इनमें से कई फ़ैसले ग़लत रहे हों लेकिन वे निजी तौर पर भ्रष्ट नहीं हैं। बौद्धिक ईमानदारी का उन्होंने भरसक पालन किया है।
ज्ञान को पढ़कर हासिल करना और अपडेट रखना उनकी महत्वपूर्ण विशेषता है। इसके अलावा उनकी जीवनशैली संगठित और सुनियोजित रही है। इसमें सुबह चार बजे उठना , पढ़ना और टहलना नियमित कार्य हैं । कोई भी घर आए तो आने देना कोई भी बुलाए तो उसके कार्यक्रम में जाना यह उनकी मिलनसारिता के गुण हैं। वे निजीतौर पर कभी किसी से ख़राब नहीं बोलते चाहे वो जितना ही ख़राब बोलता रहा हो। व्यवहार में उदात्तता को नामवरजी ने जिस तरह ढाला है वह सीखने लायक चीज़ है। नामवरजी के जीवन की धुरी उदात्त व्यवहार और उदार मूल्यों से बनी है।
इसमें गाँव के किसान का बोध है , इसमें महानगरीय जीवन की ध्वनियाँ हैं और बातें करेंगे तो इसमें ग्लोबल नागरिक का विश्वबोध भी है। वे लोकल और ग्लोबल एक ही साथ नज़र आते हैं। पहनावे और जीवनशैली में लोकल और नज़रिए में ग्लोबल या यों कहें खाँटी मार्क्सवादी की तरह विश्वदृष्टि से ओतप्रोत नज़र आते हैं ।
नामवरजी के आसपास या दूर रहने वाले लोग यह सोचते हैं कि वे अपने छात्रों को रचते रहे हैं, बनाते रहे हैं, लेकिन सच यह नहीं है। नामवरजी ने किसी को नहीं बनाया। निर्मित करना उनकी पद्धति और नज़रिए का अंग कभी नहीं है। यह बात मैं इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि अनेक लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि नामवरजी ने क्या निर्मित करके दिया ? कैसा विभाग दिया ? कितने मेधावी तैयार किए?
असलमें , नामवरजी ने हमें यह बताया कि कैसे जिएँ । इससे यह निष्कर्ष न निकालें कि वे निर्मित करते रहे हैं।किताब कैसे पढें? किताबों और जीवन के विविध आयामों से जुड़े सवालों को कैसे देखें ? यह उनकी अकादमिक शिक्षा का हिस्सा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे बंदे तैयार करते रहे हैं। एक अच्छे शिक्षक का काम है बताना , समझाना न कि निर्मित करना। परिवार, परंपरा,साहित्य, कला, राज्य, पति-पत्नी संबंध, प्रेम, राजनीति आदि के विभिन्न जटिल पक्षों को वे विभिन्न बहानों के ज़रिए छात्रों के सामने रखते रहे हैं। इसमें ही जीवन जीने की कला के सूत्र भी देते रहे हैं यानी कैसे जीएँ के मंत्र बताते रहे हैं।
इस समूची प्रक्रिया में सवाल यह भी उठा कि हम ज्ञान के लिए जी रहे हैं या सामाजिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जी रहे हैं? किसके लिए पढ़ रहे हैं ? ज्ञानार्जन के लिए या समाज को बदलने के लिए ? नामवरजी का एक ही उत्तर होता था कि शिक्षा का लक्ष्य है सामाजिक परिवर्तन न कि ज्ञानार्जन। कैसे जिएँ और कैसे मरें , यह कला हमें सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल होकर सीखनी चाहिए।
नामवरजी पर बातें करते समय उनके आलोचक और बाग़ी भाव की ख़ूब बातें होती हैं लेकिन जो बात उनकी रचना से लेकर व्यवहार तक फैली है और जिसका ज़िक्र नहीं होता वह है उनका मानवाधिकारवादी नज़रिया।
नामवरजी स्वभाव से मानवाधिकारों के कट्टर पक्षधर हैं और मैंने अनेकबार उनको बहुत क़रीब से जानने और समझने की कोशिश की है तो पाया है कि मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में रहने के कारण वे अनेकबार अपनी विचारधारा का , मार्क्सवाद का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। आपातकाल की चूक केअलावा वे समूचे जीवनकाल मानवाधिकारों के पक्ष में बोलते और लिखते रहे । उनकी समीक्षा को मार्क्सवाद की कसौटी पर कसने की बजाय मानवाधिकार के पैमानों पर देखा जाए तो ज़्यादा बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं।
वे जीवन की निरंतरता को साहित्य की निरंतरता में खोजते हैं ,जिसे वे परंपराओं की खोज कहते हैं। उनका मानना है कि भारत में एक नहीं अनेक परंपराएँ हैं। परंपरा की खोज का अर्थ मृत तत्वों की खोज करना नहीं है बल्कि जीवंत तत्वों की खोज करना है यही वह बिंदु है जहाँ से वे जीवंत के साथ जुड़ने का नज़रिया देते हैं। जीवन जीने की कला का एक नया मंत्र देते हैं कि जीना है तो जीवंत रहो और जीवंत से जुड़ो।यही जीवंतता असल में आलोचना में मानवाधिकार है ।
हमने कभी गंभीरता के साथ मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य के आधार पर धारणाएँ बनाने या समीक्षा का मूल्याँकन करने का प्रयास नहीं किया । हम हमेशा तयशुदा धारणाओं में सोचते रहे हैं इससे आलोचना की क्षति हुई है।
नामवरजी का बाग़ी भाव मंच पर बहुत अपील करता है और इस बाग़ी भाव को अनेक लोग मार्क्सवादी भाव समझते रहे हैं। नामवरजी के मंचीय बाग़ी भाव का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं है। यह अनेकबार नाॅस्टेल्जिया के रुप में आता रहा है।
नामवरजी की वक्तृता शैली में नाॅस्टेल्जिया जब भी आता है तो बाग़ी होकर ही आता है। बाग़ी भाव में वे जब भी बोलते हैं तो भिन्न रंग में नज़र आते हैं क्योंकि कोई न कोई समस्या उनको अंदर से उद्वेलित करती है और इसके समाधान को वे बाग़ी भावबोध में खोजने की कोशिश करते हैं।इसके चलते वे अपने ही नज़रिए से मुठभेड़ करते नज़र आते हैं। सभी लोग यही शिकायत करते हैं इसबार नामवरजी ने अपनी पुरानी बात का खंडन कर डाला या जो लिखा है उसकी ही आलोचना कर दी।
नामवरजी के बाग़ी का नाॅस्टेल्जिया अंततः स्वयं उनके ही ख़िलाफ़ ले जाता है क्योंकि वे समस्या विशेष से परेशान रहते हैं और यही परेशानी उनको बार -बार बाग़ी बनाती है, नास्टेल्जिक बनाती है, परंपरा की ओर ले जाती है। वे जीवंत तत्वों की खोज करते हैं और इस क्रम में अपने को प्रासंगिक बनाते हैं, मंचों पर अपनी माँग बनाए रखते हैं, हर खेमे में माँग बनाए रखते हैं। यह उनके मंचीय तौर पर ज़िन्दा बने रहने का मंत्र है।
नामवरजी जब मंच पर होते हैं तो मंच पर होने से ज़्यादा मंच के बाद याद किए जाएँ इसमें उनकी दिलचस्पी ज़्यादा होती है। अनेक वक़्ता मंच पर ही अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन नामवरजी के साथ ऐसा नहीं है वे मंच पर बोलते हुए तो प्रासंगिक रहते हैं उनके भाषणों को लोग बाद में भी याद रखते हैं, उद्धृत करते हैं और अब तो अनेक किताबें बाज़ार में हैं ,जिनमें उनके भाषण हैं। इनमें प्रासंगिक विचार भरे पड़े हैं। इन विचारों की बुनियाद है जीवंतता ।
नामवरजी के विचारों को हमें परंपरागत प्रतिबद्धता के दायरे के बाहर रखकर देखना होगा। वे बहुलतावादी प्रतिबद्धता को अभिव्यंजित करते हैं। वे महज़ पार्टी प्रतिबद्धता या वर्गीय प्रतिबद्धता के आधार पर समझ में नहीं आ सकते। बहुलतावादी प्रतिबद्धता का दायरा व्यापक है और इसमें विभिन्न विचारधाराओं के लिए जगह है। नामवरजी ने वर्गीय प्रतिबद्धता से बहुलतावादी प्रतिबद्धता के दायरे में कब प्रवेश किया इसका सही से वर्ष बताना मुश्किल है लेकिन वे आज़ादी के बाद क्रमश: इस दिशा में सचेत रुप से शिफ़्ट करते हैं और यह बहुलतावाद उनके वैचारिक नज़रिए को भी प्रभावित करता है जिसके कारण वे कम्युनिस्ट पार्टी से बाहर निकल आते हैं। नामवरजी की प्रतिबद्धताएँ वर्ग से निकलकर बहुलतावादी संरचनाओं की ओर चली जाती हैं और वे विगत छह दशकों से इसे समृद्ध कर रहे हैं । 'कविता के नए प्रतिमान'असल में बहुलतावादी नज़रिए की ही अभिव्यक्ति है। वहाँ सलीक़े से अंतर्विषयवर्ती पद्धति का वे समीक्षा की धारणाओं लिए इस्तेमाल करते हैं । मज़ेदार बात है कि यह बहुलतावाद अकेले नामवरजी में ही नहीं है बल्कि हिन्दी के अधिकांश आलोचकों में है और इसकी शुरुआत मुक्तिबोध से होती है।
नामवरजी के नज़रिए में ' मैं' और ' सामाजिक' का द्वंद्व है। इसमें उनका 'मैं' हारा है ,और ' सामाजिक' जीता है। नामवरजी ने' आत्म- संरक्षण' की कभी कोशिश नहीं की। उनका ' मैं' बार-बार पदों पर ठेलता है लेकिन ' सामाजिक' हमेशा बाहर खींचता है। इसमें कईबार उनका 'मैं' जीता है ,और ' सामाजिक' हारा है।
नामवरजी के लिए भाषण अंतहीन क्रांति है। वे लगातार भाषण देते रहे हैं। भाषण देने को न मिले तो बेचैन रहते हैं, दो दिन के बाद यदि उनके बयान पर चर्चा बंद हो जाए तो उद्विग्न हो जाते हैं , नए मंच की तलाश में वे अपनी अंतहीन भाषण क्रांति को साकार करते रहे हैं। नामवरजी के लिए तो भाषण ही क्रांति है।वे मंच के अनुकूल और दर्शकों के अनुकूल बोलने की कला में दक्ष हैं। वे बोलते समय किसी एक घटना विशेष को आधार बनाकर नई से नई धारणा का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। इसके आधार पर वे हर क़िस्म के दर्शकों का मन जीतने में सफल रहे हैं। वे इस तरह दर्शकों को तो आकर्षित कर लेते हैं लेकिन शिक्षित नहीं कर पाते। क्योंकि श्रोता जानते हैं कि नामवरजी किस स्कीम के तहत बोल रहे हैं।फलत: औसत श्रोता को वे अपील करते हैं लेकिन गंभीर श्रोताओं को निराश करते हैं।
नामवरजी के लिए साहित्य की कसौटियों के सवाल हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं अत: कसौटियों पर बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में विचार करने की ज़रुरत है।
ग़ौर करें तो इनदिनों हर लेखक अपनी विचारधारा को वैध मानकर चल रहा है। वैधता की कसौटी पर हर लेखक की विचारधारा ज़रुरी नहीं है कि खरी उतरे। जिस तरह प्रत्येक लेखक वैध नहीं हो सकता उसी तरह प्रत्येक विचारधारा भी वैध नहीं हो सकती । क़ायदे से हमें वैधता की कसौटियाँ खोजनी होंगी ।
साहित्य में वैधता की कसौटियाँ बदलती रही हैं। कल तक समाजवाद की कसौटी वैध थी लेकिन आज वैध नहीं लगती। १३वीं सदी से लेकर १८वीं सदी तक अनेक सामंती कसौटियाँ वैध लगती थीं लेकिन १९वीं सदी आने के साथ सामंती कसौटियाँ वैध नहीं रह गयीं। १९वीं सदी में पूँजीवादी कसौटियाँ वैध लगने लगीं।
यही हाल समाजवादी कसौटियों का है बीसवीं सदी के आठवें दशक तक समाजवादी कसौटियां वैध थीं , कालांतर में वे ही कसौटियाँ अवैध लगने लगीं। इसी तरह साहित्य में हमने लंबे समय तक भारतेन्दु साहित्य के आधार पर साहित्यिक कसौटियाँ बनायीं लेकिन छायावाद के दौर में वे अप्रासंगिक लगने लगीं। यहाँ तक कि साहित्य की अवधारणा भी बदल गयी।
इसी तरह प्रगतिवाद के दौर में साहित्य की नयी कसौटियाँ सामने आईं और स्वयं छायावादी लेखकों ने अपनी बनायी कसौटियों को छोड़ दिया और प्रगतिवाद की कसौटियों को अपना लिया। जिन लेखकों ने प्रगतिशील आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी उनको चंद वर्षों में प्रगतिवाद की कसौटियाँ अप्रासंगिक लगने लगीं और आधुनिकतावादी कसौटियाँ वैध लगने लगीं। कसौटियों में निरंतर आए बदलाव बताते हैं कि कसौटियाँ बदलती रही हैं। कसौटियाँ जड़ नहीं होतीं। लेकिन लेखकों का एकवर्ग ऐसा भी है जो कसौटियों को बदलना नहीं चाहता। मसलन् अनेक प्रगतिशील लेखक आज भी समाज और साहित्य को समाजवाद की कसौटियों के आधार पर देख रहे हैं। जबकि जिन देशों के समाजवादी प्रयोगों से ये लेखक प्रभावित हैं उन देशों में समाजवाद का अंत हो चुका है। यही हाल भूमंडलीकरण के गर्भ से उपजी साहित्यिक कसौटियों की है। भूमंडलीकरण के गर्भ से उपजी कसौटियाँ हाशिए पर जा चुकी हैं।
कसौटियों को शाश्वत मानना रीतिवाद है। हमारे लेखक की मनोदशा यह है कि वह एकबार किसी कसौटी को अपना लेता है तो उससे सारी ज़िन्दगी बँधा रहता है। लेखक की मनोदशा ऐसी क्यों है कि वह कसौटियाँ नहीं बदलता ? कसौटियों का पुनर्मूल्यांकन नहीं करता ?
साहित्य में कसौटियों का बार- बार मूल्याँकन करने की ज़रुरत है। हमने अंतर्वस्तु से लेकर रुप -तत्व तक के सभी मानकों का पुनर्मूल्यांकन क्यों नहीं किया ? कुछ ख़ास लेखकों के पसंदीदा मूल्यांकनों के ज़रिए हम कसौटियों के बदलने की प्रक्रिया को समझ ही नहीं सकते।
प्रत्येक कसौटी और विचार के पुनर्मूल्यांकन की ज़रुरत हमेशा बनी रहती है। पुनर्मूल्यांकन ही कसौटियों को वैध बनाता है। कसौटी की वैधता पर विचार करते समय हमें रुपान्तरण के बिन्दुओं पर नजर रखनी होगी । स्थिर मूल्यबोध के दायरे के बाहर निकलना होगा ।
वैधता के सवालों पर बात करते समय हमें मूल्यों के विवेकवादी विमर्श को सामने लाने की ज़रुरत है । हमने इन दिनों आमफहम बातचीत या स्टीरियोटाइप विमर्श या तर्कों को ही ज्ञान विमर्श बना लिया है और विचारों की गतिशीलता और विवेकवाद को ठंडे बस्ते में डाल दिया है ।
मूल्यों के नाम पर जो भी विमर्श आ रहा है राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ यांत्रिक संबंध बनाकर आ रहा है। चूँकि यह दौर नव्य आर्थिक नीतियों का है तो बिना विवेकवादी पड़ताल किए यांत्रिक ढंग से भूमंडलीकरण पर सरलीकरणों के ज़रिए बातें हो रही हैं। ख़ूब लिखा जा रहा है।
इस समूची प्रक्रिया में लेखक का सामयिक राजनीति और मूल्य व्यवस्था से अलगाव बढा है । लेखकों के मन में पूँजीवाद के तर्क को जाने बिना उसके प्रति घृणा पुख़्ता हुई है या लगाव बढ़ा है। यह फंडामेंटलिज्म है जो पुराने समाजवादियों , उपभोक्तावादियों और नए धार्मिक कठमुल्लों में देखने को मिलता है।
आयरनी यह है कि लेखक को विकास चाहिए लेकिन भूमंडलीकरण के बिना, माॅल चाहिए या नई जीवनशैली चाहिए नए मूल्यबोध के बिना। अनेक इलाक़ों में ड्रेसकोड ,मोबाइल आदि के साथ लड़कियों के संबंधों को लेकर तनाव पैदा हुआ है। प्राइवेसी के सवाल उठे हैं।इस क्रम में परंपरागत कम्युनिकेशन और जनसंचार के बीच में तनाव पैदा हुआ है ।
परंपरागत कम्युनिकेशन पुरानी नैतिकता के आधार पर प्रसारित हो रहा है जबकि जनसंचार नई पूँजीवादी अबाध संचार के आधार पर सम्प्रेषण कर रहा है ।इन दोनों दृष्टियों में विवेकवादीदृष्टि नदारत है। यह दोनों अतिवादी छोर हैं। इस तरह के संचार रुपों के ज़रिए हम जनता की इच्छाओं की सही ढंग से पड़ताल नहीं कर सकते।
इसी तरह पुरानी नैतिकता या सामंती हेकड़ियों के आधार पर नैतिकता के सम्प्रेषण को वैध नहीं माना जा सकता । उसी तरह अबाध कम्युनिकेशन भी इस तनाव को दूर करने का समाधान नहीं है । कम्युनिकेशन के इन दोनों रुपों के बीच तनाव पैदा हुआ है ।
इस दौर में लेखकों के एक बड़े समुदाय में 'गतिहीन अ-राजनीतिक चेतना 'ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। वे लेखक या उसकी रचना का विचारधारारहित मूल्याँकन कर रहे हैं। संयोग से यह काम वे लोग कर रहे हैं जो प्रगतिशील समीक्षक कहलाते हैं ।
आज के दौर की पहली चुनौती है कि लेखन और लेखक के जीवन में 'अ-राजनीतिक 'माहौल ख़त्म किया जाय। 'अ-राजनीतिक 'माहौल के कारण सांस्कृतिक क्षय की ओर हम ध्यान ही नहीं दे पा रहे हैं । 'अ-राजनीति 'की सीमाओं को गिराए बिना कोई भी बड़ा परिवर्तन समाज में लाना संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में हमेशा राज्य के हस्तक्षेप की माँग उठती है या फिर न्यायालयों से हस्तक्षेप की माँग करते हैं ।
साहित्य में व्याप्त अ-राजनीतिक माहौल में दलगत प्रतिबद्धता ने बड़ी भूमिका अदा की है।
लेखक की मंशा की साहित्य की अभिव्यक्तियाँ विश्लेषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । समस्या यह है कि हमने लेखक की मंशाओं के निर्माण की प्रक्रियाओं की ओर ध्यान नहीं दिया।
लेखक की मंशा को वे चीज़ें प्रभावित करती हैं जिनको लेखक जानता है वे चीज़ें और प्रक्रियाएँ भी प्रभावित करती हैं जिनको वह नहीं जानता! मंशा के ज्ञात -अज्ञात स्रोतों की खोज करना आलोचना का काम है । मंशा को निर्मित करने में लेखक का समसामयिक समय तो प्रभावित करता ही है अतीत का समय भी अनेक मामलों में पीछा करता है। अभिव्यक्ति के रुपों में अतीत के साथ कहीं कशमकश मिलती है तो कहीं अतीत से मुक्त होने की छटपटाहट मिलती है ।
इसी तरह लेखक के प्रेरक स्रोतों की भी खोज की जानी चाहिए । प्रेरक स्रोतों में हम अमूमन उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को ही मुख्य रुप में विवेचित करते रहे हैं। उसके परिवार , मित्र, बचपन आदि को कभी न तो कृति के साथ जोड़कर देखा और नहीं आत्मकथाओं में दिखाई दिया।
यह विलक्षण बात है कि बचपन का अधिकांश लेखकों की आत्मकथाओं में वर्णन नहीं मिलता। बचपन के साथियों और पड़ोसियों का ज़िक्र नहीं मिलता। बचपन के बिना लेखक की आत्मकथा कैसे बन सकती है? पड़ोसियों के वर्णन और ब्यौरों के बिना कैसे कोई लेखक बड़ा हो सकता है ?
कभी हमने राजनीतिक विचारधारा से इतर कारकों जैसे बाज़ार की शक्तियों और मीडिया के प्रेरक तत्वों की भूमिका पर सकारात्मक ढंग से विचार ही नहीं किया । पूँजीवाद या परवर्ती पूँजीवाद के स्टीरियोटाइप रुपों की कभी मीमांसा नहीं की। पूँजीवाद और परवर्ती पूँजीवाद में सर्जनात्मक सक्रियता बनाने वाले तत्वों को हमने कभी खोलकर विश्लेषित नहीं किया।
लेखक को पूँजीवादी व्यवस्था के कौन से तत्व या मूल्य प्रेरित करते हैं ?या उसे लिखने के लिए उदबुद्ध करते हैं? इसी तरह राज्य के कौन से तत्व हैं जो लेखक को उदबुद्ध करते हैं ? इत्यादि सवालों पर हमने कभी गंभीर बहस नहीं चलायी।
लेखक के सामने संकट यह है कि वह नहीं जानता कि वह जिन मूल्यों को जीता है वे राज्य निर्मित हैं। राज्य निर्मित मूल्यों और नैतिकता के मानकों के दायरे में रहकर ही वह अपना सृजन करता है। राज्य निर्मित मूल्य लेखक को जब अप्रासंगिक लगते हैं तो उसके पहले वे राज्य को भी अप्रासंगिक लगने लगते हैं। वास्तव में यही लगता है कि लेखक पुराने मूल्यों को चुनौती दे रहा है लेकिन वस्तुत: वह राज्यनिर्मित मूल्यों में आए तनावों और अन्तर्विरोधों को अभिव्यंजना देता है। जो अंतर्विरोध लेखक की रचना में नज़र आते हैं वे असल में पहले राज्य महसूस करता है।राज्य सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को ही नियमित नहीं करता बल्कि संस्कृति को भी नियमित करता है। राज्य जब प्रेरक बनकर आता है तो लेखक के प्रेरणास्रोतों में तनाव, बेचैनी और टकराव पैदा कर देता है।
राज्य ने जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। ड्रेस बदली है,खान-पान बदला है, मित्रता के मानक बदले हैं। वर्गसंघर्ष को और भी मुश्किल बना दिया है। राज्य स्वयं अपने बनाए मानकों को बनाए रखने में असमर्थ साबित हुआ है। मसलन अनेक इलाक़ों में जातीय सहिष्णुता का ह्रास हुआ है। बहुलतावादी नज़रिए की बजाय एक ही नज़रिए से चीज़ों को देखने पर ज़ोर दिया जा है। यहाँ तक कि राज्यसत्ता के विभिन्न संस्थानों को अनुदारवादी हमलों में सक्रिय भूमिका अदा करते देखा गया है।
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