मार्क्स से एकबार एक पत्रकार ने पूछा था कि मार्क्सवाद क्या है ? तो मार्क्स ने कहा कि यह स्वयं के ख़िलाफ़ संघर्ष है। तक़रीबन इससे मिलती - जुलती बात देरिदा ने अपने अंतिम साक्षात्कार में कहीं कि ' मैं स्वयं के ख़िलाफ़ युद्धरत हूँ ।'यह बात उन्होंने जिस समय कहीं उस समय वे गंभीर शारीरिक कष्टों और बीमारियों से जूझ रहे थे । तक़रीबन यही नज़रिया हिन्दी आलोचक नामवर सिंह का रहा है। वे निरंतर अपने कहे से संघर्ष करते रहे हैं।
पिछले दिनों उनको दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सुनने का मौक़ा मिला । ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित 'वाक्' नामक कार्यक्रम में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं जिनसे उनके अंदर की छटपटाहट का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनकी पहली गंभीर आलोचना तो यह थी कि उनसे लोग तीखे आलोचनात्मक सवाल नहीं पूछते,विश्वनाथ त्रिपाठी ने बातचीत की जो पृष्ठभूमि तैयार की थी उसकी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि आपने जिस तरह से पूछा है उससे तो सारी बातचीत संस्मरणात्मक होकर रह जाएगी, जबकि मैं चाहता हूँ कि लोग आलोचनात्मक सवाल करे। लेकिन जैसाकि होता रहा है उनसे किसी ने आलोचनात्मक सवाल नहीं पूछा ।
आमतौर पर नामवर सिंह स्वयं के प्रति बेहद क्रिटिकल रहते हैं और श्रोता लोग भक्ति भाव में डूबे रहते हैं। यह जटिल स्थिति है कि आलोचक तो क्रिटिकल है लेकिन जनता नहीं। इससे एकबात का अंदाज़ा लगता है कि आलोचना परिवेश का क्षय हुआ है ।
आलोचना परिवेश के क्षय में आलोचकों और लेखकों और हिन्दी विभागों के पठन- पाठन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नामवरजी ने इसी कार्यक्रम में कहा कि हमने विभागों सर्जना निर्माण के लिए विकास नहीं किया । कविता, कहानी आदि रचनात्मक विधाओं के लेखक तैयार नहीं किए। पीएचडी के पोथे लिखने वाले तैयार किए। इससे सर्जनात्मकता का विकास नहीं हुआ।
समस्या यह है कि स्वयं नामवरजी जब पढ़ाते थे तो उनका सर्जनात्मक प्रतिभाओं के प्रति द्वेषपूर्ण राजनीतिक रुख़ क्यों था ? वे निजी तौर पर सर्जनात्मक क़िस्म के मेधावी छात्रों को बढ़ावा देने की बजाय ग़ैर- सर्जनात्मक छात्रों को बढ़ावा क्यों देते रहे ? मसलन मनमोहन, असदजैदी,उदयप्रकाश, कुलदीप कुमार आदि को बढ़ावा देने की बजाय उनका ग़ैर- रचनात्मक क़िस्म के छात्रों की ओर झुकाव क्यों रहा ? यह बात मैं इसलिए रेखांकित कर रहा हूँ जिससे नामवरजी के ग़ैर- सर्जनात्मक मन की थाह ले सकूँ।
नामवरजी के कई मन हैं। कई नज़रिए हैं। सवाल यह है कि एक आलोचक को क्या कई मन रखने चाहिए ? यदि किसी आलोचक के पास कई मन हैं तो इसका अर्थ है कि वह उनका मन अवसरवादी है। नामवरजी कभी गंभीर आत्मालोचना क्यों नहीं करते कि उनके आलोचनात्मक विवेक और जीवन विवेक में गहरे अंतराल हैं जिनके ज़रिए अवसरवाद ने आलोचना में गहरी पैठ बना ली है।
नामवरजी की ख़ूबी है कि वे अपने निजी जीवन को निजी रखते हैं और उसको कभी सार्वजनिक बहस में नहीं आने देते । निजी के वे ही पहलू सामने आते हैं जो सार्वजनिक कर्म का हिस्सा रहे हैं । निजी और पब्लिक में नामवरजी का यह संतुलन देखने योग्य है।
नामवरजी ने बड़े ही तरीक़े से इस कार्यक्रम में बताया कि वे कैसे पढे , उन्होंने किससे भाषा सीखी , किनका उनके ऊपर असर था, साथ ही बेबाकी के साथ यह भी बताया कि किस तरह उन्होंने तीन सप्ताह के अंदर भारत भूषण अग्रवाल के कहने पर ' कविता के नए प्रतिमान' किताब लिखी , जिसे बाद में साहित्य अकादमी से पुरस्कृत किया गया। उन्होंने साफ़ कहा कि यह किताब तो मैंने साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए लिखी थी । यह किताब पांडित्यपूर्ण ज़्यादा है और इसमें आलोचना कम है।
नामवरजी की इस घटना से मुझे यह सवाल उठाने की इच्छा हो रही है कि हम कैसे जीएँ ? और किस तरह जीते रहे हैं ? हर लेखक को इन दोनों सवालों को अपने तरीक़े से खोलना चाहिए । नामवरजी ने कैसे जीएँ ? सवाल का हल कैसे निकाला इसका उत्तर उनके लंबे दैनन्दिन जीवन में फैला हुआ है जिसमें अनेक बातें हैं जिनको सीखने की ज़रुरत है मसलन् भाषा पर उनका जो अधिकार है वह चीज़ सीखने की है। वे बेहतर हिन्दी गद्य लिखते और बोलते हैं। उदात्त ,उत्तेजक और मधुर काव्यात्मक गद्य के उन्होंने बेहतरीन मानक बनाए हैं । इसके अलावा व्यक्तिगत जीवन में वे भ्रष्ट नहीं रहे हैं। उनके ऊपर पक्षपात और आत्मगत फ़ैसले लेने के आरोप लगते रहे हैं और हो सकता है इनमें से कई फ़ैसले ग़लत रहे हों लेकिन वे निजी तौर पर भ्रष्ट नहीं हैं। बौद्धिक ईमानदारी का उन्होंने भरसक पालन किया है।
ज्ञान को पढ़कर हासिल करना और अपडेट रखना उनकी महत्वपूर्ण विशेषता है। इसके अलावा उनकी जीवनशैली संगठित और सुनियोजित रही है। इसमें सुबह चार बजे उठना , पढ़ना और टहलना नियमित कार्य हैं । कोई भी घर आए तो आने देना कोई भी बुलाए तो उसके कार्यक्रम में जाना यह उनकी मिलनसारिता के गुण हैं। वे निजीतौर पर कभी किसी से ख़राब नहीं बोलते चाहे वो जितना ही ख़राब बोलता रहा हो। व्यवहार में उदात्तता को नामवरजी ने जिस तरह ढाला है वह सीखने लायक चीज़ है। नामवरजी के जीवन की धुरी उदात्त व्यवहार और उदार मूल्यों से बनी है।
इसमें गाँव के किसान का बोध है , इसमें महानगरीय जीवन की ध्वनियाँ हैं और बातें करेंगे तो इसमें ग्लोबल नागरिक का विश्वबोध भी है। वे लोकल और ग्लोबल एक ही साथ नज़र आते हैं। पहनावे और जीवनशैली में लोकल और नज़रिए में ग्लोबल या यों कहें खाँटी मार्क्सवादी की तरह विश्वदृष्टि से ओतप्रोत नज़र आते हैं ।
नामवरजी के आसपास या दूर रहने वाले लोग यह सोचते हैं कि वे अपने छात्रों को रचते रहे हैं, बनाते रहे हैं, लेकिन सच यह नहीं है। नामवरजी ने किसी को नहीं बनाया। निर्मित करना उनकी पद्धति और नज़रिए का अंग कभी नहीं है। यह बात मैं इसलिए उठा रहा हूँ क्योंकि अनेक लोग यह सवाल उठाते रहे हैं कि नामवरजी ने क्या निर्मित करके दिया ? कैसा विभाग दिया ? कितने मेधावी तैयार किए?
असलमें , नामवरजी ने हमें यह बताया कि कैसे जिएँ । इससे यह निष्कर्ष न निकालें कि वे निर्मित करते रहे हैं।किताब कैसे पढें? किताबों और जीवन के विविध आयामों से जुड़े सवालों को कैसे देखें ? यह उनकी अकादमिक शिक्षा का हिस्सा है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे बंदे तैयार करते रहे हैं। एक अच्छे शिक्षक का काम है बताना , समझाना न कि निर्मित करना। परिवार, परंपरा,साहित्य, कला, राज्य, पति-पत्नी संबंध, प्रेम, राजनीति आदि के विभिन्न जटिल पक्षों को वे विभिन्न बहानों के ज़रिए छात्रों के सामने रखते रहे हैं। इसमें ही जीवन जीने की कला के सूत्र भी देते रहे हैं यानी कैसे जीएँ के मंत्र बताते रहे हैं।
इस समूची प्रक्रिया में सवाल यह भी उठा कि हम ज्ञान के लिए जी रहे हैं या सामाजिक ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जी रहे हैं? किसके लिए पढ़ रहे हैं ? ज्ञानार्जन के लिए या समाज को बदलने के लिए ? नामवरजी का एक ही उत्तर होता था कि शिक्षा का लक्ष्य है सामाजिक परिवर्तन न कि ज्ञानार्जन। कैसे जिएँ और कैसे मरें , यह कला हमें सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल होकर सीखनी चाहिए।
नामवरजी पर बातें करते समय उनके आलोचक और बाग़ी भाव की ख़ूब बातें होती हैं लेकिन जो बात उनकी रचना से लेकर व्यवहार तक फैली है और जिसका ज़िक्र नहीं होता वह है उनका मानवाधिकारवादी नज़रिया।
नामवरजी स्वभाव से मानवाधिकारों के कट्टर पक्षधर हैं और मैंने अनेकबार उनको बहुत क़रीब से जानने और समझने की कोशिश की है तो पाया है कि मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में रहने के कारण वे अनेकबार अपनी विचारधारा का , मार्क्सवाद का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। आपातकाल की चूक केअलावा वे समूचे जीवनकाल मानवाधिकारों के पक्ष में बोलते और लिखते रहे । उनकी समीक्षा को मार्क्सवाद की कसौटी पर कसने की बजाय मानवाधिकार के पैमानों पर देखा जाए तो ज़्यादा बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं।
वे जीवन की निरंतरता को साहित्य की निरंतरता में खोजते हैं ,जिसे वे परंपराओं की खोज कहते हैं। उनका मानना है कि भारत में एक नहीं अनेक परंपराएँ हैं। परंपरा की खोज का अर्थ मृत तत्वों की खोज करना नहीं है बल्कि जीवंत तत्वों की खोज करना है यही वह बिंदु है जहाँ से वे जीवंत के साथ जुड़ने का नज़रिया देते हैं। जीवन जीने की कला का एक नया मंत्र देते हैं कि जीना है तो जीवंत रहो और जीवंत से जुड़ो।यही जीवंतता असल में आलोचना में मानवाधिकार है ।
हमने कभी गंभीरता के साथ मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य के आधार पर धारणाएँ बनाने या समीक्षा का मूल्याँकन करने का प्रयास नहीं किया । हम हमेशा तयशुदा धारणाओं में सोचते रहे हैं इससे आलोचना की क्षति हुई है।
नामवरजी का बाग़ी भाव मंच पर बहुत अपील करता है और इस बाग़ी भाव को अनेक लोग मार्क्सवादी भाव समझते रहे हैं। नामवरजी के मंचीय बाग़ी भाव का मार्क्सवाद से कोई लेना देना नहीं है। यह अनेकबार नाॅस्टेल्जिया के रुप में आता रहा है।
नामवरजी की वक्तृता शैली में नाॅस्टेल्जिया जब भी आता है तो बाग़ी होकर ही आता है। बाग़ी भाव में वे जब भी बोलते हैं तो भिन्न रंग में नज़र आते हैं क्योंकि कोई न कोई समस्या उनको अंदर से उद्वेलित करती है और इसके समाधान को वे बाग़ी भावबोध में खोजने की कोशिश करते हैं।इसके चलते वे अपने ही नज़रिए से मुठभेड़ करते नज़र आते हैं। सभी लोग यही शिकायत करते हैं इसबार नामवरजी ने अपनी पुरानी बात का खंडन कर डाला या जो लिखा है उसकी ही आलोचना कर दी।
नामवरजी के बाग़ी का नाॅस्टेल्जिया अंततः स्वयं उनके ही ख़िलाफ़ ले जाता है क्योंकि वे समस्या विशेष से परेशान रहते हैं और यही परेशानी उनको बार -बार बाग़ी बनाती है, नास्टेल्जिक बनाती है, परंपरा की ओर ले जाती है। वे जीवंत तत्वों की खोज करते हैं और इस क्रम में अपने को प्रासंगिक बनाते हैं, मंचों पर अपनी माँग बनाए रखते हैं, हर खेमे में माँग बनाए रखते हैं। यह उनके मंचीय तौर पर ज़िन्दा बने रहने का मंत्र है।
नामवरजी जब मंच पर होते हैं तो मंच पर होने से ज़्यादा मंच के बाद याद किए जाएँ इसमें उनकी दिलचस्पी ज़्यादा होती है। अनेक वक़्ता मंच पर ही अप्रासंगिक हो जाते हैं लेकिन नामवरजी के साथ ऐसा नहीं है वे मंच पर बोलते हुए तो प्रासंगिक रहते हैं उनके भाषणों को लोग बाद में भी याद रखते हैं, उद्धृत करते हैं और अब तो अनेक किताबें बाज़ार में हैं ,जिनमें उनके भाषण हैं। इनमें प्रासंगिक विचार भरे पड़े हैं। इन विचारों की बुनियाद है जीवंतता ।
नामवरजी के विचारों को हमें परंपरागत प्रतिबद्धता के दायरे के बाहर रखकर देखना होगा। वे बहुलतावादी प्रतिबद्धता को अभिव्यंजित करते हैं। वे महज़ पार्टी प्रतिबद्धता या वर्गीय प्रतिबद्धता के आधार पर समझ में नहीं आ सकते। बहुलतावादी प्रतिबद्धता का दायरा व्यापक है और इसमें विभिन्न विचारधाराओं के लिए जगह है। नामवरजी ने वर्गीय प्रतिबद्धता से बहुलतावादी प्रतिबद्धता के दायरे में कब प्रवेश किया इसका सही से वर्ष बताना मुश्किल है लेकिन वे आज़ादी के बाद क्रमश: इस दिशा में सचेत रुप से शिफ़्ट करते हैं और यह बहुलतावाद उनके वैचारिक नज़रिए को भी प्रभावित करता है जिसके कारण वे कम्युनिस्ट पार्टी से बाहर निकल आते हैं। नामवरजी की प्रतिबद्धताएँ वर्ग से निकलकर बहुलतावादी संरचनाओं की ओर चली जाती हैं और वे विगत छह दशकों से इसे समृद्ध कर रहे हैं । 'कविता के नए प्रतिमान'असल में बहुलतावादी नज़रिए की ही अभिव्यक्ति है। वहाँ सलीक़े से अंतर्विषयवर्ती पद्धति का वे समीक्षा की धारणाओं लिए इस्तेमाल करते हैं । मज़ेदार बात है कि यह बहुलतावाद अकेले नामवरजी में ही नहीं है बल्कि हिन्दी के अधिकांश आलोचकों में है और इसकी शुरुआत मुक्तिबोध से होती है।
नामवरजी के नज़रिए में ' मैं' और ' सामाजिक' का द्वंद्व है। इसमें उनका 'मैं' हारा है ,और ' सामाजिक' जीता है। नामवरजी ने' आत्म- संरक्षण' की कभी कोशिश नहीं की। उनका ' मैं' बार-बार पदों पर ठेलता है लेकिन ' सामाजिक' हमेशा बाहर खींचता है। इसमें कईबार उनका 'मैं' जीता है ,और ' सामाजिक' हारा है।
नामवरजी के लिए भाषण अंतहीन क्रांति है। वे लगातार भाषण देते रहे हैं। भाषण देने को न मिले तो बेचैन रहते हैं, दो दिन के बाद यदि उनके बयान पर चर्चा बंद हो जाए तो उद्विग्न हो जाते हैं , नए मंच की तलाश में वे अपनी अंतहीन भाषण क्रांति को साकार करते रहे हैं। नामवरजी के लिए तो भाषण ही क्रांति है।वे मंच के अनुकूल और दर्शकों के अनुकूल बोलने की कला में दक्ष हैं। वे बोलते समय किसी एक घटना विशेष को आधार बनाकर नई से नई धारणा का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। इसके आधार पर वे हर क़िस्म के दर्शकों का मन जीतने में सफल रहे हैं। वे इस तरह दर्शकों को तो आकर्षित कर लेते हैं लेकिन शिक्षित नहीं कर पाते। क्योंकि श्रोता जानते हैं कि नामवरजी किस स्कीम के तहत बोल रहे हैं।फलत: औसत श्रोता को वे अपील करते हैं लेकिन गंभीर श्रोताओं को निराश करते हैं।
नामवरजी के लिए साहित्य की कसौटियों के सवाल हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं अत: कसौटियों पर बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में विचार करने की ज़रुरत है।
ग़ौर करें तो इनदिनों हर लेखक अपनी विचारधारा को वैध मानकर चल रहा है। वैधता की कसौटी पर हर लेखक की विचारधारा ज़रुरी नहीं है कि खरी उतरे। जिस तरह प्रत्येक लेखक वैध नहीं हो सकता उसी तरह प्रत्येक विचारधारा भी वैध नहीं हो सकती । क़ायदे से हमें वैधता की कसौटियाँ खोजनी होंगी ।
साहित्य में वैधता की कसौटियाँ बदलती रही हैं। कल तक समाजवाद की कसौटी वैध थी लेकिन आज वैध नहीं लगती। १३वीं सदी से लेकर १८वीं सदी तक अनेक सामंती कसौटियाँ वैध लगती थीं लेकिन १९वीं सदी आने के साथ सामंती कसौटियाँ वैध नहीं रह गयीं। १९वीं सदी में पूँजीवादी कसौटियाँ वैध लगने लगीं।
यही हाल समाजवादी कसौटियों का है बीसवीं सदी के आठवें दशक तक समाजवादी कसौटियां वैध थीं , कालांतर में वे ही कसौटियाँ अवैध लगने लगीं। इसी तरह साहित्य में हमने लंबे समय तक भारतेन्दु साहित्य के आधार पर साहित्यिक कसौटियाँ बनायीं लेकिन छायावाद के दौर में वे अप्रासंगिक लगने लगीं। यहाँ तक कि साहित्य की अवधारणा भी बदल गयी।
इसी तरह प्रगतिवाद के दौर में साहित्य की नयी कसौटियाँ सामने आईं और स्वयं छायावादी लेखकों ने अपनी बनायी कसौटियों को छोड़ दिया और प्रगतिवाद की कसौटियों को अपना लिया। जिन लेखकों ने प्रगतिशील आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायी उनको चंद वर्षों में प्रगतिवाद की कसौटियाँ अप्रासंगिक लगने लगीं और आधुनिकतावादी कसौटियाँ वैध लगने लगीं। कसौटियों में निरंतर आए बदलाव बताते हैं कि कसौटियाँ बदलती रही हैं। कसौटियाँ जड़ नहीं होतीं। लेकिन लेखकों का एकवर्ग ऐसा भी है जो कसौटियों को बदलना नहीं चाहता। मसलन् अनेक प्रगतिशील लेखक आज भी समाज और साहित्य को समाजवाद की कसौटियों के आधार पर देख रहे हैं। जबकि जिन देशों के समाजवादी प्रयोगों से ये लेखक प्रभावित हैं उन देशों में समाजवाद का अंत हो चुका है। यही हाल भूमंडलीकरण के गर्भ से उपजी साहित्यिक कसौटियों की है। भूमंडलीकरण के गर्भ से उपजी कसौटियाँ हाशिए पर जा चुकी हैं।
कसौटियों को शाश्वत मानना रीतिवाद है। हमारे लेखक की मनोदशा यह है कि वह एकबार किसी कसौटी को अपना लेता है तो उससे सारी ज़िन्दगी बँधा रहता है। लेखक की मनोदशा ऐसी क्यों है कि वह कसौटियाँ नहीं बदलता ? कसौटियों का पुनर्मूल्यांकन नहीं करता ?
साहित्य में कसौटियों का बार- बार मूल्याँकन करने की ज़रुरत है। हमने अंतर्वस्तु से लेकर रुप -तत्व तक के सभी मानकों का पुनर्मूल्यांकन क्यों नहीं किया ? कुछ ख़ास लेखकों के पसंदीदा मूल्यांकनों के ज़रिए हम कसौटियों के बदलने की प्रक्रिया को समझ ही नहीं सकते।
प्रत्येक कसौटी और विचार के पुनर्मूल्यांकन की ज़रुरत हमेशा बनी रहती है। पुनर्मूल्यांकन ही कसौटियों को वैध बनाता है। कसौटी की वैधता पर विचार करते समय हमें रुपान्तरण के बिन्दुओं पर नजर रखनी होगी । स्थिर मूल्यबोध के दायरे के बाहर निकलना होगा ।
वैधता के सवालों पर बात करते समय हमें मूल्यों के विवेकवादी विमर्श को सामने लाने की ज़रुरत है । हमने इन दिनों आमफहम बातचीत या स्टीरियोटाइप विमर्श या तर्कों को ही ज्ञान विमर्श बना लिया है और विचारों की गतिशीलता और विवेकवाद को ठंडे बस्ते में डाल दिया है ।
मूल्यों के नाम पर जो भी विमर्श आ रहा है राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ यांत्रिक संबंध बनाकर आ रहा है। चूँकि यह दौर नव्य आर्थिक नीतियों का है तो बिना विवेकवादी पड़ताल किए यांत्रिक ढंग से भूमंडलीकरण पर सरलीकरणों के ज़रिए बातें हो रही हैं। ख़ूब लिखा जा रहा है।
इस समूची प्रक्रिया में लेखक का सामयिक राजनीति और मूल्य व्यवस्था से अलगाव बढा है । लेखकों के मन में पूँजीवाद के तर्क को जाने बिना उसके प्रति घृणा पुख़्ता हुई है या लगाव बढ़ा है। यह फंडामेंटलिज्म है जो पुराने समाजवादियों , उपभोक्तावादियों और नए धार्मिक कठमुल्लों में देखने को मिलता है।
आयरनी यह है कि लेखक को विकास चाहिए लेकिन भूमंडलीकरण के बिना, माॅल चाहिए या नई जीवनशैली चाहिए नए मूल्यबोध के बिना। अनेक इलाक़ों में ड्रेसकोड ,मोबाइल आदि के साथ लड़कियों के संबंधों को लेकर तनाव पैदा हुआ है। प्राइवेसी के सवाल उठे हैं।इस क्रम में परंपरागत कम्युनिकेशन और जनसंचार के बीच में तनाव पैदा हुआ है ।
परंपरागत कम्युनिकेशन पुरानी नैतिकता के आधार पर प्रसारित हो रहा है जबकि जनसंचार नई पूँजीवादी अबाध संचार के आधार पर सम्प्रेषण कर रहा है ।इन दोनों दृष्टियों में विवेकवादीदृष्टि नदारत है। यह दोनों अतिवादी छोर हैं। इस तरह के संचार रुपों के ज़रिए हम जनता की इच्छाओं की सही ढंग से पड़ताल नहीं कर सकते।
इसी तरह पुरानी नैतिकता या सामंती हेकड़ियों के आधार पर नैतिकता के सम्प्रेषण को वैध नहीं माना जा सकता । उसी तरह अबाध कम्युनिकेशन भी इस तनाव को दूर करने का समाधान नहीं है । कम्युनिकेशन के इन दोनों रुपों के बीच तनाव पैदा हुआ है ।
इस दौर में लेखकों के एक बड़े समुदाय में 'गतिहीन अ-राजनीतिक चेतना 'ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। वे लेखक या उसकी रचना का विचारधारारहित मूल्याँकन कर रहे हैं। संयोग से यह काम वे लोग कर रहे हैं जो प्रगतिशील समीक्षक कहलाते हैं ।
आज के दौर की पहली चुनौती है कि लेखन और लेखक के जीवन में 'अ-राजनीतिक 'माहौल ख़त्म किया जाय। 'अ-राजनीतिक 'माहौल के कारण सांस्कृतिक क्षय की ओर हम ध्यान ही नहीं दे पा रहे हैं । 'अ-राजनीति 'की सीमाओं को गिराए बिना कोई भी बड़ा परिवर्तन समाज में लाना संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में हमेशा राज्य के हस्तक्षेप की माँग उठती है या फिर न्यायालयों से हस्तक्षेप की माँग करते हैं ।
साहित्य में व्याप्त अ-राजनीतिक माहौल में दलगत प्रतिबद्धता ने बड़ी भूमिका अदा की है।
लेखक की मंशा की साहित्य की अभिव्यक्तियाँ विश्लेषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है । समस्या यह है कि हमने लेखक की मंशाओं के निर्माण की प्रक्रियाओं की ओर ध्यान नहीं दिया।
लेखक की मंशा को वे चीज़ें प्रभावित करती हैं जिनको लेखक जानता है वे चीज़ें और प्रक्रियाएँ भी प्रभावित करती हैं जिनको वह नहीं जानता! मंशा के ज्ञात -अज्ञात स्रोतों की खोज करना आलोचना का काम है । मंशा को निर्मित करने में लेखक का समसामयिक समय तो प्रभावित करता ही है अतीत का समय भी अनेक मामलों में पीछा करता है। अभिव्यक्ति के रुपों में अतीत के साथ कहीं कशमकश मिलती है तो कहीं अतीत से मुक्त होने की छटपटाहट मिलती है ।
इसी तरह लेखक के प्रेरक स्रोतों की भी खोज की जानी चाहिए । प्रेरक स्रोतों में हम अमूमन उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को ही मुख्य रुप में विवेचित करते रहे हैं। उसके परिवार , मित्र, बचपन आदि को कभी न तो कृति के साथ जोड़कर देखा और नहीं आत्मकथाओं में दिखाई दिया।
यह विलक्षण बात है कि बचपन का अधिकांश लेखकों की आत्मकथाओं में वर्णन नहीं मिलता। बचपन के साथियों और पड़ोसियों का ज़िक्र नहीं मिलता। बचपन के बिना लेखक की आत्मकथा कैसे बन सकती है? पड़ोसियों के वर्णन और ब्यौरों के बिना कैसे कोई लेखक बड़ा हो सकता है ?
कभी हमने राजनीतिक विचारधारा से इतर कारकों जैसे बाज़ार की शक्तियों और मीडिया के प्रेरक तत्वों की भूमिका पर सकारात्मक ढंग से विचार ही नहीं किया । पूँजीवाद या परवर्ती पूँजीवाद के स्टीरियोटाइप रुपों की कभी मीमांसा नहीं की। पूँजीवाद और परवर्ती पूँजीवाद में सर्जनात्मक सक्रियता बनाने वाले तत्वों को हमने कभी खोलकर विश्लेषित नहीं किया।
लेखक को पूँजीवादी व्यवस्था के कौन से तत्व या मूल्य प्रेरित करते हैं ?या उसे लिखने के लिए उदबुद्ध करते हैं? इसी तरह राज्य के कौन से तत्व हैं जो लेखक को उदबुद्ध करते हैं ? इत्यादि सवालों पर हमने कभी गंभीर बहस नहीं चलायी।
लेखक के सामने संकट यह है कि वह नहीं जानता कि वह जिन मूल्यों को जीता है वे राज्य निर्मित हैं। राज्य निर्मित मूल्यों और नैतिकता के मानकों के दायरे में रहकर ही वह अपना सृजन करता है। राज्य निर्मित मूल्य लेखक को जब अप्रासंगिक लगते हैं तो उसके पहले वे राज्य को भी अप्रासंगिक लगने लगते हैं। वास्तव में यही लगता है कि लेखक पुराने मूल्यों को चुनौती दे रहा है लेकिन वस्तुत: वह राज्यनिर्मित मूल्यों में आए तनावों और अन्तर्विरोधों को अभिव्यंजना देता है। जो अंतर्विरोध लेखक की रचना में नज़र आते हैं वे असल में पहले राज्य महसूस करता है।राज्य सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को ही नियमित नहीं करता बल्कि संस्कृति को भी नियमित करता है। राज्य जब प्रेरक बनकर आता है तो लेखक के प्रेरणास्रोतों में तनाव, बेचैनी और टकराव पैदा कर देता है।
राज्य ने जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। ड्रेस बदली है,खान-पान बदला है, मित्रता के मानक बदले हैं। वर्गसंघर्ष को और भी मुश्किल बना दिया है। राज्य स्वयं अपने बनाए मानकों को बनाए रखने में असमर्थ साबित हुआ है। मसलन अनेक इलाक़ों में जातीय सहिष्णुता का ह्रास हुआ है। बहुलतावादी नज़रिए की बजाय एक ही नज़रिए से चीज़ों को देखने पर ज़ोर दिया जा है। यहाँ तक कि राज्यसत्ता के विभिन्न संस्थानों को अनुदारवादी हमलों में सक्रिय भूमिका अदा करते देखा गया है।
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