माँ के बारे में लिखना बेहद मुश्किल काम है।सामने वो प्रशंसा सुनती नहीं थी, इस समय वो मौजूद नहीं है। जब तक रही अपार ऊर्जाका स्रोत बनी रही। हम सब भाई-बहन बेहद खुश रहते थे। कभी किसी चीज के बारे मेंमैंने निजी तौर पर कमी महसूस नहीं की। वह हम सबकी सामाजिक ताकत थी। माँ का जन्म जिसपरिवार में हुआ वह मथुरा के पढ़े-लिखे परिवारों में से एक बेहतरीन परिवारथा। उस परिवार के पास बेहतरीनसांस्कृतिक और बौद्धिक परंपराएं थीं,नानाजी सोहनलाल चतुर्वेदी संगीत के विद्वान थे, दोनों मामा पक्के खांटीमार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। मथुरा के चौबों की पंडिताई-प्रोहिताई की परंपरा सेमुक्त इस परिवार में तमाम किस्म के आधुनिक संस्कार थे। माँ बचपन में टाइफायडके कारण गूंगी-बहरी हो गई, इसके अलावा उसकी छोटी उम्र में ही शादी भी हो गयी,शादी तकरीबन 6-7साल की उम्र में हुई,सात साल बाद द्विरागमन हुआ, वह मुश्किल से15-16साल की रही होगी जब मेरा जन्म हुआ। वह जब तक जिंदा रही मैं अधिकांश समय छायाकी तरह उसके साथ रहा। वह पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन शिक्षा की ताकत जानती थी, नएविचारों और खासकर प्रगतिशील विचारों को व्यवहार से पहचानती और मानती थी। प्रगतिशीलविचारों का संस्कार मुझे माँ से ही मिला।
माँके अंदर विलक्षण शारीरिक क्षमता थी और वह इसका अपने परिवार के साथ ,अपनी माँ औरनानी की मदद के लिए जमकर इस्तेमाल करती थी, उसके पास कभी खाली समय नहीं होता था,वहबेहद संगठित थी और परिवार के दूसरे लोगों की मदद करने में उसकी गहरी रुचि थी। आजकललड़कियों में जिस तरह घरेलू काम के प्रति अरुचि दिखती है,वह उसमें एकदम नहींथी। हमलोगों का संयुक्त परिवार था,तीनआंगन का बड़ा घर था और उसमें नौ कमरे थे, मेरी दादी और माँ ये दोनों उस घर की एकतरह स्वामिनी थीं,ताई मस्त थी ,उसकी घरेलू कामों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, वहसुबह होते ही यमुना नहाने, मंदिरों में दर्शन करने चली जाती थी,वहां से समय बचतातो गप्प करने अपनी माँ के यहां चली जाती और दोपहर खाने के वक्त घर लौटती । ऐसी अवस्था में संयुक्तपरिवार के समस्त घरेलू काम माँ और दादी मिलकर करते थे, घर में कोई नौकर नहींथा।
कालान्तर में परिवार मेंबंटबारा हो जाने बाद माँ ने घर के काम के साथ मंदिर की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लीऔर पिता को उस काम में मदद की, मंदिर का काम बहुत ही परिश्रम साध्य था,वह घर औरमंदिर के काम में सुंदर संतुलन बनाकर काम करती थी और धीरे धीरे उसने पिता को मंदिरसे तकरीबन मुक्त ही कर दिया था।
माँ केअंदर यह भावबोध था कि वह जिस परिवार में जन्मी है वह बहुत पढ़ा लिखा सांस्कृतिक तौरपर समृद्ध परिवार है। इसलिए उसकी यह मंशा थी कि मैं खूब पढूँ । संयोग की बात थीमेरे तीन भाई-बहन कम उम्र में ही विभिन्न बीमारियों के कारण मर गए। बाद में हम दोभाई बच गए । मेरे छोटे भाई की पढ़ने में कोई रुचि नहीं थी। लेकिन मेरी रुचि थी, इसरुचि को बनाने में परिवार के अन्य सदस्यों जैसे माता-पिता के अलावा दोनों मामा कीभी भूमिका रही है। लेकिन मैं नियमित संगठित ढ़ंग से पढूँ इस भावबोध को निर्मितकरने में माँ की केन्द्रीय भूमिका थी। माँ के कारण ही यह संभव हो पाया किचौदह-पन्द्रह साल की उम्र में ही मेरे लिए अलग से कमरा बनवा दिया गया जिसमेंपढ़ने-सोने की व्यवस्था के साथ एक रेडियो भी लगवा दिया गया जिससे में अपडेट करकेरहूँ।
मैं वैसे संस्कृत पाठशालामें पढ़ता था लेकिन माँ के संस्कारों के असर के कारण मुझे स्वतंत्र रुप सेकमरा मिला,इसने मेरे अंदर आधुनिक भावबोध ने जगह बनाने में मदद की। मैंने अधिकांश आधुनिकबातें माँ से ही सीखीं। माँ के कारण मुझे स्वतंत्र कमरा मिला,यह मेरे जीवन की सबसेबड़ी घटना थी, मेरे किसी भी संगी-साथी के पास अपना निजी कमरा नहीं था। इसके अलावा मुझेरोज सुबह चार बजे जगाने का काम भी माँ करती थी।
मैं सुबह उठकर पढता था और माँ केसाथ में एक कप चाय भी पीता था, चाय पिलाकरवह चली जाती थी, लेकिन नजर रखती थी कि मैं कहीं बाद सो न जाऊँ, यदि कभी सोने कीकोशिश करता तो आकर जगा देती थी, उसका मानना था सुबह पढ़ने से चीजें जल्दी याद हो जाती हैं औरसारी जिन्दगी मन में रहती हैं। खैर, बचपन में सुबह चार बजे उठने की जो आदत उसनेडाली वह आज भी मेरी सबसे बड़ी ताकत है ।
मित्रलोग पूछते हैं मैं लिखता-पढ़ता कब हूँ, मैंयही कहता हूँ सुबह चार बजे।बचपन में संस्कार बना कि सुबह चार बजे उठने का मतलब हैमाँ से जुड़े रहना।किताबें पढ़ने का मतलब है माँ से जुड़े रहना।
बाद में 1967-68 में माँके दबाव के कारण ही मुझे एकदम नया जापानी टेपरिकॉर्डर मेरे पिता ने खरीदकर दिया।जो मेरे पास अभी तक सुरक्षित है। संभवतः कम्युनिकेशन के संस्कार बनाने और बाद मेंकम्युनिकेशन और मीडिया पर लिखने की आदत इससे ही पड़ी। मैं तो यही सोचता हूँ कि माँये कम्युनिकेशन और स्वाध्याय के संस्कार न बनाती तो मैं लिख ही नहीं पाता।
माँ के लिए वह क्षण बड़ा ही महत्वपूर्ण होता थाजब मैं परीक्षा में पास होता था, वह श्रेणी नहीं समझती थी,पास-फेल समझती थी। मुझेयाद है मैंने जब शास्त्री की परीक्षा पास की,तो वह बेहद खुश हुई थी ,उसने पिता कोबुलाकर कहा ,आज मैं बहुत खुश हूं मेरा बेटा तुमसे ज्यादा पढ़ गया। मेरे पिताशास्त्री प्रथम वर्ष तक पढ़ाई कर पाए, धनाभाव और घरेलू जिम्मेदीरियों की वजह से वेआगे नहीं पढ़ पाए,मैंने जब शास्त्री द्वितीय वर्ष की परीक्षा पास की तो मैंने उसेसमझाया कि मैं पिता से पढाई में आगे निकल गया हूँ तो वह बेइंतहा खुश हुई, यह अजीबसंयोग ही था कि मेरा शास्त्री का परीक्षाफल आने के चार दिन बाद ही सन् 1976 में उसकी अचानकहृदयाघात के कारण मौत हो गयी।
मां सिर्फ जैविक नही होती संस्कारों को भी जन्म देती है |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा दादा