कानून के खिलाफ बोलना
या न्याय का विरोध करना अपने आपमें जोखिम का काम है, आमतौर पर भारत में जो कानून के जानकार या
विशेषज्ञ हैं वे कानून के दार्शनिक-वैचारिक पहलुओं पर कम बोलते हैं । सामान्य तौर पर पूंजीवादी समाज में
कानून के पास फरियाद लेकर जाओ तब कानून हस्तक्षेप करता है, अपनी पहल पर वह कभी
हस्तक्षेप नहीं करता। इससे यह भी पता चलता है कि कानून में निजी पहलकदमी का अभाव
है। कानून की धुरी न्याय नहीं है, बल्कि युक्तियां और फैसले हैं,न्याय की परंपरा
है, फैसलों की परंपरा है।फलतःकानून किताबों और दलीलों का विशाल जंजाल है।
न्यायालयों में वही नियम
लागू होता है जो समाज में लागू होता है। समाज जिस तरह बल प्रयोग के आधार पर चलता है, वैसे ही बल
के आधार पर लोकतंत्र भी चलता है,उसी तरह न्यायालयों में भी बल के आधार पर ही फैसले
होते हैं। अदालत के अंदर बली होने के लिए
जरुरी है कि आप जमकर पैसा फेंकें और अदालत में बल का प्रदर्शन करें। बड़े से बड़े
वकील को खड़ा करें। बड़े वकील का मतलब ज्यादा फीस और मुकदमा लड़ने वाले की ताकत ।
इसीलिए यह कहते हैं कि कानून का समूचा दारोमदार न्यायिक बल -संतुलन पर टिका है।
जिस तरह हिंसा में बल की भूमिका होती है ,उसी तरह कानून में भी बल की भूमिका होती
है।
कहने के लिए लोकतंत्र आम
आदमी के ऊपर टिका है लेकिन वस्तुगत तौर पर देखें तो लोकतंत्र सामाजिक-आर्थिक शक्ति
संतुलन पर टिका है। लोकतंत्र में वही सफल है जो अपने पक्ष में सामाजिक-आर्थिक
शक्ति संतुलन एकत्रित करने में सफल हो जाता है। मसलन् नरेन्द्र मोदी की जीत के
पीछे मात्र 31फीसदी वोटरों की भूमिका है 69फीसदी वोटर उनके खिलाफ हैं ,लेकिन
आर्थिक शक्तियों का संतुलन वे अपने पक्ष में लामबंद करने में सफल हो गए और पीएम बन
गए।
समग्रता
में अदालतों में वही सफल होता है जिसके पास ताकत है,संसाधनों की शक्ति है। न्याय
के आधार पर अदालतों में फैसले नहीं होते, अदालतों में फैसले तो न्यायबल के आधार पर
होते हैं, न्यायबल में महत्वपूर्ण न्याय नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण है 'बल' । पूंजीवादी न्याय में असमानता
अन्तर्निहत है, वह सतह पर समानता का लाख जयगान करे लेकिन व्यवहार में वह असमानता
को ही तरजीह देता है। असमानता का आचरण करता है। यह असमान व्यवहार चौतरफा सहज ही
देख सकते हैं। भारतीय न्याय प्रणाली की मूलभूत अनुभवजन्य विशेषता है कि कानून
स्वयं जिन बातों का दावा करता है उन बातों का पालन नहीं करता। मसलन् कानू यह दावा
करता है कि वह करप्ट नहीं है लेकिन यह पाया गया कि भारत के सुप्रीमकोर्ट के 9 में
से 7मुख्यन्यायाधीश करप्ट थे जिनके बारे में प्रसिद्ध कानूनविद शांतिभूषण ने सीधे
आरोप लगाया था। कानून में करप्शन का स्रोत है नियमहीनता का सिद्धांत। मसलन्,
न्यायालयों में वकीलों की फीस का कोई नियम नहीं है, वकील लोग मनमानी फीस लेते
हैं,सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अलत तक हमें करप्शन के दर्शन सहज ही मिल जाएंगे।
अदालत से यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि वकीलों की फीस का मानक क्यों नहीं बनाया गया
? क्यों किसी वकील की फीस करोडों में होती है और किसी की हजारों में होती है ?
क्या न्यायालय को पता नहीं है कि आम आदमी की आमदनी कितनी है ? सारी दुनिया को
ईमानदारी,नियम,पारदर्शिता का उपदेश देने वाली न्यायपालिका में इतनी अंधेरगर्दी
क्यों है ? प्रमाण और फैसलों के जंजाल में न्याय पाना आज सबसे मुश्किल काम है।
कानून की किताबें सहज,सरल और छोटी क्यों नहीं होती ?
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