प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी के शासन को एक साल हो गया।इस एक साल में मोदी की बहुत सारी खूबियां और
खामियां सामने आई हैं। मोदी की सबसे बड़ी खामी यह है कि उसने कारपोरेट मीडिया में
स्व-सेंसरशिप लागू कराकर अभिव्यक्ति के दायरे को ही सीमित कर दिया है। कायदे से
प्रधानमंत्री बनने के बाद मीडिया कवरेज में कमी आनी चाहिए।
कवरेज तब अच्छा लगता है जब
पीएम या उनके मंत्री कोई नया काम कर रहे हों, नीतियां लागू कर रहे हों, खबर बना
रहे हों। लेकिन अफसोस की बात यह है कि मोदी ने चुनाव अभियान में जो पद्धति अपनायी
उसे पीएम बनने के बाद भी जारी रखा। चुनाव के पहले वे सत्ता के प्रत्याशी थे लेकिन
पीएम बनने के बाद वे देश के प्रधानमंत्री हैं, देश का प्रधानमंत्री यदि बंधुआ
मीडिया की परिकल्पना को साकार करने लगे तो यह तो लोकतंत्र की सबसे बड़ी कु-सेवा
है।
पीएम मोदी को मीडिया को
भांड़ और भोंपू बनाने के लिए कभी क्षमा नहीं किया जा सकता। कम से कम कांग्रेस पर
विगत दस सालों में यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि मीडिया को पीएम ने बंधुआ बनाने
की कोशिश की थी। इन दिनों मीडिया के मालिकों पर पीएम दफ्तर का दबाव इस कदर हावी है
कि हर चैनल मोदी –मोदी की रट लगाए हुए है। यह मोदी की लोकतांत्रिक इमेज की नहीं
बल्कि तानाशाह इमेज की ओर संकेत है। उम्मीद थी कि लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया
कमोबेश मोदी के प्रौपेगैण्डा से मुक्त होकर काम करेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।
अधिकांश मीडिया घराने मोदी की चाटुकारिता में आपातकाल के दौर को भी काफी पीछे छोड़
चुके हैं। इस नजरिए से देखें तो नरेन्द्र मोदी का पहला वर्ष मीडिया के एकवर्ग को
बधिया बनाने का वर्ष कहा जाएगा। हमें देखना है कि मीडिया का कब मोदी से मोहभंग
होता है।
मीडिया के मोहपाश को यदि देखना हो तो मीडिया
में मोदी के शारीरिक हाव-भाव पर आ रहे विवेचन और विश्लेषणों को पढ़ें। बॉडी
लैंग्वेज के नाम पर जो विवेचन आ रहे हैं,वे कमोबेश उसी पैटर्न का अंग हैं जिसमें मीडिया
को बंधुआ भाव में रहना है।
सवाल यह है कि मोदी किस तरह
के मूल्यों को प्रचारित –प्रसारित कर रहे हैं ? उनकी
कायिक भंगिमाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं या उनकी मूल्यदृष्टि ? इस पर संपादकगण चुप क्यों हैं ? पहले
हम देखें कि कायिक भंगिमाओं पर संपादक क्या सोच रहे हैं , मसलन्, बिजनेस स्टैंडर्ड
के संपादक टी.एन.नाइनन ने (22मई2015 ) लिखा है
'' यह
बात जिज्ञासा जगाती है कि नरेंद्र मोदी जब स्वदेश में होते हैं तो वह शायद ही कभी
मुस्कराते हों लेकिन जब वह विदेश में होते हैं तो कैमरा अक्सर उनको मुस्कराते,
हंसते और दमकते हुए दर्ज करता है। देश में वह कठोर या भावशून्य नजर
आते हैं। उनकी भाव भंगिमा में गंभीरता, अधिकार और गहन
उद्देश्य नजर आता है। किसी वरिष्ठ सहयोगी के साथ अभिवादन के दौरान भले ही
वह मुस्कराते हुए दिख जाते हों लेकिन ज्यादातर समय वह यह भी नहीं करते।''
''जब वह
सार्वजनिक स्थानों पर चलते हैं या किसी समारोह में एकत्रित लोगों के बीच होते हैं
तो उनके चेहरे पर न कोई रेखा नजर आती है न आंखों के इर्दगिर्द कोई झुर्री। अगर
उनकी नजरें किसी से टकराती भी हैं तो वह केवल सामने वाले को घूर रहे होते हैं।
सार्वजनिक सभाओं में उनकी शारीरिक भंगिमा आक्रामक होती है, आवाज में
दबदबा और हावभाव पूरी तरह उन्मुक्त। उनकी तर्जनी अंगुली हमेशा संकेत कर रही होती
है और जब वह अपनी बात कह रहे होते हैं तो आवाज में नाटकीय प्रभाव नजर आता है। वह
अब तक के भारतीय प्रधानमंत्रियों में सबसे मुखर और दबदबे वाले साबित हो रहे हैं। ''
''स्तंभकार आकार पटेल ने मोदी के ट्विटर होम पेज
पर लगी तस्वीर की सटीक व्याख्या की है। प्रधानमंत्री संसद भवन से बाहर आ रहे हैं।
सुरक्षाकर्मी पीछे से घेरा बनाए हुए हैं और कुछ दूरी पर उनका एसयूवी वाहन खड़ा है।
यह पूरा दृश्य सरकार में उनकी इकलौती कद्दावर हैसियत का सचित्र वर्णन करता है।
परंतु यही प्रधानमंत्री विदेश जाते ही एकदम बदल जाते हैं। वह पुरलुत्फ नजर आते
हैं। एकदम सुकून में और मुस्कराते हुए, सेल्फी लेते
हुए। विदेशों में रहने वाले भारतीयों की ठकुरसुहाती के बीच कई बार वह मगन होकर ऐसी
बातें कह जाते हैं जो शायद उनको सोचनी भी नहीं चाहिए। ''
''बात केवल
विदेशों की नहीं है। कई बार देश में भी जब वह किसी विदेशी नेता के सान्निध्य में
होते हैं तो अपेक्षाकृत मुखर और सौहार्दपूर्ण छवि पेश करते हैं। बराक ओबामा के साथ
उनका अतिउत्साही व्यवहार लगभग शर्मिंदा करने की हद तक चला गया। कुछ कुछ नेहरू और
एडविना की तस्वीर की याद दिलाता हुआ जिसमें माउंटबेटन दूर नजर आ रहे हैं। लोगों को
देश के प्रधानमंत्री से थोड़े और नियंत्रण की उम्मीद रही होगी। मोदी अपनी जो दो
छवियां पेश करते हैं वे एक दूसरे से एकदम अलग हैं। इतनी कि लोगों के मन में सवाल
पैदा होता है कि असली नरेंद्र मोदी कौन से हैं? ''
अधिकांश लोग नेताओं के निजी पक्ष से वाकिफ नहीं
होते। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी बाहर आई
वह उनकी उस सत्ता से लगाव रखने वाली महिला की छवि से एकदम अलग थी जो आलोचक समझते
रहे। एक बार खबर आई थी कि मोदी ने एक नेपाली बच्चे को गोद लिया था। पहले इसके बारे
में कुछ नहीं सुना गया था, न इस खबर के बाद ही ऐसी कोई खबर आई। या
फिर क्या उनकी जापान यात्रा के पहले कोई जानता था कि वह ड्रम पर भी हाथ आजमा सकते
हैं? प्रधानमंत्री का काम अपने आप में एक दुष्कर कार्य है ऐसे में हर
प्रधानमंत्री थोड़ी राहत की सांस चाहता है। नरसिंह राव शिखर वार्ताओं से लौटते
वक्त उड़ान के दौरान स्पैनिश फिल्में देखा करते थे। राजीव गांधी हर बैठक के बाद
तेज गति से गाड़ी चलाते थे और इस क्रम में अपने सुरक्षाकर्मियों के साथ लुकाछिपी
का खेल खेलते। कई बार तो वह लक्षद्वीप या अंडमान पर छुट्टियां बिताने चले जाते थे।
मोदी के लिए यही काम आधिकारिक यात्राएं करती हैं। उनकी चीन यात्रा में यह बात अहम
थी कि आधिकारिक बैठकों में सख्त लहजा अपनाने तथा पूरे आत्मविश्वास और नियंत्रण में
नजर आने के बावजूद सार्वजनिक रूप से वह बहुत सहज नजर आए। सवाल यह है कि वह देश में
ऐसे क्यों नहीं दिखते? पारिवारिक छवियों की मदद से अक्सर नेताओं की एक
नरम तस्वीर पेश की जाती है। नेहरू की अपने नातियों के साथ बाघ के बच्चों से खेलने
की तस्वीर और कैनेडी की ओवल कार्यालय में अपनी खूबसूरत पत्नी और नन्हे शिशु के साथ
सामने आई तस्वीर इसका उदाहरण हैं। दुर्भाग्यवश मोदी के पास ऐसे विकल्प नहीं हैं।
शायद उनको राजनीति और योग से इतर रुचियां सामने लाकर अपनी मानवीय छवि पेश करनी
चाहिए। वह वाद्य यंत्र पर हाथ आजमाने को बतौर रुचि आगे बढ़ा सकते हैं।'' सवाल यह है कि व्यक्ति की
भाव-भंगिमाएं क्या मूल्यहीन होती हैं ?
Jabardast Lekh Sir......
जवाब देंहटाएंकलयुग के असली अवतार वही है सर.. सब जायज है उनका ;P
जवाब देंहटाएं