साहित्य इन दिनों भेडों से
घिर चुका है। आप भेड़ नहीं हैं तो साहित्यकार नहीं हैं। सत्ता ने साहित्यकार को
सम्मान दिया,पुरस्कार दिए लेकिन भेड़ का दर्जा भी दिया। हम खुश हैं कि हम भेड़
हैं। भेड़ की तरह रहते हैं,जीते हैं, लिखते हैं,भेड़ होना बुरी बात नहीं है लेकिन
साहित्यकार का भेड़ होना बुरी बात है। साहित्यकार जब भेड़ बन जाता है तो यह
साहित्य के लिए अशुभ-संकेत है। हम असमर्थ हैं कि साहित्यकार को भेड़ बनने से रोक
नहीं रोक पा रहे,साहित्य में भेडों का उत्पादन जितनी तेजी से बड़ा है उतनी तेजी से
साहित्य का उत्पादन नहीं बढ़ा।
एक जमाना
था साहित्यकार का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण होता था लेकिन इन दिनों 'दृष्टिकोण' की जगह 'कोण' ने लेली है। 'दृष्टि' बेमानी हो गयी है।
साहित्यकार का 'कोण' उसकी पहचान का आधार बन गया है । साहित्यकार के दृष्टिलोप की सटीक
जन्मतिथि हम नहीं जानते,लेकिन एक बात जरुर जानते हैं कि विवेक जब मर जाता है तब 'कोण' पैदा है। विवेक जब तक जिंदा रहता
है दृष्टिकोण बना रहता है लेकिन जब विवेक मर जाता है तो सिर्फ 'कोण' रह जाता है।
विवेक मर जाने पर साहित्यकार मात्र सिर्फ देह रह जाता
है। यानी वह मंच पर ,सभा में, गोष्ठी में ,लोकार्पण में,समीक्षा में बैठा हुआ शरीर
मात्र रह जाता है। साहित्यकार का 'देह' में रुपान्तरण स्वयं में लेखक के लिए
चिन्ता की बात नहीं है, यह इन दिनों साहित्यिक जगत में भी चिन्ता की बात नहीं
है,क्योंकि साहित्यिक जगत तो 'देह' से काम चलाता रहा है, उसके लिए तो 'देह' ही
प्रधान है । साहित्यकार का 'देह' में रुपान्तरण एकदम नई समस्या है और इस समस्या पर हमें गंभीरता से
सोचना चाहिए। सवाल यह है कि साहित्यकार क्या मात्र 'देह' है ? खासकर नामवर सिंह
के प्रसंग में यह सवाल मेरे दिमाग में कौंधा है।
नामवर सिंह के व्यक्तित्व
और कृतित्व के अनेक आयाम हैं। उनमें से एक आयाम यह भी है कि उनके यहां साहित्यकार
का 'शरीर' में
रुपान्तरण हो चुका है। वे सशरीर किसी भी कार्यक्रम में चले जाते हैं, लेकिन वे
दसियों वर्ष पहले अपने को साहित्यकार के नजरिए से मुक्त कर चुके हैं। मेरे लिए यह
इसलिए भी त्रासद है क्योंकि वे मेरे शिक्षक रहे हैं, हमने उनसे पढ़ा है। अपना
शिक्षक जब विवेक को त्याग दे तो बड़ी पीड़ा होती है। मैं नहीं जानता नामवर सिंह को
विवेक त्यागने पर कोई पीड़ा होती है या नहीं ? पर
मुझे होती है।
नामवर सिंह के व्यक्तित्व
मूल्यांकन में यह प्रश्न विचारणीय है कि साहित्यकार का नजरिया महत्वपूर्ण है या
शरीर महत्वपूर्ण है ? साहित्यकार का लिखा
महत्वपूर्ण है या उसके लिंक ,सत्ताधारियों के प्रति भक्ति महत्वपूर्ण है ? क्या साहित्यकार प्रतीकात्मक तौर पर कहीं पर कुछ भी
विवेकहीन बोल सकता है ? कर सकता है ? क्या लेखक के लिए विवेकवाद का कोई मूल्य नहीं
रह गया ?
नामवर सिंह के चाहने वाले असंख्य हैं , ये चाहने वाले वैसे ही हैं जैसे माधुरी
दीक्षित के होते हैं। माधुरी दीक्षित के चाहने वाले उसके 'देह' और उससे जुड़े
कलाप्रदर्शन पर मुग्ध हैं, इस समूची प्रक्रिया में माधुरी दीक्षित वही सब करती है
जो उसे फिल्म निर्देशक करने के लिए कहता है। वह महज 'देह' के तौर पर उपलब्ध रहती
है, निर्देशक जैसे नचाता है वह नाचती है, जैसे कहता है वैसे ही अभिनय करती है। इस
अभिनय में सब कुछ निर्देशित है, सब कुछ निर्मित है, कुछ भी स्वाभाविक नहीं है, सामान्य नहीं
है,यहां तक कि उसके व्यक्तित्व की मार्केटिंग भी निर्देशक और संस्कृति उद्योग करता
है। यही वह बिंदु है जहां से नामवर सिंह को देखना चाहिए। वे साहित्य में
साहित्यकार की देह हैं। संभवतः यही बात दिमाग में रखकर उन्होंने ज्ञानपीठ के एक
कार्यक्रम में साफ कहा मैं फरमाइशी लेखक हूँ।
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