इन
दिनों वाम राजनीति हाशिए पर है और संघी राजनीति सत्ता,समाज और मीडिया के केन्द्र
में है। खासकर मोदी सरकार बनने के बाद से सारा परिदृश्य बदल गया है। अचानक
स्वाधीनता सेनानियों को हड़प लेने की कोशिशें हो रही हैं, मासूम तर्क दिए जा रहे हैं। संघी लोग जानते हैं
कि मासूम तर्कों से इतिहास नहीं रचा जाता। मासूम तर्क यह है कि स्वाधीनता सेनानी
सबके हैं, इसलिए वे हमारे भी हैं, उनको दलीय राजनीति में बांधकर या किसी विचारधारा
विशेष के परिप्रेक्ष्य में मत देखो, खासकर स्वाधीनता सेनानियों पर जब भी बातें
करो, फूलमालाएं चढ़ा कर प्रणाम करो, विचार-विनिमय मत करो, आलोचनात्मक विवेक का
इस्तेमाल मत करो।
संघ की रणनीति है स्वाधीनता सेनानियों के विचार,राजनीति,संघर्ष
आदि में निहित विचारधारा की चर्चा मत करो, उन्हीं पहलुओं की चर्चा करो जो
हिन्दुत्व के फ्रेमवर्क में फिट बैठते हैं। इस तरह के तर्कशास्त्र के जरिए संघ और
उसके संगठन संगठित ढ़ंग से स्वाधीनता संग्राम की विरासत को विकृत कर रहे हैं। उसे युवाओं
में गलत ढ़ंग से पेश कर रहे हैं, साथ ही यह भी संदेश दे रहे हैं कि स्वाधीनता
आंदोलन की परंपरा राष्ट्रवाद की परंपरा है, धर्मनिरपेक्षतारहित हिन्दुत्व की
परंपरा है। उनके लिए स्वाधीता सेनानी का बलिदान तो स्वीकार्य है लेकिन बलिदान के
साथ जुड़ा विचार स्वीकार्य नहीं,संघ को स्वाधीनता सेनानी की वोट के लिए और अपने
कलंकों को छिपाने के लिए इमेज चाहिए,फोटो चाहिए। संघ के लिए स्वाधीनता सेनानी महज
फोटोग्राफ है । यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसकी रोशनी में सुभाषचन्द्र बोस के बारे
में चल रही मौजूदा बहस को भी देखें।
सुभाष चन्द्र बोस महज
राजनेता,स्वाधीनता सेनानी नहीं थे, बल्कि उच्चकोटि के विचारक भी थे। वे स्वभाव से
आमूल-चूल परिवर्तनकामी थे। उनका साम्प्रदायिकता को लेकर सुनिश्चित नजरिया था ।
लोकतंत्र में कोई
चीज,विचार या संगठन अछूत नहीं हैं और हमें अछूत मनोवृत्ति के प्रचार-प्रसार से
बचना चाहिए। साम्प्रदायिक एकता सामाजिक विकास के लिए बेहद जरुरी है। सुभाष
चन्द्र बोस ने 4मई1940 को 'फार्वर्ड ब्लॉक' के
संपादकीय में लिखा हमें साम्प्रदायिक
संगठनों के प्रति अछूत भाव व्यक्त नहीं करना चाहिए। हमें राजनैतिक अछूतभाव से बचना
चाहिए। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा को राजनैतिक अछूत मानकर दूर नहीं रखना चाहिए।
24फरवरी 1940 को 'फार्वर्ड ब्लॉक' में लिखे संपादकीय
में सुभाष ने साफ लिखा आम जनता में
स्वाधीनता की भावना पैदा करने के लिए नए नजरिए,नए भावबोध,स्प्रिट,परिप्रेक्ष्य और
नए विज़न की जरुरत है।
सवाल यह है कि संघ ने क्या
नया विज़न पैदा किया? लोकतंत्र के अनुरुप
नई स्प्रिट पैदा की ? कम्युनिस्टों
,समाजवादियों और कांग्रेसियों पर सुभाष की अपील का असर हुआ लेकिन संघ पर कोई असर
नहीं हुआ। संघ के साम्प्रदायिक नजरिए से मुक्त नहीं किया। अल्पसंख्यकों के प्रति
घृणा से मुक्त नहीं किया,दंगे की राजनीति से मुक्त नहीं किया, गपोड़ी इतिहास से
मुक्त नहीं किया, ऐसी स्थिति में सुभाष की विरासत के बारिस बनने की उनकी कोशिश
हास्यास्पद ही कही जाएगी।
सुभाष का मानना था हमें आज अपने चारों ओर फैली साम्प्रदायिकता पर
हमला करना चाहिए और आम जनता में राष्ट्रवाद की भावना पैदा करनी चाहिए। इस काम के
लिए क्रांतिकारी मनोदशा बनाने की जरुरत है,उससे ही यह लक्ष्य हासिल करना आसान होगा।
साम्प्रदायिकता तब ही खत्म होगी जब साम्प्रदायिक मनोदशा खत्म होगी। अतः सभी
भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे साम्प्रदायिकता-मुस्लिम,सिख,हिन्दू,ईसाई - को
नष्ट करें। हमें कोशिश करनी चाहिए कि ये
समुदाय साम्प्रदायिकता का अतिक्रमण करके वास्तव अर्थ में राष्ट्रवादी मानसिकता
विकसित करें। सेना के अग्रणी दस्तों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे साम्प्रदायिकता
के खिलाफ संघर्ष करें। (इसके विपरीत संघ हमारे पूर्व सैनिकों में हिन्दुत्व का
प्रचार करता रहा है ) ,सेना की यह भी जिम्मेदारी है कि वह सभी सम्प्रदायों के बीच
में सद्भाव और राष्ट्रीय एकता पैदा करे। हिन्दू-मुस्लिम,सिख,ईसाईयों के बीच में
एकता पैदा करने का काम करे। साम्प्रदायिक समस्या का समाधान करे। इससे समूचा
वातावरण स्वतः बदल जाएगा। साथ ही साम्प्रदायिकता का अंत भी होगा। हमारी सेना के
अग्रणी दस्तों को इस मामले में आदर्श भूमिका अदा करनी चाहिए।
आप भी उन बुद्धिजीवियों में से हैं जो 'हिन्दू' शब्द को हिंदुस्तान में गाली की तरह इस्तेमाल करने में तनिक हिचकिचाते नहीं। वैसे तो हमने कभी मोदीजी के विचारों में ऐसा कुछ नहीं पाया नहीं कि वो हिन्दुओं के कोई विशेष हित की बात कर रहे हों लेकिन ये आजकल एक प्रोपेगंडा चल रहा है जिसमे जब हमारे यहीं के कुछ लोग किन्ही निहित स्वार्थों के तहत भारत को बदनाम करने में लगे हों तो क्या किया जा सकता है।
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