सुभाष चन्द्र बोस के
बारे में इन दिनों मीडिया में जिस तरह से सनसनी पैदा की जा रही है उससे यह खतरा पैदा
हो गया है कि कहीं उनके नजरिए को प्रदूषित न कर दिया जाय। सुभाष के नजरिए की
आधारभूमि है भारत की मुक्ति। वे आजीवन वामपंथी रहे और उनकी वामपंथी विचारधारा में गहरी
आस्थाएं थीं। हमारे देश में अनेक किस्म के समाजवादी पहले भी थे और आज भी हैं, पहले
वाले समाजवादी ऐसे थे जो दक्षिणपंथी राजनेताओं के साथ काम करते थे या फिर किताबी
समाजवादी थे। सुभाष का नजरिया इन दोनों से भिन्न था।
सुभाष आमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन के पक्षधर थे,
वे संविधानवादी और सुधारवादी नजरिए से सामाजिक बदलाव की बहुत कम संभावनाएं देख रहे
थे, इसलिए उन्होंने संविधानवाद और सुधारवाद से बचने की सलाह दी थी। कांग्रेस में
ये दोनों ही दृष्टियों के मानने वाले लोग बड़ी संख्या में थे।
सवाल यह है क्या संविधानवादी और पूंजीवादी सुधारवादी मार्ग
के सहारे हम समाज में आमूलचूल परिवर्तन कर पाए हैं ? सच यह
है कि ये दोनों ही नजरिए 65साल में अभीप्सित परिणाम पैदा करने में असमर्थ रहे हैं।
यह तब हुआ है जबकि देश का शासन पांच दशकों तक कांग्रेस के पास रहा बाद में आए
शासकों ने मूलतः कांग्रेस की बनायी नीतियों का ही पालन किया। मोदी भी कांग्रेस की
बनायी नीतियों पर चल रहे हैं।
सुभाष ने संविधानवाद और
जनसंघर्ष के बीच में अंतर्विरोध की तरफ 19अगस्त सन् 1939 में ध्यान खींचाथा, लेकिन
इस अंतर्विरोध की अनदेखी की गयी। आज यही अंतर्विरोध अपने चरम पर है। एक तरह से सभी
रंगत की गैर-वाम विचारधाराएं संविधानवाद की आड़ में एकजुट हैं और जनसंघर्षों का
खुलकर विरोध कर रही हैं। पहले यही काम कांग्रेस ने किया अब यही काम मोदी सरकार कर
रही है। जब हमारे सामने जनसंघर्षों को कुचलने के लिए संविधानवाद का खतरा हो तो
हमें गंभीरता से देखना होगा कि आखिरकार सुभाष चन्द्र बोस की हमारे लिए आज किस रुप
में प्रासंगिकता बची है।
देश के आजाद होने के बाद संविधानवाद पर जोर दिया
गया और तमाम किस्म के जनसंघर्षों और आंदोलनों पर संविधान के तहत ही हमले किए गए।
यही वह संविधान है जो तमाम किस्म की पवित्र घोषणाओं की जनसंघर्षों के संदर्भ में
घनघोर और नंगी अवहेलना करता है। संविधान
के नाम पर आपातकाल आया और संविधान के नाम पर ही अब तक सेज के लिए दस लाख एकड़ जमीन
ले ली गयी और अब नग्नतम रुप में भूमि अधिग्रहण बिल पेश है, जिसे हर हालत में संसद
से पास कराकर परम पवित्र वाक्य में तब्दील कर दिया जाएगा।
कायदे से हमें सुभाष चन्द्र
बोस को जनसंघर्षों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करना चाहिए। लेकिन हो यह रहा है
हमारे इतिहासकार बंधु सुभाष को इतिहास की घटना विशेष के संदर्भ में रंग-बिरंगे रुप
में पेश कर रहे हैं इससे सुभाष के बारे में विकृत समझ बन रही है।
'जनसंघर्ष
बनाम संविधानवाद' के संदर्भ में यदि
सुभाष को देखें तो पाएंगे कि सुभाष जनसंघर्षों के साथ खड़े हैं। सुभाष ने माना कि
उन्होंने 'संविधानवाद का विरोध करके 'अपराध' किया है और मैं उसकी कीमत अदा कर
रहा हूँ।' वह मानते थे 'संविधानवाद बनाम जनसंघर्ष' का अंतर्विरोध इस दौर का मूल
अंतर्विरोध है और इसकी रोशनी में ही राजनीतिक प्रक्रिया का विकास होगा। सुभाष की
यह समझ इतिहास के अब तक के अनुभव से सही साबित हुई है।
Sir chhamaa karen par aapme vi kahin na kahin netaji ki jhaka dikhti hai....
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