रविवार, 12 अप्रैल 2015

भूरा के सर्जक


          मेरा जन्म परंपरागत परिवार में हुआ,घर में दादी का वर्चस्व था, वही परिवार की मुखिया थी और उसने ही परिवार के सभी महत्वपूर्ण फैसले लिए। मेरे निर्माण में मेरी माँ के अलावा दादी और बुआ की बहुत बड़ी भूमिका रही है। बचपन में स्त्रीमन को पढ़ने के सूत्र मुझे इन तीनों से ही मिले। परिवार की स्त्रियां बच्चे के मन को  रचती हैं । मैं 13-14 साल की उम्र से ही सुबह चार बजे उठ रहा हूँ। सुबह उठाने का काम माँ और दादी करती थी,इन दोनों की जिम्मेदारी थी कि मैं सुबह उठूँ और पढ़ूँ. वह सिलसिला आज तक बना हुआ है। मैं सुबह उठकर सो न जाऊँ इसलिए मुझे एक गिलास में  रोज चाय मिलती थी जिसमें तेज काली मिर्च हुआ करती थीं। बेहतर बात यह थी कि मेरे लिए एक छोटा कमरा अलग से बनवा दिया गया था जिसमें मैं अकेले सोता था,मेरे लिए एक रेडियो ,एक टेबिल लैंप, कुर्सी-टेबिल की व्यवस्था कर दी गयी थी ।   
      मेरा जन्म संयुक्त परिवार में हुआ था, जिस मकान में जन्म हुआ वह तीन आंगन का  था और उसमें आठ कमरे थे । लंबी छतें थीं। घर में एक भी पंखा नहीं था, एक छोटी सी घड़ी थी । परिवार के पालन-पोषण का आधार परंपरागत यजमानी थी । साथ में चर्चिका देवी के मंदिर से भी कुछ आमदनी हो जाती थी। मैंने जेएनयू में दाखिला लेने के पहले तक अधिकांश समय वे ही कपड़े पहने जो मंदिर पर चढ़ावे में आते थे। कभी-कभार मेरे लिए बाजार से लट्ठे का कपड़ा खरीदकर पायजामा बनवा दिया जाता था बाकी मंदिर पर चढ़े कपड़े के शर्ट या कुर्ता बनाकर पहनता था। संयोग की बात थी कि मेरे परिवार में और भी बच्चे थे लेकिन उन सबको बाजार से अच्छे कपड़े खरीदकर बनवाए जाते थे । मेरी माँ गूंगी और बहरी दोनों थी लेकिन देखने में बहुत सुंदर थी, वह जब तक जिंदा रही,मैं अधिकांश समय उसके ही साथ रहता था.वह अकेला छोड़ती ही नहीं थी,उसकी आंखों के सामने खेलना,कूदना, पतंगें उड़ाना, यमुना किनारे घाटों पर खेलना, नदी में नहाना,दोस्तों के साथ क्रिकेट और शतरंज खेलना आदि सब कुछ उसकी आंखों के सामने होता था। वह जब नानी के घर जाती थी तो अधिकांश समय अपने साथ लेकर जाती थी । एक तरह से वह छाया की तरह हमेशा साथ रहती थी। मैं एकमात्र स्कूल अकेले जाता था ,बाकी समय मेरे समय और साथ की मालिक मेरी माँ थी । मैं कल्पना ही नहीं कर सकता था कि वो रहेगी और मुझे अकेला छोड़ देगी । वह मुझे सब कुछ करने देती थी ,मैं जो चाहता था वह मुझे मिलता था,मेरी हर रुचि का ख्याल रखती थी। पिता चाहते थे कि मैं पंडिताई सीखूँ और अच्छा पंडित बनूँ ।जबकि पंडित बनना मेरी रुचि का अंग नहीं था लेकिन मैं नहीं जानता था कि मैं क्या बन सकता हूँ। यह संयोग की बात है कि सन्1976 में माँ की मृत्यु के बाद मैंने खेलना बंद कर दिया।   मैंने उसी साल शास्त्री की परीक्षा पास की थी।माँ की मृत्यु के एक सप्ताह पहले परीक्षा परिणाम आया था। वह बेहद खुश थी,उसके साथ हम फिल्म देखने गए थे।वह जब तक जिंदा रही जन्मदिन मनाया जाता था। वह मेरे शास्त्री होने पर बेहद खुश थी। उसकी मृत्यु ने परिवार की अपूरणीय क्षति की,मेरा बचपन एक ही झटके में गायब हो गया।
       मथुरा में घरों की बनाबट और स्थापत्यकला की यह विशेषता थी कि सारा शहर छतों से जुड़ा हुआ था। प्रत्येक मकान की छत एक-दूसरे से जुड़ी थी। यह विलक्षण बात थी कि मथुरा में आप छतों के जरिए सारा शहर घूमकर आ सकते थे । छत से छत का जुड़ने का अर्थ है पड़ोसियों के दिल मिले हुए हैं। इन दिनों छतों के बीच में दीवारें आ गयी हैं और दिलों में भी दीवारें हैं।
      गली दशावतार में घर होना बड़े सौभाग्य की बात थी,तकरीबन हर घर में कुँआ था और कई धर्मशालाएं थीं,गली के ठीक सामने यमुना किनारा और लोकप्रिय सतीघाट-सतीबुर्ज था।यह हमलोगों की पारिवारिक धरोहर भी है, पुरखों को कभी तीन घाट दान में मिले थे । नगरपालिका में आज भी पिता के नाम ये तीन घाट दर्ज हैं। मथुरा के घाटों की चर्चा फिर कभी। ये तीनों घाट मथुरा के पवित्रतम घाट विश्रामघाट के साथ जुड़े हैं।
    मेरे घर से सटा हुआ घर दयानंद सरस्वती के गुरु स्वामी विरजानंद सरस्वती का है, बचपन से मैं विरजानंद सरस्वती के किस्से सुनकर बड़ा हुआ। ठीक एक घर छोड़कर कानपुर वालों का घर है गली के नुक्कड़ पर उसमें एक जमाने में 'हरे राम हरे कृष्ण' सम्प्रदाय के संस्थापक संत वर्षों रहे, मैं बचपन में उनसे अनेकबार बालसुलभ बहसों में उलझ चुका हूँ । बचपन का सबसे सुंदर समय वह भी था जब प्रिय वैदिक विद्वान दत्तात्रेय कुंठे जी महाराज रोज मेरे मंदिर पर दर्शन करने आते थे और मैं उनको प्रणाम करता और वे मेरे पिता को प्रेरित करते कि मुझे सामवेदी होने के कारण सामवेद पढाया जाय। स्वयं दत्तात्रेयजी वेदों के विलक्षण विद्वान थे। उनसे मेरे पिता पढ़े थे, मैंने भी बचपन में उनकी कक्षाएं कीं, वेद पढ़े । बचपन का दूसरा रोचक समय वह  था जब करपात्री जी महाराज मथुरा आते थे और जितने दिन मथुरा रहते मेरे मंदिर दोपहर में दर्शन करने आते, पिता के साथ जमकर शास्त्रचर्चा करते ,आमतौर पर दोपहर में यह होता था, मैं हमेशा आश्चर्य के साथ करपात्री जी की बातें सुनता था और मजे लेता था, शास्त्रज्ञान तो एकदम नहीं था लेकिन उनकी बातों से मेरा मन बहुत बहलता था। उनकी बोलने की शैली बहुत ही मधुर और तार्किक हुआ करती थी। करपात्री जी मेरे पिता से बातें करते समय यदि मैं नजर नहीं आता था तो वे कहते थे कि बेटे को बुलाओ,आशीर्वाद दूँगा। इस चक्कर में मैं अपनी दोपहर की नींद से अनेक दिन वंचित हुआ और मुझे पांडित्य के साथ संवाद-विवाद की कला को सीखने का मौका मिला।
मजेदार बात यह है कि मैंने राहुल सांकृत्यायन की करपात्री जी के विचारों पर लिखी किताब रामराज्पय और मार्क्सवाद पढी नहीं थी उस समय लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं था, जबकि मैं उनका करीबी था, रामराज्य परिषद की ओर से प्रचारकरते थे चुनावों में मुझे पता नहीं क्यों रामराज्य परिषद मनोरंजक दल लगता था ।
  यह भी रोचक घटना है राधामोहन चतुर्वेदी, कांग्रेसी नेता,बड़े स्वाधीनता सेनानी थे और हमारे मंदिर पर नियमित आते थे और उनसे भी जमकर पुरानी कहानियां सुनने को मिलती थीं, राधेश्याम चतुर्वेदी,एडवोकेट सोशलिस्ट थे और कैलाशनाथ चतुर्वेदी ठेकेदार,कम्युनिस्ट थे और ये सभी हमारे मंदिर पर आते थे,इनसे भी जमकर साम्यवाद और लोहिया के बचपन में किस्से सुने ।यह बचपन ही था जिसमें मनीराम बागड़ी जैसे सोशलिस्ट नेता को भी करीब से जानने और सुनने का मौका मिला। कांग्रेस के बड़े नेताओं में लक्ष्मीरमण आचार्य (यूपी के वित्तमंत्री) और दयालकृष्ण एडवोकेट (  यूपी में मंत्री बने ) नियमित हमारे मंदिर पर आते थे और उनसे रोचक राजनीतिक कहानियां सुनने और विवाद करने का मौका मिला । 
मेरे बचपन में मुश्किल यह थी कि मेरे मंदिर पर दर्शन करने आने वालों में संस्कृत के विद्वान बहुत आते थे और वे ही मेरे ज्ञान संचार और संवाद का आधार बने। कालान्तर में मुझे उन सभी विद्वानों से पढ़ने का मौका भी मिला। इस तरह प्राचीन ज्ञान परंपरा मुझे सहज ही घर बैठे मिल गयी। वैदिक विद्वानों में दत्तात्रेय कुंठे जी महाराज, लालनकृष्ण पंड्या,दर्शन के विद्वान सवलकिशोर पाठक, व्याकरण के विलक्षण विद्वान् बलदेव चतुर्वेदी ,संस्कृत साहित्य के वनमाली शास्त्री,कृष्णचन्द्र चतुर्वेदी और सिद्धात ज्यौतिष के प्रखर विद्वान संकटाप्रसाद उपाध्याय से तेरह वर्षों से प्रथमा से लेकर आचार्य पर्यंत श्री माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में पढ़ने का मौका मिला। इसी कॉलेज में हिन्दी के शिक्षक मथुरानाथ चतुर्वेदी से प्रथमा से लेकर शास्त्री पर्यन्त हिन्दी पढ़ी। मथुरानाथ चतुर्वेदी राजनीतिक तौर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक नेताओं में थे, वे मथुरा में जनसंघ के निर्विवाद नेता थे,उनसे राजनीतिक विषयों पर बातें करते हुए राजनीति का सबसे पहले परिचय हुआ और वे ही मुझे सोवियत समाजवादी साहित्य और वहां से प्रकाशित पत्रिकाएं नियमित दिया करते थे,माकपा नेता  सव्यसाची से तो बहुत बाद में आपातकाल में मुलाकात हुई ।दिलचस्प बात यह थी कि मथुरानाथ जी ने मुझे कभी आरएसएस का साहित्य पढ़ने को नहीं दिया और नहीं आरएसएस की विचारधारा मानने के लिए कहा,वे हमेशा सामान्य राजनीतिक विषयों पर राय व्यक्त करते थे और मैं आमतौर पर उनसे मतभिन्नता रखता था।         




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