'आप' के आंतरिक कलह को लेकर मीडिया में इनदिनों जमकर लिखा गया है।
इसमें निश्चित रुप से आनंदकुमार,प्रशांत भूषण,योगेन्द्र यादव आदि के द्वारा उठाए सवाल
वाजिब हैं । कुछ महत्वपूर्ण सवाल केजरीवाल एंड कंपनी ने भी उठाए हैं जो अपनी जगह
सही हैं। दोनों ओर से जमकर एक-दूसरे के व्यवहार और राजनीतिक आचरण की समीक्षा भी की
गयी है। गंदे और भद्दे किस्म के हमले भी हुए हैं। अंततः स्थिति यह है कि 'आप' एक राजनीतिक दल के
रुप में बरकरार है । जब तक वह राजनीतिक दल के रुप में बरकरार है और केजरीवाल जनता
के मुद्दे उठाता है आम जनता में उसकी राजनीतिक साख बनी रहेगी ।
'आप' एक राजनीतिक दल है, वह कोई एनजीओ नहीं है। वह बृहत्तर लोकतांत्रिक
राजनीतिक प्रक्रिया का अंग है। राजनीतिक दल होने के नाते और खासकर दिल्ली में
सत्ताधारी दल होने के नाते उसकी साख का फैसला उसके सरकारी और गैर-सरकारी कामकाज पर
निर्भर है। राजनीतिक प्रक्रिया में दलीय
लोकतंत्र के सवाल बहुत छोटे सवाल हैं। राजनीतिक प्रक्रिया के लिए नेताविशेष के
निजी दलीय आचरण के सवाल भी बहुत बड़े सवाल नहीं होते। उल्लेखनीय है लोकतंत्र में निजी
आचार-व्यवहार कभी भी निर्णायक राजनीतिक सवाल नहीं बन पाता।
राजनीतिक प्रक्रिया में
निजी की हाशिए के सवाल जैसी भूमिका भी नहीं होती। राजनीति में दलीय भूमिका होती
है,दलीय सार्वजनिक संघर्ष की भूमिका होती है। राजनीतिक प्रक्रिया बेहद निर्मम होती
है। वह निजी को निजी नहीं रहने देती। निजी को राजनीतिक बना देती। निजी जब राजनीतिक
बनता है वह मूल्य नहीं रह जाता,वह राजनीति का लोंदा बन जाता है। यदि किसी नेता की निजी बातों, चीजों, आदतों या
निजी नजरिए को आप हमले के लिए चुनते हैं तो उससे नेता पर कोई फर्क नहीं पड़ता।हम
जान लें राजनीतिक प्रक्रिया ,नेता या नेताओं के निजी व्यवहारों से निर्देशित नहीं
होती। वह तो राजनीतिक प्रक्रिया से निर्देशित होती है।
व्यक्तित्व विश्लेषण के
लिए निजी का महत्व है लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया के लिए निजी बातों और निजी नजरिए
का कोई महत्व नहीं है, राजनीतिक प्रक्रिया में तो राजनीतिक एक्शन ही प्रमुख है।
इसलिए अरविंद केजरीवाल निजी तौर पर कैसा आदमी है, इसका कोई खास असर राजनीतिक
प्रक्रिया पर होने वाला नहीं है। राजनीतिक प्रक्रिया में नेता का निजी आचरण और
निजी नजरिया ही यदि महत्वपूर्ण होता तो मोदी पीएम न होते, श्रीमती इंदिरा गांधी
दोबारा सत्ता में न आतीं, उसके पहले कांग्रेस को तोड़कर वे पीएम न बन पातीं। कहने
का आशय यह कि केजरीवाल को देखने के लिए हमें उसके निजी आचार-व्यवहार के दायरे से बाहर
निकलकर देखना होगा।
लोकतंत्र में राजनीतिक
प्रक्रिया बहुत ही जटिल और संश्लिष्ट होती है। 'आप' का जन्म ऐतिहासिक कारणों से हुआ है और उसके खाते में कुछ ऐतिहासिक
काम भी मुकर्रर हैं, हम चाहें या न चाहें , उसे वे काम करने हैं,वह यदि इसमें
चूकती है तो अप्रासंगिक होने को अभिशप्त है। 'आप' ने दिल्ली में ऐतिहासिक जीत दर्ज करके बहुत बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर
ले ली है। उसने साम्प्रदायिक ताकतों को बुरी तरह परास्त किया है। उसने कांग्रेस को
दिल्ली में कहीं का नहीं छोड़ा। सवाल यह है क्या वह आने वाले समय में अपने राजनीतिक एक्शन
के जरिए आम जनता के ज्वलंत सवालों पर नियमित सक्रियता बनाए रख पाती है ?
'आप' के सामने पहली चुनौती है दिल्ली सरकार चलाने की और सरकार को
पारदर्शी-लोकप्रिय बनाए रखने की। दूसरी बड़ी चुनौती है केन्द्र सरकार की जनविरोधी
नीतियों का स्वतंत्र और अन्यदलों के साथ मिलकर विरोध संगठित करने और व्यापक
जनांदोलन खड़ा करने की।उल्लेखनीय है व्यापक हित के जनांदोलनों के अभाव के गर्भ से 'आप' का जन्म हुआ है, 'आप' को यह नहीं भूलना
है कि जनांदोलन करना उसकी नियति ही नहीं लोकतंत्र की आज ऐतिहासिक अवस्था की जरुरत
भी है। तीसरी बड़ी चुनौती है सत्ता के लोकतांत्रिकीकरण की, सत्ता के
लोकतांत्रिकीकरण के जिस मॉडल की उसने वकालत की है उसको वह धैर्य के साथ दिल्ली में
लागू करे और जन-समस्याओं के त्वरित और जनशिरकत वाले मॉडल को विकसित करे, इससे उसकी
राजनीतिक साख तय होगी ।
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