भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की 21वीं पार्टी कॉग्रेस हाल ही में खत्म हुई है। यह कॉग्रेस एक मायने में महत्वपूर्ण है कि इसने माकपा में श्रद्धा के नायक को अपदस्थ किया है।श्रद्धा को नहीं। प्रकाश कारात के जमाने में माकपा श्रद्धालुओं और भक्तों का दल होकर रह गया था। माकपा के नेतागण श्रद्धालुओं की तरह बातें करते थे और श्रद्धालुओं की तरह ही अविवेकवादी आचरण कर रहे थे। प्रकाश कारात को यह श्रेय जाता है उसने प्रतिबद्ध माकपा को श्रद्धालु माकपा में तब्दील किया । कहने के लिए सीताराम येचुरी महासचिव हुए हैं,लेकिन पोलिट ब्यूरो अभी श्रद्धालुओं से भरा है। इस कमजोरी के बावजूद प्रकाश कारात की श्रद्धा की नीति को कॉग्रेस ने पूरी तरह ठुकरा दिया है।साथ ही श्रद्धा के नायक को विदा किया है ,यह सकारात्मक पक्ष है।
उल्लेखनीय है विगत दस सालों में माकपा में प्रतिबद्धता घटी, श्रद्धा और अंध-श्रद्धा बढ़ी है। इस श्रद्धा और अंध-श्रद्धा की धुरी है पार्टी का संघात्मक ढ़ांचा और अभिजात्य भावबोध। इसके कारण पार्टी में छोटे-बड़े का भेद बढ़ा है। यह माकपा की अभी भी मूल समस्या है। संघात्मक ढ़ांचे को माकपा किसी भी तरह तोड़ नहीं पाई है। इसबार की पार्टी कॉग्रेस में भी यह ढ़ांचा ज्यों का त्यों बना रहा । सिर्फ महासचिव किसी तरह इस ढ़ांचे की पकड़ के बाहर से ऊपर आ गया है। सीताराम कैसे महासचिव बने हैं यह तो पार्टी के अंदर के लोग जानें लेकिन हम बाहर से माकपा को जिस तरह देख पा रहे हैं उसके आधार पर कह सकते हैं कि सीताराम येचुरी की महासचिव के पद पर प्रतिष्ठा के साथ यदि प्रकाश कारात के श्रद्धालु कॉमरेडों की प्रकाश सहित पोलिट ब्यूरो और केन्द्रीय समिति से विदाई हो जाती तो बेहतर होता। अब मुश्किल यह है कि सीताराम को श्रद्धालुओं के साथ मिलकर फैसले लेने होंगे।
माकपा को श्रद्धालुओं ने पोलिट ब्यूरो से लेकर निचले स्तर तक प्रदूषित किया है। कायदे से प्रकाश कारात के जमाने में जो श्रद्धातंत्र माकपा में निर्मित हुआ था उसको सर्वोच्च कमेटी से ही तोड़े जाने की जरुरत है, प्रकाश कारात सहित उन तमाम पोलिट ब्यूरो सदस्यों को पार्टीतंत्र से बाहर किया जाना चाहिए,अथवा उनको निरस्त्र किया जाय, जिन लोगों ने माकपा को श्रद्धालुओं,दलालों,प्रमोटरों और तमाम किस्म निहित स्वार्थी तत्वों की पार्टी बनाया। मसलन् ,पश्चिम बंगाल माकपा में प्रमोटर,दलाल और असामाजिक तत्वों की पकड़ संगठन पर इतनी मजबूत रही है कि पार्टी का सचिव भी उनके सामने फैसले लेने में शर्माता था।
विगत एक दशक से माकपा की समस्या उसकी नीतियां कम और कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं खासकर महासचिव का राजनीतिक व्यवहार सबसे बड़ी समस्या रहा है। वह स्थानीयतावाद और प्रांतीयतावाद को किसी भी तरह कम नहीं कर पाया। प्रांतीयतावाद के आगे महासचिव बौना बना रहा और समूची पार्टी कभी अखिल भारतीय दल की तरह काम ही नहीं कर पाई। यहां तक कि पोलिट ब्यूरो में भी इसकी अभिव्यंजना साफतौर पर देखी जा सकती है।
श्रद्धातंत्र ने पार्टी को रोबोट दल में तब्दील कर दिया। कॉमरेडों का रोबोट आचरण आज भी दहशत और थरथराहट पैदा करता है, उनका अहंकार आज भी मन में घृणा पैदा करता है। कॉमरेड भूल ही गए कि मौजूदा दौर पूजावाद और श्रद्धा का नहीं है। यह अविश्वास और बहस का युग है। शक दूर करने का युग है। श्रद्धा के पक्षधर पुराने ख्यालों और दस्तूरों में जी रहे हैं। उनकी समझ का यथार्थ से कोई मेल नहीं है। उनकी यथार्थ जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं है । जबकि आज के कॉमरेड मार्क्सवाद का यथार्थ के साथ मेल देखना चाहते हैं। वे उन तमाम चीजों के बारे में सवाल खड़े करना चाहते हैं जिनको माकपा ने गढ़ा है। वे सार्वजनिक तौर पर बहस-मुबाहिशे करके चीजों के बारे में समझना चाहता है। पार्टी का माहौल बदलना चाहते हैं। उनको अ-न्याय,निजी रंजिशों और कॉमरेडों की हैवानियत से सख्त नफरत है। लेकिन श्रद्धेयनेता इन चीजों पर ध्यान देना नही देना चाहते। वे उन मसलों पर बातें करना नहीं चाहते जिनसे माकपा के कॉमरेडों का मन और सामाजिक जीवन बदरुप हुआ है।
श्रद्धेय नेताओं ने बदरंगी रुपों को पार्टी अनुशासन और ऊपर के नेता की राय के नाम पर हमेशा ढ़ंकने की कोशिश की है। इन लोगों ने यह भावना पैदा की है कि पाटी में नेता के बिना हमारा कोई नहीं है। नेता नहीं तो तुम नहीं । 21वीं पार्टी कॉग्रेस में हो सकता है पार्टी के बदरंग भावबोध की जमकर चर्चा हुई हो, लेकिन हम नहीं कह सकते कि वहां इस पर गौर किया गया था । यदि गंभीरता से श्रद्धा और अंध-श्रद्धा के दौर की समीक्षा की जाती तो प्रकाश कारात और उनके बासी श्रद्धासुमन बाहर फेंके क्यों नहीं गए ? जिन नेताओं के आचरण के कारण पार्टी आज रसातल के मुहाने पर खड़ी है वे सभी पोलिट ब्यूरो में बरकरार क्यों हैं ? पार्टी के जिन दोषों की 21वीं कॉग्रेस में चर्चा हुई है, वे दोष, व्यक्तिविहीन नहीं हैं। उनके साथ कोई न कोई नेता जुडा रहा है, ऐसे मं सामूहिक फैसले और निजी जिम्मेदारी के सिद्धांत का पालन करते हुए दोषयुक्त कार्यकलापों को प्रश्रय देने वाले नेताओं को पार्टी की सर्वोच्च कमेटी से निकाला क्यों नहीं गया ?
सवाल यह भी है कि प्रकाश कारात के दौर में पार्टी सांगठनिक तौर पर कमजोर हुई है या ताकतवर बनी है ? सब जानते है कि पार्टी का राष्ट्रीय स्तर से लेकर निचले स्तर तक ह्रास हुआ है, लेकिन इस ह्रास के लिए महासचिव को दण्डित क्यों नहीं किया गया ? यह कैसे संभव है कि पश्चिम बंगाल में जो नेतागण तबाही के नायक हैं वे अभी भी पोलिट ब्यूरो में बने हुए हैं , क्या पार्टी में ईमानदार लोगों की कमी है ? पार्टी के पोलिट ब्यूरो में उन लोगों को बरकरार रखा गया है जो समूची पार्टी को दलदल,कीचड़ और बदनामी में छोड़ गए हैं।
इसका अर्थ यह भी है कि माकपा में अभी भी नेताओं के बीच में श्रद्धा की गाँठ बंधी हुई है यही वजह है संगठन में कोई उनको टस से मस नहीं कर पाया। कायदे से श्रद्धा की गांठ को तोड़ा जाना चाहिए। श्रद्धा से देवता बनाए जा सकते हैं, बुर्जुआ नेता बनाए जा सकते हैं,कम्युनिस्ट नेता नहीं बनाए जा सकते। कम्युनिस्ट नेता, श्रद्धा से नहीं बनते, वे तो प्रतिबद्धता से बनते हैं। माकपा में फिलहाल तो हमें श्रद्धा के फूल खिलते नजर आ रहे हैं। देखते हैं नया माली (सीता) पूरे बगीचे को कैसे श्रद्धासुमनों से मुक्त करता है।
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