यह घटना उस समय की है जब
मैं मथुरा के माथुर चतुर्वेद संस्कृत महाविद्यालय में उत्तरमध्यमा के अंतिम वर्ष
का छात्र था सबसे कम उम्र और सबसे छोटी कक्षा का पहलीबार छात्रसंघ का महामंत्री
चुना गया था,यह घटना सन् 1974 की है। संस्कृत पाठशाला में आम सभा के जरिए छात्रसंघ
का चुनाव होता । उस चुनाव में मैं जीत गया,जीतने के साथ महासचिव होने के नाते मुझे
भाषण देना था, छात्रसंघ की परंपरा थी कि जो महासचिव चुना जाता था वह भाषण देता
था,मैं भाषण देने से हमेशा बचता था, बल्कि यह कहें तो बेहतर होगा कि मुझे भाषण
देना पसंद ही नहीं था। लेकिन छात्रसंघ की परंपरा का निर्वाह करते हुए मैंने अपने
गुरुजनों के आदेश पर भाषण देना आरंभ दिया, भाषण संस्कृत में देना था , छात्रसंघ की
समूची कार्यवाही संस्कृत में होती थी, संस्कृत में मिनट्स लिखे जाते थे और संस्कृत
में संचालन होता था ,छात्रों और शिक्षकों को संस्कृत में ही बोलने का अघोषित
निर्देश था, वैसे छात्र हिन्दी में भी बोल सकते थे, लेकिन एक परंपरा चली आ रही थी
जिसके कारण समूची कार्यवाही संस्कृत में होती थी।
मैंने पहलीबार भाषण दिया वह भी संस्कृत में और
भाषण देते समय मेरी आंखों से लगातार आँसू टपक रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि
मैं क्यों रो रहा हूँ,मेरी गुरुजन भी परेशान थे, संयोग की बात थी कि मेरा भाषण भाषा और शैली के लिहाज से अच्छा रहा, मेरे
गुरुजनों ने मेरी खूब प्रशंसा की और एक सवाल किया कि तुम बोलते हुए रो क्यों रहे
थे ? यह सवाल मेरे लिए आज भी अनुत्तरित है।
संस्कृत कॉलेज में पढ़ते
समय दूसरा महत्वपूर्ण भाषण सन् 1976 में छात्रसंघ के अध्यक्ष के रुप में दिया, यह
आपातकाल का दौर था और संभवतः मेरा कॉलेज अकेला कॉलेज था जिसमें कानून तोड़कर
छात्रसंघ का चुनाव हुआ और छात्रसंघ का सालाना जलसा भी हुआ जिसमें 'कौत्स की गुरु दक्षिणा' संस्कृत नाटक
का मंचन हुआ और मेरा अध्यक्षीय भाषण हुआ। परंपरा के अनुसार यह में मेरा पहला लिखित
संस्कृत भाषण था।
आपातकाल में ही माकपा नेता सव्यसाची से
संपर्क हुआ और आपातकाल के बाद उनके साथ पहलीबार होलीगेट पर तांगा स्टैंड पर सन्
1977 में नुक्कड़सभा में भाषण दिया। सव्यसाची का उन दिनों रिक्शा-तांगेवालों पर
गहरा असर था, इसलिए सुनने वालों में वे ही ज्यादा था, संयोग की बात थी मेरे पिता
ने मुझे भाषण देते देख लिया और उन्होंने मेरा भाषण सुना और चुपचाप गुस्से में घर
चले आए, मैं बाद में जब घर पहुँचा तो उन्होंने कम्युनिस्टों को जीभर कर गालियां
दीं, सव्यसाची को गालियां दीं, साथ भी मुझे पीटा भी और कहा कि तुम्हारा इतना पतन
होगा मैंने यह तो सोचा ही नहीं था ,तुम पंडित हो,शास्त्री हो, तुमको कथा कहनी
चाहिए, प्रवचन करना चाहिए, शास्त्रार्थ करना चाहिए, यह क्या
तांगेवालों-रिक्शावालों में भाषण देते घूम रहे हो, यह तुम्हारे सम्मान के अनुरुप
नहीं है अगलीबार यदि मैंने तुमको कम्युनिस्टों के साथ देखा तो डंडों से पीटूँगा।
लेकिन मैं लाचार था, मेरे दोस्त लगातार बढ़
रहे थे और सभी पर साम्यवाद का गहरा असर था और सभी अच्छे परिवारों से आते थे,धीरे
धीरे मेरे मंदिर पर आने वाले लोगों ने भी पिता से शिकायत की कि पंडितजी आपका बेटा
तो बिगड़ गया है, आज वहां बोलते देखा,फलां जगह भाषण दे रहा था। मैं भाषण देकर जब
भी लौटकर आता तो पिता पूछते तुम फलां जगह
भाषण देने गए थे आज, मैं सच बोल देता,बस,उसके बाद मेरी कसकर पिटाई होती, बाद में
मैंने सच बोलना बंद कर दिया, उसके बाद मेरे पिता जब भी पूछते थे मैं साफ कह देता
कि मैं भाषण देकर नहीं आ रहा,तो वे कहते कि फलां आदमी फिर तुम्हारा नाम क्यों ले
रहा था, मैं कहता वे लोग चिढ़ते हैं,इसलिए झूठी शिकायतें करते रहते हैं।
उस दौर के भाषण और आंदोलनकर्म की एक
दुर्घटनाबड़ी ही दिलचस्प है। किशोरी रमण गर्ल्स डिग्री कॉलेज में छात्राओं का
शानदार आंदोलन हुआ,तकरीबन 15दिन तक हड़ताल के कारण कॉलेज बंद रहा। एक दिन इस
आंदोलन के दौरान में चार सौ छात्राओं का जुलूस लेकर मथुरा के जिलाधीश के घर पर गया
था, जुलूस में मैं अकेला लड़का था ,बाकी चार सौ लड़कियां थीं, उन दिनों मैं मथुरा
में एसएफआई का जिलामंत्री था।यह वाकया सन् 1978 का है। उस समय डीएम एस.डी. बागला
थे। संयोग की बात थी गर्मी का दिन था हम सीधे उनके बंगले पर पहुँचे लेकिन वे बंगले पर नहीं
थे, लड़कियां भूखी- प्यासी थीं, पानी आदि की बंगले के बाहर कोई व्यवस्था नहीं थी।
मैंने चौकीदार से पानी देने को कहा उसने मना कर दिया, मैंने लड़कियों से कहा डीएम
के घर के अंदर जाओ और जबर्दस्ती पानी पीओ और जो मिले खा-पी लो, बाकी जो होगा मैं
देख लूँगा। मेरे बोलते ही 400लड़कियों ने बंगले के अंदर धावा बोल दिया और पूरा बंगला
हमारे कब्जे में था, आराम से खाया-पिया,डेढ़ घंटे बाद डीएम आए,बंगले का
अस्त-व्यस्त सीन देखकर घबड़ाए और बोले बंद करवा दूँगा ,लड़कियां बिफरी हुईं थीं और
इतनी लड़कियों को देखकर डीएम के होश उड़े हुए थे, मैंने कहा आपने यदि भूल से गलती
कि तो ये लड़कियां आपको पीटेंगी, डीएम शांत हो गए, उन्होंने हमारी मांगे ध्यान से
सुनीं और हमें कार्रवाई का आश्वासन देकर विदा किया। लेकिन डीएम ने मेरे पिता को
संदेशा भिजवा दिया कि पंडितजी अपने बेटे को संभालिए वरना हाथ से निकल जाएगा, एक
साथ इतनी लड़कियों के साथ उसका जुलूस में आना अच्छा लक्षण नहीं है। मैं शाम को घर
लौटा तो पिता ने पूछा कहां गए थे मैंने झूठ बोला कि कहीं नहीं कॉलेज से आ रहा हूँ,
बस फिर क्या था जमकर पिटाई हुई और कमरे में बंद कर दिया गया, (दिलचस्प बात यह थी
कि डीएम मेरे मंदिर पर हर रविवार आते थे, वे पिता और मुझे जानते थे। वे अंदर से
दुखी थे कि मैं कम्युनिस्ट क्यों हूँ !) लड़कियों का आंदोलन चरम था पर मैं घर में कैद था, पिता कहीं
बाहर जाने ही न दे रहे थे, बाहर सारे मित्र और कॉमरेड परेशान थे, कोई संपर्क नहीं
कर पा रहा था , खैर किसी तरह दो दिन बाद में पिता को यह वचन देकर बाहर निकला कि
किसी आंदोलन-जुलूस में नहीं जाऊँगा और कहीं पर भाषण नहीं दूँगा।कॉमरेडों से नहीं
मिलूँगा। लेकिन मैं क्या करूँ मैं अपनी आदत से लाचार था,बाहर भाषण देता था और घर
पर आए दिन पिता से पिटता था, सन् 1979 में जेएनयू जाने बाद ही पिता की पिटाई से
मुक्ति मिला।
पिता अपना धर्म निभा रहे थे और पुत्र अपना।
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