रविवार, 31 मई 2015

मथुरा के चार हजार चौबे

       
          जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने मथुरा के चौबों के बारे में लिखकर बहस का मुद्दा खड़ा कर दिया। काटजू ने क्या कहा यह तो मैं नहीं पढ़ पाया लेकिन हमारे पुराने मित्र गंगानाथ चतुर्वेदी के सुपुत्र माधव चतुर्वेदी ने आज फोन करके जब चौबों के बारे में बात की तो मैंने सोचा कि क्यों न इस पहलू को लिख ही देते हैं। उल्लेखनीय है माधव जब बात कर रहा था तो मैंने परिचय पूछा तो उसने पिता का नाम बताया तो मैंने कहा वे तो हमारे यजमान हैं और तुम भी,मुझे बेहद खुशी हुई कि मैं गंगानाथजी के बारे में तकरीबन 4दशक बाद बातें कर रहा था. वे मथुरा में आकाशवाणी पर अधिकारी थे, हमारे घर नियमित आना जाना था, सतीघाट पर नियमित गप्पें होती थीं।बाद में दिल्ली ट्रांसफर होकर चले गए, वे जिंदा हैं और स्वस्थ हैं,यह
मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात है। खैर गंगानाथ जी पर फिर कभी मौका लगा तो जरुर लिखूँगा।

मथुरा के चौबे देश में अन्यत्र रह रहे ब्राह्मणों जैसे नहीं हैं। उनके भिन्न होने के ऐतिहासिक और ऐतिहासिक परिस्थितियां रही हैं । मथुरा में चौबे कैसे और कब से हैं यह हम कभी बाद में विस्तार से विचार करेंगे। लेकिन कुछ सामान्य किंतु महत्वपूर्ण तथ्य हैं जिनको जानना बेहद जरुरी है।

पहला, चौबों की जीवनशैली समूहबद्ध समुदाय यानी आदिवासी शैली है। अपनी ही जाति में खान-पान-रोटी-बेटी के संबंध रखने की लंबे समय से परंपरा चली आ रही है। यह समूची जाति शाकाहारी है। अंदर से जातिगत एकता,पवित्रता और निजता को बचाए रखने की इसमें प्रवृत्ति रही है। ये अन्य ब्राह्मणों से भिन्न क्यों हैं इसके कई महत्वपूर्ण कारण हैं। पहला कारण यह है कि यह जाति सैंकड़ों सालों से राजतंत्र से जुड़ी रही है। मुगलों के पहले ,मुगलों के शासन में और उसके बाद भी राजशाही से इस जाति का गहरा संबंध रहा है। देश के अधिकांश राजा इस जाति के यजमान रहे हैं। यहां तक कि सभी मुगल शासकों के ये प्रोहित रहे हैं। इसके कारण इनके पास कभी तंत्र से विच्छिन्न होकर जीने या सामाजिक अलगाव में रहने की प्रवृत्ति नहीं रही है। इसके अलावा सैंकड़ों सालों से देश के अधिकांश भागों में लाखों गांवों में इनके यजमान फैले हुए हैं। हाल के दशकों में यजमानी प्रवृत्ति में गिरावट आई है,लेकिन आज से चालीस –पचास साल पहले तक स्थिति यह रही है कि देश के अधिकांश बाशिंदों में इनकी यजमानी रही है।

मथुरा के चौबे यजमानों से संपर्क-संबंध रखने के मामले में बड़े कुशल रहे हैं। जिन चौबों के यहां यजमानी रही है वे लोग साल में एकबार अपने यजमान के घर जरुर जाते थे और उससे सालाना दक्षिणा वसूल करते थे, खाने-पीने का सामान एकत्रित करते थे, इसके कारण इनके गांव-गांव सभी जाति के लोगों से गहरे आत्मीय संबंध रहे हैं। मैंने देखा है कि मेरे पिता और ताऊ को हजारों गांवों के हजारों लोगों के नाम पते याद रहते थे। मसलन्, हमारे यहां कन्नौज,एटा,इटावा,फर्रूखाबाद ,फतेहगढ़,छपरा,आजमगढ़,देवरिया, छपरा आदि जिलों की यजमानी थी। इसके अलावा कई रजबाड़े भी यजमान थे, जिनमें शिवाजी का परिवार,ग्वालियर ,जयपुर आदि के रजवाड़े प्रमुख हैं। हमारे पूर्वज इन जिलों में गांव-गांव जाकर दक्षिणा वसूली करते थे, इन इलाकों से सावन,भादों के महिने में सैंकड़ों लोग मथुरा तीर्थयात्रा पर आते थे और हमारे घर पर ही रहते थे, कोई भी मथुरा आता था तो उसे स्टेशन से पकड़कर घर ले जाते ,उसके रहने की व्यवस्था करते थे, उसके घूमने की व्यवस्था करते थे और उसके लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। मेरा निजी तौर पर बचपन यजमानों को मंदिरों के दर्शन कराने में बीता है। यजमान को उसकी सुविधा के अनुसार दान कराना, उसकी सुविधा से दक्षिणा लेना, पैसे खत्म हो जाएं तो पैसा उधार देना, बाद में एक साल बाद जब यजमान के घर जाते थे तो उससे वसूल करना,यह वह तरीका था जिसने मथुरा के चौबों को विलक्षण जनसंपर्क में कुशल बना दिया था।

चौबों के विभिन्न जाति के यजमान होते थे, उनमें दलित और गैर दलित सभी रंगत के लोग यजमान होते थे, अधिकतर यजमान औसत स्तर के होते थे अतः उनसे सामान्य सी दक्षिणा ही मिलती थी, सामान्य सी दक्षिणा में जब तक मन हो बिना भाड़ा दिए अपने गुरु के घर रहने का जो सुख और सुविधा यजमानों को मिलती थी उसको यजमान कभी भूलता नहीं था, यदि किसी यजमान के पैसे खत्म हो जाते या जेब कट जाती या चोरी हो जाती तो उसे उधार में रुपये भी देते थे और उसके लिए वे कोई ब्याज आदि नहीं लेते थे, कई बार यह पैसा डूब भी जाता था। इस समूची प्रक्रिया ने मथुरा के चौबों का अपने यजमान से विलक्षण आंतरिक संबंध बना दिया था। चौबों के मथुरा में चार हजार परिवार रहते हैं,इन दिनों हो सकता है यह संख्या कुछ बढ़ गयी हो, लेकिन आम कहावत थी मथुरा के चार हजार चौबे।

मथुरा के चार हजार चौबे निजी पारिवारिक जीवन में शुद्धतावादी रहे हैं । वे अपनी जाति के अलावा किसी और के यहां खाते नहीं थे, बाद में यह स्थिति बदल गयी। लेकिन कमोबेश इसने उनके शुद्धतावादी रुझानों को बनाए रखा। मसलन् , मथुरा के चौबों के शादी आदि मथुरा के ही चौबों में होते रहे हैं। आज भी अधिकांश लोग मथुरा में ही अपनी जाति में ही शादी करते हैं। आजादी के बाद चौबों में अंतर्जातीय विवाह की प्रवृत्ति पैदा हुई।

चौबों की आर्थिक स्थिति अन्य जातियों की तुलना में बेहतर रही है। सभी चौबों के पास निजी जायदाद-संपत्ति रही है। वे कभी किराए के मकान में नहीं रहते थे। दूसरी बात यह कि उनके पास सालाना आय का जरिया यजमानी वृत्ति थी। वे बहुत अच्छे जनगणना अधिकारी भी रहे हैं। यजमानों की समूची वंशावली को लिखकर संयोजित करके रखना और उसको समय-समय पर अपडेट करते रहना उनका काम रहा है। भारत के अधिकांश राजाओं से उनको संपति आदि बड़ी मात्रा में दान में मिली थी। जो हिन्दुत्ववादी मुगल शासकों को आए दिन गरियाते रहते हैं उनको जानकार आश्चर्य होगा कि मुगलों के प्रोहित भी मथुरा बड़े चौबेजी हुआ करते थे। आज भी उनके पास मुगल शासकों और उनके अधीन रियासतों के राजाओं के दानपत्र-मानपत्र आदि मौजूद हैं। महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक सभी के प्रोहित वे रहे हैं। इसलिए चौबों में विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं के साथ संवाद,विमर्श आदि की दीर्घकालिक परंपरा रही है। निजी संस्कृति और सामाजिक बहुलतावाद का ये लोग बेहतर ढ़ंग से सैंकड़ों सालों से सामंजस्य बिठाकर अपना विकास करते रहे हैं। इनमें कम्युनिकेटर के बेहतरीन गुण भी रहे हैं। संभवतः प्रोहिताई करने वाली यह अकेली ऐसी जाति है जिसके घर पर सभी जाति के यजमान आकर ठहरते रहे हैं। मथुरा में दान के जरिए निर्मित धर्मशालाओं का बहुत बड़ा नेटवर्क इनके पास है जिसमें मुफ्त में रहने की व्यवस्था लंबे समय से चली आरही है। कुछ में नाममात्र का भाड़ा लेकर रहने के लिए कमरे दिए जाते हैं। विभिन्न किस्म की जातियों के संपर्क-संबंध में रहने के बावजूद कैसे यह जाति अपनी शुद्धता बचाए रख पायी यही हमारे लिए विस्मय की बात है।

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