जगदीश्वर चतुर्वेदी
सुधा सिंह
मैकलुहान ने ग्लोबल विलेज की जब धारणा पेश की तो ज्यादातर विचारकों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया । आज सारी दुनिया में ग्लोबल विलेज की धारणा का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है। ग्लोबल विलेज अथवा भूमंडलीय गांव रुपक है। इसके जरिए परवर्ती पूंजीवादी विकास और तद्जनित मीडिया वातावरण और सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में मदद मिलती है। ग्लोबल विलेज में टीवी को आधार बनाकर धारणा पेश की गई थी, इसके अलावा मासकल्चर के विकास को भी इस धारणा को जोड़कर देखना चाहिए। ग्लोबल विलेज का निर्माण ग्लोबल मीडिया प्रसारण और ग्लोबल मासकल्चर के प्रसार के साथ जुड़ा हुआ है।
मैकलुहान ने लिखा '' आज,इलैक्ट्रिक तकनीक के आने के एक शताब्दी से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बाद हमने अपने केन्द्रीय नरवस सिस्टम को ग्लोबल के हवाले किया है, भूमंडल के संदर्भ में स्पेस और टाइम दोनों का लोप हो गया है।'' इस नजरिए से यदि बीसवीं शताब्दी को देखें तो एकदम भिन्ना नजारा दिखाई देगा। यही वह शताब्दी है जिसमें दो विश्वयुध्द हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ,विश्व बैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष,यूरोपीय यूनियन,नाटो जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ। यूरोपीय देशों की साझा मुद्रा का जन्म हुआ। उपग्रह तकनीकी का विकास हुआ और उपग्रह के जरिए सारी दुनिया में टीवी प्रसारण संभव हुआ। आधुनिकता और फिर उत्तार आधुनिकता का पथ ग्रहण किया।
सारी दुनिया को ग्लोबल विलेज के रुपक में बांधने का काम किया टीवी और उपग्रह ने। टीवी ने विश्व समुदाय को जन्म दिया,आज हमारे बीच में ज्यादा से ज्यादा बहुराष्ट्रीय चैनल आ रहे हैं। इंटरनेट ने इस प्रक्रिया को नई ऊचाईयां दीं। पहले हमारे पास परंपरागत टीवी था,जिसमें स्थानीय स्तर पर एक साथ कार्यक्रम का आनंद ले सकते थे,राष्ट्रीय अनुभूति में बंध सकते थे, किंतु सैटेलाइट के इस्तेमाल ने टीवी और सामाजिक संरचनाओं का स्वभाव ही बदल दिया। इसका मानवीय व्यवहार पर गहरा असर हुआ। आज संसार पहले की तुलना में एक-दूसरे से ज्यादा जुड़ा है। ग्लोबल विलेज का आधार है ग्लोबल संपर्क, ग्लोबल संवाद,ग्लोबल संस्कृति। ग्लोबल होने का यह अर्थ नहीं है कि स्थानीय वैशिष्ट्य खत्म हो जाएंगे,बल्कि इसका अर्थ यह है कि स्थानीय वैशिष्टय के लिए भी ग्लोबल आधार उपलब्ध रहेगा। स्थानीय भी ग्लोबल हो सकता है। ग्लोबल का अर्थ लोकल का लोप नहीं है,बल्कि ग्लोबल लोकल के बिना आधार ही नहीं बनाता, ग्लोबल का लोकल से बैर नहीं है, बल्कि लोकल के लिए नयी संभावनाएं पैदा करता है। इस अर्थ में ग्लोबल एक प्रगतिशील कदम है,प्रतिगामी कदम नहीं है।
ग्लोबल मीडिया के कारण लोकल लोगों में संवाद और संपर्क और भी मजबूत बनता है। ग्लोबल का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि लोकल ग्लोबल आर्थिक गतिविधि का हिस्सा बनता है, ग्लोबल आर्थिक संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथित करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकल आर्थिक गतिविधियों को खत्म कर देता है, बल्कि लोकल को भी ग्लोबल आधार देता है। इस क्रम में आर्थिक गतिविधि की राष्ट्रीय सीमाओं को खत्म कर देता है,सीमाहीन विकास, राष्ट्र की सीमा के परे जाकर विकास की नयी संभावनाओं के द्वार खोलता है। कोई देश ग्लोबल विलेज बनता है या नहीं यह सब कुछ स्थानीय राजनीतिक -आर्थिक संरचनाओं के ग्लोबल संरचनाओं के साथ अन्तर्ग्रथन पर निर्भर करता है। लोकल के ग्लोबल होने की पहली शर्त है सभी किस्म राष्ट्रीय बंधनों,सीमाओं और कानून में ग्लोबल आर्थिक या वित्ताीय संस्थानों के अनुकूल बुनियादी परिवर्तन। ग्लोबल विलेज के रुपक का मूलाधार है ग्लोबल संपर्क की संरचनाएं,ग्लोबल वित्ताीय संरचनाएं,ग्लोबल संचार प्रणाली। इसका आधार है सैटेलाइट, टीवी,इंटरनेट आदि के जरिए संपर्क,संबंध और संवाद। ग्लोबल का लक्ष्य है वर्चुअल समाज,वर्चुअल संस्कृति ,वर्चुअल आनंद,वर्चुअल इतिहास के जरिए सारी दुनिया के बीच नये संबंध ,संपर्क और संवाद का निर्माण।
ग्लोबल विलेज में आने या रहने अथवा इस रुपक को महसूस करने का अर्थ यह नहीं है कि भौतिक जगत में वैषम्य का लोप हो गया है,बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य,सामाजिक वैषम्य,राष्ट्रों के वैषम्य,संस्कृतियों के वैषम्य,जीवन की आधारभूत परिस्थितियों के बीच वैषम्य की प्रकृति को बदलता है, वैषम्य को बढ़ाता है, वैषम्य को छिपाता है। ग्लोबल विलेज का अर्थ यह नहीं है कि सारी दुनिया एक जैसी हो गयी है,एक ही गांव में रहती है, बल्कि ग्लोबल विलेज वैषम्य के सवाल को सम्बोधित ही नहीं करता। ग्लोबल विलेज एक सुंदर रुपक है ,यह सच को छिपाता है,सच को उद्धाटित भी करता है,काल और देश के भेद के बिना यह काम करता है। पहले वैषम्य स्थानीय था,अब वैषम्य ग्लोबल है। स्थानीय वैषम्य को ग्लोबल वैषम्य के परिप्रेक्ष्य में देखने का सिलसिला शुरू हो जाता है। ग्लोबल विलेज में यदि ग्लोबल उपभोग,ग्लोबल संवाद, ग्लोबल संचार के सवाल प्रमुख हैं तो ग्लोबल हिंसाचार,ग्लोबल वैषम्य,ग्लोबल लूट और उत्पीड़न के सवाल प्रमुख हैं।
ग्लोबल में कोई भी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक तत्व छिपा नहीं रहता,ग्लोबल विलेज में सबको सबकी खबर लेने,जानने का हक है,संभावनाएं हैं और हस्तक्षेप करने का अधिकार भी है। ग्लोबल हमें सीमाबध्दता,स्थानीयता,स्थानीयबोध और कूपमंडूकता से मुक्त करता है। इस अर्थ में यह सकारात्मक धारणा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो ग्लोबल नहीं है वह कूपमंडूक है, और जो ग्लोबल है वह अक्लमंद है। यह भी संभव है कि खान-पान में ग्लोबल हों,ज्ञान में लोकल हों। ज्ञान में ग्लोबल हों,जीवनशैली में लोकल हों। ग्लोबल में सब कुछ खुला है तो बहुत कुछ अनखुला भी है,उदार वातावरण है तो अनुदार वातावरण भी है , लोचदार समझ का समाज है तो कट्टरपंथी समाज भी है। कहने का अर्थ यह है ग्लोबल अन्तर्विरोधी है। मूलत: वर्चस्ववादी है, इसमें मुक्ति की क्षमता नहीं है। किंतु संपर्क की क्षमता,संवाद की अपार क्षमता जरूर है।
मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की धारणा दी थी तब वह दृश्य ,व्यक्तिवादी प्रिंट संस्कृति की समाप्ति को देख रहे थे, यही वजह है उन्होने '' इलैक्ट्रोनिक इंटरडिपेंडेंस'' की बात कही थी। यही वह दौर था जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने दृश्य संस्कृति के जरिए युगीन और वाचिक संस्कृति को अपदस्थ किया था। इलैक्ट्रोनिक युग में मनुष्य व्यक्तिवाद से निकलकर फ्रेगमेंटेशन या विखंडन के युग में दाखिल होता है। सामुदायिक अस्मिता के युग में दाखिल होता है। इसका आदिवासी चरित्र था। मैकलुहान ने ऐसी अवस्था में नए किस्म के सामाजिक संगठनों की बात कही। नया सामाजिक संगठन ग्लोबल विलेज के रूप में सामने आया। हम अलैक्जेंडरियन लाइब्रेरी की ओर जाने की बजाय कम्प्यूटर की ओर चले गए, इलैक्ट्रोनिक दिमाग की ओर चले गए,एक तरह से साइंस फिक्शन के प्रति पागल हो उठे। इस समूचे परिवर्तन को सही ढ़ंग से समझे बिना हम आतंककारी दर्द के शिकार हो गए। हम ऐसे जगत में आ गए जिसमें समग्रता में अन्तर्निर्भरता बनी रही। इसके ऊपर सह-अस्तित्व को आरोपित कर दिया गया।
वाचिक समाज में आतंक एक अनिवार्य और नार्मल तत्व है। इसमें प्रत्येक चीज प्रत्येक चीज को प्रभावित करती है। हमारी पश्चिमी मानसिकता यह मानने को तैयार ही नहीं थी कि हम जनजातीय चेतना से घिर चुके हैं। मैकलुहान ने जब ग्लोबल विलेज की बात कही थी तो उसका इशारा मीडियम के ज्ञानात्मक प्रभाव की ओर था। मैकलुहान का मानना था कि मीडिया के प्रभाव को लेकर हम यदि सतर्क नहीं होते तो ग्लोबल विलेज सर्वसत्ताावाद और आतंक के राज में तब्दील होने की क्षमता रखता है। मैकलुहान की यह बात अब तक के ग्लोबल यथार्थ में सच साबित हुई है। सन् 1980 के बाद से सारी दुनिया में आतंक,सर्वसत्ताावाद का एक नया उभार देख रहे हैं। खास किस्म की आदिमचेतना और आदिम मानसिकता का प्रसार देख रहे हैं।
मैकलुहान की बुनियादी धारणा थी तकनीकी को नैतिक नजरिए से मत देखो, यह उपकरण है और व्यक्ति का निर्माण करता है। यह समाज की आत्म-समझ (सेल्फ-कनसेप्शन) और अनुभूति की अभिव्यक्ति है। तकनीकी के आधार पर सोचने पर नैतिक समस्याएं भी आतीं हैं, नैतिक समस्याओं का आना स्वाभाविक है। प्रिंट या मुद्रण शब्द संस्कृति का चरमोत्कर्ष है। यह मनुष्य का गैर-जनजातीयकरण करती है।
मैकलुहान ने तकनीक और मनुष्य के अन्तस्संबंध को जोड़ते हुए एक नए किस्म के डिजिटल मानवतावाद की परिकल्पना पेश की है। जिसे आर्थर क्रोकर ने '' टैक्नोलॉजी एंड दि कनाडियन माइण्ड'' नामक कृति में विस्तार से विवेचित किया है। मैकलुहान के लेखन में मीडिया के प्रत्येक रुप का किस न किसी मानवीय गतिविधि के साथ जोड़कर विवेचन किया गया है। वह तकनीकी रुपों और मनुष्य के बीच के संबंध को निर्धारित संस्कृति के तर्कों के जरिए खोलता है। एक सुनिश्चित परिप्रेक्ष्य बनाता है। मसलन् मनुष्य की रीडिंग की आदत कलात्मक कल्पनाशीलता के लिहाज से सबवर्सिव गतिविधि है। निर्धारित या तयशुदा या नियमानुसार रीडिंग को अस्त-व्यस्त करने वाली गतिविधि है। तकनीकजनित संवेदनशीलता प्रतिवादी मसाला तैयार करती है,यह हमारी चेतना के सतही रुप को प्रभावित करती है और अंतर्निहित शांत नियमों को भी प्रभावित करती है। तकनीकजनित माहौल बंद होता है और प्रक्रिया में सम्पन्ना होता है।
तकनीकजनित माहौल का आप इसके बाहर रहकर बोध या समझ नहीं बना सकते। हम सिर्फ यही जान सकते हैं कि इलैक्ट्रोनिक युग में कैसे अनुभव को पैदा किया जाता है। सभी किस्म के मीडिया की भूमिका निष्पन्ना हो चुकी है, वह व्यक्तिगत,राजनीतिक, आर्थिक, सौंदर्यबोधीय,मनोवैज्ञानिक,नैतिक, नीतिगत, और सामाजिक परिणाम अभी तक स्पर्शविहीन हैं। अप्रभावित हैं। अपरिवर्तनीय हैं। माध्यम ही संदेश है,किसी भी किस्म की सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की समझ मीडिया के वातावरण की समझ के बिना असंभव है क्योंकि मीडिया एक तरह से वातावरण की तरह काम करता है। मैकलुहान के नजरिए का बुनियादी आधार है तकनीकी और बायोलॉजी का अंतस्संबंध। यही वजह है कि मैकलुहान ने लिखा '' मीडिया ...प्रकृति है।'' यही वजह है कि तकनीकी को मनुष्य के शरीर,संवेदनाओं ,सामाजिक और मनोवैज्ञानिक के विस्तार के रूप में विश्लेषित किया। मैकलुहान का मानना है '' अवचेतन के संवेदनाश्रयी रुप सामाजिक चेतना की शक्ल अख्तियार करते हैं।'' ''काउण्टर ब्लास्ट'' में मैकलुहान ने लिखा '' पर्यावरण या माहौल प्रक्रिया है, यह कंटेनर या बंद डिब्बा नहीं है।'' इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक तकनीक अपना प्रभाव आरोपित करती है,यह काम वह चुपचाप और प्रतिगामी ढ़ंग से करती है। उसके अन्तर्निहित अनुमान मनुष्य की मनोदशा में अनुभूति के अनुपात में दुबारा काम करते हैं। मैकलुहान के शब्दों में '' सभी मीडिया मानवीय फैकल्टी के मानसिक अथवा शारीरिक रुप का विस्तार है। मीडिया हमारे वातावरण को जब बदलता है,उलटता है तो हमारी देखने की अनुभूतियों में आनुपातिक परिवर्तन आता है। किसी भी किस्म की अनुभूति का विस्तार हमारे सोचने और व्यवहार के रवैयये को भी परिवर्तित करता है। दुनिया को देखने का हमारा नजरिया उसी अनुपात में तब्दील होता है जिस अनुपात में हमारी अनुभूति बदलती है। मनुष्य बदलता है।''
मैकलुहान के अनुसार मौजूदा संसार अग्रगामी संसार है। इसमें सहजजात-स्वर्तस्फूत्ता सूचना गतिविधियां चल रही हैं। हम पहले मनुष्य हैं जो तकनीकी संरचनाओं की मध्यस्थता से निर्मित वातावरण में जी रहे हैं। ऐसे में तकनीकी संरचना की 'अंतर्वस्तु' पूरी तरह अप्रासंगिक है। मीडिया की अंतर्वस्तु को एक-दूसरे मीडिया के संदर्भ में देखें तो पाएंगे कि वह उसकी सीमा का अतिक्रमण करके आगे जा रही है। नयी तकनीक की अंतर्वस्तु हमेशा तकनीक ही होती है,वह अतिक्रमण करती है,फिल्म का टीवी की अंतर्वस्तु,उपन्यास की अंतर्वस्तु फिल्म का अतिक्रमण कर जाती है। बल्कि यों कहें तो सटीक होगा कि हम यह भूल जाते हैं कि वातावरण में रह रहे हैं अथवा मीडियम में रह रहे हैं। नयी तकनीक की यही भूमिका है कि वह हमारा इस चीज की तरफ से ध्यान हटा देती है। जबकि इसी के आधार पर मानवीय योजनाएं बन रही हैं। मैकलुहान का मानना है ''नयी तकनीक हमारे विचार और अनुभूतियों को निर्मित कर रही है।'' इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो मैकलुहान के यहां टैकनोलॉजी ,बायोलॉजी का विस्तार है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया 'रूपक' या 'वातावरण' है। इस वातावरण की विशेषता है कि इसने हमारे केन्द्रीय स्नायु जगत (नरवस सिस्टम) को उद्धाटित कर दिया है। अब हम तकनीकीगत अनुकरण की प्रक्रिया से गुजरने लगे हैं। तकनीकी संस्कृति में सघन रूप से और नियमित हिस्सा ले रहे हैं। समग्रता में कहें तो मैकलुहान तकनीक को आंतरिक की बजाय बाहरी विस्तार के रूप में देखता है।
मैकलुहान का मानना है तकनीकी संस्कृति स्वयं का विस्तार है अथवा पुनरावृत्तिा है। '' दि गजट लवर'' नामक निबंध में मैकलुहान ने लिखा है जिस तरह मनुष्य जल में अपनी छाया देखकर आकर्षित होता है,अथवा आईने में स्वयं को देखकर आकर्षित होता है ,इसका अर्थ यह है कि वह स्वयं से अलग किसी अन्य तत्व को देखकर मोहित होता है। यह जादुई असर है तकनीक का। तकनीकजनित संवेदनात्मकता का जादुई असर होता है,इसे सिध्द करने के लिए हंसी,दुविधा,तुलनात्मक विवेचन,अमूर्तता आदि के जरिए समग्र प्रभाव को देखा जा सकता है।
मैकलुहान को इस बात का श्रेय जाता है उन्होने मीडिया का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया। अपने आरंभिक निबंध '' ए हिस्टोरिकल एप्रोच टु दि मीडिया'' (1955) में मैकलुहान ने लिखा - ''हमें असहाय अशिक्षितों की मदद करनी चाहिए।'' तकनीकी की दुनिया में पेसिव पीड़ित हैं,क्योंकि ''मीडिया स्वयं ही सीधे हमारी आंतरिक आत्म-चेतना को निर्मित कर रहा है।'' ऐसी अवस्था में हमें कलाकार का रवैयया अपनाना चाहिए। ''कलाकार का दिमाग हमेशा ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनाने की ओर रहता है। वह सामान्य संस्कृति में वैकल्पिक यथार्थ के उद्धाटन के संसाधन के रूप में काम करता है।'' मैकलुहान के अनुसार ''कलाकार को अन्वेषक और जासूस होना चाहिए।'' तकनीक के इतिहास से आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य ग्रहण करना चाहिए।
मैकलुहान अपने चिन्तन में बारोक कलाओं की कल्पनाशीलता के कायल थे,वहीं दूसरी ओर मीडियम के रूप में विश्लेषित करते हुए ''अनुभव की रणनीति'' निर्मित करने के लिए बारोक कला के अनुभवों को आधार बनाया,इसी के आधार पर मैकलुहान ने तकनीक के संदेश का मूल्यांकन किया। मैकलुहान का मानना है कि मीडियम का अनुभव को पुनर्निर्मित करने के लिए स्पेस को प्रक्रिया की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। साथ ही प्रतिवादी सामग्री को इसमें शामिल कर देने के लिए कलात्मक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। तकनीकी समाज में तर्क की सत्ताा की स्थापना के लिए सभ्यता को संरक्षित रखना होगा।
मैकलुहान के अनुसार मौजूदा युग उत्सुकता ख् ंदगपमजल, का युग है। पर्याप्त समझ के अभाव में अचानक उद्धाटन के कारण नयी सूचना व्यवस्था स्वत: अन्त:स्फोट कर रही है। 'माध्यम ही संदेश है' धारण के माध्यम से तकनीक के द्वारा मुक्ति की अनंत संभावनाओं और वर्चस्व की संभावनाएं पैदा की हैं। इस स्थिति में सबसे प्रभावी तकनीकी मानवतावाद ही है। उसके जरिए ही केन्द्रीय सांस्कृतिक प्रवृत्तिायों को संभाला जा सकता है। बीसवीं शताब्दी में तकनीकी अनुभव बताता है कि उसने वातावरण की भूमिका अदा की है,विकासमूलक सिध्दान्त का निर्माण किया है, हमारी दूसरी प्रकृति की भूमिका अदा की है। मैकलुहान के अनुसार
'' पर्यावरण पेसिव कवच नहीं है बल्कि इसकी सक्रिय प्रक्रियाएं पूरी तरह सक्रिय रहती हैं, अनुभूतियों पर उसका किस अनुपात में चुपचाप प्रभाव पड़ता है ,उसको देखना चाहिए। किंतु पर्यावरण अदृश्य रहता है। उसके आधारभूत नियम,प्रतिगामी संरचनाएं और समग्र पैटर्न सहज ही देख सकते हैं।'' कैथोलिक मान्यताओं की रोशनी में मैकलुहान तकनीकी अनुभवों की व्याख्या करते हुए विकल्प तलाश करते हैं। कैथोलिक मान्यता के अनुसार तर्क को व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए,तकनीक के अनुभवों को सभ्यता के निर्माण के काम में लगाया जाना चाहिए। यही वह बुनियादी बिंदु है जिस पर मैकलुहान अपनी प्रत्येक किताब में बार-बार लौटते हैं। इसी के आधार पर तकनीकी संस्कृति की व्याख्या पेश करते हैं।
मैकलुहान का मानना है तकनीकी समाज आधुनिक शताब्दी का धर्मनिरपेक्ष विमर्श तैयार कर रहा है। मीडिया विमर्श,तकनीकी विमर्श आदि का आधार है तर्क। इस युग में तर्क के ही आधार पर मूल्यांकन करते हैं। मैकलुहान की राजनीतिक समझ का आधार है तर्क के आधार पर निर्मित मानवता। मैकलुहान की राजनीति सभ्यता की हिमायत में खड़ी होती है। वे इसके आधार पर मीडिया की अतार्किकता का विरोध करते हैं। मैकलुहान विश्व दृष्टिकोण पर जोर देते हैं। उनकी विश्वदृष्टि का लक्ष्य है मीडिया की '' काव्यात्मक प्रक्रियाओं'' की खोज करना। इसके लिए जरूरी है कि मीडिया को ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए,विवेचित किया जाए। जिससे तकनीकी समाज के जादू का उद्धाटन किया जा सके, उसके अर्थ का उद्धाटन किया जा सके। मैकलुहान ने ''तकनीकी मानवतावाद'' की धारणा के विकास के लिए '' काव्यात्मक प्रक्रियाओं'' को ही आधार बनाया है। काव्यात्मक प्रक्रियाएं ही बाह्य जगत को हमारे अंदर मन में उतारती हैं। हमारी ज्ञानात्मक क्षमता का विकास होता है। मनुष्य अपने को नए रूप में अर्जित कर पाता है। काव्यात्मक प्रक्रिया के जादू को साधारण मानवीय नजरिए का हिस्सा बनाता है।
बौध्दिक रणनीति चुप रहने पर निर्भर नहीं करती,बल्कि यह वस्तु विशेष में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए उद्बुध्द करती है। हमें देखना होगा कि मीडिया की ज्ञानात्मक संरचनाएं किस तरह मानव अनुभवों को उभारती हैं,अभिव्यक्ति देती हैं,ऊँचाई प्रदान करती हैं। तकनीकी समाज जादुई समाज है। इस जादुई समाज को विश्लेषित करते समय मैकलुहान इस तथ्य पर विचार करता है कि किस अनुपात में तकनीकी समाज बोध (सेंसेज) को प्रभावित करता है।
मैकलुहान का मानना है मशीन की दुनिया में आदमी सिर्फ सेक्स ऑर्गन बनकर रह गया है। यह वैसे ही है जैसे हम पौधों की दुनिया में हों, इसमें हम नए रूप में अपना विकास नहीं कर सकते,मशीन की दुनिया आदमी के प्रेम को तेजी से शुभेच्छाओं और इच्छाओं में विस्तारित करती है, उसे संपदा कहकर यह सब किया जा रहा है।
मैकलुहान के नजरिए पर प्राचीनकालीन औषधी विज्ञान का भी गहरा असर था,इस प्रभाव की व्याख्या करते हुए ऑर्थर क्रोकर ने लिखा है कि मैकलुहान के नजरिए पर प्राचीन औषधि विज्ञान की पध्दति का गहरा असर था, औषधि विज्ञान की पध्दति के तीन सूत्रों को मीडिया के अध्ययन की पध्दति के रूप में लागू किया,प्राचीन औषधि के सूत्रों को लागू करते हुए मैकलुहान पहले लक्षण सुनिश्चित करता है,उनका वर्गीकरण करता है, 2. इलाज करता है, 3.समाधान या थैरपी करता है। मैकलुहान मीडिया में पहले लक्षणों का वर्गीकरण करता है,दूसरा सूत्र है समाधान खोजता है फिर उसे सहेजता है। मैकलुहान आपत्तिा पेश करता है, प्रत्युत्तार देता है, आपत्तिायों के उत्तार देता है। यह एक तरह से प्रयोगमूलक औषघिशास्त्र की पध्दति है।
मैकलुहान ऐतिहासिक अनुभव के साथ संवाद करता है,बहस करता है, गंभीरता के साथ पुनर्सृजित करता है। उसका सारा जोर इतिहासकार पर है। वह सांस्कृतिक इतिहासकार या डाक्टर के रूप में सामने आता है। मैकलुहान सांस्कृतिक इतिहासकार के नाते '' खोज और पुन: खोज'' करता है। तकनीकी अनुभवों को मानवीय परिप्रेक्ष्य में पेश करता है। मैकलुहान का मीडिया संबंधी मूल्यांकन जहां एक ओर मानवीय नजरिए की करीब से पड़ताल करता है वहीं दूसरी ओर मीडिया के प्रभावों के प्रति तटस्थ बनाता है। मीडिया के प्रभाववश साधारण आदमी को शॉक से भी गुजरना पड़ता है, परेशानियों से गुजरना पड़ता है। दबावों से बचने के लिए प्रतिवाद अथवा प्रतिरोध के रूप में तकनीकी के ही सुझाव दिए जाते हैं। जिससे कि संवेदनात्मक स्तर पर प्रतिरोध किया जा सके। ये तकनीकी विकल्प ऐसे समय में आते हैं जब हम पूरी तरह थक चुके होते हैं। मैकलुहान का मानना है कि मौजूदा शताब्दी पूरी तरह तकनीकी मीडिया के प्रभाव के प्रति अचेत है। मैकलुहान के शब्दों में '' नया मीडिया बड़े पैमाने पर बेबी पाउडर उड़ा रहा है,यह नए आदमी के ऊपर भी गिर रहा है,इसकी धूल हमारी आंखों में भी पड़ रही है।''
मैकलुहान ने तकनीकी खोज के बारे में मानवीय नजरिए से विचार किया,इस क्रम में वाचन से लेकर लेखन तक की यात्रा का मूल्यांकन किया, तकनीकी की मेडीकल समझ को पेश किया,तकनीकी का औषधिविज्ञान की पध्दति के आधार पर मूल्यांकन किया,हमारे अदृश्य वातावरण के अनेक गुप्त क्षेत्रों का उद्धाटन किया, इस क्रम में मौलिकता को सर्वोपरि स्थान दिया, अपना मौलिक चिन्तन पेश किया। इलैक्ट्रोनिक तकनीकी के अप्रत्यक्ष अनुमानों का उद्धाटन किया, तकनीकी के द्रोहकारी प्रभाव का उद्धाटन किया, इस क्रम में इलैक्ट्रोनिक युग की विशिष्ट चीजों को जिज्ञासा के रूप में पेश किया, इसे उसने कोड,भाषा और तकनीकी माध्यम के जरिए पेश किया ,ये ही हमारे रूपान्तरण,भावान्तरण की समस्त जादुई संपदा का आधार है। वह नए युग के नीचे जा रहे रूपों को टेलीविजन इमेजों के हिस्सेदार के नाते एक्सरे के जरिए सामने लाता है। मैकलुहान तकनीकी पर ऐतिहासिक नजरिए से विचार करते हुए उसकी तमाम खोजों का मूल्यांकन करता है, उसके दुष्प्रभाव के बारे में आगाह करता है,साथ ही उसके समानान्तर पैदा हो रहे प्रतिरोध का उद्धाटन करता है।
मैकलुहान के अनुसार फिल्म और टीवी ने मानवीय संवेदनाओं का पूरी तरह मशीनीकृत रूप पेश किया है, कम्प्यूटर ने मनुष्य के दिमाग को आत्मसात् करके अपना विकास किया है। तकनीकी खोज के प्रति उत्प्रेरित करने वाली शक्ति हमेशा रक्षात्मक और बायोलॉजिकल होती है। मीडिया की भूमिका के द्वारा हमारा नरवस सिस्टम प्रभावित होता है। इसी अर्थ में इलैक्ट्रोनिक युग ज्यादा खतरनाक है। यह हमें आत्महत्या की हद तक ले जा सकता है। आधुनिक समाज हमारे सार्वजनिक स्नायु तंत्र के साथ खेलता है। उसकी परिस्थितियों से खेलता है। मैकलुहान का प्रमुख अवदान यह है कि उसने सर्जनात्मक स्वतंत्रता को प्रमुख एजेण्डा बनाया, उसे सकारात्मक सार्वजनिक मूल्य बनाया, उसने व्यक्तिवाद पर नए सिरे से जोर दिया, व्यक्तिवाद को राजनीतिक समुदाय और सर्जनात्मकता इन दोनों के लिए आवश्यक माना। इसी के आधार पर तकनीकी अनुभवों को हासिल किया जा सकता है। मैकलुहान ने परंपरागत उदारतावादी विचारों को तकनीकी अनुभव और इतिहासलेखन में इस्तेमाल किया। परंपरागत उदारता के तर्क के आधार पर तार्किक सार्वभौम राजनीतिक समुदाय की व्याख्या पेश की, तर्क और तकनीकी के संबंध की व्याख्या को मानव मुक्ति तक विस्तार दिया।
मैकलुहान की मीडिया थ्योरी पर कैथोलिकपंथ का गहरा असर है। वह अपनी धार्मिक संवेदनाओं का मीडिया की व्याख्या के संदर्भ में इस्तेमाल करता है। इसी से उसकी बौध्दिक विद्वत्ताा प्रेरित है। उसकी प्रधान चिन्ता है आधुनिक शताब्दी में सर्जनात्मक स्वतंत्रता की कैसे रक्षा की जाय। तकनीकी के दबाव से सर्जनात्मक स्वतंत्रता पर ही सबसे ज्यादा दबाव पड़ रहा है। उसे बचाना ही केन्द्रीय लक्ष्य है। मैकलुहान ने लिखा व्यक्तिगत स्वतंत्रता,नागरिक संस्कृति आदि आज तकनीकी संस्कृति के सामने भिखारी बनकर रह गई है। इसी आधार पर मैकलुहान तकनीकी को चुनौती देता है और तकनीकी अनुभवों को मानव मुक्ति के बृहत्तार प्रयासों से जोड़कर देखता है।
मैकलुहान की केन्द्रीय कमजोरी है तकनीकी और अर्थशास्त्र के अन्तस्संबंध की अनदेखी। उसने संचार और परिवहन के बीच अन्तस्संबंध स्थापित किया, मसलन् चश्मा,साईकिल और रेडियो के साथ संबंध जोड़कर देखा। तकनीक हमारी संवेदना और व्यक्तित्व को प्रभावित करती है, व्यक्तित्व के जरिए सामाजिक संगठन प्रभावित होते हैं। उसने तकनीक को मनुष्य की संवेदना और इन्द्रियों के विस्तार के रूप में देखा। वह यह नहीं मानता कि विभिन्ना मीडिया रूप एक दूसरे को अपदस्थ करते हैं,बल्कि वह इनके बीच संबंध देखता था,साथ ही यह भी बल दिया कि प्रत्येक नया मीडिया समाज में नए परिवर्तन लेकर आता है। इसी अर्थ में वह अपने को तकनीकी की सामाजिक परिवर्तनकारी भूमिका को रेखांकित करता है। मैकलुहान की सबसे उत्तोजक धारणा थी कि शब्द के जरिए लिखने की तकनीक ,खासकर प्रिंट तकनीक ने मनुष्य के दिमाग को दृश्य प्रक्रियाओं को रेखीय क्रम में देखने के लिए प्रशिक्षित किया। रेखीय चिन्तन - डिटर्मिनेशन, केजुअल्टी , लॉजिक, डिटेचमेंट और विलम्बित विस्तार को सारी जिन्दगी लागू करते हैं। प्रिंट की रेखीयता सामाजिक नजरिए और विचारों का समाजीकरण करती है। खासकर एक ही दृष्टिकोण के (बहुआयामी नजरिए की बजाय) जरिए व्यक्तित्व का निर्माण होता है। एक ही नजरिए में आस्था, एक की बात मानो, एक ही परंपरा में विश्वास करो, एक ही धर्म में आस्था रखो,इत्यादि चीजें प्रिंट तकनीक के आने के बाद पैदा हुए रेखीय चिन्तन की देन हैं। इससे एकायामी व्यक्तित्व तैयार हुआ। नजरिए की एकायामिता मनुष्य के अंदर कला के प्रति परिप्रेक्ष्यगत सोच पैदा नहीं होने देती। औद्योगिक उत्पादन के लिए एसेम्बली लाइन और व्यापार के रेल लाइन,विज्ञान में सीधा सोचने की प्रक्रिया आदि को जन्म देती है।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया के आने के बाद इस तरह सोचने,देखने और काम करने का नजरिया पूरी तरह बदल जाता है। इसी अर्थ में मैकलुहान कहता है '' माध्यम ही संदेश है।'' वह कहता है कि माध्यम की अंतर्वस्तु पर ध्यान दो, उसकी तकनीक पर ध्यान मत दो। संदेश से उसका तात्पर्य है कि मीडिया बताता है कैसे सोचें। वह यह नहीं बताता कि क्या सोचें। एक अन्य जगह लिखा है मीडिया 'फिगर' यानी 'शरीर' है या 'ठोस शक्ल' है,वह वातावरण के 'ग्राउण्ड' यानी आधार को बदल देता है। मसलन् कम्प्यूटर को ही लें,वह ऑफिस के रूटिन को बदल देता है। लेखन के इतिहास को बदल देता है,काम का विकेन्द्रीकरण कर देता है।
मैकलुहान ने अपने जमाने में तकनीक के बदले हुए रूपों के बारे में तेजी से रोशनी डाली साथ ही यह भी बताने की कोशिश की कि तकनीक हमारे मन को ही नहीें हमारे हृदय को भी प्रभावित करती है,बदलती है। इस क्रम में मीडिया के हृदय और मन में कंट्रास्ट दिखाने की कोशिश की है। इसी कंट्रास्ट के आधार पर पहले वाचिक परंपरा,बाद में श्रव्य परंपरा,इसके बाद मीडिया के हृदय को खोला। मैकलुहान के नजरिए से प्रिंट ने व्यक्तिवादिता को पैदा किया, मौखिक शब्दों ने सामाजिकता,बहुलता,खिलंदड भाव,पीढियों की पक्षधरता पैदा की, जबकि प्रिंट ने विशेषज्ञता, वर्गीकृत सूचना, ध्वन्यात्मक अनुभव में जीने वाले मनुष्य के समानान्तर अनुभव संसार को पैदा किया। यह ऐसा मनुष्य है तो क्रमश: महसूस नहीं करता था,उस समय प्रतिस्पर्धा नहीं थी, एक ही फ्रेम में सोचने वालों में प्रतिस्पर्धा नहीं थी। वाचिक शब्द के युग में जीने वालों का पीढ़ियों के साथ कम्युनिकेशन था,धर्म और परंपरा के साथ कम्युनिकेशन था। एक ही शब्द में कहें तो टाइम के साथ संवाद था। जबकि प्रिंट ने कम्युनिकेशन को स्पेस में ठेल दिया, और इसके कारण ही राष्ट्र और साम्राज्य का विकास हुआ।
मैकलुहान ने मीडिया का 'हॉट' और 'कूल' के रूप में वर्गीकरण किया है, इस वर्गीकरण का मीडिया की भिन्नाता से गहरा संबंध है। मीडिया के खुलेपन और अस्पष्टता के साथ गहरा संबंध है। इसी तत्व को मैकलुहान ऑडिएंस की सक्रिय हिस्सेदारी तक विस्तार दे देता है। सघन और असंबंधित अनुकरण,ऑडिएंस की कम से कम शिरकत ,जिसे प्रेस ने वर्गीकृत किया, रेडियो ने कायारहित विस्तार दिया, यही वजह है कि वह 'हॉट' है,क्योंकि उसकी तकनीक की एकक केन्द्रित मानसिकता(सिंगल माइण्डनेस) है। जबकि भाषण और टेलीविजन ''कूल'' हैं,तकनीकी के अर्थ में। मैकलुहान कहता है टीवी दर्शक को अवचेतन में टीवी की डॉट या बिंदुओं से अपने को जोड़ना पड़ता है जिससे वह पिक्चर को पूरा देख सके। फलत: वह ज्यादा शिरकत करता है। टीवी मनुष्य की बहुआयामी संवेदनाओं को सम्बोधित करता है। वह ज्यादा शिरकत कराता है। इसी तरह भाषण की बहुआयामी छाप ऑडिएंस की शिरकत को बढ़ा देती है। भाषण में हाव-भाव, मंशा, शारीरिक मुद्राएं आदि के कारण श्रोता की शिरकत बढ़ जाती है। टीवी का आना,एक तरह से वाचिक परंपरा की संस्कृति का पुनरागमन है। इसी अर्थ में रेडियो 'हॉट' मीडियम है, जबकि टीवी 'कूल' मीडियम है।
मैकलुहान के यहां 'हॉट' और 'कूल' मीडिया का फर्क इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें यूजर की कितनी शिरकत जरूरी है। कूल मीडियम में मसलन् कार्टून में हमें बहुत कम सूचना मिलती है। वह दर्शक को खाली छोड़ देता है, दर्शक के पास कुछ भी नहीं होता,जबकि आपको हिस्सेदारी के लिए अंतर्वस्तु की जरूरत होती है जिसके आधार पर आप शिरकत करते हैं। यही वजह है कार्टून में दर्शक को खाली (ब्लैंक) जगह भरनी होती है। दूसरी ओर फोटोग्राफ हॉट मीडियम है , इसमें दर्शक की कम शिरकत होती है,इसे पूरा करने में रीडर के नजरिए की जरूरत होती है। चूंकि हॉट मीडियम में शिरकत कम होती है अत: कूल मीडियम की तुलना में आप इससे कम सीखते हैं, कम शिरकत करते हैं।आप सेमीनार से ज्यादा सीखते हैं, क्योंकि वह कोल्ड मीडियम है,क्योंकि उसमें शिरकत ज्यादा होती है। जबकि लेक्चर से सेमीनार की तुलना में कम सीखते हैं क्योंकि उसमें शिरकत कम होती है। इसीलिए लेक्चर को हॉट मीडियम कहा गया है।
इस वर्गीकरण में 'शिरकत' वाला तत्व प्रधान है। किसी भी मीडियम का अनुभव नयी किस्म की शिरकत का माहौल बनाता है। वह हमारे पहले के मीडिया अनुभव को ठेलता है,नए अनुभव में शामिल होते ही पुराना अनुभव अपदस्थ होना शुरू हो जाता है। अथवा सेंसर कर देते हैं। सेंसर की अवस्था में हमारे मूल्य और व्यवस्था बची रहती हैं, उनका संरक्षण होता रहता है। यह स्थिति नयी तकनीकी लागू होती है । नयी तकनीक के आने के समय सीखने की बजाय लोगों को ठंडा रखने की कोशिश की जाती है। रेडियो को जब लागू किया गया तब समाज को उसने गैर-जनजातीय भावना में बांधा, जबकि टीवी ने जनजातीय भावना में बांधा। बिजली और टीवी ने संरचनाओं को सघन शिरकत के कारण पुन: स्थापित किया। नयी तकनीकी का ज्ञानात्मक संवेदना और समाज पर व्यापक असर पड़ा, प्रिंट तकनीक ने हमारी दृश्य आदतें बदलीं, दृश्य अनुभवों को एकरूप बनाया। सामाजिक संपर्क में इजाफा किया। उसने ऐसी मानसिकता तैयार की जो विशेषज्ञता की धारणा का प्रतिरोध करती थी, आधुनिक समाज के अनेक साइलेंट ट्रेड पैदा किए,जिन्हें हम पूंजीवाद, जनतंत्र, राष्ट्रवाद आदि के नाम से जानते हैं।
हमारा समाज जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया के युग में दाखिल हुआ तो उसने हमारी बहुआयामी संवेदनशीलता को जन्म दिया। बहुआयामी शिरकत को जन्म दिया। हमारे समाज, समुदाय, राष्ट्र,भूमंडल आदि में क्या हो रहा है उसके बारे में ज्यादा बेहतर ढ़ंग से जानने लगे। स्वयं के बारे में भी समझ बनायी ,स्वयं के बारे में जागरूकता पैदा की। अन्य लोगों के बारे में भी जागरूकता पैदा की। यही वह बिंदु है जहां पर मैकलुहान 'ग्लोबल विलेज' की धारणा लेकर आते हैं। इसी संदर्भ में मैकलुहान ने प्रिंट कल्चर के निहितस्वार्थीपन के कंट्रास्ट में इलैक्ट्रोनिक कल्चर के जनजातीयबोध को पेश किया है। यही वह धारणा है जहां मैकलुहान स्वयं अपनी ध्वन्यात्मक संस्कृति के बारे में निर्मित धारण्ााओं के खिलाफ चले जाते हैं और बताते हैं कि ध्वनि,हृदय,समानान्तरता,बहुआयामी नजरिया आदि अपना ख्याल स्वयं रखने लगते हैं। मसलन् दृश्य संस्कृति आत्म का विकास सामूहिकता की कीमत पर करती है। इसी तरह 'अंतर्वस्तु' के बारे में मैकलुहान का मानना था प्रत्येक माध्यम अन्य माध्यम के लिए अंतर्वस्तु प्रदान करता है। मसलन् सिनेमा की अंतर्वस्तु उपन्यास से आयी, फोनोग्राफ रिकॉर्ड को रेडियो ने अंतर्वस्तु प्रदान की,टीवी को अंतर्वस्तु फिल्म ने दी,इस तरह से देखें तो प्रत्येक मीडिया अपने सौंदर्य का विस्तार करता गया, महानगरीय टेलीविजन ने पुराने पश्चिमी सौंदर्य का विकास किया,सैटेलाइट के जरिए जब हम चन्द्रमा से पृथ्वी को देखते हैं पृथ्वी अपूर्व सुंदर लगती है।
मैकलुहान के नजरिए पर हेरोल्ड एन्नाीस, ममफोर्ड, आई.ए. रिचर्डस,एफ.आर.लीविस , हॉपकिंस,यीट्स, टी.एस. इलियट का गहरा असर था,साथ ही कैथोलिक संस्कारों ने भी अपनी छाप छोड़ी। हॉपकिंस,यीटस आदि के प्रभाववश ही मैकलुहान ने वाचिक परंपरा और दृश्य परंपरा में अंतर करने की कला सीखी, 'आलोचनात्मक तर्क' की धारणा का मीडिया के तकनीकी रूपों की व्याख्या के लिए इस्तेमाल किया। दृश्य संस्कृति का मूल्यांकन किया। पर्सुएशन और शब्द की शक्ति की धारण्ाा के आधार पर ध्वन्यात्मक मीडिया का मूल्यांकन किया, ये तीनों ही पध्दतिगत विशेषताएं मैकलुहान के नजरिए में अन्तर्गृथित हैं। एफ.आर.लीविस के नजरिए का उल्लंघन करके मैकलुहान ने पापुलर कल्चर के बारे में अपनी राय व्यक्त की और बताया कि कैसे पापुलर कल्चर व्यक्ति को मुक्त करती है।
मैकलुहान को जनप्रियता दिलाई उसकी पापुलर कल्चर संबंधी मान्यताओं ने, उसने बताया कि कैसे मनुष्य का मशीनीकरण हो चुका है,मनुष्य के मशीनीकरण के उद्धाटन ने जनप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया। मैकलुहान ने बताया कैसे विज्ञापनों के जरिए प्रतीकात्मक संसार रचा जा रहा है और नयी संस्कृति पैदा हो रही है। टीवी ने प्रिंट युग की विदाई कर दी है। यही वह बिंदु था जिसके आधार पर खड़े होकर मैकलुहान सारी दुनिया में चर्चित हो उठा। मैकलुहान ने टीवी के आधार पर ग्लोबल विलेज की धारणा दी। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से राष्ट्र-राज्य का क्षय आरंभ होता है। मैकलुहान ने कहा लोग एकबार फिर सारी दुनिया के ज्ञाता बन सकेंगे। टीवी को देखने के कारण ही लोगों में बहुस्तरीय परिप्रेक्ष्य भी पैदा हुआ। इसने विश्व समुदाय की भावना पैदा की। विश्व समुदाय की भावना, बहुआयामी और बहुस्तरीय परिप्रेक्ष्य का टीवी के समानान्तर देखने की प्रक्रिया के साथ गहरा संबंध है। इसके कारण बहुआयामी अनुभूतियों और संवेदनाओं का भी निर्माण हुआ। इससे मनुष्य और भी ज्यादा शक्तिशाली बना,यही ग्लोबल विलेज का आधार है।
टीवी युग में दर्शक अपने को कम से कम अपराधी मानता है,कम से कम गिल्टी महसूस करता है। खासकर टीवी देखने पर समय खर्च करने के मामले में। इसके कारण मासमीडिया के मालिक और कार्यक्रम निर्माता के ऊपर हमारी आलोचना का बिंदु खिसक जाता है। अंतर्वस्तु के प्रभाव के लिए हम उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं। अंतर्वस्तु के प्रभाव की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की बजाय उसके ऊपर थोप देते हैं। यह सवाल भी पैदा हुआ कि क्या सही है और क्या गलत है ? अकादमिक जगत के लिए मैकलुहान ने सभी विज्ञानों की रानी के रूप में कम्युनिकेशन को स्थापित कर दिया। तकनीकी के रूप में मीडिया ज्ञानात्मक चेतना,व्यक्तित्व और सामाजिक संगठनों को ज्यादा प्रभावित करता है। मैकलुहान अपने समूचे लेखन में यह संदेश नहीं देना चाहते कि मीडिया को समझो। जैसा उनकी एक किताब के '' अण्डरस्टैंडिंग मीडिया'' से लगता है। बल्कि मैकलुहान बताता है कि सांस्कृतिक इतिहास और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में कैसे मीडिया वर्चस्व बना रहा है ,उसे समझो। मैकलुहान ने विस्तार के साथ मीडिया के दुरूपयोग की क्षमता का भी खुलासा किया।
मैकलुहान ने ग्लोबल विलेज की धारणा का निर्माण टेलीविजन को केन्द्र में रखकर किया था। सवाल उठता है ग्लोबल विलेज की धारणा को कैसे अर्जित करता है। टीवी के साथ शिरकत करने से दर्शक की स्थिति कैसे बदलती है ?अथवा दर्शक की शिरकत से समाज कैसे बदलता है ? अंतरालों को भरने के लिए किस तरह की शिरकत जरूरी है ?
मैकलुहान का मानना था टीवी कूल है, प्रिंट हॉट है। हॉट अतीत है,कूल भविष्य है।टीवी को जब मैकलुहान ने हॉट कहा था तो उनका आशय ध्वन्यात्मक था। अर्थात् हमारे आधुनिक पश्चिमी समाजों का निर्माण ,भारत का भी निर्माण्ा प्रेस के युग में हुआ है। यह वह युग था था जिसमें शब्द की महत्ताा थी, शब्द ने ही सारे संसार में बगावत का बिगुल बजाया। यह अब अतीत का हिस्सा है। आज का युग शब्दों की गर्मी का है, शब्दों की ध्वनि का है। ये ऐसी ध्वनियां हैं जो अर्थहीन हैं। ऐसे शब्द हैं जो अर्थहीन हैं, अर्थहीन ध्वनियों के साथ अन्तर्क्रियाएं कर रहे हैं। इसी अर्थ में मैकलुहान ने टीवी को हॉट कहा था, टीवी का जन्म वाचिक परंपरा के क्रम में हुआ ,हॉट विजुअल समाज शब्दों की लिखित दुनिया के पहले की वाचिक परंपरा, यानी ध्वनि परंपरा के आधार पर हुआ था, ध्वन्यात्मक भाषाएं हॉट हुआ करती थीं, इन्हें हॉट इसलिए कहते हैं क्योंकि ध्वन्यात्मकता एक ही अर्थ में अपना विस्तार करती है,एक ही सेंस में अपना विस्तार करती है। विजुअल का मूल गुण ही यही है कि वह अन्य को बहिष्कृत करता है, उसे शामिल नहीं करता। इसमें शिरकत कम होती है। शिरकत कम इसलिए होती है कि इसमें जो सूचनाएं दी जाती हैं वे एक ही दिशा पर केन्द्रित होती हैं। दृश्यबोध का विस्तार रेखीय रूप में विचारों को निर्मित करता है।
गुटेनवर्ग की खोजों के बाद विजुअल समाज का तकनीकी पुनरावृत्तिायों के जरिए विस्तार किया जाता है। इसी के परिणामस्वरूप प्रिंट बुक रेखीयता को सघन बनाती है। सुनिश्चित परिप्रेक्ष्य बनाती है। निश्चित नजरिया बनाती है। यही वह बिंदु है जहां से मैकलुहान बताते हैं कि अब स्पेस विजुअल के रूप में सामने आता है। यह यूनीफार्म और निरंतरता बनाए रखते हुए सामने आता है। यह रेखीयता पर आधारित मशीन तकनीक का विस्तार है,उस पर किया गया हमला है,जो निरंतर केन्द्र और हाशिए के संबंधों को विस्तार देता है। गुटेनवर्ग का विकास मूलत: सभी किस्म की तकनीकी खोजों का वैनगार्ड है। अग्रणी दस्ता है। इसी तरह तकनीकी खोजों के जरिए हम शरीर के रेखीय विस्तार को अभिव्यक्ति देते हैं। अघोषित लक्ष्यों को सुसंगत रूप में अभिव्यक्ति देते हैं। इस क्रम में सुसंगतता, पुनरावृत्तिा, पृथक्करण और विशिष्ट भूमिका को वह अदा करता है।
मैकलुहान ने लिखा '' सामाजिक तौर पर मनुष्य का टाइपोग्राफिक विस्तार राष्ट्रवाद, औद्योगिकीकरण , मास मार्केट और सार्वभौम साक्षरता और शिक्षा'' को लेकर आता है। किंतु विशिष्ट तौर पर विजुअल पर जोर का अर्थ है मानवीय संवेदनाओं के साथ पूरी तरह असम्बध्दता। पश्चिमी दुनिया के व्यक्ति ने जगत में बगैर शामिल हुए उपलब्धियां हासिल की हैं। मैकलुहान कहता है '' यह संभव है कि बगैर बोले भूमिका अदा की जाए।'' मैकलुहान के शब्दों में '' इलैक्ट्रिक टैक्नोलॉजी में अन्तर्विरोध हैं।'' यह भविष्य है। इसके कारण हमारा समग्र विकास का रूप पूरी तरह बदल चुका है।
मैकलुहान का मानना था ''मनुष्य मशीनीजगत का कामांग है।'' इसका अर्थ यह है कि नयी तकनीकी का विकास अनिवार्यत: अबाधित ढ़ंग से व्यक्ति और समाज के व्यवहार और चिन्तन को बदलता है। इस परिवर्तन को लाने के लिए वह किसी की अनुमति हासिल नहीं करता। इस तरह के परिवर्तन अन्त:स्फोट (इमप्लोजन) को जन्म देते हैं विस्फोट (एक्सप्लोजन) को नहीं। यह जगत स्वयं पर ही टिका है। सारा भूमंडल इलैक्ट्रिक तारों की व्यवस्था के जरिए जुड़ा है। ये तार ही हैं जो ं रक्त संचार करते हैं। फलत: सारा भूमंडल सिमटकर एक छोटा समुदाय बन गया है। यह ऐसा समुदाय है जिसे इसमें शामिल सभी चीजों का ज्ञान है। अन्तस्फोट के कारण ही इस विश्व के एक हिस्से में रहने वाले लोग दूसरे हिस्से के लोगों के साथ जुड़ रहे हैं। एक-दूसरे के भाई-बहन बन रहे हैं। जगत चूंकि छोटा हो चुका है अत: इसने समय को खत्म कर दिया है। आज दुनिया में समय की प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। आज समय के कारण किसी को रोका नहीं जा सकता। सारा विश्व नींद से जाग चुका है। उसने अपने सारे कदम उठा लिए हैं। टाइम और स्पेस समयरहित और स्थानरहित हो गए हैं। ग्लोबल विलेज वाचिक युग की एकाकी चेतना पर आधारित है। इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति प्रतिबध्द है । मनुष्यता हमारी त्वचा की तरह है। समाज अब आदिवासी युग की ओर लौट रहा है। आदमी के व्यवहार में अब आदिवासी जगत की चीजें साफतौर पर दिखाई देनी चाहिए।
ग्लोबल विलेज की धारणा को साकार करने में टेलीविजन की केन्द्रीय भूमिका थी, टेलीविजन इलैक्ट्रोनिक तरक्की का मानक है। कम्प्यूटर तकनीकी अभी भी नयी है और उसका व्यापक प्रसार नहीं हुआ है, इसकी तुलना में टेलीविजन ज्यादा लोगों के पास है। आज जो कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं वे पहले कभी एकबार जरूर टीवी खरीद चुके हैं। मैकलुहान का मानना है कि ग्लोबल विलेज का लक्ष्य हासिल करने में टीवी की केन्द्रीय भूमिका है। मैकलुहान ने 'ग्लोबल विलेज' का विचार जोसुआ मिरोविटज,इरविंग गुफमैन और एडवर्ड हाल के विचारों के आधार पर निर्मित किया था। टीवी का प्रथम कार्य था टीवी देखना और उसके साथ अन्त:वैयक्तिक संपर्क बनाना, और उसके अनुभवों के आधार पर टीवी की तरफ ध्यान लगाए रखना।
मैकलुहान का मानना है पुरानी मशीनी तकनीक दृश्य रेखीयता पर आधारित है। यह कायिक और सामाजिक तौर पर स्थिर है। जबकि इलैक्ट्रोनिक तकनीकी अन्तस्संबंध, आवयविक संबंध और समग्रता में ग्लोबल विलेज बनाता है। टेलीविजन तकनीक अंतत: आदर्श तकनीक के रूप में बुनियादी और स्थायी तौर पर अवस्था को बदलती है और हमारे व्यवहार को भी बदलती है। मीडिया सिध्दान्तकार जोसुआ मिरोविट्ज ने ''नो सेंस ऑफ प्लेस: दि इम्पेक्ट ऑफ इलैक्ट्रोनिक मीडिया ऑन सोशल विहेवियर'' (1985) नामक ग्रंथ में लिखा '' सूचना व्यवस्था को रूप की बजाय कायिक अवस्था के रूप में देखें तो पाएंगे कि समाज में सामाजिक अवस्थाओं का निर्माण ,रूपान्तरण अथवा परिवर्तन बगैर किसी किस्म की दीवारों को गिराए भी हो सकता है अथवा बगैर संस्कारों को बदले और उससे जुड़े नियमों को बदले भी हो सकता है। संचार के नए माध्यम के रूपों का इस्तेमाल व्यापक परिस्थितियों का निर्माण करता है। इसके लिए नए किस्म की सामाजिक भूमिका की जरूरत है। '' अवस्था की परिभाषा अथवा उसका निर्धारण कायिक और स्थान आधारित अवस्था के आधार पर किया जाना चाहिए। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं यह सवाल करना चाहिए कि यह क्या हो रहा है ? इस सवाल का जबाव अवस्था को परिभाषित करने के बाद ही दिया जा सकता है। यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप किस तरह अवस्था को परिभाषित करते हैं ? अन्तर-वैयक्तिक संपर्कों को किस तरह समझते हैं ?
प्रत्येक मर्तबा परिस्थितियां बदल जाती हैं अत: व्यक्ति को भी अपना नजरिया बदलना होता है। नजरिए (फ्रेम) के कारण ही चीजें सरल और जल्दी समझ में आती हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक तौर पर उपयोगी नजर आती हैं। फ्रेम का चयन ही उचित नियमों के चयन में मदद करता है। प्रत्येक व्यक्ति का फ्रेम अलग होता है,परिस्थितियों की व्याख्या भी अलग होती है। प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति को नया फ्रेम मिलता है और तदनुसार वह अपना नजरिया बनाता है। टीवी आने बाद समाज को असंख्य नए फ्रेम और अवस्थाएं मिली हैं, वह उनका मनमाने ढ़ंग से अनुकरण कर सकता है। एक माध्यम के तौर पर टीवी हमारी कायिक और स्पेस आधारित कमियां जो प्रिंटयुग में तैयार की गई थीं, उन कमियों को खत्म कर देता है। टीवी के अनुभव के लिए लिए प्रत्यक्ष अनुभव जरूरी है,इस प्रत्यक्ष अनुभव के लिए उस स्थान पर जाना जरूरी नहीं है।
आज हम उन स्थानों के बारे में देख,सुन सकते हैं जहां हम जा नहीं पाते हैं। हम माने या न माने मिरोविट्ज कहता है टीवी देखना वस्तुत प्रथम कोटि के अनुभव के समान ही लगता है। यह स्पष्ट है कि टेलीविजन ने व्यापक तौर पर किसी भी सामाजिक अनुभव में कायिक उपस्थिति को बदल दिया है, टेलीविजन का वैशिष्ट्य है कि वह व्यक्ति के व्यवहार में इस तथ्य को संप्रेषित कर देता है कि उसका व्यवहार विशिष्ट है और अथवा व्यक्ति का व्यवहार विशिष्ट होता है। खासकर परिस्थितियों के संदर्भ में भिन्ना होता है। यही वजह है परिस्थितियों के साथ जब व्यवहार को रखकर देखता है तो समय और स्पेस के अनुसार भिन्ना रूप में देखता है। व्यक्ति के व्यवहार की इसी भिन्नाता को वह ज्यादा व्यापक पैमाने पर पेश करता है।
टीवी में परिस्थितियों के संदर्भ में व्यक्ति को परिभाषित करने का काम बार-बार होता है। मसलन् एक शिक्षक को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है किंतु टीवी में वही शिक्षक बार-बार कक्षा के बाहर ही नजर आता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को ज्ञान के प्रतीक के रूप में स्वीकार करने में असुविधा होती है। शिक्षक का कक्षा के बाहर एक 'रेगूलर' व्यक्ति के रूप में दिखाई देना ,यह दरशाता है कि इस व्यक्ति का अस्तित्व तो है किंतु इसके पास क्षमता नहीं है। क्योंकि शिक्षक की क्षमता का आधार कक्षा है। इस तरह की प्रस्तुतियां परंपरागत सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती हैं। टेलीविजन में यथार्थ और काल्पनिक दोनों ही किस्म की प्रस्तुतियां होती हैं। जिनके कारण कायिक और सामाजिक स्पेस की बाधाएं खत्म हो जाती हैं। इस तरह की प्रस्तुति से चार किस्म की स्थितियां पैदा होती हैं-
1. टेलीविजन से प्रसारित अंतर्वस्तु सबके पास एक ही रूप में पहुँचती है अत: वह सभी ग्रुपों में इकसारता पैदा करती है।
2. टीवी कार्यक्रमों में परिस्थितिगत चित्रण पेश किया जाता है।
3. कार्यक्रम की अंतर्वस्तु नयी सूचना के शामिल होते ही बदल जाती है।
4.प्रिंट मीडिया इलैक्ट्रोनिक मीडिया को मानक बनाने के लिए मजबूर करता है। इन मानकों के आधार पर ही टीवी की अंतर्वस्तु और रूप का निर्णय लिया जाता है।
मेरीविट्ज के अनुसार '' टीवी सिर्फ व्यवहार और नजरिए को ही प्रभावित नहीं करता अपितु सामान्यतौर पर कौन सा व्यवहार आत्मसात करें ,इसे भी तय करता है। खासकर ऐसी स्थिति में जब दर्शक के सामने एकाधिक व्यवहार प्रदर्शित किए जा रहे हों। इस तरह टीवी व्यक्ति कैसे व्यवहार करे ,सिर्फ इस बात को ही प्रभावित नहीं करता बल्कि लोग वैसा ही व्यवहार क्यों करें इसे भी प्रभावित करता है।
सामान्यतौर पर टीवी के बारे में बातें करते समय उसकी अंतर्वस्तु की समीक्षा करने लगते हैं और उसके आधार पर निर्णय करते हैं। इस तरह की पध्दति की सीमाएं हैं। इस पध्दति से टीवी समझ में नहीं आता। टीवी एक कूल मीडियम होने के नाते दर्शक को बांधे रखता है, उसकी शिरकत को बढ़ाता है। दर्शक के नाते वह अंतर्वस्तु का निष्क्रिय ग्रहणकत्तर्ाा होता है। ऐसा अनेक स्कॉलरों का मानना है। इस तरह की सोच वाले यह मानते हैं कि टीवी की अंतर्वस्तु दर्शक को प्रभावित करती है, टीवी नहीं। यही वह बुनियादी समस्या है जिसे समझने की जरूरत है। मासमीडिया का आदमी बुनियादी तौर पर दर्शक होता है। वह इमेज ग्रहण करता है,ध्वनि ग्रहण करता है, मुद्रित सामग्री ग्रहण करता है। वह मासमीडिया के सीमित दायरे में परिभाषित स्वीकृति के दायरे में ही तय करता है, इसके बावजूद वह मात्र ग्रहणकत्तर्ाा है। इस धारणा की मैकलुहान ने गंभीर आलोचना की है। मैकलुहान का मानना है इस तरह की आलोचना परंपरागत शिक्षित की आलोचना है। वे टीवी के दर्शक को भी निष्क्रिय ग्रहणकत्तर्ाा मानकर चल रहे हैं, जबकि टीवी का दर्शक ऐसा नहीं होता।
टीवी सभी माध्यमों से भिन्ना है,उनसे ऊपर है, वह ऑडिएंस से रचनात्मक शिरकत की मांग करता है। दर्शक इसलिए शिरकत कर पाता है क्योंकि यह कूल मीडियम है। इस मीडियम की कूलनेस ही शिरकत को संभव बनाती है। इसमें कार्यक्रम की अंतर्वस्तु अप्रासंगिक है। क्योंकि परिभाषा के लिहाज से टीवी नीचे आता है किंतु शिरकत के लिहाज से सबसे ऊपर आता है। टीवी पिक्चर असंख्य बिंदुओं का समूह है। इसमें से चंद बिंदु ही हैं जो इमेज को बनाते हैं। फलत: यह दर्शक के लिए बहुत कम डाटा देता है। कम से कम डाटा के अभाव में दर्शक विवरणों में खो जाता है। यदि इमेज में सुधार आ जाएगा तो यह माध्यम कुछ और बन सकता है। संभवत: हॉट मीडियम हो जाए जैसे फिल्म। इसके बावजूद टीवी ने तरक्की की है, आज टीवी वह नहीं है ,जो उसे होना चाहिए था। आज उसकी पिक्चर टयूब विश्रृंखलित बिंदुओं का अंश नहीं है, बल्कि इसमें परिवर्तन आया है। आज टीवी में हायर रिजोल्यूशन दिखाई देता है। आज हाई डेफीनेशन टीवी व्यापक तौर पर उपलब्ध है। इसके कारण परिभाषा बदल रही है। इसके बावजूद टीवी अभी भी कूल मीडियम है। मैकलुहान के अनुसार परिभाषित दर्शक की रचनात्मक शिरकत वाली परिभाषा आज भी लागू की जा सकती है। आज दर्शक के सामने दृश्य मीडिया के अनेक विकल्प हैं उनमें से दर्शक कुछ भी चुन सकता है। इसके लिए भी सक्रिय रचनात्मक शिरकत की जरूरत होगी। वह किस मीडियम को चुने या अस्वीकार करे।
टीवी के प्रभाव के बारे में अनेक किस्म के नजरिए प्रचलन में हैं। मसलन् बच्चों पर टीवी का यह प्रभाव होता है कि वे अपने शरीर के गठन को बदलने पर लग जाते हैं। वे अपने शरीर की सकारात्मक इमेज बनाते हैं। समाज के मानकों का प्रदर्शन करने लगते हैं। सेक्स रोल व्यवहार को प्रदर्शित करते हैं। ये वे बच्चे हैं जो स्वतंत्रता के प्रतिनिधि हैं। यह सब कुछ तब ही संभव है जब दर्शक सक्रिय रचनात्मक नजरिए से शिरकत करे। मीडिया के द्वारा प्रचारित प्रतीकों का इतना व्यापक इस्तेमाल होने लगता है कि वे सामाजिक रूढ़ि के रूप में दिखाई देने लगते हैं। इसी अर्थ में कम्युनिकेशन परा-सामाजिक होता है। एक-दूसरे के बीच संपर्कों पर जोर देता है। यही वह बिंदु है जहां हमें मैकलुहान सही नजर आते हैं। यही वह बिंदु है जहां से सक्रिय ऑडिएंस को देखा जा सकता है। सक्रिय उपभोक्ता वह है जो इस्तेमाल करता है, विस्तार देता है। मसलन् टीवी के कार्यक्रम यह बताते हैं कि अच्छी बीबी कैसे बनें। बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। अपने प्रेमी से कैसे व्यवहार करें। इस तरह की बातों को बताने वाले धारावाहिकों को दर्शक काल्पनिक कहानी के रूप में नहीं बल्कि सत्य कहानी के रूप में देखते हैं।
दर्शक जितना सक्रिय होता है टीवी प्रभाव का विस्तार भी उतना ही ज्यादा होता है। सक्रिय दर्शक की भावनात्मक शिरकत भी ज्यादा होती है। हिस्सेदारी के चक्कर में वह अंतर्निहित चरित्रों पर निर्भर होने लगता है। अन्य माध्यमों की तुलना में टीवी की विशेषता है कि इसको पढ़ने या समझने के लिए किसी भी तरह के कोड को डिकोड करने की जरूरत नहीं पढ़ती, जबकि अन्य माध्यमों में ऐसा करना पड़ता है। मैकलुहान कहता है टीवी का अनुभव सभी हासिल कर सकते हैं और प्रत्येक का अनुभव अन्य के अनुभव से ज्यादा ही होता है। अन्य की समझ से ज्यादा समझता है। मैकलुहान का कहना है टीवी के अनुभव से ज्यादा महत्वपूर्ण है समझ। समझ से ही व्यवहार प्रभावित होता है, अनुभव से नहीं। खासकर मीडिया और तकनीकी के सामूहिक विषयों के संदर्भ में व्यक्ति इसके प्रभावों को लेकर एकदम अनभिज्ञ रहता है। प्रिंट से विपरीत टीवी देखने का कोई क्रम नहीं है। दर्शक कुछ भी देख सकता है, किसी भी क्रम से देख सकता है। नयी बदली हुई परिस्थितियों पर मैकलुहान ने लिखा '' आज कम्प्यूटर स्वर्त:स्फूत्ता भाव से किसी भी कोड या भाषा का अन्य किसी कोड या भाषा में स्वर्त:स्फूत्ता रूपान्तरण कर सकता है। संक्षेप में कम्प्यूटर तकनीकी के उस आधार पर खड़ा है जहां तकनीकी की संभावित क्षमताएं सामने आ रही हैं ,जिनके आधार पर सार्वभौम समझ और एकता को बनाए रख सकते हैं। इस प्रक्रिया का अगला तार्किक कदम यही होगा कि रूपान्तरण अथवा अनुवाद न करें बल्कि भाषा का सामान्य कॉस्मिक सचेतनता के पक्ष में उल्लंघन करें। '' यह बात भविष्य के संदर्भ में उपयोगी है। आज भी भाषा लोगों में अंतर स्थापित करने का बड़ा आधार है।
मैकलुहान का मानना है '' आप मेरे विचारों को पसंद नहीं भी कर सकते हैं ? किंतु मुझे तो अन्य चाहने वाले मिल रहे हैं! '' यही वह लक्ष्य था जिसने मैकलुहान को सक्रिय किया। सामान्यतौर पर यह समझ है कि मैकलुहान के विचारों को कम्प्यूटर और तद्जनित संचार माध्यमों पर लागू नहीं किया जा सकता। किंतु यह सच नहीं है,मैकलुहान ने मीडिया की जिस स्प्रिट को पकड़ा है उसने सारा मामला ही अलग दिशा में ठेल दिया है। मैकलुहान की धारणा की रोशनी में अब माध्यम विशेषज्ञ कम्प्यूटर को भी मीडिया कहने लगे हैं। कुछ अर्सा पहले तक कम्प्यूटर को सूचना तकनीक के रूप में देखा जा रहा था, किंतु कम्प्यूटर भी मीडिया के दायरे में आ गया है। पहले यह समझ थी कि कम्प्यूटर का लिखने से संबंध है। आरंभ में वह टेलीफोन से जुड़ा नहीं था,किंतु जब से कम्प्यूटर को टेलीफोन से जोड़ दिया गया, कम्प्यूटर की प्रकृति बदल गयी, अब कम्प्यूटर अभिव्यक्ति का माध्यम है। पहले कम्प्यूटर किताब लिखने का माध्यम था, आज संस्कृति का माध्यम है। जिस तरह टीवी के विकास के कारण रेखीय क्रम से सोचने की पध्दति की विदाई हुई है यह इस बात का संकेत है कि अब हम प्रिंट संस्कृति के युग के बाहर आ चुके हैं, प्रिंट संस्कृति ने रेखीय क्रम में सोचने की पध्दति का विकास किया और उसका हमें काफी लाभ भी मिला, किंतु रेखीय क्रम में सोचने की पध्दति की विदाई का श्रेय टीवी को जाता है। रेखीय क्रम में सोचने की परंपरा काफी पुरानी है, सैंकड़ों साल पुरानी परंपरा को प्रिंट संस्कृति ने आत्मसात् किया और उसका यह सुपरिणाम निकला कि ज्ञान के क्षेत्र में हमने लंबी छलांग लगायी। क्रमबध्द पंक्तियों में लिखने और सोचने की प्रिंट संस्कृति को इलैक्ट्रोनिक सूचना ने खत्म किया, इलैक्ट्रोनिक सूचना का स्रोत कम्प्यूटर है साथ ही टीवी भी है। इन दोनों में ही '' डिसकनेक्टेड एंड डिसऑर्गनाईज'' का तत्व प्रमुख है।
परंपरा के नजरिए से देखें तो वाचिक संस्कृति को प्रिंट संस्कृति में रूपान्तरित किया गया, प्रिंट संस्कृति को अब इलैक्ट्रोनिक संस्कृति में रूपान्तरित किया जा रहा है। इस क्रम में हमारा समूचा सोचने का तरीका ही बदल गया है। मैकलुहान ने लिखा '' इलैक्ट्रोनिक शिरकत की गति निजी और सार्वजनिक दोनों ही स्तरों पर जागरूकता पैदा कर रही है। हम आज सूचना और संचार के युग में रह रहे हैं। इसमें इलैक्ट्रोनिक मीडिया स्वत:र् स्फूत्ता और निरंतर ऐसी घटनाएं पैदा कर रहे हैं जिसमें सभी लोग शिरकत कर सकें। यह प्रक्रिया किसी भी घटना को समग्र संपर्क के क्षेत्र में ले आती है।'' इलैक्ट्रोनिक मीडिया ''विखंडन' और '' सहिष्णु' इन दोनों ही तत्वों को पैदा कर रहा है। मैकलुहान का संबंध विखंडन से रहा है। मैकलुहान ने प्रिंट मीडिया और मशीनयुग को विखंडन से जोड़ा है। जबकि टीवी ने अपनी तेज गति के कारण एक ही घटना को साथ ही साथ उच्चगति से सभी स्थानों पर पहुँचा दिया है। टेलीविजन लोगों को घटना के सागर में डुबो देता है। टीवी में हजारों कहानियां चलती रहती हैं, ये सारी कहानियां टुकड़ों में फैली होती हैं। दूरी के कारण हम इनकी पृथकता का अंदाजा नहीं लगा पाते। टुकड़ों में बंटे संचार को टीवी हमारे मन में सामंजस्य के साथ उतार देता है,इसी वजह से यह विश्वास पैदा होता है कि चीजें एक-दूसरे से जुड़ी हैं। वे कैसे जुड़ी हैं ? इसके कारणों की हमने कभी खोज ही नहीं की। हमने उस कनेक्शन के बारे में कभी वक्तव्य तैयार नहीं किया। अनेक विचारक मानते हैं कि टीवी यह काम तब भी करता है जब कार्यक्रम बदलता है।