शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

मुक्तिबोध और फेसबुक

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लाभ-लोभ से प्रेरित समझदारी ने मौजूदा संकट पैदा किया है। इस संकट को हम राजनीति से लेकर साहित्य तक सुरसा की तरह विराटरूप में देख रहे हैं। लाभ-लोभ से प्रेरित समझदारी के आप जितने गुलाम होते जाएंगे आप उतने टुच्चे,कमीने,भ्रष्ट और ओछे होते चले जाएंगे।

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भीड़ और जुलूस में शामिल होने का अर्थ है आंतरिक व्यक्तित्व का संहार। जिन लोगों ने जुलूस को महान बनाया वे सोचें कि जुलूस महान कर्म है तो भीड़ का हमला भी महानता का डंका बजाएगा।

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जो फटेहाल है,सामान्य है, उसे मान्यता देने के लिए कोई हिन्दीवाला विद्वान तैयार नहीं है। वे रावण की दासता स्वीकार करने की नेक सलाह देते हैं। वे समझदारी को पागलपन कहते हैं। व्यवहारवादी को दुनियादार कहते हैं। यदि उनके गुट में है तो समझदार है, और अन्य के गुट में हैं या किसी गुट में नहीं हैं तो बेबकूफ है,घटिया है,बोगस है। इस तरह की मनोदशावाले हिन्दीवाले वस्तुतःनैतिक और दैहिक तौर पर मृतवत् हैं। उनके यहां नैतिकता का अर्थ सौदेबाजी और अवसरवादिता है।

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गधे को काका कहो। शैतान से समझौता करो। बड़ों की हाँ में हाँ मिलाओ ।यह बुर्जुर्गों ने सिखाया। सारी प्रगतिशीलता इस बीमारी से ग्रस्त है।

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भ्रष्टाचार,अवसरवादिता और अनाचार वस्तुतःबुजुर्गों की देन हैं.यही बुनियादी कारण युवाओं की बुर्जुर्गों के प्रति कोई आस्था नहीं बची है।

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कोर्स के लिए गेसपेपर लेखन वेश्यावृत्ति है।

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हिंदी के शिक्षितों और खासकर लेखक-बुद्धिजीवियों की यह बीमारी है कि ये अपनों से ऐंठना और अपनों की उपेक्षा करना जानते हैं।वे अपनों को गले पड़ी चीज समझते हैं।

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इस दौर में धुन का पक्का होना जरूरी है,इसके बिना आप कुछ भी नया रच नहीं सकते और नहीं नया सोच सकते हैं। यह दौर मनुष्य को उसकी धुन से वंचित करके बोरा बनाने में लगा है। जो धुन हो वो करो।

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हिंदी की चरणस्पर्श संस्कृति की विशेषता है जब एकबार इसके चक्कर में फंसे तो फिर इससे बाहर कभी नहीं निकल सकते।

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हिन्दीवाले की मनोदशा पर जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में सही लिखा था-

' सब मत्त लालसा घूँट पिये '.

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महिला के ये रूप बड़े खतरनाक हैं- डॉन,(अनुसूया,म.प्र. की शराब डॉन और संतोषी), महिला डकैत, अधिनायकवादी राजनेत्री।

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हिन्दी के प्रोफेसरों ने आत्म-श्रेयवाद और प्रतिष्ठावाद के नाम पर सारे नियम तोड़े हैं और साहित्यिक भ्रष्टाचार फैलाया है। वह अपने सुख की आराधना को साहित्य का महाधर्म मानता है। बल्कि यह साहित्य का भ्रष्टाचार है।

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कोलकाता में बंगाली बच्चे सीधे चरण छूते हैं और लड़कियां खासतौर पर बड़े कायदे से सचमुच में चरणों को स्पर्श करके माथे से लगाती हैं।यह सारा खेल निस्वार्थ भाव से करती हैं। लेकिन हिन्दीवाला चरणस्पर्श नहीं करता घुटना स्पर्श करता है ,झुकता है लेकिन चरणों तक नहीं जाता। बड़ा चतुर है हिंदीवाला !!

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हिन्दी का प्रोफेसर चरण छुओ संस्कृति को निजी परिस्थितियों को सुधारने का वैध उपाय मानता है। इसे वह चारित्रिक संकट नहीं ,बल्कि समझदारी कहता है।

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सुबह फोन करके कई हिंदी प्रोफेसर गरिया चुके हैं। कह रहे हैं तुम बड़े बुरे हो । पेशे के कौशल का मखौल उड़ाते हो। मैंने कहा मैं जब पढ़ाता हूँ तब तक मास्टर हूँ ,बाद में नागरिक हूँ। मैं 24 घंटे प्रोफेसरभाव में नहीं रहता। वे बोले हम तो सारी जिंदगी प्रोफेसरभाव में रहते हैं। मैंने कहा आप धन्य हैं और महान हैं ! मैं तो सारी जिंदगी नागरिकभाव में रहना चाहता हूँ।

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हिंदी के प्रोफेसर में ज्ञान और कर्म के अनुष्ठान में विश्वास नहीं है। वह तिकड़मबाजी को कर्म और ज्ञान मानता है।

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मैं हिंदी का प्रोफेसर हूँ लेकिन चरण स्पर्श के अनुपम सुख से वंचित हूँ। मेरे पास सबकुछ है लेकिन नौकरी दिलाने का हुनर नहीं है। मित्र लोग कहते हैं नौकरी लेनी है तो जगदीश्वर के पास मत जाओ। यानी नौकरी दिलाने वाले शिक्षक अलग और पढ़ानेवाले अलग। मैंने दिल्ली में मित्रों से पूछा बोले हमारे यहां भी यह परंपरा है और मजबूत परंपरा है। जब दिल्ली-कलकत्ते में यह हाल है तो बनारस-प्रयाग-मुंबई में भी चरणस्पर्श की बयार जरूर बह रही होगी। काश! हिन्दीवाले के चरण न होते !!नौकरियां न होतीं !!

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हिन्दी शिक्षकों में चरणस्पर्श और चरणरज की महिमा अपरम्पार है। जो काम नियम,तर्क और ज्ञान से नहीं होता वह यहां चरणरज के स्पर्श से हो जाता है। चरणस्पर्श करो और मनवांछित फल पाओ।

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पुराने लोग कहते हैं गायदर्शन से पुण्य मिलता है लेकिन भैंस दर्शन होने पर क्या गाँठ का पुण्य भी चला जाता है ?

( उपरोक्त विचारों के प्रेक मुक्तिबोध हैं) 

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