कोलकाता पुस्तकमेला में साहित्यिक पत्रिकाओं का सबसे बड़ा पंडाल
होता है और उसमें अनेक लेखक अपनी पत्रिकाएं लिए बैठे रहते हैं। कुछ मेले में
बिक्री करते भी नजर आते हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं के स्टॉल देखने लायक होते हैं।
जिस पुस्तकमेले में साहित्यिक पत्रिकाओं का वैभव दिखता है वहां पर साहित्यप्रेम की
जड़ें गहरी होती हैं।
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कोलकाता बुकफेयर में देश के बड़े लेखक और विचारक जितनी बड़ी तादाद में भाग लेते हैं और तरह -तरह के विषयों पर भाषण देते हैं वह अपने आप में विलक्षण अनुभव है यह अन्यत्र दुर्लभ है। इस मेले का आयोजन राज्य सरकार की मदद से प्रकाशक गिल्ड करता है।
कोलकाता बुकफेयर में देश के बड़े लेखक और विचारक जितनी बड़ी तादाद में भाग लेते हैं और तरह -तरह के विषयों पर भाषण देते हैं वह अपने आप में विलक्षण अनुभव है यह अन्यत्र दुर्लभ है। इस मेले का आयोजन राज्य सरकार की मदद से प्रकाशक गिल्ड करता है।
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कोलकाता पुस्तकमेला में रविवार-शनिवार को इतनी भीड़ होती है कि
आपको लोगों से सटकर चलना-निकलना होता है। औसतन 7-8लाख आते हैं। 15दिन तक चलने वाले मेले में कुल मिलाकर 35-40लाख लोग आएंगे।
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मुंबई में दौलत है और लाखों शिक्षितजन हैं। दिल्ली में पैसा है,शोहरत है,सत्ताकेन्द्र हैं,मध्यवर्गीय लेखकों की हेकड़ी
है ,लेकिन बुकफेयर में भीड़ नहीं
है। कोलकाता में न सत्ता है,न शोहरत है, न पैसा है,किताबें ही किताबें हैं और
लाखों की भीड़ है। किताबों के खरीददार हैं। मुंबई,दिल्ली,मद्रास आदि किसी भी शहर में
बुकफेयर में लोग सपरिवार बुकफेयर नहीं जाते लेकिन कोलकाता में सपरिवार बुकफेयर
जाने का रिवाज है।
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जयपुर साहित्य मेले को टीवीवालों ने जिस तरह से प्रायोजित कवरेज के
जरिए उछाला और साहित्य के नाम पर नॉनसेंस का प्रचार किया,जयपुर मेले की जनता की शिरकत
को जिस तरह सनसनीखेज ढ़ंग से पेश किया उसे देखकर यही आभास मिलता है टीवीवालों ने
साहित्यमेले देखे नहीं हैं।
कोलकाता पुस्तकमेला वास्तव अर्थ में पुस्तकमेला है। यहां सालाना
मेले में 20करोड़ का कारोबार होता है और
इसमें बहुत बड़ा हिस्सा निजी खरीद का है। इस मेले में किसी भी किस्म का कारपोरेट
प्रायोजन नहीं है। यहां कोई पांचसितारा लॉन,हॉल और पण्डाल नहीं है,कोई टीवी पर सनसनीखेज कवरेज नहीं है लेकिन स्थानीयस्तर पर आम जनता
की शिरकत मन को मुग्ध कर लेती है।
कोलकाता बुकफेयर में बड़ी तादाद में बूढ़े मर्द और औरतों को देख
पाएंगे। ये वे लोग हैं जो बुद्धिजीवी हैं या पढ़ने के शौकीन हैं। जयपुर -दिल्ली
बुकफेयर या साहित्यमेले में बूढ़े नहीं दिखते। किताबें हैं लेकिन बूढ़े नहीं हैं,यह चिन्ता की बात है। पुरानी
किताब और पुराना पाठक समाज की शक्ति हैं।
हर मध्यवर्गीय बंगाली के घर में बच्चे को बुकफेयर के लिए अलग से
पैसे हर साल दिए जाते हैं। बुकफेयर उनके सालाना-दैनन्दिन बजट का वैसे ही हिस्सा है
जैसे वे अन्य चीजों पर खर्च करते हैं। काश ,बाकी महानगरों के शिक्षितलोग कुछ कोलकातावासी बंगालियों से यह सीख
पाते !
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कोलकाता
बुकफेयर का सबसे दुखदपक्ष है हिन्दीभाषियों की कम से कम शिरकत। यह शहर मारवाडियों
से भरा पड़ा है। इनलोगों की सैंकड़ों संस्थाएं हैं। भारतीय भाषा परिषद जैसी
शक्तिशाली संस्था है लेकिन इस संस्था का कोलकाता बुकफेयर में एक स्टॉल तक नहीं है।
हिन्दी की पत्रिकाएं कहीं पर भी नजर नहीं आतीं। गिनती की तीन-चार हिन्दी किताबों
की दुकान हैं। हिन्दीक्षेत्र के प्रकाशक यहां आते नहीं,कोलकाता में रहने वाले हिन्दीभाषी
बुकफेयर जाते नहीं।जबकि कोलकाता में 50 लाख से ज्यादा हिन्दीभाषी लोग रहते
हैं। कोलकाता के बाजार पर इनका एकाधिकार है। सारा बिजनेस नियंत्रित करते हैं।
एक
ही शहर में रहने वाले मध्यवर्गीय बंगाली परिवारों और हिन्दीभाषी मध्यवर्गीय
परिवारों में बुकफेयर को लेकर अंतर साफ देख सकते हैं। बंगाली बुकफेयर जाता है
हिन्दीभाषी नहीं जाता। हिन्दीभाषियों की कमाने-खाने और सोने की आदत ने बुककल्चर को
यहां के हिन्दीभाषियों में विकसित नहीं होने दिया।
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कोलकाता
बुकफेयर का कोलकाता के हिन्दी लेखकों,हिन्दी के कॉलेज-विश्वविद्यालय
शिक्षकों आदि पर न्यूनतम असर है। इनमें से अधिकांश लोग किताबें नहीं खरीदते और
किताबें नहीं पढ़ते। वे हिन्दी में हांकते बहुत हैं। कोलकाता के हिन्दी के तथाकथित
लेखक -शिक्षक आपको किताब खरीदने के लिए प्रेरित नहीं करेंगे। यदि आप किताब खरीद
रहे हैं या किताब पर बात करना चाहते हैं तो हतोत्साहित जरूर करेंगे।
मसलन्
आपने काशीनाथ सिंह की कोई किताब खरीदी और पूछा कि यह किताब कैसी है तो हिन्दी
शिक्षक कहेगा अरे यार ,यह क्या है, मेरी तो कल ही काशीजी से एक घंटा बात हुई थी। पाठक भौंचक्का रह जाता
है कि कमाल के लोग हैं ये ,मेरे किताब खरीदने और इनके 1घंटा काशीनाथ से बात करने के बीच में
क्या रिश्ता है ?
कहने
का आशय यह कि कोलकाता के हिन्दी के शिक्षकों-लेखकों ने किताब पढ़ने-पढ़ाने और लेखक
पर बात करने की संस्कृति को विकसित ही नहीं किया। इसके विपरीत बंगाली शिक्षक-लेखक
यह सब नहीं कहता।
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कोलकाता
बुकफेयर ज्ञानसमुद्र है। यहां सनसनी नहीं बिकती। यहां किताबें बिकती हैं।
जयपुरमेले पर जो संपादक और मीडिया महर्षि वाह-वाह और आह-आह कर रहे थे वे सोचें कि
कोलकाता बुकफेयर में सलमान रूशदी को रोका गया ,मीडिया में खबर बनी और बात खत्म हो
गयी। साहित्य में सनसनी नहीं होती।
यहां
रोज लेखक एक से बढ़कर एक बेहतर बातें कहते हैं लोग सुनते हैं,मीडिया में रिपोर्ट होती हैं,लेकिन वे सनसनी नहीं बन पातीं।
अमर्त्यसेन से लेकर गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक तक विश्वविख्यात लेखक आए ,अपनी बात कही और चले गए।असल में
साहित्य एक कम्युनिकेशन है। वह कलह, सनसनी, पुलिस,थाना,मुकदमा नहीं है। जयपुरमेले ने साहित्य
को साहित्य नहीं रहने दिया ,उसने साहित्य की मान-मर्यादा भ्रष्ट की है।
कुछ
तो कोलकाता बुकफेयर से सीख सकते हैं मीडियावाले !!
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हिन्दी
में जो लोग कहते हैं नवजागरण हो गया या हुआ था वे सही नहीं कहते। पुस्तक संस्कृति
विकसित किए बिना नवजागरण नहीं होता। हिन्दी में सबकुछ है लेकिन पुस्तक संस्कृति
नहीं है।
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हिन्दी
लेखक दिल्ली में लाला की दुकान की शोभा बढ़ाते हैं ,किताबें नहीं खरीदते । यहां कोलकाता में बुकफेयर में लेखक मिलेगा
लेकिन लाला की दुकान पर शोभा बढ़ाते नहीं ,बल्कि किताबें खरीदते हुए मिलेगा,पाठकों से बात करते मिलेगा,पाठकों को आशीर्वाद देते मिलेगा।
एकबार
बुकफेयर में मैं महाश्वेता देवी से बातें कर रहा था देखा एक लड़की आई और उसने पैर
छुए और उसकी माँ ने कहा आप लेखिका हैं,इसे आशीर्वाद दीजिए, इसकी
हाल ही में शादी हुई है,यह आपका आशीर्वाद लेने बुकफेयर आई है।
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